हंपी, भगवान शिव का विरूपाक्ष मंदिर अथवा पंपापति का स्थान है जोकि विजयनगर के राजाओं के पारंपरिक एवं पारिवारिक भगवान थे। यह मंदिर बेलारी जिले में तुंगभद्रा नदी के दक्षिणी किनारे पर स्थित है और यह कर्नाटक में होसपेट शहर से नौ मील की दूरी पर है। यह विजयनगर का सबसे पुराना और पवित्र मंदिर है। यह मंदिर 1565 ईसवी में तालीकोटा के युद्व में विनाश से अद्भुत तरीके से बच गया था।
यहां की विशाल चट्टानों, नदी, एकांत और प्रकृति ने अनेक बुद्विमानों एवं ऋषि-मुनियों को यहां आने के लिए आकर्षित किया है। विद्यारण्य ने इस स्थान को अपनी तपस्या के लिए चुना था। तुगंभद्रा नदी का दूसरा नाम पंपा भी है। पंपादेवी को ब्रहमा की पुत्री माना गया है और उसने हैमकूट पहाड़ी पर तपस्या की थी। भगवान विश्वेश्वर उसके सामने प्रकट हो गये और उसे अपनी संगनी बना लिया। विद्वानों और दार्शनिकों से प्रभावित हो कर 1336 ईसवीं में माधव, हरिहर, और बुक्का ने इस शहर की नींव ड़ाली और इसका नाम विजयनगर हरिहर और बुक्का ने अपने गुरू विद्यारण्य के नाम पर रखा। हरिहर और बुक्का संगम के पांच पुत्रों में से दो थे। इन्होंने पंपापति अथवा विरूपाक्ष को अपना कुल देवता माना। नदी के उत्तरी छोर पर अनेगुंडी का किला था और दक्षिणाी छोर पर विजयनगर को बसाया गया था। लगभग तीन सौ वर्षों तक विजयनगर बाहरी संस्कृति एवं विचारों से बचा रहा और देश की पारंपरिक संस्कृति तथा धर्म के समर्थन में खड़ा रहा। अब विजयनगर दक्षिण की कांशी बन गया था और विरूपाक्ष भारत के 108 दिव्य क्षेत्रों में से एक हो गया। विजयनगर साम्राज्य का पहला वंश संगम के नाम पर पड़ा था। संगम हरिहर और बुक्का का पिता था। बुक्का प्रथम के बाद हरिहर द्वितीय ने यहां की सत्ता संभाली। करनूल से लेकर कुंबाकोणम के बीच स्थित मंदिरों को इसने सोलह बड़े उपहार दिये थे जिसके लिए इसकी प्रशंसा की जाती है। इसने पूरे दक्षिण में अपने राज्य का विस्तार कर लिया। हांलाकि वह भगवान विरूपाक्ष का अनुयायी था परंतु वह अन्य धर्मों के प्रति भी उदार था। विजयनगर साम्राज्य और बादामी साम्राज्य के बीच लगातार युद्व होते रहते थे। संगम वंश में नौ राजा हुए थे जो यादवों और होयसेलों के पतन के बाद सत्ता में आये थे और ये 1336 ईसवीं से 1486 ईसवीे तक सत्ता में रहे।
सालुव वंश के अंतिम राजा को तालुव वंश के वीर नरसिंह ने सत्ता से हटा दिया। वीर नरसिंह के बाद उसके रिश्ते के छोटे भाई कृष्णदेव राय ने सत्ता संभाली जो विजयनगर साम्राज्य का सबसे महान एवं भारत का अनूठा राजा हुआ।
