केदारनाथ एवं बद्रीनाथ:
ऋषिकेश से जोशीमठ तक मोटर, बस की राष्ट्रीय सड़क बन गई है। जोशीमठ तक केवल वे यात्री जाते हैं, जिन्हें बद्रीनाथ जाना होता है। केदारनाथ जाने वाले यात्री रूद्रप्रयाग जाते हैं। बाईं ओर कमलेश्वर महादेव का मंदिर है। यह स्थान श्रीक्षेत्र कहलाता है। सोमप्रयाग से गौरीकुंड होते हुए केदारनाथ जाने का रास्ता है।
गौरी कुंड:
यहां दो कुंड हैं, एक गरम पानी का और दूसरा ठंडे पानी का। शीतल जल का कुंड अमृतकुंड कहलाता है। कहते हैं कि भगवती पार्वती ने इसी कुंड में प्रथम स्नान किया था। गौरी कुंड का जल पर्याप्त उष्ण है। माता पार्वती का जन्म यहीं हुआ था। यहां पार्वती के अतिरिक्त श्री राधाकृष्ण मंदिर भी है। इसके नज़दीक ही केदारनाथ है, जहां की चढ़ाई काफी कठिन है। यहां अत्यधिक ठंड पड़ती है। पर्वतीय मक्खियों का उपद्रव बहुत रहता है। श्री केदारनाथ जी द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक हैं।
यह केदार क्षेत्र अनादि है। इस क्षेत्र में महिषरूपधारी भगवान शंकर के विभिन्न अंग पांच स्थानों में प्रतिष्ठित हुए, इसलिए इस क्षेत्र को पंच केदार कहा जाता है। इनमें द्वितीय मदमहेश्वर में नाभि, तृतीय केदार तुंगनाथ में बाहु, चतुर्थ रूद्रनाथ में मुख, पंचम कल्पेश्वर में जटा तथा इस प्रथम केदारनाथ में पृष्ठ भाग प्रतिष्ठित हुआ। केदारनाथ में भगवान शंकर का नित्य सानिध्य बताया गया है। केदारनाथ में कोई मूर्ति नहीं है, बहुत बड़ा त्रिकोण पर्वत खंड सा है, जिसकी पूजा यात्री स्वयं जाकर करते हैं।
मंदिर प्राचीन और साधारण है। भृगुपंथ गंगा, क्षीरगंगा चोरा बाड़ीताल, वासुकी ताल एवं भैरव शिला यहां के दर्शनीय स्थल हैं। यहां पांचों पांडवों की मूर्तियां हैं। इसके अतिरिक्त भीम गुफा और भीम शिला हैं। कहते हैं कि इस मंदिर का जीर्णोद्धार आदि शंकराचार्य ने करवाया था और यहीं उन्होंने देहत्याग भी किया था। मंदिर के पास कई कुंड हैं। पर्वत शिखर पर कमल मिलते हैं। श्री केदारनाथ मंदिर में उषा, अनिरूद्ध, पंच पांडव, श्रीकृष्ण तथा शिव-पार्वती की मूर्तियां हैं। मंदिर के बार परिक्रमा के पास अमृतकुंड, ईशानकुंड, हंसकुंड, रेतकुंड आदि तीर्थ मुख्य हैं।
तुंगनाथ:
यहां स्थित मंदिर में शिवलिंग तथा कई और मूर्तियां हैं। यहां पाताल गंगा नामक एक अत्यंत शीतल जल की धारा बहती है। तुंगनाथ शिखर से पूर्व की ओर नंदा देवी और द्रोणागिरिचल शिखर दिखाई देते हैं। उत्तर की ओर गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ, बद्रीनाथ तथा रूद्रनाथ दिखाई पड़ते हैं। दक्षिण में पैड़ी, चंद्र वदनी पर्वत तथा सुरखंडा देवी शिखर दिखाई देते हैं।
जंगलचट्टी:
यदि तुंगनाथ की चढ़ाई न करनी हो, तो चोपता से सीधे जंगलचट्टी पहुंच सकते हैं। यहां 12 मील पर श्री महादेव जी का मंदिर है, परशुराम जी का फरसा तथा अष्टधातु का त्रिशूल दर्शनीय है। यहां वैतरणी नदी बहती है। यहां ऋषिकेश से सीधे बद्रीनाथ जाने वाली सड़क मिलती है, जो जोशीमठ तक जाती है।
