बुधवार, 29 अप्रैल 2009

शिव महिमा

हमारे हिंदू धर्म में त्रिदेवों अर्थात भगवान ब्रह्मा, विष्णु व शंकर का अपना एक विशिष्ट स्थान है और इसमें भी भगवान शंकर का चरित्र जहाँ अत्यधिक रोचक हैं वहीं यह पौराणिक कथाओं में अत्यधिक गूढ रहस्यों से भी भरा हुआ है ।

पौराणिक कथाओं में भगवान शिव को विश्वास का प्रतीक माना गया है क्योंकि उनका अपना चरित्र अनेक विरोधाभासों से भरा हुआ है जैसे शिव का अर्थ है जो शुभकर व कल्याणकारी हो, जबकि शिवजी का अपना व्यक्तित्व इससे जरा भी मेल नहीं खाता, क्योंकि वे अपने शरीर में इत्र के स्थान पर चिता की राख मलते हैं तथा गले में फूल-मालाओं के स्थान पर विषैले सर्पों को धारण करते हैं । यही नहीं भगवान शिव को कुबेर का स्वामी माना जाता है जबकि वे स्वयं कैलाश पर्वत पर बिना किसी ठौर-ठिकानों के यूँ ही खुले आकाश के नीचे निवास करते हैं । कहने का तात्पर्य है कि भगवान शिव का स्वभाव शास्त्रों में वर्णित उनके गुणों से जरा भी मेल नहीं खाता और इतने अधिक विरोधाभासों में, किसी भी व्यक्ति की शिव के प्रति आस्था, उसके अपने विश्वास के आधार पर ही टिकी हुई है, इसलिए, सभी कथाओं में भगवान शिव को विश्वास का प्रतीक माना गया है ।

पौराणिक कथाओं के अनुसार माता पार्वती को भगवान शिव को प्राप्त करने के लिए तपस्या के कठिन दौर से गुज़रना पडा था और चूँकि तपस्या के कठिन दौर की सफलता व्यक्ति की अपनी श्रद्धा पर निर्भर करती है और ऐसे समय भगवान शिव के प्रति माता पार्वती की श्रद्धा (चूँकि वे हिमालय पर्वत की बेटी हैं इसलिए) पर्वत की तरह अडिग व मज़बूत रहती है, इसलिए हमारी पौराणिक कथाओं में माता पार्वती को श्रद्धा का प्रतीक माना गया है ।

भगवान शिव के अपने दो पुत्र है, श्री कार्तिकेय व श्री गणेश । जहाँ कार्तिकेय का सीधा सा अर्थ यह है कि जो ‘तर्कय‘ हो अर्थात जो सभी प्रकार के तर्कों से मुक्त हो गया हो वहीं गणेश भगवान को माता पार्वती अपने मैल से उत्पन्न करती हैं किन्तु एक शिव भक्त के हाथों से उनका सिर, धड से अलग हो जाता हैं । संक्षेप में इसके द्वारा हमें यह बताने का प्रयास किया है कि अगर श्रद्धा अपने कुछ मैल रूपी अवगुणों को भी निकालती है तो उससे भी जगत में कुछ श्रेष्ठतम ही घटता है किन्तु इसके लिए श्रद्धा को विश्वास का सहयोग लेकर चलना चाहिए । इसके विपरीत आचरण करने पर इसके अमंगलमय होने की पूरी संभावना रहती है । कथा आगे कहती है कि इसके पश्चात भगवान शिव हाथी का सिर लगाकर श्री गणेशजी का उद्धार करते हैं अर्थात ऐसी अमंगलकारी स्थितियों में भी, हम विश्वास के सहयोग से इसे पुनर्व्यवस्थित कर, इसकी श्रेष्ठता को प्रमाणित कर सकते हैं और इसे शुभ सिद्ध कर सकते हैं ।

इस तरह पुराणों में वर्णित इस शिव-चरित्र के माध्यम से हमें यह समझाने का प्रयास किया गया है कि जिन व्यक्तियों के जीवन में मन अत्यधिक प्रबल हो उन्हें भगवान शिव की उपासना के द्वारा ही अपनी आध्यात्मिक सत्य की यात्रा आरम्भ करनी चाहिए क्योंकि इससे उनके मन में जहाँ विश्वास का भाव गहरे तौर पर अंकुरित होगा वहीं यह मज़बूत व अडिग श्रद्धा रूपी विशाल वट वृक्ष बनकर चहुं ओर अपनी शाखाएँ फैलाने लगेगा ।

इसी तरह और आगे की आध्यात्मिक यात्रा करने पर गणेश भगवान के आशीर्वाद से जहाँ उनकी सारी विघ्न बाधाएँ दूर होंगी वहीं इसके द्वारा उन्हें शुभ फलों की प्राप्ति भी होने लगेगी । जब भक्त इन सब बातों से उत्साहित होकर पूरी तन्मयता के साथ इसी रास्ते में थोडा और आगे निकलेगा तो वह स्वयं को सभी प्रकार के विधि-विधानों व तर्कों से मुक्त पाएगा तथा वह आध्यात्मिक सत्य व ईश्वर का साक्षात्कार करने में सफल होगा । यही शिव के अपने सम्पूर्ण जीवन का मर्म है जिसे कि शिव-चरित्र के माध्यम से हमें समझाने का प्रयास किया गया है ।

महा शिवरात्रि के बारे में यह कथा प्रचलित है कि एक पापी शिकारी अनजाने में ही बेलपत्रों के द्वारा भगवान शिव की उपासना करता है तथा हाथ में आए हुए शिकार को अभयदान देकर छोड देता है जिससे भगवान शिव प्रसन्न होकर उसे दर्शन देते हैं तथा उसका उद्धार करते हैं । इस कथा के द्वारा हमें यह समझाने का प्रयास किया गया है कि अगर कोई अनजाने में ही अपने पूर्ण विश्वास के साथ ईश्वर की स्तुति करें तो भी उसके जीवन का उद्धार संभव है । यही वजह है कि कई वर्षों तक पाप व अपराध का जीवन ढोते वाल्मीकि ऋषि, मगध सम्राट अशोक आदि का जीवन भी अनजाने में ही उनके द्वारा किए गए ईश्वरीय स्तुति के परिणामस्वरुप, मात्र एक छोटी सी घटना को आधार बनाकर रूपान्तिरित हो उठा और भगवान के द्वारा इनका उद्धार हुआ ।

इसी प्रकार एक अन्य कथा में भगवान शिव अपना ध्यान भंग करने के जुर्म में कामदेव को पूर्णतः समाप्त करने के स्थान पर, उसकी देह को ही भस्म कर देते हैं क्योंकि ‘काम‘ का सम्बन्ध व्यक्ति की देह के साथ ही जुडा हुआ है । यही नहीं इस कथा के माध्यम से हमें यह समझाने का प्रयास किया गया है कि यदि व्यक्ति के अन्दर ईश्वर के प्रति विश्वास घनीभूत रूप में हो तो वह अपनी एक ही नज़र में ‘काम‘ जैसे विकारों को नष्ट कर सकता है । इसी तरह कथा आगे यह कहती है कि शिव के हाथों भस्म होने के पश्चात कामदेव का दोबारा जन्म कृष्ण-पुत्र श्री प्रद्युम्न के रूप में होता है । भगवान श्रीकृष्ण स्वयं विष्णु के अवतार है जो कि हृदय के प्रतीक हैं और श्रीकृष्ण भगवान इसी हृदय से निकले साक्षात प्रेम के ही रूप है । यहाँ यह समझने योग्य बात है कि प्रद्युम्न का जन्म ब्रज की गोपियों अथवा राधा के गर्भ से न होकर, कृष्ण की सामाजिक पत्नी के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त रूक्मणि देवी के गर्भ से होता है अर्थात इस सम्पूर्ण कथा के माध्यम से हमें यह समझाने का प्रयास किया गया है कि यदि व्यक्ति के मन में काम का भाव यूँ ही उठे तब तो यह ग़लत है किन्तु यदि यह काम-भाव व्यक्ति के हृदय से निकले प्रेम रूप में हो तथा यह विवाह बंधन में बँधा हो, तब ही यह जगत के कल्याणकारी हित में पूर्णतः स्वीकार्य है ।

सोमवार, 27 अप्रैल 2009

भगवान शिव का विरूपाक्ष मंदिर हंपी

हंपी, भगवान शिव का विरूपाक्ष मंदिर अथवा पंपापति का स्थान है जोकि विजयनगर के राजाओं के पारंपरिक एवं पारिवारिक भगवान थे। यह मंदिर बेलारी जिले में तुंगभद्रा नदी के दक्षिणी किनारे पर स्थित है और यह कर्नाटक में होसपेट शहर से नौ मील की दूरी पर है। यह विजयनगर का सबसे पुराना और पवित्र मंदिर है। यह मंदिर 1565 ईसवी में तालीकोटा के युद्व में विनाश से अद्भुत तरीके से बच गया था।

आरंभ में इस महान एवं प्राचीन मंदिर के आसपास एक छोटा सा गांव हुआ करता था। विजयनगर साम्राज्य स्थापित होने से पहले यहां प्रकृति ने अपनी विस्तृत चादर बिछा रखी थी। यहां पर एक तरफ तो एक विशाल चट्टान एवं विस्तृत पहाड़ियां थी तो दूसरी तरफ हरे भरे पेड़ और पौधे थे। पास ही से तुंगभद्रा नदी बहती थी।

यहां की विशाल चट्टानों, नदी, एकांत और प्रकृति ने अनेक बुद्विमानों एवं ऋषि-मुनियों को यहां आने के लिए आकर्षित किया है। विद्यारण्य ने इस स्थान को अपनी तपस्या के लिए चुना था। तुगंभद्रा नदी का दूसरा नाम पंपा भी है। पंपादेवी को ब्रहमा की पुत्री माना गया है और उसने हैमकूट पहाड़ी पर तपस्या की थी। भगवान विश्वेश्वर उसके सामने प्रकट हो गये और उसे अपनी संगनी बना लिया। विद्वानों और दार्शनिकों से प्रभावित हो कर 1336 ईसवीं में माधव, हरिहर, और बुक्का ने इस शहर की नींव ड़ाली और इसका नाम विजयनगर हरिहर और बुक्का ने अपने गुरू विद्यारण्य के नाम पर रखा। हरिहर और बुक्का संगम के पांच पुत्रों में से दो थे। इन्होंने पंपापति अथवा विरूपाक्ष को अपना कुल देवता माना। नदी के उत्तरी छोर पर अनेगुंडी का किला था और दक्षिणाी छोर पर विजयनगर को बसाया गया था। लगभग तीन सौ वर्षों तक विजयनगर बाहरी संस्कृति एवं विचारों से बचा रहा और देश की पारंपरिक संस्कृति तथा धर्म के समर्थन में खड़ा रहा। अब विजयनगर दक्षिण की कांशी बन गया था और विरूपाक्ष भारत के 108 दिव्य क्षेत्रों में से एक हो गया। विजयनगर साम्राज्य का पहला वंश संगम के नाम पर पड़ा था। संगम हरिहर और बुक्का का पिता था। बुक्का प्रथम के बाद हरिहर द्वितीय ने यहां की सत्ता संभाली। करनूल से लेकर कुंबाकोणम के बीच स्थित मंदिरों को इसने सोलह बड़े उपहार दिये थे जिसके लिए इसकी प्रशंसा की जाती है। इसने पूरे दक्षिण में अपने राज्य का विस्तार कर लिया। हांलाकि वह भगवान विरूपाक्ष का अनुयायी था परंतु वह अन्य धर्मों के प्रति भी उदार था। विजयनगर साम्राज्य और बादामी साम्राज्य के बीच लगातार युद्व होते रहते थे। संगम वंश में नौ राजा हुए थे जो यादवों और होयसेलों के पतन के बाद सत्ता में आये थे और ये 1336 ईसवीं से 1486 ईसवीे तक सत्ता में रहे।

सालुव वंश के अंतिम राजा को तालुव वंश के वीर नरसिंह ने सत्ता से हटा दिया। वीर नरसिंह के बाद उसके रिश्ते के छोटे भाई कृष्णदेव राय ने सत्ता संभाली जो विजयनगर साम्राज्य का सबसे महान एवं भारत का अनूठा राजा हुआ।

कृष्णदेव राय के राज में विजयनगर साम्राज्य अपने वैभव और खुशहाली के चरम उत्कर्ष पर पहुंच गया था। वह संस्कृत और तेलगु साहित्य का महान संरक्षक था। उसने स्वयं भी तेलगु में ''अमुक्तमल्यद'' नाम का एक ग्रंथ लिखा था जिसमें उसने स्वयं के द्वारा संस्कृत में लिखे पांच साहित्यों का वर्णन किया है। इसके दरबार में आठ मशहूर कवि आश्रय पाते थे जिन्हें '' अष्टदिग्गज'' कहा जाता था और इनमें सबसे अधिक पेद्दना मशहूर था। धुर्जती कवि भी मशहूर था। ऐसा कहा जाता है कि कृष्णदेव राय धुर्जती कवि के बारे में यह जानना चाहते थे कि उनकी कविताओं में इतनी मीठास कैसे आती है तो तेनालीराम जोकि एक प्रतिभाशली विद्वान एवं हंसौड़ा था और उसने ''पंडुरंग महात्यम'' नामक ग्रंथ की रचना की थी, उसने बताया कि इसका कारण धर्जती की संगनी के सुंदर होंठ है। कृष्णदेव राय की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई अच्युत राय गद्दी पर बैठा। इसके बाद वैंकट राय प्रथम और इसके बाद सदाशिव राय ने गद्दी संभाली। परंतु सारी शक्ति उसके मंत्री रामराय के हाथों में थी। वह वास्तविक शासक तो था ही साथ ही उसमें अपार क्षमता भी थी। परंतु अब वह दंभी और अति आत्मविश्वासी हो गया और उसने अपना गठबंधन भी बदल लिया जिसके कारण उसके पडौसी राज्य की प्रजा का वह घृणा पात्र बन गया। चार मुस्लिम राज्यों बीजापुर, गोलकुंडा, अहमद नगर और बीदर ने अपना एक अलग गठबंधन बनाया और इसने मिलकर विजयनगर पर हमला कर दिया। 23 जनवरी, 1665 ईसवीं में राक्षस और तगडी गांव के पास तालीकोटा में एक भयंकर युद्व हुआ जिसमें विजयनगर की पराजय हुई और हुसैन निज़ाम शाह ने रामराय की हत्या कर दी। विजयी सेना ने नगर में लूट मचा दी। बेहतरीन तरीके से बसे नगर को हमलावर सेना ने बर्बाद कर दिया। युद्व के तीन बाद से लेकर अगले पांच महीनों के दौरान लगातार विनाश चलता रहा और यह नगर पूरी तरह से नष्ट हो गया। ऐसा विश्व इतिहास में कभी नहीं हुआ जो एक दिन पहले शानदार और वैभवशाली राज्य था और अचानक ही अगले ही दिन उसका इस तरह से पतन हो जाये।

यूनेस्को की रिपोर्ट में भारतीय प्राचीन स्थापत्य, महलों मंदिरों, सुरक्षा मचानों, स्नानगृहाें और जगह-जगह फैले पडे बड़ी संख्या पत्थरों को स्थान दिया है। इसकी पूरी तस्वीर तुंगभद्रा नदी है जो यह महसूस कराती है कि लंबे समय से इसने बहुत कुछ छिपा रखा है। विजयनगर की राजधानी के रूप में हंपी में वो सारे तत्व मौजूद है जो उसे किसी भी राज परिवार के रहने के लिए गौरव दिलाते है। यहां हाथी, घोड़े, नृतकियां, पर्वत गुफाएं संगीतमय स्तंभ, कमल की आकृति के फव्वारे, सीढ़िदार तालाब आदि दृष्टिगोचर होते है। लगभग 25 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में जगह-जगह दबे अवशेष अद्भुत दिखाई देते है। विरूपाक्ष मंदिर का गोपुरम् पचास मीटर लंबा-चौड़ा और नौ मंजिला है। विट्ठल मंदिर में पत्थर से बने हुए छप्पन स्तंभ है जो एक क्रम में देखने पर संगीतमय आभास उत्पन्न करते है। यहीं पर 6.7 मीटर की एक विशाल शिला है जिसको नरसिंह कहते है। बेशक विजयनगर के हीरे-जवाहरात को लूट लिया गया हो और नगर पूरी तरह से खाली हो गया हो परंतु आज भी इस अंतिम नगर की महानता, महत्ता और वैभवता को महसूस किया जा सकता है।

