|
बंगलौर में 65 फुट ऊँची शिव प्रतिमा
| ||
अपने भीतर स्थित शिव को जानने का महापर्व है महाशिवरात्रि। वैसे तो प्रत्येक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को शिवरात्रि होती है पर फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की शिवरात्रि का विशेष महत्व होने के कारण ही उसे महाशिवरात्रि कहा गया है। यह भगवान शिव की विराट दिव्यता का महापर्व है। भारतीय शास्त्र के अनुसार शिव अनंत हैं। शिव की अनंतता भी अनंत है। मानव जब सभी प्रकार के बंधनों और सम्मोहनों से मुक्त हो जाता है तो स्वयं शिव के समान हो जाता है। समस्त भौतिक बंधनों से मुक्ति होने पर ही मनुष्य को शिवत्व प्राप्त होता है। शिव और शिवत्व की दिव्यता को जान लेने का महापर्व है महाशिवरात्रि। इस पवित्र दिन शिव भक्त पूजा एवं उपवास करते हैं। शिव मंदिरों को भव्यता के साथ सजाया जाता है। महादेव जी की बहु विधि पूजा अर्चना की जाती है। पूरा दिन लोग निराहार रहकर उपवास करते हैं। इस दिन काले तिल पानी में डाल कर स्नान करने के पश्चात भगवान शंकर की पूजा का विधान बताया गया है। शिवलिंग पर जल, दूध, बेलपत्र, कनेर और मौल श्री के पत्ते अर्पित करके पूजा की जाती है। लोग रात्रि जागरण करके शिव का भजन पूजन करते हैं और अगले दिन शिव जी को जल का अर्घ्य प्रदान कर उपवास खोला जाता है। इस दिन विष्णु पुराण का पाठ भी किया जाता हैं। शिव भक्तों की मान्यता है कि जो व्यक्ति निरंतर चौदह वर्ष तक अन्न जल रहित इस व्रत का पालन करता है तो उसकी अनेक पीढ़ियों के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और उनको स्वर्ग की प्राप्ति होती है। शिव अर्चना को मोक्ष प्राप्त करने वाला सबसे सरल मार्ग माना गया है। शिवरात्रि को शिव पार्वती के विवाह की रात्रि भी माना जाता है। दार्शनिक इसे पुरुष एवं प्रकृति के मिलन की रात्रि मान कर इस दिवस को सृष्टि का प्रारंभ मानते हैं। इसे आसुरी शक्तियों पर विजय प्राप्त करने के लिए शिव एवं शक्ति का योग भी कहा गया है। शिव की पूजा के संबंध में एक प्रचलित धारणा यह है कि एक बार ब्रह्मा जी एवं विष्णु जी में यह विवाद छिड़ गया कि दोनों में श्रेष्ठ कौन है। ब्रह्मा जी सृष्टि के रचयिता होने के कारण श्रेष्ठ होने का दावा कर रहे थे और भगवान विष्णु पूरी सृष्टि के पालन कर्ता के रूप में स्वयं को श्रेष्ठ कह रहे थे। जब वह विवाद अपने चरम पर पहुँचा तो अचानक एक विराट ज्योतिर्मय लिंग अपनी संपूर्ण भव्यता के साथ वहाँ प्रकट हुआ। उसका कोई और छोर दिखाई नहीं दे रहा था। सर्वानुमति से यह निश्चय किया गया कि जो इस महान ज्योतिर्मय लिंग के छोर का पहले पता लगाएगा उसे ही श्रेष्ठ माना जाएगा। अत: दोनों विपरीत दिशा में शिवलिंग की जानकारी प्राप्त करने के लिए निकल पड़े। बहुत लंबे समय तक विष्णु जी कुछ भी खोज पाने में असमर्थ रहे और लौट आए। ब्रह्मा जी भी इस कार्य में सफल नहीं हुए परंतु उन्होंने कहा कि वह छोर तक पहुँच गए थे। मार्ग से उन्होंने केतकी के फूल को साक्षी के रूप में साथ ले लिया था। ब्रह्मा जी के असत्य कहने पर स्वयं शिव वहाँ प्रकट हुए और उन्होंने ब्रह्मा जी