मंडलचट्टी से एक मार्ग अमृतकुंड जाता है। इस मार्ग में अनुसूयामठ, अत्रि आश्रम, दत्तात्रेय आश्रम तथा अमृतकुंड मिलते हैं। मंडलचट्टी से एक मार्ग रूद्रनाथ को भी जाता है। रूद्रनाथ चतुर्थ केदार माने जाते हैं। पीपलकोटी से एक मार्ग गोहनताल जाता है। यह स्थान मनोरम है। हेलंग से अलकनंदा का पुल पार करके एक मार्ग कल्पेश्वर शिव मंदिर आता है।
जोशीमठ:
शीतकाल में 6 महीने श्री बद्रीनाथ जी की चलमूर्ति यहीं रहती है। उस दौरान पूजा यहीं होती है। इसके पास एक अत्यंत प्राचीन कल्पवृक्ष और ज्योतिषपीठ शंकराचार्य मठ है, यहां नभगंगा, दंडधारा का स्नान होता है। शालिग्राम शिला में भगवान नृसिंह की अद्भुत मूर्ति है, जिनकी एक भुजा बहुत पतली है और लगता है कि पूजा करते समय वह मूर्ति से कभी भी अलग हो सकती है।
कहा जाता है कि जिस दिन यह हाथ अलग होगा, उसी दिन विष्णुप्रयाग से आगे नर-नारायण पर्वत, जो बिल्कुल पास आ गए हैं, वह मिल जाएंगे और बद्रीनाथ मार्ग बंद हो जाएगा। उसके बाद यात्री भविष्यबद्री जाया करेंगे। जोशीमठ से आगे विष्णुप्रयाग, विष्णु गंगा और अलकनंदा का संगम है। यहां भगवान विष्णु का मंदिर है। देवर्षि नारद ने यहां भगवान की आराधना की थी।
पांडुकेश्वर योग बद्री (ध्यान बद्री) का मंदिर है, जिन्हें पांडुकेश्वर भी कहते हैं। पांडुकेश्वर से एक मार्ग लोकपाल पुष्पघाटी हेमकुंड तथा काकभुशुंडी आश्रम तक जाता है। बद्रीनाथ से 4 मील पर हनुमान चट्टी है, उसके ऊपर ही लोकपाल तीर्थ है। मार्ग पांडुकेश्वर से ही है। रास्ते में झूला पुल से होकर गंगा को पार करना पड़ता है। पुल के पार लक्ष्मण गंगा है, जो लोकपाला सरोवर से निकली है।
बद्रीनाथ धाम के अन्य तीर्थ:
श्री बद्रीनाथ जी के सिंहद्वार से 4-5 सीढ़ियां उतरकर शंकराचार्य मंदिर है, जहां लिंगमूर्ति स्थापित है। उससे 3-4 सीढ़ियां नीचे आदि केदार के दर्शन और तब बद्रीनाथ जी के दर्शन करने चाहिए। केदारनाथ से नीचे तप्तकुंड है, जिसे अग्नितीर्थ कहा जाता है। तप्तकुंड के नीचे निम्नलिखित पांच शिलाएं हैं।
गरूड़ शिला:
यह शिला केदारनाथ मंदिर को अलकनन्दा की ओर से रोके खड़ी है। इसी के नीचे होकर उष्ण जल तप्तकुंड में आता है।
नारद शिला:
तप्तकुंड से अलकनंदा तक एक बड़ी शिला है। इसके नीचे अलकनंदा में नारद कुंड है। इस पर नारद जी ने दीर्घकाल तक तप किया था।
मार्कण्डेय शिला:
नारदकुंड के पास अलकनंदा की धारा में स्थिति शिला इस पर मार्कण्डेय जी ने भगवान की आराधना की थी।
नृसिंह शिला:
नारदकुंड के ऊपर जल में एक सिंहाकार शिला है। हिरण्यकश्यप वध के पश्चात नृसिंह भगवान यहां पधारे थे।
वाराही शिला:
यह उच्च शिला अलकनंदा के जल में है। पाताल से पृथ्वी का उद्धार करके हिरण्याक्ष वध के पश्चात वराह भगवान यहां शिलारूप में स्थित हुए। यहां गंगा जी में लक्ष्मी धारा तीर्थ है। तप्तकुंड से कुछ दूर ब्रह्मकपाली तीर्थ है, जहां श्रद्धालु पिंडदान करते हैं। इसके नीचे ही ब्रह्मकुंड है, जहां ब्रह्माजी ने तप किया था।