ज्योतिष गुरु भगवान शिव

God Shivहमारी भारतीय संस्कृति इतनी विशाल है कि उसका प्रत्येक कार्य चाहे उपवास हो, पूजन हो, ध्यान हो या सामाजिक कार्य हो, सदैव संस्कृति से जुड़ा रहता है। हमारे देश के विभिन्न प्रांतों में अनेक देवताओं का पूजन होता रहा है किंतु शिव की व्यापकता ऐसी है कि वह हर जगह पूजे जाते हैं। हमारे प्राचीन ग्रंथ, जो हर जिज्ञासा को शांत करने में समर्थ हैं, जो श्रुति स्मृति के दैदीप्यमान स्तंभ हैं, ऐसे वेदों के वाग्मय में जगह-जगह शिव को ईश्वर या रुद्र के नाम से संबोधित कर उनकी व्यापकता को दर्शाया गया है।

यजुर्वेद के एकादश अध्याय के 54वें मंत्र में कहा गया है कि रुद्रदेव ने भूलोक का सृजन किया और उसको महान तेजस्विता से युक्त सूर्यदेव ने प्रकाशित किया। उन रुद्रदेव की प्रचंड ज्योति ही अन्य देवों के अस्तित्व की परिचायक है। शिव ही सर्वप्रथम देव हैं, जिन्होंने पृथ्वी की संरचना की तथा अन्य सभी देवों को अपने तेज से तेजस्वी बनाया। यजुर्वेद के 19वें अध्याय में 66 मंत्र हैं, जिन्हें रुद्री का नाम या नमक चमक के मंत्रों की संज्ञा दी है। इसी से भगवान भूत भावन महाकाल की पूजा-अर्चन व अभिषेक आदि होता है। इसी अध्याय के चौथे मंत्र में भगवान शिव को पर्वतवासी कहा गया। उनसे संपूर्ण जगत के कल्याण की कामना की गई और अपने विचारों की पवित्रता तथा निर्मलता मांगी गई। आगे 19वें मंत्र में अपनी संतानों की तथा पशुधन की रक्षा चाही गई।

महाकवि कालिदास ने अपने महाकाव्य रघुवंश में महेश्वर ˜यम्बक एवं न द्रपटा कहकर त्रिलोचन सदाशिव को ही महेश्वर कहा है। सभी प्रकार की याचनाएं उसी से की जाती हैं, जो उसको पूर्ण करने में समर्थ है और यही कारण है कि शिव औघरदानी के नाम से भी जाने जाते हैं।

वैदिक वांगमय में रुद्र का विशिष्ट स्थान है। शतपथ ब्रह्मण में रुद्र को अनेक जगह अग्नि के निकट ही माना गया है। कहते हैं कि ‘यो वैरुद्र: सो अग्नि’ रुद्र को पशुओं का पति भी कहा गया है। भगवान रुद्र को मरुत्तपिता कहा गया है। तैत्तरीय संहिता में शिव की व्यापकता बताई गई है। इसी कारण रुद्र एवं उनके गणों की यजुर्वेद में स्तुति की गई है।

शिव को पंचमुखी, दशभुजा युक्त माना है। शिव के पश्चिम मुख का पूजन पृथ्वी तत्व के रूप में किया जाता है। उनके उत्तर मुख का पूजन जल तत्व के रूप में, दक्षिण मुख का तेजस तत्व के रूप में तथा पूर्व मुख का वायु तत्व के रूप में किया जाता है। भगवान शिव के ऊध्र्वमुख का पूजन आकाश तत्व के रूप में किया जाता है। इन पांच तत्वों का निर्माण भगवान सदाशिव से ही हुआ है। इन्हीं पांच तत्वों से संपूर्ण चराचर जगत का निर्माण हुआ है। तभी तो भवराज पुष्पदंत महिम्न में कहते हैं - हे सदाशिव! आपकी शक्ति से ही इस संपूर्ण संसार चर-अचर का निर्माण हुआ है।

आप ही रक्षक हैं। आपकी माया से ही इस ब्रम्हांड का लय होता है। हे शिव! सत्वगुण, रजोगुण एवं तमोगुण का समावेश भी आपसे ही होता है। श्लोक में आगे वे कहते हैं कि हे सदाशिव! आपके पास केवल एक बूढ़ा बेल, खाट की पाटी, कपाल, फरसा, सिंहचर्म, भस्म एवं सर्प है, किंतु सभी देवता आपकी कृपा से ही सिद्धियां, शक्तियां एवं ऐश्वर्य भोगते हैं। 29वें श्लोक में वे कहते हैं - शिव को ऋक, यजु, साम, ओंकार तीनों अवस्थाएं, जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, स्वर्ग लोक, मृत्युलोक एवं पाताल लोक, ब्रह्मा, विष्णु आदि को धारण किए हुए दर्शाया है।

इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवान शिव उत्पत्ति, स्थिति एवं संहार के दृष्टा हैं। निर्माण, रक्षण एवं संहरण कार्यो का कर्ता होने के कारण उन्हें ही ब्रम्हा, विष्णु एवं रुद्र कहा गया है। इदं व इत्थं से उनका वर्णन शब्द से परे है। शिव की महिमा वाणी का विषय नहीं है। मन का विषय भी नहीं है। वे तो सारे ब्रम्हांड में तद्रूप होकर विद्यमान होने से सदैव श्वास-प्रश्वास में अनुभूत होते रहते हैं। इसी कारण ईश्वर के स्वरूप को अनुभव एवं आनंद की संज्ञा दी गई है।

आगे भगवान सदाशिव को अनेक नामों से जानने का प्रयत्न किया गया है, जिसमें त्रिनेत्र, जटाधर, गंगाधर, महाकाल, काल, नक्षत्रसाधक, ज्योतिषमयाय, त्रिकालधृष, शत्रुहंता आदि अनेक नाम हैं। यहां महाकाल पर चर्चा करना आवश्यक होगा। काल का अर्थ है समय। ज्योतिषीय गणना में समय का बहुत महत्व है। उस समय की गणना किसे आधार मानकर की जाए, यह भी एक महत्वपूर्ण बिंदु है। अवंतिका (उज्जैन) गौरवशालिनी है क्योंकि जब सूर्य की परम क्रांति 24 होती है, तब सूर्य ठीक अवंतिका के मस्तक पर होता है।

वर्ष में एक बार ही ऐसा होता है। यह स्थिति विश्व में और कहीं नहीं होती क्योंकि अवंतिका का ही अक्षांक्ष 24 है। यही संपूर्ण भूमंडल का मध्यवर्ती स्थान माना गया है। यह गौरव मात्र अवंतिका को ही प्राप्त है और इसी कारण यहां महाकाल स्थापित हुए हैं, जो स्वयंभू हैं। यहीं से भूमध्य रेखा को माना गया है। शिव को नक्षत्र साधक भी कहा गया है। जो यह स्पष्ट करता है कि शिव ज्योतिष शास्त्र के प्रणोता, गुरु, प्रसारक एवं उपदेशक शिव है।

भगवान सदाशिव का एक नाम शत्रुहंता भी है। हम इसका अर्थ लौकिक शत्रु का नाश करना समझते हैं, लेकिन इसका अर्थ है, अपने भीतर के शत्रु भाव को समाप्त करना। अनेक कथाओं में हम देखते हैं कि जब ब्रrांड पर कोई भी विपत्ति आई, सभी देवता सदाशिव के पास गए। चाहे समुद्रमंथन से निकलने वाला जहर हो या त्रिपुरासुर का आतंक या आपतदैत्य का कोलाहल, इसी कारण तो भगवान शिव परिवार के सभी वाहन शत्रु भाव त्यागकर परस्पर मैत्री भाव से रहते हैं। शिवजी का वाहन नंदी (बैल), उमा (पार्वती) का वाहन सिंह, भगवान के गले का सर्प, कार्तिकेय का वाहन मयूर, गणोश का चूहा सभी परस्पर प्रेम एवं सहयोग भाव से रहते हैं।

शिव को त्रिनेत्र कहा गया है। ये तीन नेत्र सूर्य, चंद्र एवं वहनी है, जिनके नेत्र सूर्य एवं चंद्र हैं। शिव के बारे में जितना जाना जाए, उतना कम है। अधिक न कहते हुए इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि शिव केवल नाम ही नहीं हैं अपितु संपूर्ण ब्रह्मांड की प्रत्येक हलचल परिवर्तन, परिवर्धन आदि में भगवान सदाशिव के सर्वव्यापी स्वरूप के ही दर्शन होते हैं।

भगवान शिव के १०८ नाम

  1. शिव - कल्याण स्वरूप
  2. महेश्वर - माया के अधीश्वर
  3. शम्भू - आनंद स्स्वरूप वाले
  4. पिनाकी - पिनाक धनुष धारण करने वाले
  5. शशिशेखर - सिर पर चंद्रमा धारण करने वाले
  6. वामदेव - अत्यंत सुंदर स्वरूप वाले
  7. विरूपाक्ष - भौंडी आँख वाले
  8. कपर्दी - जटाजूट धारण करने वाले
  9. नीललोहित - नीले और लाल रंग वाले
  10. शंकर - सबका कल्याण करने वाले
  11. शूलपाणी - हाथ में त्रिशूल धारण करने वाले
  12. खटवांगी - खटिया का एक पाया रखने वाले
  13. विष्णुवल्लभ - भगवान विष्णु के अतिप्रेमी
  14. शिपिविष्ट - सितुहा में प्रवेश करने वाले
  15. अंबिकानाथ - भगवति के पति
  16. श्रीकण्ठ - सुंदर कण्ठ वाले
  17. भक्तवत्सल - भक्तों को अत्यंत स्नेह करने वाले
  18. भव - संसार के रूप में प्रकट होने वाले
  19. शर्व - कष्टों को नष्ट करने वाले
  20. त्रिलोकेश - तीनों लोकों के स्वामी
  21. शितिकण्ठ - सफेद कण्ठ वाले
  22. शिवाप्रिय - पार्वती के प्रिय
  23. उग्र - अत्यंत उग्र रूप वाले
  24. कपाली - कपाल धारण करने वाले
  25. कामारी - कामदेव के शत्रु
  26. अंधकारसुरसूदन - अंधक दैत्य को मारने वाले
  27. गंगाधर - गंगा जी को धारण करने वाले
  28. ललाटाक्ष - ललाट में आँख वाले
  29. कालकाल - काल के भी काल
  30. कृपानिधि - करूणा की खान
  31. भीम - भयंकर रूप वाले
  32. परशुहस्त - हाथ में फरसा धारण करने वाले
  33. मृगपाणी - हाथ में हिरण धारण करने वाले
  34. जटाधर - जटा रखने वाले
  35. कैलाशवासी - कैलाश के निवासी
  36. कवची - कवच धारण करने वाले
  37. कठोर - अत्यन्त मजबूत देह वाले
  38. त्रिपुरांतक - त्रिपुरासुर को मारने वाले
  39. वृषांक - बैल के चिह्न वाली झंडा वाले
  40. वृषभारूढ़ - बैल की सवारी वाले
  41. भस्मोद्धूलितविग्रह - सारे शरीर में भस्म लगाने वाले
  42. सामप्रिय - सामगान से प्रेम करने वाले
  43. स्वरमयी - सातों स्वरों में निवास करने वाले
  44. त्रयीमूर्ति - वेदरूपी विग्रह करने वाले
  45. अनीश्वर - जिसका और कोई मालिक नहीं है
  46. सर्वज्ञ - सब कुछ जानने वाले
  47. परमात्मा - सबका अपना आपा
  48. सोमसूर्याग्निलोचन - चंद्र, सूर्य और अग्निरूपी आँख वाले
  49. हवि - आहूति रूपी द्रव्य वाले
  50. यज्ञमय - यज्ञस्वरूप वाले
  51. सोम - उमा के सहित रूप वाले
  52. पंचवक्त्र - पांच मुख वाले
  53. सदाशिव - नित्य कल्याण रूप वाले
  54. विश्वेश्वर - सारे विश्व के ईश्वर
  55. वीरभद्र - बहादुर होते हुए भी शांत रूप वाले
  56. गणनाथ - गणों के स्वामी
  57. प्रजापति - प्रजाओं का पालन करने वाले
  58. हिरण्यरेता - स्वर्ण तेज वाले
  59. दुर्धुर्ष - किसी से नहीं दबने वाले
  60. गिरीश - पहाड़ों के मालिक
  61. गिरिश - कैलाश पर्वत पर सोने वाले
  62. अनघ - पापरहित
  63. भुजंगभूषण - साँप के आभूषण वाले
  64. भर्ग - पापों को भूंज देने वाले
  65. गिरिधन्वा - मेरू पर्वत को धनुष बनाने वाले
  66. गिरिप्रिय - पर्वत प्रेमी
  67. कृत्तिवासा - गजचर्म पहनने वाले
  68. पुराराति - पुरों का नाश करने वाले
  69. भगवान् - सर्वसमर्थ षड्ऐश्वर्य संपन्न
  70. प्रमथाधिप - प्रमथगणों के अधिपति
  71. मृत्युंजय - मृत्यु को जीतने वाले
  72. सूक्ष्मतनु - सूक्ष्म शरीर वाले
  73. जगद्व्यापी - जगत् में व्याप्त होकर रहने वाले
  74. जगद्गुरू - जगत् के गुरू
  75. व्योमकेश - आकाश रूपी बाल वाले
  76. महासेनजनक - कार्तिकेय के पिता
  77. चारुविक्रम - सुन्दर पराक्रम वाले
  78. रूद्र - भक्तों के दुख देखकर रोने वाले
  79. भूतपति - भूतप्रेत या पंचभूतों के स्वामी
  80. स्थाणु - स्पंदन रहित कूटस्थ रूप वाले
  81. अहिर्बुध्न्य - कुण्डलिनी को धारण करने वाले
  82. दिगम्बर - नग्न, आकाशरूपी वस्त्र वाले
  83. अष्टमूर्ति - आठ रूप वाले
  84. अनेकात्मा - अनेक रूप धारण करने वाले
  85. सात्त्विक - सत्व गुण वाले
  86. शुद्धविग्रह - शुद्धमूर्ति वाले
  87. शाश्वत - नित्य रहने वाले
  88. खण्डपरशु - टूटा हुआ फरसा धारण करने वाले
  89. अज - जन्म रहित
  90. पाशविमोचन - बंधन से छुड़ाने वाले
  91. मृड - सुखस्वरूप वाले
  92. पशुपति - पशुओं के मालिक
  93. देव - स्वयं प्रकाश रूप
  94. महादेव - देवों के भी देव
  95. अव्यय - खर्च होने पर भी न घटने वाले
  96. हरि - विष्णुस्वरूप
  97. पूषदन्तभित् - पूषा के दांत उखाड़ने वाले
  98. अव्यग्र - कभी भी व्यथित न होने वाले
  99. दक्षाध्वरहर - दक्ष के यज्ञ को नष्ट करने वाले
  100. हर - पापों व तापों को हरने वाले
  101. भगनेत्रभिद् - भग देवता की आंख फोड़ने वाले
  102. अव्यक्त - इंद्रियों के सामने प्रकट न होने वाले
  103. सहस्राक्ष - अनंत आँख वाले
  104. सहस्रपाद - अनंत पैर वाले
  105. अपवर्गप्रद - कैवल्य मोक्ष देने वाले
  106. अनंत - देशकालवस्तुरूपी परिछेद से रहित
  107. तारक - सबको तारने वाला
  108. परमेश्वर - सबसे परे ईश्वर

शैव हिन्दू धर्म का एक पंथ

1.

शिव के सभी अनुयायियों का विश्वास है कि भगवान शिव ईश्वर हैं, जिनकी परम सत्ता, पराशिव, दिक्काल और रुप से परे है। योगी मौन रुप से उसे "नेति नेति" कहते हैं। जी हाँ, भगवान शिव ऐसे ही अबोधगम्य भगवान हैं। ॐ

2.

शिव के सभी अनुयायियों का विश्वाश है कि भगवान शिव ईश्वर हैं, जिनके प्रेम की सर्वव्यापी प्राकृति, पराशक्ति, आधारभूत, मूल तत्व या शुद्ध चेतना है, जो सभी स्वरुपों से ऊर्जा, अस्तित्व, ज्ञान और परमानन्द के रुप में बहती रहती है। ॐ

3.

