शनिवार, 30 मई 2009

जहां नटराज करते हैं आज भी राज!

हिमाचल प्रदेश के जिला चंबामें समुद्र तल से साढे सात हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित देव घाटी भरमौरका सौंदर्य नयनाभिराम है और अतीत गौरवपूर्ण। हमारे पौराणिक ग्रंथों में जिन चार कैलाश पर्वतों का उल्लेख आया है, उनमें से एक मणिमहेशकैलाश, इसी नैसर्गिक घाटी में स्थित है।

चंबाशहर से भरमौरकी दूरी कोई पैंसठ किलोमीटर है। भरमौरका रास्ता खडामुखसे होकर जाता है। खडामुखऔर भरमौरके बीच रावीनदी बहती है। भरमौरकई तरह के फलदार वृक्षों से सजी एक ऐसी मनोरम घाटी है, जहां कदम रखते ही सारी थकान पल भर के लिए छू-मंतर हो जाती है। यह घाटी वर्ष में तकरीबन पांच मास बर्फ की सफेद चादर से ढंकी रहती है।

भरमौरका जिक्र प्राचीन ग्रंथों में भी मिलता है और जनश्रुतियोंमें भी। भरमौरका प्राचीन नाम ब्रह्मपुर है। उसे पांच सौ वर्षो तक चंबाराज्य की राजधानी रहने का गौरव भी हासिल है। भरमौरनिवासियों की यह मान्यता है कि कालांतर में भगवान शिव यानी नटराज ने भरमौरघाटी में तांडव नृत्य भी किया था। भरमौरनिवासियों के अनुसार नटराज सात तरह के तांडव नृत्य करते हैं-आनंद तांडव, संध्या (प्रदोष) तांडव, कालिका तांडव, त्रिपुर दाह तांडव, गौरी तांडव, संहार तांडव और उमा तांडव। भारत ही नहीं, अनेक पाश्चात्य पुरातत्ववेताओंको भी भरमौरने अपने गौरवपूर्ण अतीत की तरफ आकर्षित किया है। इनमें डॉ. हटचिनसन,डा. फोगल,हरमनगोटसके नाम उल्लेखनीय है।

शिखर शैली में बना मणिमहेशका विशाल मंदिर यहां के निवासियों और शैव मतावलंबियों के लिए आस्था का प्रतीक है। आबादी के बीच एक बडे मंदिर परिसर में शिखर और पहाडी शैली में बने बीसियोंछोटे शिव मंदिर हैं और शिवलिंगभी। मंदिर समूह में सबसे बडा और ऊंचा मणिमहेशमंदिर ही है, जिसका शिखर दूर से ही दिखाई देने लग जाता है। विद्वानों ने इस मंदिर का निर्माण काल राजा मेरुवर्मन(780 ई.) के समय का माना है। इस काल में मेरुवर्मनने भरमौरमें अन्य मंदिरों और मूर्तियों की स्थापना की थी। कहा जाता है कि भरमौर(ब्रह्मपुर) में चौरासी सिद्धोंने धूनी रमाई थी और जहां-जहां वे बैठे थे, उन्हीं जगहों पर राजा साहिल वर्मा ने चौरासी मंदिरों का निर्माण करवाया था। यह मंदिर शिल्प व वास्तुकला का अनुपम उदाहरण है। मणिमहेशमंदिर में प्रवेश करते ही नंदी की भव्य कांस्य प्रतिमा ध्यान आकर्षित करती है।

नृसिंह भगवान का मंदिर शिखर शैली का बना है। इस मंदिर में नृसिंह भगवान की अष्टधातु की मूर्ति ग्यारह इंच ऊंचे तांबे की पीठ पर प्रतिष्ठित है। एक हजार से अधिक वर्ष पुरानी इन प्रतिमाओं पर वक्त की धूल जमी नहीं दिखाई देती, बल्कि इनकी चमक-दमक अभी तक बरकरार है और बडी श्रद्धा से इन्हें पूजा जाता है। भरमौरघाटी का दूसरा प्रसिद्ध शिव मंदिर हडसरमें है। हडसरजिसे स्थानीय बोली में हरसरभी कहा जाता है, पवित्र मणिमहेशको जाने वाली सडक पर अंतिम गांव है और कैलाश पर्वत के दर्शनार्थ जाने वाले श्रद्धालुओं की विश्राम स्थली भी है। गांव में पहाडी शैली में लकडी से निर्मित भगवान शिव का ऐतिहासिक मंदिर है। भरमौरघाटी का तीसरा प्रमुख मंदिर छतराडीमें है, जिसका निर्माण भी राजा मेरुवर्मनने करवाया था। मंदिर में अष्टधातु की बनी आदि शक्ति की कलात्मक मूर्ति प्रतिष्ठित है। इस बहूमूल्यमूर्ति का निर्माण काल छठी-सातवीं शताब्दी का है। मंदिर की कलात्मकता देखते ही बनती है।