ब्रह्मकुंड से मातामूर्ति:
ब्रह्मकुंड से गंगाजी के किनारे-किनारे ऊपर जाने पर जहां अलकनंदा मुड़ती है, वहां अनुसूया तीर्थ है। उस स्थान से माणा की सड़क से आगे चलने पर इन्द्रधारा नामक श्वेत झरना मिलता है, जहां इन्द्र ने तप किया था, इसलिए इसे इन्द्रपद तीर्थ भी कहते हैं। यहां से थोड़ी दूर आगे भारत का अंतिम सीमा वाला माणा गांव है। यह गांव अलकनंदा के उस पार है, किन्तु इसी पार नर नारायण की माता मूर्ति देवी का छोटा सा मंदिर है। भाद्रशुक्ल द्वादशी को यहां मेला लगता है। यह स्थान बद्रीनाथ से लगभग 3 मील है।
सत्पथ तीर्थ:
अलकनंदा के इसी किनारे आगे चलकर अनेक तीर्थ हैं, जिनमें सत्पथ प्रमुख है। सत्पथ के आगे मार्ग दुर्गम ही है आगे बढ़ने पर चढ़ाई पार करने के बाद पर्याप्त नीचे एक गोलकुंड दिखाई देता है। यह सोमतीर्थ है, जिसमें प्रायः जल नहीं रहता। यहां चन्द्रमा ने दीर्घ काल तक तपस्या की थी। आगे मार्ग नहीं है, मार्गदर्शक बर्फ पर अनुमान से ले जाता है। कुछ दूर आगे सूर्यकुंड नामक छोटा सा कुंड है, जहां नर नारायण पर्वत मिल गए हैं। यहीं विषणुकुंड भी है।
यमुनोत्री:
यह स्थान समुद्र तल से दस हजार फुट की ऊंचाई पर है। यहां यात्रियों के ठहरने के लिए कालीकमली वाले क्षेत्र की धर्मशाला है। यहां गरम पानी के कई कुंड हैं। यात्री कपड़े में बांधकर चावल, आलू आदि इन कुंडों में डुबो देते हैं और वे पदार्थ पक जाते हैं। इस प्रकार यहां भोजन बनाने के लिए चूल्हा नहीं जलाना पड़ता। इन कुंडों में स्नान करना संभव नहीं और यमुना का जल इतना शीतल है कि उसमें स्नान करना भी असंभव है। इसलिए गरम तथा शीतल जल मिलाकर स्नान करने के कुंड बने हुए हैं।
बहुत ऊंचाई पर कलिंदगिरि से हिम पिघलकर कई धाराओं में गिरती है। कलिंद पर्वत से निकलने के कारण यमुना कालिंदी कही जाती हैं। वहां शीत इतना है कि बार-बार झरनों का पानी जमता पिघलता है, यमुनोत्री का स्थान संकीर्ण है। छोटी सी धर्मशाला है और छोटा सा यमुना का मंदिर है। कहा जाता है कि महर्षि असित का यहां आश्रम था। वे नित्य स्नान करने गंगा जी आते और यहां निवास करते। यहां यमुनोत्री में वृद्धावस्था में दुर्गम पर्वतीय मार्ग नित्य पार करना उनके लिए कठिन हो गया, तब गंगाजी ने अपना एक छोटा झरना यमुना किनारे ऋषि के आश्रम पर प्रकट कर दिया।
वह उज्जवल पानी का झरना आज भी वहां है। हिमालय में गंगा और यमुना की धाराएं एक हो गई होतीं, यदि दोनों के मध्य दंड पर्वत न होता। देहरादून के समीप भी दोनों धाराएं बहुत पास आ जाती हैं। सूर्यपुत्री यमराज सहोदर कृष्णप्रिया कालिंदी का यह उद्गम स्थान अत्यन्त भव्य है। यहां से एक मार्ग मेलंगघाटी से कैलाश मानसरोवर जाता है। मार्ग कठिन है। श्रीकंठ से आई दूध गंगा यहां भागीरथी में मिलती है। इस संगम पर शिव मंदिर है और सामने श्रीकंठ पर्वत है। यह महाराज भगीरथ का तप स्थान है। यहां गंगापार मुखबा मठ है, जाड़ों में गंगोत्री के पंडे मुखबा में रहते हैं। यहां से कुछ दूर मार्कंडेय स्थान है, शीतकाल में गंगाजी की पूजा यहीं होती है।