शिव के सभी अनुयायियों का विश्वास है कि भगवान शिव ईश्वर हैं , जिनकी सर्वव्यापी प्रकृति परम् आत्मा, सर्वोपरि महादेव, परमेश्वर, वेदों एवं आगमों की प्रणेता तथा सभी सत्ताओं की कर्ता भर्ता एवं हर्ता हैं। ॐ

4.

शिव के सभी अनुयायी शिव-शक्ति के पुत्र महादेव भगवान गणेश में विश्वास करते हैं तथा कोई भी पूजा या कार्य प्रारंभ करने से पूर्व उनकी पूजा अवश्य करते हैं। उनका नियम सहानुभूतिशील है। उनका विधान न्यायपूर्ण है। न्याय ही उनका मन है। ॐ

5.

शिव के सभी अनुयायी शिव - शक्ति के पुत्र महादेव कार्तिकेय में विश्वास करते हैं, जिनकी कृपा का वेल अज्ञान के बंधन को नष्ट कर देता है। योगी पद्मासन में बैठकर मुरूगन की उपासना करते हैं। इस आत्मसंयम से, उनका मन शांत हो जाता है। ॐ

6.

शिव के सभी अनुयायियों का विश्वास है कि सभी आत्माओं की रचना भगवान शिव ने की है और वे तद्रूप (उन्ही जैसी) हैं तथा जब उनकी कृपा से अणव, कर्म और माया दूर हो जाएगी, तो सभी आत्माएं इस तद्रूपता का पूर्ण साक्षात्कार कर लेंगी। ॐ

7.

शिव के सभी अनुयायी तीन लोकों में विश्वास करते हैं: स्थूल लोक (भूलोक), जहां सभी आत्माएं भौतिक शरीर धारण करती हैं, सूक्ष्म लोक (अंतर्लोक) जहां आत्माएं सूक्ष्म शरीर धारण करती हैं, तथा कारण लोक (शिवलोक) जहां आत्माएं अपने स्व-प्रकाशमान स्परुप में विद्यमान रहती हैं। ऊँ

8.

शिव के सभी अनुयायी कर्म के विधान में विश्वास करते हैं - कि सबको अपने सभी कर्मों का फल अवश्य मिलता है - और यह कि सभी कर्मों के नष्ट होने तक और मोक्ष या निर्वाण प्राप्त होने तक सभी आत्मा बार-बार शरीर धारण करती रहती हैं। ॐ

9.

शिव के सभी अनुयायियों का विश्वास है कि ज्ञान या प्रज्ञा प्राप्त करने के लिए चर्या या धार्मिक जीवन, क्रिया या मंदिर में पूजा और जीवित सत्गुरू की कृपा से योगाभ्यास अत्यावश्यक है, जो पराशिव की और ले जाता है। ॐ

10.

शिव के सभी अनुयायियों का विश्वास है अशुभ या अमंगल का कोई तात्त्विक अस्तित्व नहीं है। जब तक अशुभ के आभास का स्रोत अज्ञान स्वयं न हो, अशुभ का कोई स्रोत नहीं है। शैव हिन्दू वास्तव में दयालु होते हैं, वे जानते हैं कि अन्ततः कुछ भी शुभ या अशुभ नहीं है। सबकुछ शिव की इच्छा है। ॐ

11.

शिव के सभी अनुयायियों का विश्वास है कि तीनों लोकों द्वारा सामंजस्यपूर्वक एकसाथ कार्य करना धर्म है और यह कि यह सामंजस्य मंदिर में पूजा करके उत्पन्न किया जा सकता है, जहां पर तीनों लोकों की सत्ताएं संप्रेषण कर सकती हैं। ॐ

12.

शिव के सभी अनुयायी पंचाक्षर मंत्र, पांच पवित्र अक्षरों से बने मंत्र "नमः शिवाय" में विश्वास करते हैं, जो शैव संप्रदाय का प्रमुख और अनिवार्य मंत्र है। "नमः शिवाय" का रहस्य इसे सही होठों से सही समय पर सुनना है। ॐ

बुधवार, 22 अप्रैल 2009

रुद्र का अंश रुद्राक्ष

भगवान शंकर की उपासना में रुद्राक्ष का अत्यन्त महत्व है। रुद्राक्ष शब्द की शास्त्रीय विवेचना से यह स्पष्ट हो जाता है कि इसकी उत्पत्ति महादेव जी के अश्रुओं से हुई है-

रुद्रस्य अक्षि रुद्राक्ष:, अक्ष्युपलक्षितम्अश्रु, तज्जन्य: वृक्ष:।

शिवपुराणकी विद्येश्वर संहिता तथा श्रीमद्देवी भागवत में इस संदर्भ में कथाएं मिलती हैं। उनका सारांश यह है कि अनेक वर्षो की समाधि के बाद जब सदाशिव ने अपने नेत्र खोले, तब उनके नेत्रों से कुछ आँसू पृथ्वी पर गिरे। उन्हीं अश्रु बिन्दुओं से रुद्राक्ष के महान वृक्ष उत्पन्न हुए।

रुद्राक्ष धारण करने से तन-मन में पवित्रता का संचार होता है। रुद्राक्ष पापों के बडे से बडे समूह को भी भेद देते हैं। चार वर्णो के अनुरूप ये भी श्वेत, रक्त, पीत और कृष्ण वर्ण के होते हैं। ऋषियों का निर्देश है कि मनुष्य को अपने वर्ण के अनुसार रुद्राक्ष धारण करना चाहिए। भोग और मोक्ष, दोनों की कामना रखने वाले लोगों को रुद्राक्ष की माला अथवा मनका जरूर पहिनना चाहिए। विशेषकर शैवोंके लिये तो रुद्राक्ष को धारण करना अनिवार्य ही है।

जो रुद्राक्ष आँवले के फल के बराबर होता है, वह समस्त अरिष्टोंका नाश करने में समर्थ होता है। जो रुद्राक्ष बेर के फल के बराबर होता है, वह छोटा होने पर भी उत्तम फल देने वाला व सुख-सौभाग्य की वृद्धि करने वाला होता है। गुन्जाफालके समान बहुत छोटा रुद्राक्ष सभी मनोरथों को पूर्ण करता है। रुद्राक्ष का आकार जैसे-जैसे छोटा होता जाता है, वैसे-वैसे उसकी शक्ति उत्तरोत्तर बढती जाती है। विद्वानों ने भी बडे रुद्राक्ष से छोटा रुद्राक्ष कई गुना अधिक फलदायी बताया है किन्तु सभी रुद्राक्ष नि:संदेह सर्वपापनाशक तथा शिव-शक्ति को प्रसन्न करने वाले होते हैं। सुंदर, सुडौल, चिकने, मजबूत, अखण्डित रुद्राक्ष ही धारण करने हेतु उपयुक्त माने गए हैं। जिसे कीडों ने दूषित कर दिया हो, जो टूटा-फूटा हो, जिसमें उभरे हुए दाने न हों, जो व्रणयुक्तहो तथा जो पूरा गोल न हो, इन पाँच प्रकार के रुद्राक्षों को दोषयुक्त जानकर त्याग देना ही उचित है। जिस रुद्राक्ष में अपने-आप ही डोरा पिरोने के योग्य छिद्र हो गया हो, वही उत्तम होता है। जिसमें प्रयत्न से छेद किया गया हो, वह रुद्राक्ष कम गुणवान माना जाता है।

रुद्राक्ष दो जाति के होते हैं- रुद्राक्ष एवं भद्राक्ष। रुद्राक्ष के मध्य में भद्राक्षधारण करना महान फलदायक होता है- रुद्राक्षाणांतुभद्राक्ष:स्यान्महाफलम्।

शास्त्रों में एक से चौदहमुखी तक रुद्राक्षों का वर्णन मिलता है। इनमें एकमुखी रुद्राक्ष सर्वाधिक दुर्लभ एवं सर्वश्रेष्ठ है।

एकमुखी रुद्राक्ष साक्षात् शिव का स्वरूप होने से परब्रह्म का प्रतीक माना गया है। इसका प्राय: अ‌र्द्धचन्द्राकार रूप ही दिखाई देता है। एकदम गोल एकमुखी रुद्राक्ष लगभग अप्राप्य ही है। एकमुखी रुद्राक्ष धारण करने से ब्रह्महत्या के समान महापात कभी नष्ट हो जाते हैं। समस्त कामनाएं पूर्ण होती हैं तथा जीवन में कभी किसी वस्तु का अभाव नहीं होता है। भोग के साथ मोक्ष प्रदान करने में समर्थ एकमुखी रुद्राक्ष भगवान शंकर की परम कृपा से ही मिलता है।

दोमुखी रुद्राक्ष को साक्षात् अ‌र्द्धनारीश्वर ही मानें। इसे धारण करने वाला भगवान भोलेनाथ के साथ माता पार्वती की अनुकम्पा का भागी होता है। इसे पहिनने से दाम्पत्य जीवन में मधुरता आती है तथा पति-पत्नी का विवाद शांत हो जाता है। दोमुखी रुद्राक्ष घर-गृहस्थी का सम्पूर्ण सुख प्रदान करता है।

तीन-मुखी रुद्राक्ष अग्नि का स्वरूप होने से ज्ञान का प्रकाश देता है। इसे धारण करने से बुद्धि का विकास होता है, एकाग्रता और स्मरण-शक्ति बढती है। विद्यार्थियों के लिये यह अत्यन्त उपयोगी है।

चार-मुखी रुद्राक्ष चतुर्मुख ब्रह्माजीका प्रतिरूप होने से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चारों पुरुषार्थो को देने वाला है। नि:संतान व्यक्ति यदि इसे धारण करेंगे तो संतति-प्रतिबन्धक दुर्योगका शमन होगा। कुछ विद्वान चतुर्मुखी रुद्राक्ष को गणेश जी का प्रतिरूप मानते हैं।

पाँचमुखी रुद्राक्ष पंचदेवों-शिव, शक्ति, गणेश, सूर्य और विष्णु की शक्तियों से सम्पन्न माना गया है। कुछ ग्रन्थों में पंचमुखी रुद्राक्ष के स्वामी कालाग्नि रुद्र बताए गए हैं। सामान्यत: पाँच मुख वाला रुद्राक्ष ही उपलब्ध होता है। संसार में ज्यादातर लोगों के पास पाँचमुखी रुद्राक्ष ही हैं।

इसकी माला पर पंचाक्षर मंत्र (नम:शिवाय) जपने से मनोवांछित फल प्राप्त होता है।

छह मुखी रुद्राक्ष षण्मुखी कार्तिकेय का स्वरूप होने से शत्रुनाशकसिद्ध हुआ है। इसे धारण करने से आरोग्यता,श्री एवं शक्ति प्राप्त होती है। जिस बालक को जन्मकुण्डली के अनुसार बाल्यकाल में किसी अरिष्ट का खतरा हो, उसे छह मुखी रुद्राक्ष सविधि पहिनाने से उसकी रक्षा अवश्य होगी।

सातमुखी रुद्राक्ष कामदेव का स्वरूप होने से सौंदर्यवर्धकहै। इसे धारण करने से व्यक्तित्व आकर्षक और सम्मोहक बनता है। कुछ विद्वान सप्तमातृकाओंकी सातमुखीरुद्राक्ष की स्वामिनी मानते हैं। इसको पहिनने से दरिद्रता नष्ट होती है और घर में सुख-समृद्धि का आगमन होता है।

आठमुखीरुद्राक्ष अष्टभैरव-स्वरूपहोने से जीवन का रक्षक माना गया है। इसे विधिपूर्वक धारण करने से अभिचार कर्मो अर्थात् तान्त्रिक प्रयोगों (जादू-टोने) का प्रभाव समाप्त हो जाता है। धारक पूर्णायु भोगकर सद्गति प्राप्त करता है।

नौमुखीरुद्राक्ष नवदुर्गा का प्रतीक होने से असीम शक्तिसम्पन्न है। इसे अपनी भुजा में धारण करने से जगदम्बा का अनुग्रह अवश्य प्राप्त होता है। शाक्तों(देवी के आराधकों)के लिये नौमुखीरुद्राक्ष भगवती का वरदान ही है। इसे पहिनने वाला नवग्रहों की पीडा से सुरक्षित रहता है।

दसमुखीरुद्राक्ष साक्षात् जनार्दन श्रीहरिका स्वरूप होने से समस्त इच्छाओं को पूरा करता है। इसे धारण करने से अकाल मृत्यु का भय दूर होता है तथा कष्टों से मुक्ति मिलती है।

ग्यारहमुखीरुद्राक्ष एकादश रुद्र- स्वरूप होने से तेजस्विता प्रदान करता है। इसे धारण करने वाला कभी कहीं पराजित नहीं होता है।

बारहमुखीरुद्राक्ष द्वादश आदित्य- स्वरूप होने से धारक व्यक्ति को प्रभावशाली बना देता है। इसे धारण करने से सात जन्मों से चला आ रहा दुर्भाग्य भी दूर हो जाता है और धारक का निश्चय ही भाग्योदय होता है।

तेरहमुखीरुद्राक्ष विश्वेदेवोंका स्वरूप होने से अभीष्ट को पूर्ण करने वाला, सुख-सौभाग्यदायक तथा सब प्रकार से कल्याणकारी है। कुछ साधक तेरहमुखीरुद्राक्ष का अधिष्ठाता कामदेव को मानते हैं।

चौदहमुखीरुद्राक्ष मृत्युंजय का स्वरूप होने से सर्वरोगनिवारकसिद्ध हुआ है। इसको धारण करने से असाध्य रोग भी शान्त हो जाता है। जन्म-जन्मान्तर के पापों का शमन होता है।

एक से चौदहमुखीरुद्राक्षों को धारण करने के मंत्र क्रमश:इस प्रकार हैं-

1.ॐह्रींनम:, 2.ॐनम:, 3.ॐक्लींनम:, 4.ॐह्रींनम:, 5.ॐह्रींनम:, 6.ॐ ह्रींहुं नम:, 7.ॐहुं नम:, 8.ॐहुं नम:, 9.ॐह्रींहुं नम:, 10.ॐह्रींनम:, 11.ॐह्रींहुं नम:, 12.ॐक्रौंक्षौंरौंनम:, 13.ॐह्रींनम:, 14.ॐनम:।

निर्दिष्ट मंत्र से अभिमंत्रित किए बिना रुद्राक्ष धारण करने पर उसका शास्त्रोक्त फल प्राप्त नहीं होता है और दोष भी लगता है। रुद्राक्ष धारण करने पर मद्य, मांस, लहसुन, प्याज, सहजन,लिसोडा आदि पदार्थो का परित्याग कर देना चाहिए। इन निषिद्ध वस्तुओं के सेवन का रुद्राक्ष-जाबालोपनिषद् में सर्वथा निषेध किया गया है। रुद्राक्ष वस्तुत:महारुद्रका अंश होने से परम पवित्र एवं पापों का नाशक है। इसके दिव्य प्रभाव से जीव शिवत्व प्राप्त करता है।

नर्मदा का हर कंकर शंकर

पुण्याकनखलेगंगा कुरुक्षेत्रेसरस्वती।

ग्रामेवायदि वारण्येपुण्यासर्वत्र नर्मदा।

त्रिभि:सारस्वतंपुण्यंसप्ताहेनतुयामुनम्।

सद्य:पुनातिगाङ्गेयंदर्शनादेवनर्मदाम्।

गंगा हरिद्वार तथा सरस्वती कुरुक्षेत्र में अत्यंत पुण्यमयीकही गयी है, किंतु नर्मदा चाहें गांव के बगल से बह रही हो या जंगल के बीच, वे सर्वत्र पुण्यमयीहैं। सरस्वती का जल तीन दिनों में, यमुनाजीका एक सप्ताह में तथा गंगाजीका जल स्पर्श करते ही पवित्र कर देता है किन्तु नर्मदा का जल केवल दर्शन मात्र से पावन कर देता है।