की इसके लिए आलोचना की। दोनों देवताओं ने महादेव की स्तुति की तब शिव जी बोले कि मैं ही सृष्टि का कारण, उत्पत्तिकर्ता और स्वामी हूँ। मैंने ही तुम दोनों को उत्पन्न किया है अत: तुम दोनों भी मुझ से भिन्न नहीं हो। शिव ने केतकी पुष्प को झूठी साक्षी देने के लिए दंडित करते हुए कहा कि यह पुष्प मेरी पूजा में प्रयुक्त नहीं किया जा सकेगा। उसी काल से शिवलिंग की पूजा एवं महाशिवरात्रि का पर्व प्रारंभ हुआ माना जाता है। शिवलिंग की पूजा का अर्थ है कि समस्त विकारों और वासनाओं से रहित रह कर मन को निर्मल बनाना। वायु पुराण के अनुसार प्रलयकाल में समस्त सृष्टि जिसमें लीन हो जाती है और पुन: सृष्टिकाल में जिससे प्रकट होती है, उसे लिंग कहते हैं। इस प्रकार विश्व की संपूर्ण ऊर्जा ही लिंग की प्रतीक है। शिव पुराण में भगवान स्वयं कहते हैं, 'प्रलय काल आने पर जब चराचर जगत नष्ट हो जाता है और समस्त प्रपंच प्रकृति में विलीन हो जाता है, तब मैं अकेला ही स्थित रहता हूँ। दूसरा कोई नहीं रहता। सभी देवता और शास्त्र पंचाक्षर मंत्र में स्थित होते हैं। अत: मेरे से पालित होने के कारण वे नष्ट नहीं होते। तदनंतर मुझसे प्रकृति और पुरुष के भेद से युक्त सृष्टि होती है, वस्तुत: यह संपूर्ण सृष्टि बिंदुनाद स्वरूप है। बिंदु शक्ति है और नाद शिव। इस तरह यह विश्व शक्ति स्वरूप ही है। नाद बिंदु का और बिंदु इस जगत का आधार है। यह शक्ति और शिव संपूर्ण जगत के आधार रूप में स्थित हो। बिंदु और नाद से युक्त सब कुछ शिव है, वही सबका आधार है। आधार में ही आधेय का समावेश या लय होता है। यही वह समष्टि है जिससे सृजन काल में सृष्टि का प्रारंभ होता है। बिंदु एवं नाद अर्थात शक्ति और शिव का संयुक्त रूप ही तो शिवलिंग में अवस्थित है। इसी कारण शिवलिंग की उपासना से ही परमानंद की प्राप्ति संभव है। भारत ही नहीं विश्व के अन्य अनेक देशों में भी प्राचीन काल से शिव की पूजा होती रही है इसके अनेक प्रमाण समय समय पर प्राप्त हुए हैं। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई में भी ऐसे अवशेष प्राप्त हुए हैं जो शिव पूजा के प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। हमारे समस्त प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में भी शिव जी की पूजा की विधियाँ विस्तार से उल्लिखित हैं। शास्त्रों में शिव की शक्ति को रात्रि ही कहा गया है। रात्रि शब्द का अर्थ है जन-मन को अवकाश या उत्सव प्रदान करने वाली। शिव की शक्ति रात्रि ही है जो विश्व के समस्त प्राणियों को अपनी गोद में आराम प्रदान करती है। ईशान संहिता के अनुसार महाशिवरात्रि को ही ज्योतिर्लिंग का प्रादुर्भाव हुआ। शिव पुराण में ब्रह्मा जी ने कहा है कि संपूर्ण जगत के स्वामी सर्वज्ञ महेश्वर के कान से गुण श्रवण, वाणी से कीर्तन, मन से मनन करना महान साधना माना गया है। इसी लिए महाशिवरात्रि के दिन उपवास, ध्यान, जप, स्नान, दान, कथा श्रवण, प्रसाद एवं अन्य धार्मिक कृत्य करना महाफलदायक होता है। वास्तव में शिव की महिमा अपरंपार है। जिनके कोष में भभूत के अतिरिक्त कुछ नहीं है परंतु वह निरंतर तीनों लोकों का भरण पोषण