रविवार, 23 नवंबर 2008

पाताल भुवनेश्वर (उत्तराखण्ड)

उत्तराखण्ड की पावन भूमि आदिकाल से ही मानव सभ्यता का गढ रही है. मनीषीयों, विद्वानों, साधु-सन्तों, विचारकों और तपस्वियों की जन्मभूमि और कर्मभूमि रही है. वेद पुराणों में उत्तराखण्ड का व्यापक उल्लेख मिलता है.

उत्तराखण्ड के लगभग प्रत्येक गाँव का अपना देवता (कुलदेवता या ग्रामदेवता) होता है. मुख्यतः यह देवी देवता शिव, भगवती के रूप अथवा लोककथाओं से सम्बन्धित चरित्र होते हैं. यह क्षेत्र कई तरह के चमत्कारों से भरा हुआ है, जिन्हें देखकर सामान्य मनुष्य को परमपिता परमेश्वर की प्रभुसत्ता पर विश्वास करना ही पडता है.

पाताल भुवनेश्वर का दर्शन भी एक अदभुत अनुभव का मौका देता है. जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है, यह स्थान पाताल अर्थात धरातल के नीचे स्थित है. पिथौरागड जिले की गंगोलीहाट तहसील से कुछ ही दूरी पर स्थित है पाताल भुवनेश्वर .

स्कन्दपुरान में वर्णन है कि स्वयं महादेव शिव पाताल भुवनेश्वर में विराजमान रहते हैं और अन्य देवी देवता उनकी स्तुति करने यहाँ आते हैं. स्कन्दपुरान में ही यह भी वर्णन है कि त्रेता युग में अयोध्या के सूर्यवंशी राजा रितुपर्ण जब एक जंगली हिरण का पीछा करते हुए इस गुफा में प्रविष्ट हुए तो उन्होने इस गुफा के भीतर महादेव शिव सहित 33 करोड देवताओं के साक्षात दर्शन किये. कलयुग में आज से लगभग 1000 साल पहले आदिगुरू शंकराचार्य ने एक शिवलिंग यहां स्थापित किया, जो अब भी विद्यमान है.

पाताल भुवनेश्वर गुफा का प्रवेश द्वार बहुत संकरा है, सीढियों द्वारा लगभग सरक कर नीचे उतरना पडता है. लेकिन सीढियां उतरते ही बडे कमरे के बराबर खुली जगह आती है जहाँ से गुफा के भीतर की यात्रा शुरू होती है. एक गाइड को साथ रखना उपयोगी रहता है जो वहाँ दिखने वाले विभिन्न पाषाण खण्डों की महत्ता तथा उनसे जुडी हुई पौराणिक कथाएं बताता है.

सर्वप्रथम शेषनाग की प्रतिमा दिखती है, जो पूरी धरती को अपने फन पर संभाले हुए है. पूरी गुफा में जहाँ तक भी यात्री जाते हैं, एक उभरी हुयी संरचना पर चलते हैं जो इसी शेषनाग की रीढ मानी जाती है.

इसी शेषनाग के आकार के पास ही वह स्थान है जहाँ राजा परीक्षित के पुत्र ने सर्पदंश से अपने पिता के मरने के बाद पूरे सर्पवंश के विनाश के लिये यज्ञ किया. लेकिन एक सांप पूजा के फूलों के बीच छुपा था जो जिन्दा बच गया. यही सांप “तक्षक” के नाम से प्रसिद्ध हुआ.

थोडा सा आगे बढने पर एक हंस की प्रतिमा है जिसकी गर्दन पीछे की ओर मुडी है. पौराणिक कथाओं के अनुसार इस हंस को ब्रह्मा जी ने अम्रत की रखवाली की जिम्मेदारी दी थी लेकिन लोभ में आकर यह उसे पीने को आतुर हुआ. ब्रह्मा जी के श्राप के फलस्वरूप इसकी गर्दन पीछे की ओर मुड गयी.

इसके पास ही कई भारी शिला स्तंभ दिखाई देते हैं, माना जाता है कि यह एरावत हाथी (जो देवताओं को समुद्र मन्थन में प्राप्त हुआ था) की हजार टांगे हैं.

एक और आश्चर्य वह चार प्रस्तर खण्ड हैं जो चार युगों अर्थात सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग तथा कलियुग को दर्शातें हैं. इनमें पहले तीन आकारों में कोई परिवर्तन नही होता. लेकिन माना जाता है कि कलियुग को दर्शाने वाली शिला का आकार धीरे-धीरे बड रहा है, और कलियुग का अन्त उस दिन हो जायेगा जब यह शिला बडते-बडते अपने ऊपर की छत को छू जायेगी.

गुफा के अन्दर ही बद्रीनाथ, केदारनाथ सहित चारों धामों के प्रतीक उपस्थित हैं. मान्यता है कि पाताल भुवनेश्वर के दर्शन से ही चार धाम के दर्शन के पुण्य की प्राप्ति हो जाती है.

इसके अतिरिक्त गुफा के भीतर कई अन्य प्राक्रतिक शिलाखण्ड हैं. जैसे द्युतक्रीडा में रत पाण्डव, आकाशगंगा, शिव जी की जटाएं, कालभैरव की जिह्वा और कल्पव्रक्ष आदि.

पाताल भुवनेश्वर गुफा के दर्शन की यादें कई सालों तक मस्तिष्क में एक अमिट छाप छोडती हैं. गुफा के नजदीक का इलाका देवदार के लम्बे-लम्बे पेडो से घिरा है. जहां से एक सुरम्य घाटी का सौन्दर्य मन मोह लेता है. पाताल भुवनेश्वर के दर्शन करने के बाद चौकोडी के सुन्दर चाय बागानों या गंगोलीहाट के प्रसिद्ध कालिका मन्दिर के दर्शन भी एक ही दिन में किये जा सकते हैं.

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