पुराणों में पुरुरवातथा हिरण्यतेजाके तप से नर्मदा जी के पृथ्वी पर पधारने की कथा का विस्तार से वर्णन है। भूलोक में भगवती नर्मदा का आगमन इनकी कठोर तपस्या के फलस्वरूप ही हुआ। स्कन्दपुराणका रेवाखण्डइस संदर्भ में पर्याप्त प्रकाश डालता है। वह स्थान अतिपवित्रहै, जहां नर्मदा जी विद्यमान हैं। नर्मदा के तट पर जहां कहीं भी स्नान, दान, जप, होम, वेद-पाठ, पितृ-तर्पण, देवाराधन, मंत्रोपदेश, सन्यास-ग्रहण और देह-त्याग आदि जो कुछ भी किया जाता है, उसका अनंत फल होता है। माघ, वैशाख अथवा कार्तिक की पूर्णिमा, विषुवयोग, संक्रान्तिकाल, व्यतिपातएवं वैधृतियोग, तिथि की वृद्धि अथवा क्षय (हानि), मन्वादि, युगादि, कल्पादितिथियों में नर्मदा का सेवन अक्षय पुण्य प्रदान करता है। नर्मदा में स्नान से जन्म-जन्मांतर के पाप नष्ट हो जाते हैं और अश्वमेध जो यज्ञ का फल प्राप्त होता है। प्रात:काल उठकर नर्मदा का कीर्तन करता है, उसका सात जन्मों का किया हुआ पाप उसी क्षण नष्ट हो जाता है। नर्मदा के जल से तर्पण करने पर पितरोंको तृप्ति और सद्गति प्राप्त होती है।

स्कन्दपुराणके अनुसार नर्मदा का पहला अवतरण आदिकल्पके सत्ययुग में हुआ था। दूसरा अवतरण दक्षसावर्णिमन्वन्तर में हुआ। तीसरा अवतरण राजा पुरुरवाद्वारा वैष्णव मन्वन्तर में हुआ। नर्मदा में स्नान करने, गोता लगाने, उसका जल पीने तथा नर्मदा का स्मरण एवं कीर्तन करने से अनेक जन्मों के घोर पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं। नर्मदा समस्त सरिताओं में श्रेष्ठ है। वे सम्पूर्ण जगत् को तारने के लिये ही धरा पर अवतीर्ण हुई हैं। इनकी कृपा से भोग और मोक्ष, दोनो सुलभ हो जाते हैं।

धर्मग्रन्थों में नर्मदा में प्राप्त होने वाले बाणलिंग (नर्मदेश्वर)की बडी महिमा बतायी गई है। नर्मदेश्वर (बाणलिंग) को स्वयंसिद्ध शिवलिंगमाना गया है। इनकी प्राण-प्रतिष्ठा नहीं होती। आवाहन किए बिना इनका पूजन सीधे किया जा सकता है। कल्याण के शिवपुराणांक में वर्तमान श्रीविश्वेश्वर-लिंगको बाणलिङ्गबताया गया है। मेरुतंत्रके चतुर्दश पटल में स्पष्ट लिखा है कि नर्मदेश्वरके ऊपर चढे हुए सामान को ग्रहण किया जा सकता है। शिव-निर्माल्य के रूप उसका परित्याग नहीं किया जाता। बाणलिङ्ग (नर्मदेश्वर) के ऊपर निवेदित नैवेद्य को प्रसाद की तरह खाया जा सकता है। इस प्रकार नर्मदेश्वरगृहस्थोंके लिए सर्वश्रेष्ठ शिवलिंगहै। नर्मदा का बाणलिङ्गभुक्ति और मुक्ति, दोनों देता है।

आचार्यो का निर्देश है कि नर्मदा से बाणलिङ्गप्राप्त करने के उपरांत पहले उसकी ग्राह्यताकी परीक्षा करें। सर्वप्रथम बाणलिङ्गको चावल से ठीक प्रकार से तौलें। हाथ में लेने के बाद दोबारा पुन:तौलने पर यदि बाणलिङ्गहलका ठहरे तो वह गृहस्थोंके लिए पूजनीय होगा। कई बार तौलने पर भी यदि वजन बिल्कुल बराबर निकले तो उस लिङ्गको नर्मदा जी में विसर्जितकर दें। यदि बाणलिङ्गतौल में भारी सिद्ध हो तो वह उदासीनोंके लिए उपयुक्त रहेगा। तौल में कमी-बेशी ही बाणलिङ्गकी प्रमुख पहचान है। नर्मदा के नर्मदेश्वरअपने विशिष्ट गुणों के कारण शिव-भक्तों के परम आराध्य हैं।

भगवती नर्मदा की उपासना युगों से होती आ रही हैं। मेरुतंत्रमें नर्मदा देवी के निम्न मंत्र का उल्लेख है-

ऐं श्रींमेकल-कन्यायैसोमोद्भवायैदेवापगायैनम:।

इस मंत्र के ऋषि भृगु, छन्द अमित और देवता नर्मदा हैं। उनके अधिदैविक स्वरूप का ध्यान इस प्रकार करें-

कनकाभांकच्छपस्थांत्रिनेत्रांबहुभूषणां।

पद्माभय:सुधाकुम्भ:वराद्यान्विभ्रतींकरै:।

मंत्र के पुरश्चरण में एक लाख जप करने का विधान निर्दिष्ट है। तत्पश्चात् दशांश होम, तर्पणादिसविधि करें। इस मंत्र की साधना से विद्यार्थी विद्या और ज्ञान, धनार्थी सुख-समृद्धि रोगी स्वास्थ्य, पुत्रार्थी पुत्र तथा मोक्षार्थीभव-बंधन से मुक्ति पा जाता है।

पद्मपुराणके स्वर्गखण्डमें देवर्षिनारद भगवती नर्मदा की स्तुति करते हुए कहते हैं-

नम: पुण्यजलेआद्येनम: सागरगामिनि।

नमोऽस्तुतेऋषिगणै:शंकरदेहनि:सृते।

नमोऽस्तुतेधर्मभृतेवराननेनमोऽस्तुतेदेवगणैकवन्दिते।

नमोऽस्तुतेसर्वपवित्रपावनेनमोऽस्तुतेसर्वजगत्सुपूजिते।

पुण्यसलिला नर्मदा तुम सब नदियों में प्रधान हो, तुम्हें नमस्कार है। सागरगामिनीतुमको प्रणाम है। ऋषि-मुनियों द्वारा पूजित तथा भगवान शंकर की देह से प्रकट हुई नर्मदेतुम्हें बारंबार नमस्कार है। सुमुखितुम धर्म को धारण करने वाली हो, तुम्हें प्रणाम है। देवगण तुम्हारे समक्ष मस्तक झुकाते हैं, तुम्हें नमस्कार है। देवि तुम समस्त पवित्र वस्तुओं को भी परम पावन बनाने वाली हो, सारा संसार तुम्हारी पूजा करता है, तुम्हें बारंबार नमस्कार है।

नर्मदा जी का जितना भी गुण-गान किया जाए कम ही होगा। इनका हर कंकर शंकर की तरह पूजा जाता है। नर्मदा का स्वच्छ निर्मल जल पृथ्वी का मानों अमृत ही है। माघ मास के शुक्लपक्ष की सप्तमी तिथि को शास्त्रों में नर्मदा जयंती कहा गया है।

साभार : डा. अतुल टण्डन

साक्षात् ब्रह्म का प्रतीक है शिवलिङ्ग

शिवलिंगकी अर्चना अनादिकालसे जगद्व्यापकहै। संसार के सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद में लिंगोपासना की चर्चा मिलती है। शुक्लयजुर्वेदकी रुद्राष्टाध्यायीके द्वारा शिवार्चन एवं रुद्राभिषेक करने से समस्त कामनाएं पूर्ण होती हैं तथा अन्त में सद्गति भी प्राप्त होती है। रुद्रहृदयोपनिषद्का स्पष्ट कथन है-

सर्वदेवात्मको रुद्र: सर्वे देवा: शिवात्मका:।

अर्थात् शिव और रुद्र सर्वदेवमयहोने से ब्रह्म के ही पर्यायवाची शब्द हैं। प्राय: सभी पुराणों में शिवलिंगके पूजन का उल्लेख और माहात्म्य मिलता है। हिन्दू साहित्य में जहाँ कहीं भी शिवोपासनाका वर्णन है, वहाँ शिवलिंगकी महिमा का गुण-गान अवश्य हुआ है।

लिंग शब्द का साधारण अर्थ चिह्न अथवा लक्षण है। सांख्य दर्शन में प्रकृति को, प्रकृति से विकृति को भी लिंग कहते हैं। देव-चिह्न के अर्थ में लिंग शब्द भगवान सदाशिवके निर्गुण- निराकार रूप शिवलिंग के संदर्भ में ही प्रयुक्त होता है। स्कन्दपुराणमें लिंग की ब्रह्मपरकव्याख्या इस प्रकार की गई है-

आकाशं लिङ्गमित्याहु:पृथ्वी तस्यपीठिका।

आलय: सर्वदेवानांलयनाल्लिङ्गमुच्यते॥

आकाश लिंग है और पृथ्वी उसकी पीठिका है। इस लिंग में समस्त देवताओं का वास है। सम्पूर्ण सृष्टि का इसमें लय होता है, इसीलिए इसे लिंग कहते हैं।

शिवपुराणमें लिंग शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए कहा गया है-

लिङ्गमर्थ हि पुरुषंशिवंगमयतीत्यद:।

शिव-शक्त्योश्च चिह्नस्यमेलनंलिङ्गमुच्यते॥

अर्थात् शिव-शक्ति के चिह्नोंका सम्मिलित स्वरूप ही शिवलिंगहै। इस प्रकार लिंग में सृष्टि के जनक की अर्चना होती है। लिंग परमपुरुष सदाशिवका बोधक है। इस प्रकार यह विदित होता है कि लिंग का प्रथम अर्थ ज्ञापकअर्थात् प्रकट करने वाला हुआ, क्योंकि इसी के व्यक्त होने से सृष्टि की उत्पत्ति हुई। दूसरा अर्थ आलय है अर्थात् यह प्राणियों का परम कारण है और निवास-स्थान है। तीसरा अर्थ यह है कि प्रलय के समय सब कुछ जिसमें लय हो जाए वह लिंग है। समस्त देवताओं का वास होने से यह लिंग सर्वदेवमयहै। लिंग के आधार रूप में जो तीन मेखलायुक्तवेदिका है, वह भग रूप में कही जाने वाली जगद्धात्री महाशक्ति है। अत:आधार सहित लिंग जगत् का कारण है, उमा-महेश स्वरूप लिंग और वेदी के समायोग में भगवान शंकर के अर्धनारीश्वररूप के ही दर्शन होते हैं। सृष्टि के समय परमपुरुष सदाशिवअपने ही अर्धागसे प्रकृति (शक्ति) को पृथक कर उसके माध्यम से समस्त सृष्टि की उत्पत्ति करते हैं। इस प्रकार शिव- शक्ति का लिंग-योनिभाव और अ‌र्द्धनारीश्वर भाव मूलत:एक ही है। सृष्टि के बीज को देने वाले परमलिंगरूपश्रीशिवजब अपनी प्रकृतिरूपाशक्ति (योनि) से आधार-आधेय की भाँति संयुक्त होते हैं, तभी सृष्टि की उत्पत्ति होती है, अन्यथा नहीं। श्रीमद्भगवद्गीताके 14वें अध्याय के तीसरे श्लोक से इस तथ्य की पुष्टि होती है-

मम योनिर्महद्ब्रह्मतस्मिन्गर्भदधाम्यहम्।

ंभवत:सर्वभूतानांततोभवतिभारत॥

भगवान कहते हैं- महद्ब्रह्म(महान प्रकृति) मेरी योनि है, जिसमें मैं बीज देकर गर्भ का संचार करता हूँ और इसी से सम्पूर्ण सृष्टि (सब भूतों) की उत्पत्ति होती है। वस्तुत:अनादि सदाशिव-लिंगऔर अनादि प्रकृति-योनि के संयोग से ही सारी सृष्टि उत्पन्न होती है। इस दोनों के बिना सृष्टि की संरचना संभव नहीं है। शिवलिंग (परमपुरुष) जगदम्बारूपीजलहरीसे वेष्टित होने से प्रकृतिसंस्पृष्टपुरुषोत्तम है-

पीठमम्बामयं सर्वशिवलिङ्गंचचिन्मयम्।

अत: इसे जड समझना उचित न होगा। लिंगपुराणमें लिंगोद्भवकी कथा है। सृष्टि के प्रारंभ में ब्रह्मा और विष्णु के मध्य एक बार यह विवाद हो गया कि उन दोनों में कौन श्रेष्ठ है? इतने में उन्हें एक वृहत् ज्योतिर्लिगदिखाई दिया। उसके मूल और परिमाण का पता लगाने के लिए ब्रह्मा ऊपर गए और विष्णु नीचे, किंतु दोनों को उस लिंग के आदि-अन्त का पता न चला। तभी वेद ने प्रकट होकर उन्हें समझाया कि प्रणव (ॐ) में अ कार ब्रह्मा है, उ कार विष्णु है और म कार महेश है। म कार ही बीज है और वही बीज लिंगरूपसे सबका परम कारण है। लिंगपुराणशिवलिंगको त्रिदेवमयऔर शिव-शक्ति का संयुक्त स्वरूप घोषित करता है-

मूले ब्रह्मा तथा मध्येविष्णुस्त्रिभुवनेश्वर:।

रुद्रोपरिमहादेव: प्रणवाख्य:सदाशिव:॥

लिङ्गवेदीमहादेवी लिङ्गसाक्षान्महेश्वर:।

तयो:सम्पूजनान्नित्यंदेवी देवश्चपूजितो॥

शिवलिंगके मूल में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु तथा शीर्ष में शंकर हैं। प्रणव (ॐ) स्वरूप होने से सदाशिवमहादेव कहलाते हैं। शिवलिंगप्रणव का रूप होने से साक्षात् ब्रह्म ही है। लिंग महेश्वर और उसकी वेदी महादेवी होने से लिगांचर्नके द्वारा शिव-शिक्त दोनों की पूजा स्वत:सम्पन्न हो जाती है। भगवान सदाशिवस्वयं लिंगार्चन की प्रशंसा करते हैं-

लोकं लिङ्गात्मकंज्ञात्वालिङ्गेयोऽर्चयतेहि माम्।

न मेतस्मात्प्रियतर:प्रियोवाविद्यतेक्वचित्॥

जो भक्त संसार के मूल कारण महाचैतन्यलिंग की अर्चना करता है तथा लोक को लिंगात्मकजानकर लिंग-पूजा में तत्पर रहता है, मुझे उससे अधिक प्रिय अन्य कोई नर नहीं है।

वस्तुत:शिवलिंगसाक्षात् ब्रह्म का ही प्रतिरूप है। इस तथ्य को जान लेने पर साधक को शिवलिंगमें ब्रह्म का साक्षात्कार अवश्य होता है।