कृष्णदेव राय के राज में विजयनगर साम्राज्य अपने वैभव और खुशहाली के चरम उत्कर्ष पर पहुंच गया था। वह संस्कृत और तेलगु साहित्य का महान संरक्षक था। उसने स्वयं भी तेलगु में ''अमुक्तमल्यद'' नाम का एक ग्रंथ लिखा था जिसमें उसने स्वयं के द्वारा संस्कृत में लिखे पांच साहित्यों का वर्णन किया है। इसके दरबार में आठ मशहूर कवि आश्रय पाते थे जिन्हें '' अष्टदिग्गज'' कहा जाता था और इनमें सबसे अधिक पेद्दना मशहूर था। धुर्जती कवि भी मशहूर था। ऐसा कहा जाता है कि कृष्णदेव राय धुर्जती कवि के बारे में यह जानना चाहते थे कि उनकी कविताओं में इतनी मीठास कैसे आती है तो तेनालीराम जोकि एक प्रतिभाशली विद्वान एवं हंसौड़ा था और उसने ''पंडुरंग महात्यम'' नामक ग्रंथ की रचना की थी, उसने बताया कि इसका कारण धर्जती की संगनी के सुंदर होंठ है। कृष्णदेव राय की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई अच्युत राय गद्दी पर बैठा। इसके बाद वैंकट राय प्रथम और इसके बाद सदाशिव राय ने गद्दी संभाली। परंतु सारी शक्ति उसके मंत्री रामराय के हाथों में थी। वह वास्तविक शासक तो था ही साथ ही उसमें अपार क्षमता भी थी। परंतु अब वह दंभी और अति आत्मविश्वासी हो गया और उसने अपना गठबंधन भी बदल लिया जिसके कारण उसके पडौसी राज्य की प्रजा का वह घृणा पात्र बन गया। चार मुस्लिम राज्यों बीजापुर, गोलकुंडा, अहमद नगर और बीदर ने अपना एक अलग गठबंधन बनाया और इसने मिलकर विजयनगर पर हमला कर दिया। 23 जनवरी, 1665 ईसवीं में राक्षस और तगडी गांव के पास तालीकोटा में एक भयंकर युद्व हुआ जिसमें विजयनगर की पराजय हुई और हुसैन निज़ाम शाह ने रामराय की हत्या कर दी। विजयी सेना ने नगर में लूट मचा दी। बेहतरीन तरीके से बसे नगर को हमलावर सेना ने बर्बाद कर दिया। युद्व के तीन बाद से लेकर अगले पांच महीनों के दौरान लगातार विनाश चलता रहा और यह नगर पूरी तरह से नष्ट हो गया। ऐसा विश्व इतिहास में कभी नहीं हुआ जो एक दिन पहले शानदार और वैभवशाली राज्य था और अचानक ही अगले ही दिन उसका इस तरह से पतन हो जाये।
यूनेस्को की रिपोर्ट में भारतीय प्राचीन स्थापत्य, महलों मंदिरों, सुरक्षा मचानों, स्नानगृहाें और जगह-जगह फैले पडे बड़ी संख्या पत्थरों को स्थान दिया है। इसकी पूरी तस्वीर तुंगभद्रा नदी है जो यह महसूस कराती है कि लंबे समय से इसने बहुत कुछ छिपा रखा है। विजयनगर की राजधानी के रूप में हंपी में वो सारे तत्व मौजूद है जो उसे किसी भी राज परिवार के रहने के लिए गौरव दिलाते है। यहां हाथी, घोड़े, नृतकियां, पर्वत गुफाएं संगीतमय स्तंभ, कमल की आकृति के फव्वारे, सीढ़िदार तालाब आदि दृष्टिगोचर होते है। लगभग 25 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में जगह-जगह दबे अवशेष अद्भुत दिखाई देते है। विरूपाक्ष मंदिर का गोपुरम् पचास मीटर लंबा-चौड़ा और नौ मंजिला है। विट्ठल मंदिर में पत्थर से बने हुए छप्पन स्तंभ है जो एक क्रम में देखने पर संगीतमय आभास उत्पन्न करते है। यहीं पर 6.7 मीटर की एक विशाल शिला है जिसको नरसिंह कहते है। बेशक विजयनगर के हीरे-जवाहरात को लूट लिया गया हो और नगर पूरी तरह से खाली हो गया हो परंतु आज भी इस अंतिम नगर की महानता, महत्ता और वैभवता को महसूस किया जा सकता है।
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