गंगोत्री:
वैसे तो गंगा जी का उद्गम गोमुख से हुआ है और वहां की यात्रा बहुत कठिन होने के कारण, बहुत कम यात्री वहां जाते हैं। गंगोत्री में स्नान और गंगाजी का पूजन करके, यात्री गंगाजल लेकर यहीं से नीचे लौटते हैं। यह स्थान समुद्रतल से 20,000 फुट ऊंचाई पर गंगाजी के दक्षिण तट पर है। गंगा यहां केवल 44 फुट चौड़ी है और गहराई लगभग तीन फुट है। आसपास देवदारू तथा चीड़ के वन हैं।
यहां का मुख्य दर्शनीय स्थल श्री गंगा जी का मंदिर है, जिसमें आदि शंकराचार्य द्वारा प्रतिष्ठित गंगा जी की मूर्ति के अतिरिक्त राजा भगीरथ, यमुना सरस्वती एवं शंकराचार्य आदि की मूर्तियां भी हैं। गंगा जी के मंदिर के पास एक भैरवनाथ मंदिर है। गंगोत्री में सूर्यकुंड, विष्णु कुंड, ब्रह्माकुंड आदि तीर्थ हैं। यही विशाल भगीरथ शिला है, जिस पर राजा भगीरथ ने तप किया था।
इस शिला पर पिंडदान किया जाता है। यहां गंगा को विष्णु तुलसी चढ़ाई जाती है। शीतकाल में यह स्थान बर्फ हो जाता है, इसलिए पंडे चलमूर्तियों को मुखबा ग्राम के पास मार्कंडेय क्षेत्र में ले आते हैं। कहा जाता है कि यह मार्कण्डेय ऋषि की तप स्थली है। गंगोत्री से नीचे केदार व गंगा का संगम है।
गोमुख:
गंगोत्री से आगे का मार्ग अत्यंत कठिन है। मार्ग में वन्य जीव रीछ और चीते जैसे वन्य जीव भी मिल सकते हैं। तीव्र वेगी पर्वतीय पालों को पार करना तथा कच्चे पर्वतों पर चढ़ना उतरना बहुत साहस तथा सावधानी की अपेक्षा रखता है। आगे न कोई बना मार्ग है, न पड़ाव और न ही कोई दुकान। गोमुख में ही हिमधारा के नीचे से गंगा जी की धारा प्रकट होती है। इस स्थान की शोभा अतुलनीय है।
गंगा के इस उद्गम में स्नान कर पाना मनुष्य का अहोभाग्य है। गोमुख में इतना शीत है कि जल में हाथ डालते ही हाथ सुन्न हो जाता है। अग्नि जलाकर यात्री स्नान करते हैं। गोमुख से लौटने में शीघ्रता करनी चाहिए, क्योंकि धूप निकलते ही हिमशिखरों से भारी हिमचट्टाने टूट-टूटकर गिरने लगती हैं। श्री बद्रीनाथ से आगे नर-नारायण पर्वत हैं।
नारायण पर्वत के निचले चरण से ही अलकनंदा निकलती है और सत्पथ होकर बद्रीनाथ धाम आती है। यहीं नारायण पर्वत के चरणों से भागीरथी गंगोत्री का हिमप्रवाह भी प्रारंभ होता है। यह प्रवाह सुमेरू पर्वत से शिवलिंग शिखर पर आता है। यह शिखर गोमुख से दक्षिण में है। उससे नीचे उतर कर हिमप्रवाह से गोमुख गंगा की धारा पृथ्वी पर उतरती है।
मानसरोवर कैलाश यात्रा:
हिमालय की पर्वतीय यात्राओं में मानसरोवर कैलाश की यात्रा सबसे कठिन है। यात्रा में यात्रियों को लगभग तीन सप्ताह तिब्बत में ही रहना पड़ता है। केवल यही एक यात्रा है, जिसमें यात्री हिमालय को पूरा पार करते हैं। मानसरोवर, कैलाश, अमरनाथ, सत्पथतीर्थ, गोमुख, स्वर्गारोहण जैसे क्षेत्रों की यात्रा में यात्री ऑक्सीजन मास्क साथ ले जाएं तो हवा में ऑक्सीजन की कमी से होने वाल श्वास कष्ट से बच जाएंगे। इस स्थल पर पहुंचने के अनेक मार्ग हैं। इनमें तीन मार्ग अपेक्षाकृत अधिक सुगम हैं।
(1) पूर्वोत्तर रेलवे के टनकपुर स्टेशन से मोटर बस द्वारा पिथौरागढ़ जाकर फिर वहां से पैदल लिपू नामक दर्रा पार करके जाने वाला मार्ग।
(2) उसी रेलवे के काठगोदाम स्टेशन से मोटर बस द्वारा कपकोट जाकर फिर पैदल यात्रा करते हुए कुंगरी बिंगरी घाटियों को पार करके जाने वाला मार्ग ।
(3) उत्तर रेलवे के ऋषिकेश स्टेशन से मोटर बस द्वारा जोशीमठ जाकर वहां से पैदाल यात्रा करते हुए तपोवन नीती घाटी को पार करके पैदल जाने का सीधी मार्ग।
मानसरोवर: पूरे हिमालय पार करके तिब्बती पठार में लगभग 30 मील जाने पर पर्वतों से घिरे दो महान सरोवर मिलते हैं। मनुष्य के दोनों नेत्रों के समान वे स्थित हैं और उनके मध्य में नासिका के समान ऊपर उठी पर्वतीय भूमि है, जो दोनों को पृथक करती है। इनमें एक है राक्षसताल और दूसरा मानसरोवर।
राक्षसताल विस्तार में बहुत बड़ा है और वह गोल या चौकोर नहीं है। उसकी कई भुजाएं मीलों दूर तक टेढ़ी मेढ़ी होकर पर्वतों में चली गई हैं। कहा जाता है कि किसी समय राक्षसराज रावण ने यहीं खड़े होकर देवाधिदेव भगवान शंकर की आराधना की थी। मानसरोवर का जल अत्यंत स्वच्छ और नीला है। इसका आकार लगभग अंडे जैसा है। मानसरोवर 51 शक्ति पीठों में से एक है। सती की दाहिनी हथेली इसी में गिरी थी।
मानसरोवर में हंस बहुत हैं और राजहंस भी हैं। सामान्य हंसों की दो जातियां हैं, मटमैले सफेद और बादमी। मानसरोवर में सीप के मोती मिल जाते हैं, पर कमल उसमें नहीं है। प्रत्यक्ष में मानसरोवर से कोई नदी या छोटा झरना भी नहीं निकलता है। किन्तु कुछ अन्वेषक अंग्रेज विद्वानों का मत है कि सरयू और ब्रहमपुत्र नदियों में मानसरोवर का जल भूमि के भीतर के मार्गों से आकर मिलता है। मानसरोवर के आसपास कैलाश पर कहीं कोई वृक्ष नहीं, कोई पुष्प नहीं है। सरोवर जल सामान्य शीतल है।
कैलाश:
मानसरोवर से कैलाश लगभग 20 मील दूर है। वैसे उसके दर्शन मानसरोवर पहुंचने से बहुत पहले से ही होने लगते हैं। जौहर मार्ग में कुंगरी बिंगरी की चोटी पर पहुंचते ही, यदि आकाश में बादल न हों, तो यात्री को कैलश के दर्शन हो जाते हैं। तिब्बत के लोगों में कैलाश के प्रति अपार श्रद्धा है। अनेक तिब्बती श्रद्धालु पूरे कैलाश की 32 मील की परिक्रमा, दंडवत प्रणाम करते हुए पूरी करते हैं। वह कैलाश तो दिव्यधाम है, अपार्थिव लोक है, जैसे गोलोक। कैलाश का यह क्षेत्र शिवलिंग के आकार का है, षोडशदल कमल के मध्य स्थिति आस-पास के सभी शिखरों से ऊंचा है।
साभार : पं.केवल आनंद जोशी
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