शिव का स्वरूप

शिव की महिमा अनंत है। उनके रूप, रंग और गुण अनन्य हैं। समस्त सृष्टि शिवमयहै। सृष्टि से पूर्व शिव हैं और सृष्टि के विनाश के बाद केवल शिव ही शेष रहते हैं। ऐसा माना जाता है कि ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की, परंतु जब सृष्टि का विस्तार संभव न हुआ तब ब्रह्मा ने शिव का ध्यान किया और घोर तपस्या की। शिव अ‌र्द्धनारीश्वर रूप में प्रकट हुए। उन्होंने अपने शरीर के अ‌र्द्धभागसे शिवा (शक्ति या देवी) को अलग कर दिया। शिवा को प्रकृति, गुणमयीमाया तथा निर्विकार बुद्धि के नाम से भी जाना जाता है। इसे अंबिका, सर्वलोकेश्वरी,त्रिदेव जननी, नित्य तथा मूल प्रकृति भी कहते हैं। इनकी आठ भुजाएं तथा विचित्र मुख हैं। अचिंत्य तेजोयुक्तयह माया संयोग से अनेक रूपों वाली हो जाती है। इस प्रकार सृष्टि की रचना के लिए शिव दो भागों में विभक्त हो गए, क्योंकि दो के बिना सृष्टि की रचना असंभव है। शिव सिर पर गंगा और ललाट पर चंद्रमा धारण किए हैं। उनके पांच मुख पूर्वा, पश्चिमा, उत्तरा,दक्षिणा तथा ऊध्र्वाजो क्रमश:हरित,रक्त,धूम्र,नील और पीत वर्ण के माने जाते हैं। उनकी दस भुजाएं हैं और दसों हाथों में अभय, शूल, बज्र,टंक, पाश, अंकुश, खड्ग, घंटा, नाद और अग्नि आयुध हैं। उनके तीन नेत्र हैं। वह त्रिशूल धारी, प्रसन्नचित,कर्पूर गौर भस्मासिक्तकालस्वरूपभगवान हैं। उनकी भुजाओं में तमोगुण नाशक सर्प लिपटे हैं। शिव पांच तरह के कार्य करते हैं जो ज्ञानमय हैं। सृष्टि की रचना करना, सृष्टि का भरण-पोषण करना, सृष्टि का विनाश करना, सृष्टि में परिवर्तनशीलतारखना और सृष्टि से मुक्ति प्रदान करना। कहा जाता है कि सृष्टि संचालन के लिए शिव आठ रूप धारण किए हुए हैं। चराचर विश्व को पृथ्वी रूप धारण करते हुए वह शर्वअथवा सर्व हैं। सृष्टि को संजीवन रूप प्रदान करने वाले जलमयरूप में वह भव हैं। सृष्टि के भीतर और बाहर रहकर सृष्टि स्पंदित करने वाला उनका रूप उग्र है। सबको अवकाश देने वाला, नृपोंके समूह का भेदक सर्वव्यापी उनका आकाशात्मकरूप भीम कहलाता है। संपूर्ण आत्माओं का अधिष्ठाता, संपूर्ण क्षेत्रवासी, पशुओं के पाश को काटने वाला शिव का एक रूप पशुपति है। सूर्य रूप से आकाश में व्याप्त समग्र सृष्टि में प्रकाश करने वाले शिव स्वरूप को ईशान कहते हैं। रात्रि में चंद्रमा स्वरूप में अपनी किरणों से सृष्टि पर अमृत वर्षा करता हुआ सृष्टि को प्रकाश और तृप्ति प्रदान करने वाला उनका रूप महादेव है। शिव का जीवात्मा रूप रुद्र कहलाता है। सृष्टि के आरंभ और विनाश के समय रुद्र ही शेष रहते हैं। सृष्टि और प्रलय, प्रलय और सृष्टि के मध्य नृत्य करते हैं। जब सूर्य डूब जाता है, प्रकाश समाप्त हो जाता है, छाया मिट जाती है और जल नीरव हो जाता है उस समय यह नृत्य आरंभ होता है। तब अंधकार समाप्त हो जाता है और ऐसा माना जाता है कि उस नृत्य से जो आनंद उत्पन्न होता है वही ईश्वरीय आनंद है। शिव,महेश्वर, रुद्र, पितामह, विष्णु, संसार वैद्य, सर्वज्ञ और परमात्मा उनके मुख्य आठ नाम हैं। तेईस तत्वों से बाहर प्रकृति,प्रकृति से बाहर पुरुष और पुरुष से बाहर होने से वह महेश्वर हैं। प्रकृति और पुरुष शिव के वशीभूत हैं। दु:ख तथा दु:ख के कारणों को दूर करने के कारण वह रुद्र कहलाते हैं। जगत के मूर्तिमान पितर होने के कारण वह पितामह, सर्वव्यापी होने के कारण विष्णु, मानव के भव रोग दूर करने के कारण संसार वैद्य और संसार के समस्त कार्य जानने के कारण सर्वज्ञ हैं। अपने से अलग किसी अन्य आत्मा के अभाव के कारण वह परमात्मा हैं। कहा जाता है कि सृष्टि के आदि में महाशिवरात्रि को मध्य रात्रि में शिव का ब्रह्म से रुद्र रूप में अवतरण हुआ, इसी दिन प्रलय के समय प्रदोष स्थिति में शिव ने ताण्डव नृत्य करते हुए संपूर्ण ब्रह्माण्ड अपने तीसरे नेत्र की ज्वाला से नष्ट कर दिया। इसीलिए महाशिवरात्रि अथवा काल रात्रि पर्व के रूप में मनाने की प्रथा का प्रचलन है।

साभार : आर एस रमन

जहां नटराज करते हैं आज भी राज!

हिमाचल प्रदेश के जिला चंबामें समुद्र तल से साढे सात हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित देव घाटी भरमौरका सौंदर्य नयनाभिराम है और अतीत गौरवपूर्ण। हमारे पौराणिक ग्रंथों में जिन चार कैलाश पर्वतों का उल्लेख आया है, उनमें से एक मणिमहेशकैलाश, इसी नैसर्गिक घाटी में स्थित है।

चंबाशहर से भरमौरकी दूरी कोई पैंसठ किलोमीटर है। भरमौरका रास्ता खडामुखसे होकर जाता है। खडामुखऔर भरमौरके बीच रावीनदी बहती है। भरमौरकई तरह के फलदार वृक्षों से सजी एक ऐसी मनोरम घाटी है, जहां कदम रखते ही सारी थकान पल भर के लिए छू-मंतर हो जाती है। यह घाटी वर्ष में तकरीबन पांच मास बर्फ की सफेद चादर से ढंकी रहती है।

भरमौरका जिक्र प्राचीन ग्रंथों में भी मिलता है और जनश्रुतियोंमें भी। भरमौरका प्राचीन नाम ब्रह्मपुर है। उसे पांच सौ वर्षो तक चंबाराज्य की राजधानी रहने का गौरव भी हासिल है। भरमौरनिवासियों की यह मान्यता है कि कालांतर में भगवान शिव यानी नटराज ने भरमौरघाटी में तांडव नृत्य भी किया था। भरमौरनिवासियों के अनुसार नटराज सात तरह के तांडव नृत्य करते हैं-आनंद तांडव, संध्या (प्रदोष) तांडव, कालिका तांडव, त्रिपुर दाह तांडव, गौरी तांडव, संहार तांडव और उमा तांडव। भारत ही नहीं, अनेक पाश्चात्य पुरातत्ववेताओंको भी भरमौरने अपने गौरवपूर्ण अतीत की तरफ आकर्षित किया है। इनमें डॉ. हटचिनसन,डा. फोगल,हरमनगोटसके नाम उल्लेखनीय है।

शिखर शैली में बना मणिमहेशका विशाल मंदिर यहां के निवासियों और शैव मतावलंबियों के लिए आस्था का प्रतीक है। आबादी के बीच एक बडे मंदिर परिसर में शिखर और पहाडी शैली में बने बीसियोंछोटे शिव मंदिर हैं और शिवलिंगभी। मंदिर समूह में सबसे बडा और ऊंचा मणिमहेशमंदिर ही है, जिसका शिखर दूर से ही दिखाई देने लग जाता है। विद्वानों ने इस मंदिर का निर्माण काल राजा मेरुवर्मन(780 ई.) के समय का माना है। इस काल में मेरुवर्मनने भरमौरमें अन्य मंदिरों और मूर्तियों की स्थापना की थी। कहा जाता है कि भरमौर(ब्रह्मपुर) में चौरासी सिद्धोंने धूनी रमाई थी और जहां-जहां वे बैठे थे, उन्हीं जगहों पर राजा साहिल वर्मा ने चौरासी मंदिरों का निर्माण करवाया था। यह मंदिर शिल्प व वास्तुकला का अनुपम उदाहरण है। मणिमहेशमंदिर में प्रवेश करते ही नंदी की भव्य कांस्य प्रतिमा ध्यान आकर्षित करती है।

नृसिंह भगवान का मंदिर शिखर शैली का बना है। इस मंदिर में नृसिंह भगवान की अष्टधातु की मूर्ति ग्यारह इंच ऊंचे तांबे की पीठ पर प्रतिष्ठित है। एक हजार से अधिक वर्ष पुरानी इन प्रतिमाओं पर वक्त की धूल जमी नहीं दिखाई देती, बल्कि इनकी चमक-दमक अभी तक बरकरार है और बडी श्रद्धा से इन्हें पूजा जाता है। भरमौरघाटी का दूसरा प्रसिद्ध शिव मंदिर हडसरमें है। हडसरजिसे स्थानीय बोली में हरसरभी कहा जाता है, पवित्र मणिमहेशको जाने वाली सडक पर अंतिम गांव है और कैलाश पर्वत के दर्शनार्थ जाने वाले श्रद्धालुओं की विश्राम स्थली भी है। गांव में पहाडी शैली में लकडी से निर्मित भगवान शिव का ऐतिहासिक मंदिर है। भरमौरघाटी का तीसरा प्रमुख मंदिर छतराडीमें है, जिसका निर्माण भी राजा मेरुवर्मनने करवाया था। मंदिर में अष्टधातु की बनी आदि शक्ति की कलात्मक मूर्ति प्रतिष्ठित है। इस बहूमूल्यमूर्ति का निर्माण काल छठी-सातवीं शताब्दी का है। मंदिर की कलात्मकता देखते ही बनती है।

कुछ लोग इसे हिमाचल का अमरनाथ कहकर भी पुकारते हैं। भारत के उत्तर-पश्चिम में यह सबसे बडा शैव तीर्थ है और इसे भगवान शिव का वास्तविक घर माना गया है। समुद्र तल से 18,564फुट की ऊंचाई पर स्थित मणिमहेशके आंचल में करीब दो सौ मीटर परिधि की झील है। प्रति वर्ष भाद्रपक्षमास में कृष्णाष्टमी तथा जन्माष्टमी को यहां विशाल मेला लगता है।

साभार : गुरमीतबेदी

एक और बदरीनाथ (हिमाचल)

हिमालय की गोद में बहुत से ऐसे स्थल हैं, जिनके साथ धार्मिक आस्थाएं तो जुडी ही हैं, साथ ही इन स्थलों की यात्रा रोमांचकारी पर्यटन का पर्याय भी मानी जाती हैं। मीलों लम्बा और दुर्गम सफर तय करके जब श्रद्धालु या पर्यटक इन स्थलों पर पहुंचते हैं, तो प्रकृति के बीच धार्मिक गीतों की स्वर लहरियां सुनकर अभिभूत हो उठते हैं। किन्नर कैलाश भी ऐसा ही एक स्थल है।

तिब्बत स्थित मानसरोवर कैलाश के बाद किन्नर कैलाश को ही दूसरा बडा कैलाश पर्वत माना जाता है। समुद्र तल से 18,168फुट की ऊंचाई पर स्थित किन्नर कैलाश भगवान शिव की साधना स्थली रहा है, शैव मतावलंबियों की ऐसी आस्था है और धर्म-ग्रन्थों में भी इस बात का जिक्र आया है। किन्नर कैलाश के बारे में अनेक मान्यताएं भी प्रचलित हैं। कुछ विद्वानों के विचार में महाभारत काल में इस कैलाश का नाम इन्द्रकीलपर्वत था, जहां भगवान शंकर और अर्जुन का युद्ध हुआ था और अर्जुन को पासुपातास्त्रकी प्राप्ति हुई थी। यह भी मान्यता है कि पाण्डवों ने अपने बनवास काल का अन्तिम समय यहीं पर गुजारा था। किन्नर कैलाश को वाणासुर का कैलाश भी कहा जाता है। क्योंकि वाणासुरशोणितपुरनगरी का शासक था जो कि इसी क्षेत्र में पडती थी। कुछ विद्वान रामपुर बुशैहररियासत की गर्मियों की राजधानी सराहन को शोणितपुरनगरी करार देते हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि किन्नर कैलाश के आगोश में ही भगवान कृष्ण के पोते अनिरुधका विवाह ऊषा से हुआ था। इसी पर्वत श्रृंखला के सिरे पर करीब साठ फुट ऊंचा तिकोना पत्थर का शिवलिंगबना है, जिसके दर्शन किन्नौरघाटी के कल्पानगरसे भी किए जा सकते हैं। यह शिवलिंग21हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित है और इस शिवलिंगकी एक चमत्कारी बात यह है कि दिन में कई बार यह रंग बदलता है। सूर्योदय से पूर्व सफेद, सूर्योदय होने पर पीला, मध्याह्न काल में यह लाल हो जाता है और फिर क्रमश:पीला, सफेद होते हुए संध्या काल में काला हो जाता है। क्यों होता है ऐसा, इस रहस्य को अभी तक कोई नहीं समझ सका है। किन्नौरवासी इस शिवलिंगके रंग बदलने को किसी दैविक शक्ति का चमत्कार मानते हैं, कुछ बुद्धिजीवियों का मत है कि यह एक स्फटिकीयरचना है और सूर्य की किरणों के विभिन्न कोणों में पडने के साथ ही यह चट्टान रंग बदलती नजर आती है। बुद्धिजीवियों का दलील है कि यदि आसमान मेघों से आच्छादित हो तो यह चट्टान रंग नहीं बदलती और अपने सामान्य स्वरूप में ही रहती है। कुछ विद्वानों की यह भी मान्यता है कि पाण्डवों ने अपने गुप्तवासके दौरान यहां इस पवित्र शिवलिंगकी स्थापना करके भगवान शिव की आराधना की थी।

इस शिवलिंगकी परिक्रमा करना बडे साहस और जोखिम का कार्य है। कई शिव भक्त जोखिम उठाते हुए स्वयं को रस्सियों से बांध कर यह परिक्रमा पूरी करते हैं। पूरे पर्वत का चक्कर लगाने में एक सप्ताह से दस दिन का समय लगता है और भगवान शिव की जय-जयकार करते हुए श्रद्धालु यह परिक्रमा पूरी करते हैं। चूंकि आस-पास कोई आबादी नहीं, इसलिए श्रद्धालुओं को खुले आकाश तले भी रात बितानी पडती है और कुछ श्रद्धालु गुफाओं में जा घुसते हैं। ऐसी मान्यता भी है कि किन्नर कैलाश की यात्रा से मनोकामनाएं तो पूरी होती ही हैं, साथ ही आत्म शुद्धि भी होती है। किन्नौरी लोगों की यह भी मान्यता है कि किन्नर कैलाश ही वास्तव में स्वर्ग लोक है और यही बैठकर इन्द्र अन्य देवताओं पर राज्य करते हैं।

किन्नर कैलाश की यात्रा सतलुजऔर वास्पानदी के संगम स्थल कदछाम से आरंभ होती है। किन्नर पहुंचने का पहला पडाव पंगीगांव है। यहां तक तो किसी भी वाहन से पहुंचा जा सकता है। इसके बाद अगला पडाव है-चरंग गांव, जोकि साढे चौदह हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित है। यहां से दो किलोमीटर आगे रेंगरिकटुगमा में एक बौद्ध मंदिर है, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण एक लामा द्वारा एक ही रात में किया गया था। इस बौद्ध मंदिर को रांगरिक शुमाभी कहा जाता है। यहां लोग मृत आत्माओं की शान्ति के लिए दीप जलाते हैं। यह मंदिर बौद्ध व हिन्दू धर्म का संगम भी है। भगवान बुद्ध की अनेक छोटी-बडी मूर्तियों के बीच दुर्गा मां की भव्य मूर्ति भी स्थित है। तिब्बती ग्रन्थों की पाण्डु लिपियों का भी यहां अवलोकन किया जा सकता है। मंदिर की ऊपरी मंजिल में प्रागैतिहासिक काल के प्राचीन अस्त्र, शस्त्र भी सुरक्षित हैं। किन्नर कैलाश यात्रा पर निकले श्रद्धालु चरंगगांव में ही रात्रि पडाव डालते हैं। चरंगके बाद अगला पडाव लालान्ती दर्रा है, जो कि सोलह हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित है। लालान्ती दर्रा पहुंचने से पूर्व रास्ते में कई मनोहारी स्थल आते हैं और कई बेशकीमती जडी- बूटियां देखने को मिलती हैं। लालान्ती दर्रा के निकट एक झील भी है, जहां स्नान करना श्रद्धालु पुण्य समझते हैं। लालान्ती दर्रे से चरंगऔर छितकुल घाटियों का सौंदर्यवलोकन भी किया जा सकता है। यहां से आगे की यात्रा काफी थका देने वाली है। दुर्गम रास्ते में कई हिमखंड लांघने पडते हैं। कदम-कदम पर प्रकृति हमारे धैर्य की परीक्षा लेती प्रतीत होती है। किन्नर कैलाश पहुंचने से पूर्व पार्वती कुंड और एक गुफाभी आती है। यहां से शिवलिंग तक पहुंचने के लिए सीधी चढाई है।

किन्नर कैलाश को हिमाचल का बदरीनाथभी कहा जाता है और इसे रॉक कैसलके नाम से भी जाना जाता है। सर्वेक्षण मानचित्रों में भी इसका नाम रोकाकैसल अंकित किया गया है।

प्रसिद्ध भैरव मंदिर

भूतभावनभगवान भैरव की महत्ता असंदिग्ध है। भैरव आपत्तिविनाशकएवं मनोकामना पूर्ति के देवता हैं। भूत-प्रेत बाधा से मुक्ति में भी उनकी उपासना फलदायीहोती है। भैरव की लोकप्रियता का अनुमान उसी से लग सकता है कि प्राय: हर गांव के पूर्व में स्थित देवी-मंदिर में स्थापित सात पीढियों के पास में आठवीं भैरव-पिंडी भी अवश्य होती है। नगरों के देवी-मंदिरों में भी भैरव विराजमान रहते हैं। देवी प्रसन्न होने पर भैरव को आदेश देकर ही भक्तों की कार्यसिद्धि करा देती हैं। भैरव को शिव का अवतार माना गया है, अत:वे शिव-स्वरूप ही हैं-

भैरव: पूर्णरूपोहि शंकरस्यपरात्मन:।

मूढास्तेवैन जानन्तिमोहिता:शिवमायया॥

भैरव पूर्ण रूप से परात्पर शंकर ही हैं। भगवान शंकर की माया से ग्रस्त होने के फलस्वरूप मूर्ख, इस तथ्य को नहीं जान पाते। भैरव के कई रूप प्रसिद्ध हैं। उनमें विशेषत:दो अत्यंत ख्यात हैं-काल भैरव एवं बटुकभैरव या आनंद भैरव।

काल के सदृश भीषण होने के कारण इन्हें कालभैरवनाम मिला। ये कालों के काल हैं। हर प्रकार के संकट से रक्षा करने में यह सक्षम हैं। काशी का कालभैरवमंदिर सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। काशी विश्वनाथ मंदिर से कोई डेढ-दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस मंदिर का स्थापत्य ही इसकी प्राचीनता को प्रमाणित करता है। गर्भ-गृह के अंदर काल भैरव की मूर्ति स्थापित है, जिसे सदा वस्त्र से आवेष्टित रखा जाता है। मूर्ति के मूल रूप के दर्शन किसी-किसी को ही होते हैं। गर्भ-गृह से पहले बरामदे के दाहिनी ओर दोनों तरफ कुछ तांत्रिक अपने-अपने आसन पर विराजमान रहते हैं। दर्शनार्थियोंके हाथों में ये उनके रक्षार्थकाले डोरे बांधते हैं और उन्हें विशेष झाडू से आपाद मस्तक झाडते हैं। काशी के कालभैरव की महत्ता इतनी अधिक है कि जो काशी विश्वनाथ के दर्शनोपरान्त कालभैरव के दर्शन नहीं करता उसको भगवान विश्वनाथ के दर्शन का सुफल नहीं मिलता। नई दिल्ली के विनय मार्ग पर नेहरू पार्क में बटुकभैरव का पांडवकालीन मंदिर अत्यंत प्रसिद्ध है। यह सर्वकामानापूरक सर्वापदानाशाकहाई । रविवार भैरव का दिन है। इस दिन यहां सामान्य और विशिष्ट जनों की अपार भीड होती है। मंदिर के सामने की लम्बी सडक पर कारों की लम्बी पंक्तियां लग जाती हैं। संध्या से शाम अपितु देर रात तक पुजारी इन दर्शनार्थियोंसे निपटते रहते हैं। ऐसी भीड देश के किसी भैरव मंदिर में नहीं लगती। यह प्राचीन मूर्ति इस तरह ऊर्जावान है कि भक्तों की यहां हर सम्भव इच्छा पूर्ण होती है। इस भीड का कारण यही है। इस मूर्ति की एक विशेषता है कि यह एक कुएं के ऊपर स्थापित है। न जाने कब से, एक क्षिद्रके माध्यम से पूजा-पाठ एवं भैरव स्नान का सारा जल कुएं में जाता रहा है पर कुंआ अभी तक नहीं भरा। पुराणों के अनुसार भैरव की मिट्टी की मूर्ति बनाकर भी किसी कुएं के पास उसकी पूजा की जाय तो वह बहुत फलदायीहोती है। यही कारण है कि कुएं पर स्थापित यह भैरव उतने ऊर्जावान हैं। इन्हें भीमसेन द्वारा स्थापित बताया जाता है। नीलम की आंखों वाली यह मूर्ति जिसके पा‌र्श्व में त्रिशूल और सिर के ऊपर सत्र सुशोभित है, उतनी भारी है कि साधारण व्यक्ति उसे उठा भी नहीं सकता। पांडव-किला की रक्षा के लिए भीमसेन इस मूर्ति को काशी से ला रहे थे। भैरव ने शर्त लगा दी कि जहां जमीन पर रखे कि मैं वहां से उठूंगा ही नहीं एवं वहीं मेरा मंदिर बना कर मेरी स्थापना करनी होगी। इस स्थान पर आते-आते भीमसेन ने थक कर मूर्ति जमीन पर रख दी और फिर वह लाख प्रयासों के बावजूद उठी ही नहीं। अत:बटुकभैरव को यहीं स्थापित करना पडा।

पांडव-किला (नई दिल्ली) के भैरव भी बहुत प्रसिद्ध हैं। यहां भी खूब भीड लगती है। माना जाता है कि भैरव जब नेहरू पार्क में ही रह गए तो पांडवों की चिंता देख उन्होंने अपनी दो जटाएं दे दी। उन्हीं के ऊपर पांडव किला की भैरव मूर्ति स्थापित हुई जो आज तक वहां पूजित है।

ऊं ह्रींबटुकायआपदुद्धारणाय

कुरु कुरु बटुकायह्रीं

यही है बटुक-भैरवका मंत्र जिसका जप कहीं भी किया जा सकता है और बटुकभैरव की प्रसन्नता प्राप्त की जा सकती है। नैनीताल के समीप घोडा खाड का बटुकभैरव मंदिर भी अत्यंत प्रसिद्ध है। यहां गोलू देवता के नाम से भैरव की प्रसिद्धि है। पहाडी पर स्थित एक विस्तृत प्रांगण में एक मंदिर में स्थापित इस सफेद गोल मूर्ति की पूजा के लिए नित्य अनेक भक्त आते हैं। यहां महाकाली का भी मंदिर है। भक्तों की मनोकामनाओंके साक्षी, मंदिर की लम्बी सीढियों एवं मंदिर प्रांगण में यत्र-तत्र लटके पीतल के छोटे-बडे घंटे हैं जिनकी गणना कठिन है। मंदिर के नीचे और सीढियों की बगल में पूजा-पाठ की सामग्रियां और घंटों की अनेक दुकानें हैं। बटुकभैरव की ताम्बे की अश्वारोही, छोटी-बडी मूर्तियां भी बिकती हैं जिनकी पूजा भक्त अपने घरों में करते हैं। उज्जैनके प्रसिद्ध भैरव मंदिर की चर्चा आवश्यक है। यह मनोवांक्षापूरक हैं और दूर-दूर से लोग इनके पूजन को आते हैं। उनकी एक विशेषता उल्लेखनीय है। मनोकामना पूर्ति के पश्चात् भक्त इन्हें शराब की बोतल चढाते हैं। पुजारी बोतल खोल कर उनके मुख से लगाता है और बात की बात में भक्त के समीप ही मूर्ति बोतल को खाली कर देती है। यह चमत्कार है।

हरिद्वार में भगवती मायादेवी के निकट आनंद भैरव का प्रसिद्ध मंदिर है। यहां सबकी मनोकामना पूर्ण होती है। भैरव जयंती पर यहां बहुत बडा उत्सव होता है। लोकप्रिय है भैरवकायह स्तुति गान-

कंकाल: कालशमन:कला काष्ठातनु:कवि:।

त्रिनेत्रोबहुनेत्रश्यतथा पिङ्गललोचन:।

शूलपाणि:खड्गपाणि:कंकाली धू्रमलोचन:।

अमीरुभैरवी नाथोभूतयोयोगिनी पति:।

साभार : डा. भगवती शरण मिश्र

हजारों साल पुरानी परंपरा आज भी जारी (बद्रीनाथ धाम)

दुनियाभरमें मशहूर हजारों साल पुरानी उत्तराखंडकी ऐतिहासिक और धार्मिक गाडूघडी तेल कलश शोभा यात्रा की अनोखी परंपरा आज भी परंपरागत तरीके से चल रही है। उत्तराखंडके टिहरी के नरेश के राजमहल नरेन्द्र नगर में इस कार्यक्रम की शुरुआत होती है।

सर्वप्रथम विश्व ख्याति प्राप्त बद्रीनाथ धाम के कपाट खोलने की तिथि राजमहल के राजा वर्तमान में मनुजेन्द्रशाह द्वारा घोषित की जाती है। तिथि घोषित होने के बाद महारानी वर्तमान में माला राजलक्ष्मीऔर राजमहल की कुंवारी राज कन्याओं द्वारा तिल का तेल निकालकर गाडूघडे में रखा जाता है। इस गाडूघडे को सुंदर वस्त्रों से सुसज्जित किया जाता है।

भगवान् बद्री विशाल के कपाट खुलने से सोलह दिन पहले बद्रीनाथ धाम के पुजारियों का एक जत्था उनके मूल गांव डिम्मर[सिमली] से गाजेबाजे के साथ राजमहल नरेन्द्र नगर, टिहरी के लिए रवाना होता है। राजमहल पहुंचने पर पुजारियों का भव्य स्वागत एवं आदर सत्कार किया जाता है। इस जत्थे की अगुवाई डिम्मरउमट्ठापंचायत के अध्यक्ष करते हैं। इस तेल कलश शोभा यात्रा का प्रतिनिधित्व डिम्मर, उमट्ठा, रविग्राम, जोशीमठ, सिरतोली, पाखी, जयकण्डी, नाकोट, कोला डुंग्री, राइखो, मज्याणीतथा लंगासूसे आए पुजारी करते हैं।

तेल कलश यात्रा का प्रथम चरण टिहरी के राजदरबारनरेन्द्र नगर से शुरू होकर ऋषिकेश, शिवपुरी, देवप्रयागतथा कर्णप्रयागहोते हुए पुजारियों के मूलग्रामडिम्मरमें समाप्त होता है। यहां पर स्थानीय पुजारी की देखरेख में नित्य पूजा एवं भोग के विधि-विधान के साथ चौरी नामक स्थान पर तेल कलश को श्रद्धालुओं के दर्शनार्थ रखा जाता है। यहीं पर 27अप्रैल तक नित्य पूजा एवं भोग की परंपरा चलती है। गाडूघडी तेल कलश यात्रा के दूसरे चरण में 28अप्रैल को डिम्मर,कर्णप्रयागके लक्ष्मी नारायण एवं खाडूदेवता के मंदिर से सुबह आठ बजे बद्रीनाथ धाम के लिए रवाना होती है।

दूसरे चरण की यात्रा प्रारंभ होकर शिमलीबाजार पहुंचने पर इस यात्रा का भव्य स्वागत एवं पूजा-अर्चना श्रृद्धालुओं द्वारा की जाती है। यहां पर से तेल कलश शोभा यात्रा कर्णप्रयागकालेश्वर, लंगासू, नन्दाप्रयागा में ठाणा, चमोली, विरही, पीपलकोटी, पाखीतथा तन्गानों आदि स्थानों से होते हुए रात्रि विश्राम के लिए जोशीमठके नृसिंह मंदिर में पहुंचती है। मार्ग में यात्रा को अल्प समय के लिए भक्तों के दर्शनार्थ रोका जाता है तथा रात में पूजा-अर्चना की जाती है।

अगले दिन प्रात:तेल कलश शोभा यात्रा श्री बद्रीनाथ जी के मुख्य पुजारी श्री रावल जी तथा शंकराचार्य की गद्दी पांडुकेशरके लिए रवाना होती है। पांडुकेशरमें रात्रि विश्राम के बाद अगले दिन ३० अप्रैल को सुबह तेल कलश रावल जी शंकराचार्य की गद्दी एवं उद्धव जी की डोली के साथ अपने अंतिम पडाव भगवान् बद्री विशाल जी के लिए रवाना हो जाती है। जहां पर भगवान् बद्री विशाल के कपाट खुलने तक रात भर पूजा-अर्चना की जाती है। अगले दिन अर्थात् एक मई को भोर में भगवान् बद्रीनाथ जी के कपाट खुलने पर बद्रीनाथ जी के अभिषेक पर प्रतिदिन यह तिल का तेल उपयोग में लाया जाता है।

मंगलवार, 21 अप्रैल 2009

जय जगदीश्वर जय परमेश्वर

गौरी सुताय ॐ नम ॐ
लम्बोदराय ॐ नम ॐ ( गौरी)
विघ्नेश्वराय ॐ नम ॐ
विश्वेश्वराय ॐ नम ॐ

शंकर गुरु जय शंकर गुरु
शंकर भगवत्पद शंकर गुरु ( शंकर)
अपार महिमा शंकर गुरु
दया सागर शंकर गुरु
गुरुदेव गुरुदेव सद्गुरु नाथ गुरु देव

लिंगोत्भवकर लिंगेश्वर
परमेश्वर मम पाहि प्रभो
पाहि प्रभो मम पाहि विभो

बोलो बोलो सब मिल बोलो ॐ नमः शिवाय
ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय
जूट जटा में गंगा धारी
त्रिशूल धारी डमरू बजावे
डम डम डम डमरू बाजे
गूंज उठा, ॐ नमः शिवाय
ॐ नम शिवाय, ॐ नमः शिवाय, ॐ नम शिवाय

गंगा धर शिव गौरी शिव
शम्भो शंकर साम्ब शिव ( गंगा)
जय जगदीश्वर जय परमेश्वर
जगदाधार जगदीश्वर
विश्वाधर विश्वेश्वर
शम्भो शंकर साम्ब शिव

चंद्र शेखराय नम ॐ
गंगाधराय नम ॐ
ॐ नम शिवाय नम ॐ
हर हर हराय नम ॐ
शिव शिव शिवाय नम ॐ
सायीश्वराय नम ॐ

शिव शम्भो शम्भो शिव शम्भो महादेव

हरि ॐ नमः शिवाय
हरि ॐ नमः शिवाय( हरि ॐ)
हरि ॐ हरि ॐ हरि ॐ नमः शिवाय
हरि ॐ हरि ॐ हरि ॐ नमः शिवाय

शंकर शिव शंकर शिव शंकर शम्भो
शंकर शिव शंकर शिव शम्भो महादेव ( शंकर)
डम डम डमरु बाजे शंकर घन घन घंटा बाजे
हर भोले नाथ शम्भो शंकर साईं नाथ शम्भो

शंकर साम्ब शिव हर हर
शंकर साम्ब शिव जय जय ( शंकर)
गंगा जटाधर गौरी महेश
चंद्र कलाधर हे परमेश
कैलासवास काशी पते
करुणा सागर गौरी पते

गंगा जटाधर गौरी शंकर गिरिजा मनरमण
जय मृत्युंजय महादेव महेश्वर मनग शुभ चरण
नंदी वाहन नाग भूषण
निरुपम गुणसदन
नटनमनोहर नील कण्ठ हर
नीरजदल नयन

ॐ शिव ॐ शिव परात्पर शिव ओंकार शिव तव शरणं
नमामि शंकर भजामि शंकर
उमामहेश्वर तव शरणं ( ॐ)
गौरी शंकर शम्भो शंकर साम्ब सदाशिव तव शरणं

शिव शंकर पार्वती रमण
गंगाधर भुवन धारण
शरणागत वंदित शरण
करुणाकर भवभय हरण

नन्दीश्वर हे नटराज
नंदात्मज हरि नारायण
नागभरण नमः शिवाय
नादस्वरूप नमो नमो

शम्भो महादेव मल्लिकार्जुन
मंगल चरण त्रिलोचन
शुभ मंगल चरण त्रिलोचन
पिनाकधारी पार्वतीरमण
भवभय हरण सनातन
पार्वतीरमण पतितपावन

शिव शम्भो शम्भो शिव शम्भो महादेव
हर हर महादेव शिव शम्भो महादेव
हल हल धर शम्भो अनाथ नाथ शम्भो
हरि ॐ हरि ॐ हरि ॐ नमः शिवाय

गंगाधर शिव गौरी शिव
शम्भो शंकर साम्ब शिव ( गंगा)
जय जगदीश्वर जय परमेश्वर
हे जगदीश जगदीश्वर
विश्वाधार विश्वेश्वर
शम्भो शंकर साम्ब शिव

भोले नाथ का विराट स्वरूप

जगत पिता के नाम से हम भगवान शिव को पुकारते हैं। भगवान शिव को सर्वव्यापी व लोग कल्याण का प्रतीक माना जाता है जो पूर्ण ब्रह्म है। धर्मशास्त्रों के ज्ञाता ऐसा मानते हैं कि शिव शब्द की उत्पत्ति वंश कांतौ धातु से हुई है, जिसका अर्थ है- सबको चाहने वाला और जिसे सभी चाहते है। शिव शब्द का ध्यान मात्र ही सबको अखंड, आनंद, परम मंगल, परम कल्याण देता है।
शिव भारतीय धर्म, संस्कृति, दर्शन ज्ञान को संजीवनी प्रदान करने वाले हैं। इसी कारण अनादि काल से भारतीय धर्म साधना में निराकार रूप में शिवलिंग की व साकार रूप में शिवमूर्ति की पूजा होती है। शिवलिंग को सृष्टि की सर्वव्यापकता का प्रतीक माना जाता है। भारत में भगवान शिव के अनेक ज्योतिलिंग सोमनाथ, विश्वनाथ, त्र्यम्बकेश्वर, वैधनाथस नागेश्वर, रामेश्वर, घुवमेश्वर हैं। ये देश के विभिन्न हिस्सों उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम में स्थित हैं, जो महादेव की व्यापकता को प्रकट करते हैं शिव को उदार ह्रदय अर्थात् भोले भंडारी कहा जाता है। कहते हैं ये थोङी सी पूजा-अर्चना से ही प्रसन्न हो जाते हैं। अतः इनके भक्तों की संख्या भारत ही नहीं विदेशों तक फैली है। यूनानी, रोमन, चीनी, जापानी संस्कृतियों में भी शिव की पूजा व शिवलिंगों के प्रमाण मिले हैं। भगवान शिव का महामृत्जुंजय मंत्र पृथ्वी के प्रत्येक प्राणी को दीर्घायु, समृद्धि, शांति, सुख प्रदान करता रहा है और चिरकाल तक करता रहेगा। भगवान शिव की महिमा प्रत्येक भारतीय से जूङा है। मानव जाति की उत्पत्ति भी भगवान शिव से मानी जाती है। अतः भगवान शिव के स्वरूप को जानना प्रत्येक मानव के लिए जरूरी है।
जटाएं- शिव को अंतरिक्ष का देवता कहते हैं, अतः आकाश उनकी जटा का स्वरूप है, जटाएं वायुमंडल का प्रतीक हैं।
1चंद्र- चंद्रमा मन का प्रतीक है। शिव का मन भोला, निर्मल, पवित्र, सशक्त है, उनका विवेक सदा जाग्रत रहता है। शिव का चंद्रमा उज्जवल है।
त्रिनेत्र- शिव को त्रिलोचन भी कहते हैं। शिव के ये तीन नेत्र सत्व, रज, तम तीन गुणों, भूत, वर्तमान, भविष्य, तीन कालों स्वर्ग, मृत्यु पाताल तीन लोकों का प्रतीक है।
सर्पों का हार- सर्प जैसा क्रूर व हिसंक जीव महाकाल के अधीन है। सर्प तमोगुणी व संहारक वृत्ति का जीव है, जिसे शिव ने अपने अधीन कर रखा है।
त्रिशूल- शिव के हाथ में एक मारक शस्त्र है। त्रिशुल सृष्टि में मानव भौतिक, दैविक, आध्यात्मिक इन तीनों तापों को नष्ट करता है।
डमरू- शिव के एक हाथ में डमरू है जिसे वे तांडव नृत्य करते समय बजाते हैं। डमरू का नाद ही ब्रह्म रुप है।
मुंडमाला- शिव के गले में मुंडमाला है जो इस बात का प्रतीक है कि शिव ने मृत्यु को वश में कर रखा है।
छाल- शिव के शरीर पर व्याघ्र चर्म है, व्याघ्र हिंसा व अंहकार का प्रतीक माना जाता है। इसका अर्थ है कि शिव ने हिंसा व अहंकार का दमन कर उसे अपने नीचे दबा लिया है।
भस्म- शिव के शरीर पर भस्म लगी होती है। शिवलिंग का अभिषेक भी भस्म से करते हैं। भस्म का लेप बताता है कि यह संसार नश्वर है शरीर नश्वरता का प्रतीक है।
वृषभ- शिव का वाहन वृषभ है। वह हमेशा शिव के साथ रहता है। वृषभ का अर्थ है, धर्म महादेव इस चार पैर वाले बैल की सवारी करते है अर्थात् धर्म, अर्थ, काम मोक्ष उनके अधीन है। सार रूप में शिव का रूप विराट और अनंत है, शिव की महिमा अपरम्पार है। ओंकार में ही सारी सृष्टि समायी हुई है।

रविवार, 19 अप्रैल 2009

प्रदोष व्रत का महत्व

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प्रदोष व्रत में अति मंगलकारी और शिव कृपा प्रदान करने वाला है। स्त्री अथवा पुरूष जो भी अपना कल्याण चाहते हों यह व्रत रख सकते हैं।

प्रदोष व्रत को करने से हर प्रकार का दोष मिट जाता है। सप्ताह के सातों दिन के प्रदोष व्रत का अपना विशेष महत्व है

  • रविवार के दिन प्रदोष व्रत आप रखते हैं तो सदा नीरोग रहेंगे
  • सोमवार के दिन व्रत करने से आपकी इच्छा फलित होती है
  • मंगलवार को प्रदोष व्रत रखने से रोग से मुक्ति मिलती है और आप स्वस्थ रहते हैं।
  • बुधवार के दिन इस व्रत का पालन करने से सभी प्रकार की कामना सिद्ध होती है।
  • बृहस्पतिवार के व्रत से शत्रु का नाश होता है।
  • शुक्र प्रदोष व्रत से सौभाग्य की वृद्धि होती है।
  • शनि प्रदोष व्रत से पुत्र की प्राप्ति होती है।

इस व्रत के महात्म्य को गंगा के तट पर किसी समय वेदों के ज्ञाता और भगवान के भक्त श्री सूत जी ने सौनकादि ऋषियों को सुनाया था। सूत जी ने कहा है कि कलियुग में जब मनुष्य धर्म के आचरण से हटकर अधर्म की राह पर जा रहा होगा, हर तरफ अन्याय और अनचार का बोलबाला होगा। मानव अपने कर्तव्य से विमुख हो कर नीच कर्म में संलग्न होगा उस समय प्रदोष व्रत ऐसा व्रत होगा जो मानव को शिव की कृपा का पात्र बनाएगा और नीच गति से मुक्त होकर मनुष्य उत्तम लोक को प्राप्त होगा।

सूत जी ने सौनकादि ऋषियों को यह भी कहा कि प्रदोष व्रत से पुण्य से कलियुग में मनुष्य के सभी प्रकार के कष्ट और पाप नष्ट हो जाएंगे। यह व्रत अति कल्याणकारी है, इस व्रत के प्रभाव से मनुष्य को अभीष्ट की प्राप्ति होगी। इस व्रत में अलग अलग दिन के प्रदोष व्रत से क्या लाभ मिलता है यह भी सूत जी ने बताया। सूत जी ने सौनकादि ऋषियों को बताया कि इस व्रत के महात्मय को सर्वप्रथम भगवान शंकर ने माता सती को सुनाया था। मुझे यही कथा और महात्मय महर्षि वेदव्यास जी ने सुनाया और यह उत्तम व्रत महात्म्य मैने आपको सुनाया है।

प्रदोष व्रत विधान
सूत जी ने कहा है प्रत्येक पक्ष की त्रयोदशी के व्रत को प्रदोष व्रत कहते हैं। सूर्यास्त के पश्चात रात्रि के आने से पूर्व का समय प्रदोष काल कहलाता है। इस व्रत में महादेव भोले शंकर की पूजा की जाती है। इस व्रत में व्रती को निर्जल रहकर व्रत रखना होता है। प्रात: काल स्नान करके भगवान शिव की बेल पत्र, गंगाजल, अक्षत, धूप, दीप सहित पूजा करें। संध्या काल में पुन: स्नान करके इसी प्रकार से शिव जी की पूजा करना चाहिए। इस प्रकार प्रदोष व्रत करने से व्रती को पुण्य मिलता है।

शिवशंकर भोलेनाथ के अनेक रूप

गंगाध

राजा भगीरथ ने जनकल्याण के लिए पतितपावन गंगाजी को पृथ्वी पर लाने के लिए कई वर्षों तक कठोर तपस्या की। तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने राजा भगीरथ को यह वचन दिया कि सर्वकल्याणकारी गंगा पृथ्वी पर आएगी। मगर समस्या यह थी कि गंगाजी को पृथ्वी पर संभालेगा कौन?

समस्या का समाधान करते हुए ब्रह्माजी ने कहा कि गंगाजी को धारण करने की शक्ति भगवान शंकर के अतिरिक्त किसी में भी नहीं है अतः तुम्हें भगवान रुद्र की तपस्या करना चाहिए। ऐसा कहकर ब्रह्माजी अंतर्धान हो गए। ब्रह्माजी के वचन सुनकर भगीरथ ने प्रभु भोलेनाथ की कठोर तपस्या की। इससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने भगीरथ से कहा- 'नरश्रेष्ठ! मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। मैं गिरिराजकुमारी गंगा को अपने मस्तक पर धारण करके संपूर्ण प्राणियों के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करूँगा।'

भगवान शंकर की स्वीकृति मिल जाने के बाद हिमालय की ज्येष्ठ पुत्री गंगाजी बड़े ही प्रबल वेग से आकाश से भगवान शंकर के मस्तक पर गिरीं। उस समय गंगाजी के मन में भगवान शंकर को पराजित करने की प्रबल इच्छा थी। गंगाजी का विचार था कि मैं अपने प्रबल वेग से भगवान शंकर को लेकर पाताल में चली जाऊँगी।

गंगाजी के इस अहंकार को जान शिवजी कुपित हो उठे और उन्होंने गंगाजी को अदृश्य करने का विचार किया। पुण्यशीला गंगा जब भगवान रुद्र के मस्तक पर गिरीं, तब वे उनकी जटाओं के जाल में बुरी तरह उलझ गईं। लाख प्रयत्न करने पर भी वे बाहर न निकल सकीं। जब भगीरथ ने देखा कि गंगाजी भगवान शिव के जटामंडल में अदृश्य हो गईं, तब उन्होंने पुनः भोलेनाथ को प्रसन्न करने के लिए तप करना प्रारंभ कर दिया। उनके तप से संतुष्ट होकर भगवान शिव ने गंगाजी को लेकर बिंदु सरोवर में छोड़ा। वहाँ से गंगाजी सात धाराएँ हो गईं।

इस प्रकार ह्लादिनी, पावनी और नलिनी नामक की धाराएँ पूर्व दिशा की ओर तथा सुचक्षु, सीता और महानदी सिंधु- ये तीन धाराएँ पश्चिम की ओर चली गईं। सातवीं धारा महाराज भगीरथ के पीछे-पीछे चली और पृथ्वी पर आई। इस प्रकार भगवान शंकर की कृपा से गंगा का धरती पर अवतरण हुआ और भगीरथ के पितरों के उद्धार के साथ पतितपावनी गंगा संसारवासियों को प्राप्त हुईं।

औढरदानी शिव


भगवान शिव और उनका नाम समस्त मंगलों का मूल है। वे कल्याण की जन्मभूमि तथा शांति के आगार हैं। वेद तथा आगमों में भगवान शिव को विशुद्ध ज्ञानस्वरूप बताया गया है। समस्त विद्याओं के मूल स्थान भी भगवान शिव ही हैं। उनका यह दिव्यज्ञान स्वतः सम्भूत है।

ज्ञान, बल, इच्छा और क्रिया-शक्ति में भगवान शिव के समान कोई नहीं है। फिर उनसे अधिक होने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता। वे सबके मूल कारण, रक्षक, पालक तथा नियंता होने के कारण महेश्वर कहे जाते हैं। उनका आदि और अंत न होने से वे अनंत हैं। वे सभी पवित्रकारी पदार्थों को भी पवित्र करने वाले हैं, इसलिए वे समस्त कल्याण और मंगल के मूल कारण हैं।

भगवान शंकर दिग्वसन होते हुए भी भक्तों को अतुल ऐश्वर्य प्रदान करने वाले, अनंत राशियों के अधिपति होने पर भी भस्म-विभूषण, श्मशानवासी होने पर भी त्रैलोक्याधिपति, योगिराज होने पर भी अर्धनारीश्वर, पार्वतीजी के साथ रहने पर भी कामजित तथा सबके कारण होते हुए भी अकारण हैं। आशुतोष और औढरदानी होने के कारण वे शीघ्र प्रसन्न होकर अपने भक्तों के संपूर्ण दोषों को क्षमा कर देते हैं तथा धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, ज्ञान-विज्ञान के साथ अपने आपको भी दे देते हैं। कृपालुता का इससे बड़ा उदाहरण भला और क्या हो सकता है।

संपूर्ण विश्व में शिवमंदिर, ज्योतिर्लिंग, स्वयम्भूलिंग से लेकर छोटे-छोटे चबूतरों पर शिवलिंग स्थापित करके भगवान शंकर की सर्वाधिक पूजा उनकी लोकप्रियता का अद्भुत उदाहरण है।

हरिहर रू


एक बार सभी देवता मिलकर संपूर्ण जगत के अशांत होने का कारण जानने के लिए विष्णुजी के पास गए। भगवान विष्णु ने कहा कि इस प्रश्न का उत्तर तो भोलेनाथ ही दे सकते हैं। अब सभी देवता विष्णुजी को लेकर शिवजी की खोजने मंदर पर्वत गए। वहाँ शंकरजी के होते हुए भी देवताओं को उनके दर्शन नहीं हो रहे थे।

पार्वतीजी का गर्भ नष्ट करने पर देवताओं को महापाप लगा था और इस कारण ही ऐसा हो रहा था। तब विष्णुजी ने कहा कि सारे देवता शिवजी को प्रसन्न करने के लिए तत्पकृच्छ्र व्रत करें। इसकी विधि भी विष्णुजी ने बताई। सारे देवताओं ने ऐसा ही किया। फलस्वरूप सारे देवता पापमुक्त हो गए। पुनः देवताओं को शंकरजी के दर्शन करने की इच्छा जागी। देवताओं की इच्छा जान प्रभु विष्णु ने उन्हें अपने हृदयकमल में विश्राम करने वाले भगवान शंकर के लिंग के दर्शन करा दिए।

अब सभी देवता यह विचार करने लगे कि सत्वगुणी विष्णु और तमोगुणी शंकर के मध्य यह एकता किस प्रकार हुई। देवताओं का विचार जान विष्णुजी ने उन्हें अपने हरिहरात्मक रूप का दर्शन कराया। देवताओं ने एक ही शरीर में भगवान विष्णु और भोलेनाथ शंकर अर्थात हरि और हर का एकसाथ दर्शन कर उनकी स्तुति की।

पंचमुखी शि


मुक्तापीतपयोदमौक्तिकजपावर्णैर्मुखैः पञ्चभि- स्त्र्यक्षैरंजितमीशमिंदुमुकुटं पूर्णेन्दुकोटिप्रभम्‌ ।
शूलं टंककृपाणवज्रदहनान्नागेन्द्रघंटांकुशान्‌ पाशं भीतिहरं दधानममिताकल्पोज्ज्वलं चिन्तयेत्‌

'जिन भगवान शंकर के ऊपर की ओर गजमुक्ता के समान किंचित श्वेत-पीत वर्ण, पूर्व की ओर सुवर्ण के समान पीतवर्ण, दक्षिण की ओर सजल मेघ के समान सघन नीलवर्ण, पश्चिम की ओर स्फटिक के समान शुभ्र उज्ज्वल वर्ण तथा उत्तर की ओर जपापुष्प या प्रवाल के समान रक्तवर्ण के पाँच मुख हैं।

जिनके शरीर की प्रभा करोड़ों पूर्ण चंद्रमाओं के समान है और जिनके दस हाथों में क्रमशः त्रिशूल, टंक (छेनी), तलवार, वज्र, अग्नि, नागराज, घंटा, अंकुश, पाश तथा अभयमुद्रा हैं। ऐसे भव्य, उज्ज्वल भगवान शिव का मैं ध्यान करता हूँ।'

महामृत्युंजय


हस्ताभ्यां कलशद्वयामृतरसैराप्लावयन्तं शिरो द्वाभ्यां तौ दधतं मृगाक्षवलये द्वाभ्यां वहंतं परम्‌ ।
अंकन्यस्तकरद्वयामृतघटं कैलासकान्तं शिवं स्वच्छाम्भोजगतं नवेन्दुमुकुटं देवं त्रिनेत्रं भजे

भगवान मृत्युंजय अपने ऊपर के दो हाथों में स्थित दो कलशों से सिर को अमृत जल से सींच रहे हैं। अपने दो हाथों में क्रमशः मृगमुद्रा और रुद्राक्ष की माला धारण किए हैं। दो हाथों में अमृत-कलश लिए हैं। दो अन्य हाथों से अमृत कलश को ढँके हैं।

इस प्रकार आठ हाथों से युक्त, कैलास पर्वत पर स्थित, स्वच्छ कमल पर विराजमान, ललाट पर बालचंद्र का मुकुट धारण किए त्रिनेत्र, मृत्युंजय महादेव का मैं ध्यान करता हूँ।

सोमवार, 13 अप्रैल 2009

विश्व का विशालतम शिव

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रावण शिव जी का परम भक्त था। एक बार रावण ने खूब तपस्या करी और शिव जी को प्रसन्न कर दिया. वरदान स्वरुप रावण ने शिव जी से “अत्मलिंग” की मांग रखी. शिव जी ने कहा ठीक है लेकिन इसे जमीन पर मत रखना नहीं तो फ़िर वह वहां से नहीं उठेगा. रावण “अत्मलिंग” को हाथ में लिए लंका के लिए निकल पड़ा. इस लिंग के प्राप्ति पर रावण अमर और अदृश्य हो सकता था. नारद मुनि को इसकी भनक लग गई थी. वे सीधे विष्णु जी के पास पहुंचे और कहा नारायण अनर्थ होने जा रहा है.