करने वाले हैं। परम दरिद्र शमशानवासी होकर भी वह समस्त संपदाओं के उद्गम हैं और त्रिलोकी के नाथ हैं। अगाध महासागर की भांति शिव सर्वत्र व्याप्त हैं। वह सर्वेश्वर हैं। अत्यंत भयानक रूप के स्वामी होकर भी स्वयं शिव हैं। जब भीष्म शरशैरया पर सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा कर रहे थे तो पांडवों ने उनसे शिव महिमा के विषय में जानने की जिज्ञासा की तो उन्होंने उत्तर दिया कि कोई भी देहधारी मानव शिव महिमा बताने में सर्वथा असमर्थ है। भारतीय मनीषियों के अनुसार शिव अव्यक्त हैं और जो कुछ व्यक्त है, वह उसी की शक्ति है, वही उसका व्यक्त रूप है। शिव ही निराकार ब्रह्म हैं। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, पाँचों ज्ञानेंद्रियों और पाँचों कर्मेंद्रियों पर विजय प्राप्त कर शिव शक्ति की साधना करना ही शिवरात्रि व्रत करना है। शिवरात्रि के जागरण के संदर्भ में वही भावना है जो गीता में जागरण के विषय में व्यक्त की गई है। सामान्य प्राणियों की रात्रि में जोगी जागता है और उनके दिन में जोगी सोता है। इस प्रकार जो पाशबद्ध है उसे मनीषियों ने पशु कहा है अपने परम स्वरूप शिव के अधिक से अधिक निकट पहुँचना ही ''पशुपति`` शिव की उपासना का लक्ष्य है और यही जागरण का महत्व है। रात्रि में जागृत जीवन का कोलाहल नहीं रहता। प्रकृति शांत रहती है। यह अवस्था साधना, मनन और चिंतन के लिए अधिक अनुकूल होती है। उपवास का भी एक अर्थ है 'किसी के समीप रहना। वराह उपनिषद के अनुसार उपवास का अर्थ है जीवात्मा का परमात्मा के समीप रहना। महाशिवरात्रि पर जागरण और उपवास का यही लक्ष्य है। शिव तनिक-सी सेवा से ही प्रसन्न होकर बड़े से बड़े पापियों का उद्धार करने वाले महादेव हैं। कभी केवल जल चढ़ा देने मात्र से प्रसन्न हो जाते हैं तो कभी बेल पत्र से ही। भले ही पूजा अनजाने में ही हो गई हो वह व्यर्थ नहीं जाती। किसी भी जाति अथवा वर्ण का व्यक्ति उनका भक्त हो सकता है। देव, गंधर्व, राक्षस, किन्नर, नाग, मानव सभी तो उनके आराधक है। हिंदू-अहिंदू में महादेव कोई भेद भाव नहीं करते। शिवलिंग पर तीन पत्ती वाले बेलपत्र और बूंद-बूंद जल का चढ़ाया जाना भी प्रतीकात्मक है। सत, रज और तम तीनों गुणों के रूप में शिव को अर्पित करना उनकी अर्चना है। बूंद-बूंद जल जीवन के एक-एक कण का प्रतीक है। इसका अभिप्राय है कि जीवन का क्षण-क्षण शिव की उपासना को समर्पित होना चाहिए। शिव तो सर्वस्व देने वाले हैं। विश्व की रक्षार्थ स्वयं विष पान करते हैं। अत्यंत कठिन यात्रा कर गंगा को सिर पर धारण करके मोक्षदायिनी गंगा को धरा पर अवतरित करते हैं। श्रद्धा, आस्था और प्रेम के बदले सब कुछ प्रदान करते हैं। महाशिवरात्रि शिव और पार्वती के वैवाहिक जीवन में प्रवेश का दिन होने के कारण प्रेम का दिन है। यह प्रेम त्याग और आनंद का पर्व है। शिव स्वयं आनंदमय हैं। शिव के समीप ले जा कर सच्चिदानंद का साक्षात्कार करवाने का पर्व ही तो है महाशिवरात्रि। | |||
|
शुक्रवार, 28 नवंबर 2008
सच्चिदानंद का साक्षात्कार ही है महाशिवरात्रि
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें