चूंकि भगवान विष्णु ने कार्तिक महीने में शुक्ल पक्ष के चौदहवें दिन सुदर्शन चक्र प्राप्त किया था, इसलिये बैकुंठ चतुर्दशी का उत्सव यहां बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है। यही वह दिन है जब संतानहीन माता-पिता एक जलते दीये को अपनी हथेली पर रखकर खड़े रहकर रात-भर पूजा करते हैं। माना जाता है कि उनकी इच्छा पूरी होती है। इसे खड रात्रि कहा जाता है और कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं इस मंदिर पर अपनी पत्नी जामवंती के आग्रह पर इस प्रकार की पूजा की थी।
कहा जाता है कि इस मंदिर का ढ़ांचा देवों द्वारा आदि शंकराचार्य की प्रार्थना पर तैयार किया गया, जो उन 1,000 मंदिरों में से एक है, जिसका निर्माण रातों-रात गढ़वाल में हुआ था। मूलरूप में यह एक खुला मंदिर था जहां 12 नक्काशीपूर्ण सुंदर स्तंभ थे। संपूर्ण निर्माण काले पत्थरों से हुआ है, जिसे संरक्षण के लिये रंगा गया है। वर्ष 1960 के दशक में बिड़ला परिवार ने इस मंदिर को पुनर्जीवित किया तथा इसके इर्द-गिर्द दीवारें बना दी।
यहां का शिवलिंग स्वयंभू है तथा मंदिर से भी प्राचीन है। कहा जाता है कि गोरखों ने इस शिवलिंग को खोदकर निकालना चाहा पर 122 फीट जमीन खोदने के बाद भी वे लिंग का अंत नहीं पा सके। तब उन्होंने क्षमा याचना की, गढ़ढे को भर दिया तथा मंदिर को यह कहकर प्रमाणित किया कि मंदिर में कोई तोड़-फोड़ नहीं हो सकता। अन्य प्राचीन प्रतिमाओं में एक खास, सुंदर एवं असामान्य गणेश की प्रतिमा है। वे पद्माशन में बैठे है, एक कमंडल हाथ में है तथा गले से लिपटा एक सांप है। ऐसी चीजें जो उनके पिता भगवान शिव से संबद्ध होती हैं।
मंदिर को पंवार राजाओं का संरक्षण प्राप्त था तथा उन्होंने 64 गांवों का अनुदान दिया, जिसकी आय से ही मंदिर का खर्च चलाया जाता था। बलभद्र शाह के समय (वर्ष 1575-1591) का रिकार्ड, प्रदीप शाह के समय (वर्ष 1755) का तांबे का प्लेट एवं प्रद्युम्न शाह (वर्ष 1787) तथा गोरखों का समय प्रमाणित करते हैं कि मंदिर का उद्भव एवं पवित्रता प्राचीन है। आयुक्त ट्रैल ने कोलकाता भेजे गये अपने रिपोर्ट में गढ़वाल के जिन पांच महत्त्वपूर्ण मंदिरों का वर्णन किया था उनमें से एक यह मंदिर भी था।
मंदिर के बगल में बने भवन भी उतने ही पुराने हैं तथा छोटे-छोटे कमरे की भूल-भुलैया जैसे हैं और प्रत्येक कमरे से दूसरे कमरे में जाया जा सकता है जिसे घूपरा कहते है। कहा जाता है कि जब गोरखों का आक्रमण हुआ तो प्रद्युम्न शाह यहीं किसी कमरे में तब तक छिपा रहा, जहां से कि सुरक्षित अवस्था में उसे बाहर निकाल लिया गया। मंदिर के पीछे, का वर्गाकार स्थल का इस्तेमाल परंपरागत रूप से श्रीनगर के प्रसिद्ध रामलीला के लिये होता रहा है।
वर्ष 1894 में गोहना झील में आए उफान से विनाशकारी बाढ़ में शहर का अधिकांश भाग बह गया लेकिन मंदिर को क्षति नहीं पहुंची। कहा जाता है कि नदी का जलस्तर बढ़ता गया लेकिन ज्यों ही मंदिर के शिवलिंग से स्पर्श हुआ, जल स्तर कम हो गया। अगस्त 1970 में जब झील की दीवाल ढह गयी तो पुन: विशाल भू-स्खलन हुआ लेकिन मंदिर अछूता रहा। मंदिर के महंथ आशुतोष पुरी के अनुसार मंदिर का प्रशासन सदियों से पुरी वंश के महंथों के हाथ रहा है। यहां गुरू-शिष्य परंपरा का पालन होता है तथा प्रत्येक महंथ अपने उत्तराधिकारी के रूप में अपने सबसे निपुण शिष्य को चुनता है।
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