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दुष्ट रावण भूलोक ही नहीं बल्कि देवलोक में भी हाहाकार मचायेगा. उसे रोकिये. तब तक तो रावण गोकर्ण तक पहुँच ही गया था. विष्णु ने अपना करतब दिखाया. मध्याह्न में ही सूर्य को ढँक कर संध्या का भ्रम निर्मित किया. रावण शिव जी की सांध्य पूजा किया करता था. अब वह धर्म संकट में पड़ गया. इस बीच नारद ने गणेश जी को भी पटा लिया था जिसके कारण गणेश जी स्वयं ब्राह्मण के वेश में रावण के समीप प्रकट हो गए. रावण ने उस ब्राह्मण स्वरुप गणेश जी से आग्रह किया कि वह उस अत्मलिंग को अपने हाथों में रखे ताकि वह सांध्य पूजा कर सके. ब्राह्मण ने बात मान ली परन्तु कह भी दिया कि आवश्यकता पड़ने पर तीन बार ही पुकारेगा और फ़िर उस लिंग को छोड़ कर चलता बनेगा. रावण ने “अत्मलिंग” को ब्राह्मण के हवाले कर पूजा करने निकल पड़ा. रावण के जाते ही गणेश जी ने उस लिंग को वहीं (गोकर्ण) रख दिया और अंतर्ध्यान हो गए. रावण अपनी पूजा से निपट कर जब वापस आया तो अत्मलिंग को जड़वत पाया. उसने उठाने कि भरसक कोशिश की पर सफल न हो सका. फ़िर क्रोध में आकर अत्मलिंग के अलग अलग भागों को उखाड़ कर इधर उधर फेंकने लगा. जिस वस्त्र से लिंग ढंका हुआ था वह आकर मुरुदेश्वर में गिरा और तब से एक महत्वपूर्ण शिव क्षेत्र के रूप में प्रसिद्द हुआ.

यहाँ का प्राचीन शिव मन्दिर समुद्र के किनारे कंदुकागिरी पर बना है और उसकी बनावट, शिल्प आदि से चालुक्य - कदम्ब शैलियों का मिश्रित प्रभाव परिलक्षित होता है. मन्दिर के अन्दर के शिल्प और कलात्मकता लुभावनी है. इस मन्दिर की देखरेख के लिए प्रबंधक के रूप में श्री मंजुनाथ शेट्टी अपनी सेवाएं दे रहे हैं. इन्होने स्वेच्छा से सिंडिकेट बैंक के अपने अधिकारी पद से सेवा निवृत्ति ले ली थी. यहाँ की एक विशेषता यह है कि इस मन्दिर के आस पास भीख मांगने वाले नहीं दिखेंगे. कोई भी दूकानदार पूजा सामग्री खरीदने के लिए भी आपके पीछे नहीं पड़ेगा. कुछ बच्चे जरूर घूम रहे होते हैं जो वहां के चित्रों को बेचने में लगे हैं. पाँच रुपये के दस. मन्दिर के पीछे एक पुराना किला भी है और कहा जाता है कि टीपू सुलतान ने इस किले का जीर्णोद्धार कराया था.

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मुरुदेश्वर की आज कल की प्रसिद्धि तो यहाँ के विशाल शिव जी के कारण हो गई है. यह प्रतिमा उसी कंदुका गिरी के शीर्ष पर बनी है, पुराने मन्दिर के ऊपर कुछ दायीं ओर. मूर्ति की ऊँचाई १२३ फीट है जिसके कारण दूर दूर से ही दिखाई भी देती है. शिव जी के एकदम नीचे पैरों तले एक सुरंग नुमा हाल है. यहाँ पर पौराणिक कथाओं के आधार पर झांकिया बनी हैं. रावण, गणेश जी ब्राह्मण के वेश में और ऐसी ही कथाओं से सम्बंधित अन्य प्रतिमाएँ रखी है. इनके बारे में कन्नड़ और हिन्दी में कमेंट्री चलती है. अतिरिक्त शुल्क देकर अंग्रेजी का केसेट भी लगवाया जा सकता है. यह सब अभी अभी ही किया गया है. जहाँ एक तरफ़ शिव जी की यह प्रतिमा विशालतम है वहीं इन तक आने के लिए सिंह द्वार पर राजगोपुरम जो बना है वह भी बेमिसाल है. इसकी ऊँचाई २४९ फीट है और इसके मुकाबले कोई दूसरा गोपुरम नहीं है. गोपुरम के दरवाजे पर ही दो विशाल हाथी द्वारपाल के रूप में बनाये गए हैं. इस पहाडी के तीन ओर समुद्र है जो अपेक्षाकृत शांत है. लगा हुआ बीच भी है जो साफ़ सुथरी और मनमोहक है. यहाँ नग्न या अर्ध नग्नावस्था में रेत पर लेटे रहना निषिद्ध है हलाकि विदेशी पर्यटकों की यहाँ कोई कमी नहीं है. कुछ दूरी पर रेत पर ही कई नौकाएं दिखेंगी. शाम होते होते समुद्र से आखेट कर नौकाएं वापस आती दिखती हैं. उनके वापसी पर वहां मछलियों की बिक्री भी होती देख सकते हैं.

यहाँ आस पास ही ४ होटल हैं. बगीचे से लगा हुआ एक रेस्ट हाउस है जहाँ रहने का किराया जेब पर भारी नहीं पड़ता. मन्दिर की ओर जाते समय समुद्र से सटा हुआ ‘नवीन बीच रेस्टोरेंट’ बड़ी अच्छी जगह बना है. अन्दर नाश्ता करते हुए समुद्र का नज़ारा बड़ी संतुष्टि दायक होती है.

मुरुदेश्वर में इस विश्व के सबसे ऊंचे शिव जी, भव्य राज गोपुरम, पर्यटकों के लिए सुविधाएँ आदि की व्यवस्था करने के लिए पूरा का पूरा श्रेय श्री आर.एन. शेट्टी, को जाता है जो यहाँ के एक प्रमुख उद्योगपति हैं. उन्होंने मुर्देश्वर को एक बड़े पर्यटन केन्द्र के रूप में विकासित करने के लिए ५० करोड़ रुपये की राशि लगायी थी. इन सबके आलावा मुरुदेश्वर में कुछ बहुत ही सुंदर थीम पार्क भी हैं..

मुरुदेश्वर कर्णाटक के भटकल तहसील में मुंबई - थिरुवनन्थपुरम रेल मार्ग पर पड़ता है और गाडियां यहाँ रूकती भी हैं. बीकानेर और जोधपुर से भी रेलगाडियां मिलती हैं. दिल्ली की ओर से आने के लिए कोंकण मार्ग पर जानेवाली गाड़ियों को चुना जा सकता है. गोवा से मुर्देश्वर की दूरी मात्र १६० किलोमीटर है. यहाँ से उडुपी भी नीचे १०० किलोमीटर की दूरी पर है. मुरुदेश्वर स्टेशन से मन्दिर या बीच तक के लिए ऑटोवाले २० रुपये लेते हैं। हुबली में उतरकर भी यहाँ आया जा सकता है.

साभार :
पा.ना. सुब्रमणियन

तालागाँव का रुद्र शिव (छत्तीसगढ़)

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छत्तीसगढ़ में बिलासपुर से
रायपुर जाने वाले राज मार्ग पर दक्षिण की ओर 25 कि.मी.चलने के बाद एक गाँव पड़ता है - भोजपुर. यहाँ से अमेरीकापा के लिए बाईं ओर मार्ग बना हुआ है. इसी मार्ग पर 4 कि.मी. की दूरी पर मनियारी नदी के तट पर 6वीं सदी के देवरानी जेठानी मंदिरों का भग्नावशेष है. सन 1984 के लगभग यहाँ मलवा सफाई के नाम पर उत्खनन कार्य संपन्न हुआ था. इस अभियान में एक तो जेठानी मंदिर का पूरा स्थल विन्यास प्रकट हुआ और साथ ही कई अभूतपूर्व पुरा संपदा धरती के गर्भ से प्रकट हुई थी. स्थल से प्राप्त हुए मूर्तियों के विलक्षण सौंदर्य ने संपूर्ण भारत एवं विदेशी पुरावेत्ताओं को मोहित कर लिया था. देवरानी जेठानी मंदिरों के सामने, हालाकी वे भग्नावस्था में हैं, पूरे भारत में कोई दूसरी मिसाल नहीं है.

देवरानी मंदिर के अग्र भाग में बाईं ओर से एक विलक्षण भव्य प्रतिमा प्राप्त हुई जो भारतीय शिल्पशास्त्र के लिए भी एक चुनौती बनी हुई है. किसी पुराण में भी ऐसे किसी देव या दानव का उल्लेख नहीं मिलता और ना ही ऐसी कोई प्रतिमा भारत या विदेशों में पाई गयी है. सभी विद्वान केवल अटकलें लगा रहे हैं. कुछ नाम तो इस प्रतिमा को देना ही था इसलिए रुद्र शिव कहकर संबोधित किया जा रहा है.

Devrani Temple, Talagaon

देवरानी मंदिर, तालागाँव - भग्नावशेष
इस प्रतिमा को देखने पर लगता है कि शिल्पी ने विधाता की सृष्टि में पाए जाने वाले सभी प्राणियों को मानव अवयवों में समाहित कर एक अद्भुत परिकल्पना को मूर्त रूप दिया हो. इस प्रकार की शारीरिक संरचना तो किसी राक्षस की भी नही थी. यह दैत्याकार मूर्ति लगभग ८ फीट ऊँची और ६ टन वजन की बलुआ पत्थर से निर्मित है. हमने इस प्रतिमा को सहलाकर महसूस ही नहीं किया बल्कि उसकी ऊर्जा को कुछ अंश तक ग्रहण करने का भी प्रयास किया था.
चलिए अब एक नज़र उन अवयवों पर भी डाल लें जिस के कारण यह प्रतिमा विशिष्ट बनी. सर पर देखें तो सर्पों का बोल बाला है. जैसे हम अपने कॉलर में ‘बो’ लगाते हैं वैसे ही माथे के ऊपर दो सर्पों को पगड़ी के रूप मे प्रयोग कर फनो को आपस में बाँध दिया गया है. दो बड़े बड़े नाग फन उठाए दोनो कंधों के ऊपर दिख रहे हैं. पता नहीं पूंछ का क्या हुआ. इसका चेहरा तो देखो. आँखों के ऊपर, भौं, छिपकिलियों से बनी है और एक बड़ी छिपकिली नाक की जगह है. पलकों और आँख की पुतलियों में भी लोगों को कुछ कुछ दिखाई पड़ता है. हमने घूर कर नहीं देखा, डर लगता है ना. ऊपर की ओंठ और मूछे दो मछलियों, और नीचे की ओंठ सहित ठुड्डी केकड़े से निर्मित है. दोनो भुजाएँ मगर के मुह के अंदर से निकली है या यों कहें कि कंधों की जगह मकर मुख बना है. हाथ की उंगलियों का छोर सर्प मुख से बना है.

जब शरीर के निचले ओर चलते हैं तो मानव मुखों की बहुतायत पाते हैं. छाती में स्तनो की तरह दो मूछ वाले मानव मुख हैं. पेट की जगह एक बड़ा मूछ वाला मानव मुख है. जंघाओं पर सामने की ओर दो मुस्कुराते अंजलि बद्ध मुद्रा में मानव मुख सुशोभित हैं. जंघा के अगल बगल भी दो चेहरे दिखते हैं. वहीं, और नीचे जाते हैं तो घुटनों में शेर का चेहरा बना है. क्या आपको कछुआ दिखा? दोनो पैरों के बीच देखें कछुए के मुह को लिंग की जगह स्थापित कर दिया गया है और अंडकोष की जगह दो घंटे! लटक रहे हैं. मूर्ति के बाएँ पैर की तरफ एक फन उठाया हुआ सर्प तथा ऊपर एक मानव चेहरा और दिखता है. दाहिनी ओर भी ऐसा ही रहा होगा, मूर्ति के उस तरफ का हिस्सा खंडित हो जाने के कारण गायब हो गया. कुछ विद्वानों का मत है कि पैर का निचला हिस्सा हाथी के पैरों जैसा रहा होगा जो अब खंडित हो चला है.Jethani Temple Ruins at Talagaon

जेठानी मंदिर के भग्नावशेष

क्या आपको नहीं लगता कि सृष्टि का रचयिता भी अपना सर पटक रहा होगा और कहता होगा कि हे मानव तू मुझसे भी श्रेष्ट है. लेकिन सवाल उठता है कि ऐसी प्रतिमा बनाने के पीछे शिल्पी का क्या उद्देश्य रहा होगा.

यहाँ यह बता देना आवश्यक है कि उस मूर्ति को किस अवस्था में प्राप्त किया गया था. खुदाई के समय हमने अपनी इन छोटी छोटी आँखों से देखा है कि यह भारी भरकम प्रतिमा को बक़ायदा 10 x 4 का गड्ढा खोद, नीचे पत्थर बिछा कर, दफ़नाया गया था. वह अपने आप गिर कर मिट्टी के नीचे दबी नहीं थी. गिरी होती तो अपने भार के कारण खंडित हो जाती. इसका मतलब यह हुआ कि उसे जान बूझ कर ही दफ़ना दिया गया था. पर प्रश्न उठता है क्यों? संभवतः उस मूर्ति की आवश्यकता ही नहीं रही होगी!. उन अति सुंदर मंदिरों के बनाते समय हमारे इस तथाकथित रुद्र शिव को पहरेदार की तरह खड़ा रखा गया होगा ताकि लोगों की दृष्टि ना पड़े. जब मंदिर बन गया और उद्‍घाटन भी हो गया तो फिर उस दैत्य रूपी रुद्र शिव को अलविदा कर दिया. हमारे एक मित्र जो एक वरिष्ट पुरावेत्ता हैं, का मानना है कि ऐसी एक नहीं, दो प्रतिमाएँ रही होंगी. एक अभी कहीं दबी पड़ी है.

शिवपुराण ( 6-9-14) में बताया गया है कि:

रूर दुखं दुखः हेतुम व
तद द्रवयति याः प्रुभुह
रुद्र इत्युच्यते तस्मात्
शिवः परम कारणम्

सारांश में: “रूर का तात्पर्य दुःख से है या फ़िर उसका जो कारक है. इसे नाश करने वाला ही रुद्र है जो शिव ही है”

जो बातें शिवपुराण में कही गई है उसे देख कर आभास होता है कि रुद्र में निश्चित ही वीभस्वता तो कदापि नहीं हो सकती. इसलिए जिस मूर्ति कि चर्चा हम कर रहे हैं वह रुद्र शिव तो नहीं ही है.

इस अति विशालकाय रुद्र शिव की अनुकृति को राज्य संग्रहालय, भोपाल के मुख्य द्वार पर स्थापित किया गया है