कुछ लोग इसे हिमाचल का अमरनाथ कहकर भी पुकारते हैं। भारत के उत्तर-पश्चिम में यह सबसे बडा शैव तीर्थ है और इसे भगवान शिव का वास्तविक घर माना गया है। समुद्र तल से 18,564फुट की ऊंचाई पर स्थित मणिमहेशके आंचल में करीब दो सौ मीटर परिधि की झील है। प्रति वर्ष भाद्रपक्षमास में कृष्णाष्टमी तथा जन्माष्टमी को यहां विशाल मेला लगता है।

सोमवार, 11 मई 2009

भगवान शिव के अठारह नाम

भगवान शिव अठारह नामों से पूजे जाते हैं जिनमें शिव, शम्भु, नीलकंठ, महेश्वर, नटराज आदि प्रमुख हैं। भगवान शिव अपने मस्तक पर आकाश गंगा को धारण करते हैं तथा उनके भाल पर चंद्रमा हैं। उनके पांच मुख माने जाते हैं जिनमें प्रत्येक मुख में तीन नेत्र हैं। भगवान शिव दस भुजाओं वाले त्रिशूलधारी हैं।

पुराणों में भगवान शिव के जिन अट्ठारह नामों का उल्लेख किया गया है उनमें पहला है- शिव। शिव शंकर अपने भक्तों के पापों को नष्ट करते हैं। पशुपति उनका दूसरा नाम है। ज्ञान शून्य अवस्था में सभी पशु माने गये हैं। शिव इसलिए पशुपति हैं क्योंकि वह सबको ज्ञान देने वाले हैं। शिव को मृत्युंजय भी कहा जाता है। मृत्यु से कोई नहीं जीत सकता। पर चूंकि शिव अजर और अमर हैं इसलिए उन्हें मृत्यंजय भी कहा जाता है। त्रिनेत्र रूप में भी उनकी पूजा की जाती है। कहा जाता है कि एक बार भगवान शिव के दोनों नेत्र पार्वती जी ने मूंद लिए इससे पूरे विश्व में अंधकार छा गया। सब लोग जब व्याकुल हो उठे तो शिवजी के ललाट पर तीसरा नेत्र उत्पन्न हुआ। इससे तुरंत ही सारा अंधकार दूूर हो गया।

शिवजी को पंचवक्त्र भी कहा जाता है। इस बारे में कहा जाता है कि एक बार भगवान विष्णु ने कई मनोहर रूप धारण किये। इससे अनेक देवताओं को उनके दर्शनों का लाभ मिला। इसके बाद शिवजी के भी पांच मुख हो गये और हर मुख पर तीन-तीन नेत्र उत्पन्न हो गये। कृत्तिवासा के रूप में भी भगवान शिव को जाना जाता है। जो गज चर्म धारण करे उसे कृत्तिवासा कहा जाता है। महिषासुर के पुत्र गजासुर के कहने पर शिव जी ने उसका चर्म धारण किया था।

शितिकंठ के रूप में भी भगवान शिव की पूजा की जाती है। जिसका कंठ नीला हो उसे शितिकंठ कहा जाता है। खंडपरशु भी भगवान शिव का एक नाम है। कहा जाता है कि जिस समय दक्ष यज्ञ का ध्वंस करने के लिए भगवान शिव ने त्रिशूल को छोड़ा था तो वह बदरिकाश्रम में तपलीन नारायण जी को बेध गया। तब नर ने एक तिनके को अभिमंत्रित किया और उसे शिवजी पर चलाया। वह परशु के आकार में था। शिवजी ने उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले इसलिए उन्हें यह नाम मिला। इसके अलावा शिवजी को प्रमथाधिव, गंगाधर, महेश्वर, रुद्र, विष्णु, पितामह, संसार वैद्य, सर्वज्ञ, परमात्मा और कपाली के नामों से भी पूजा जाता है।

इनके अलावा भारत भर में भगवान शिव के बारह ज्योर्तिलिंग हैं जिनकी विशेष रूप से पूजा की जाती है। इनमें सोमनाथ, मिल्लकाजुZन, महाकाल या महाकालेश्वर, ओंकारेश्वर और अमलेश्वर, केदारनाथ, भीमशंकर, विश्वनाथ, त्र्यम्बेकश्वर, वैद्यनाथ धाम, नागेश, रामेश्वरम और घुश्मेश्वर आदि हैं। इन ज्योर्तिलिंगों की भक्त जन विशेष पूजा अर्चना करते हैं और शिवरात्रि पर तो इन ज्योतिर्लिंगों पर भक्तों का तांता लगा रहता है।

ब्रम्हा और विष्णु भगवान शिव में से ही उत्पन्न हुए हैं। एक बार भगवान शिव ने अपने वाम भाग के दसवें अंग पर अमृत मल दिया। वहां से एक पुरुष प्रकट हुआ। शिव ने उनसे कहा कि आप व्यापक हैं इसलिए विष्णु कहलाए जाओगे। तपस्या के बाद विष्णु जी के शरीर में असंख्य जलधाराणं फूटने लगीं। देखते ही देखते सब ओर जल ही जल हो गया। विष्णु जी ने उसी जल में शमन किया।

बाद में उनकी नाभि से एक कमल उत्पन्न हुआ। तब भगवान शिव ने अपने दाएं अंग से ब्रम्हाजी को उत्पन्न किया। उन्होंने ब्रम्हाजी को नारायण के नाभि कमल में डाल दिया। तभी हैरत से विष्णुजी और ब्रम्हाजी एक दूसरे को देखने लगे। भगवान शिव ने कहा कि मैं, विष्णु तथा ब्रम्हा तीनों एक ही हैं। ब्रम्हा सृष्टि को जन्म दें, विष्णु उसका पालन करें तथा मेरे अंश रुद्र उसके संहारक होंगे। इसी तरह सृष्टि का चक्र चलेगा। इसके बाद विष्णुजी और ब्रम्हाजी ने भगवान शिव का पूजन किया। शिव ने कहा कि यही पहला शिवरात्रि पर्व है। यहीं से मेरे निराकार और साकार दोनों रूपों में पूजा मूर्ति तथा लिंग के स्वरूप में होगी।

भगवान शिव और पार्वती के विवाह का किस्सा भी बड़ा रोचक है। पार्वती ने इसके लिए कठोर तप किया। तप से प्रसन्न होकर आखिरकार भगवान शिव बूढ़े तपस्वी का रूप बनाकर पार्वती के पास गए। ब्राम्हण बनकर वह पार्वती के समक्ष जाकर शिवजी की बुराई करने लगे। पार्वती से यह सहन नहीं हुआ तो भगवान शिव ने उन्हें अपना असली रूप दिखाया और हंसने लगे और बोले- क्या तुम मेरी पत्नी बनोगी? पार्वती ने उन्हें प्रणाम किया और बोलीं- इस संबंध में आपको मेरे पिता से बात करनी होगी।

शिवजी ने तुरंत ही नट रूप धारण किया और पार्वती के घर जा पहुंचे। वहां पहुंचकर वह नाचने लगे। जब पार्वती के माता-पिता ने उन्हें रत्न और आभूषण देने चाहे तो उन्होंने मना कर दिया और पार्वती को मांगने लगे। इस पर उनके माता-पिता का क्रोध बढ़ गया और उन्होंने सेवकों से नट को बाहर निकालने को कहा। पर कोई भी उनको स्पर्श भी नहीं कर सका। इसके बाद शिवजी ने उन दोनों को अनेकों रूपों में दर्शन दिये। इसके बाद भगवान शिव और पार्वती जी का विवाह संपन्न हुआ।

साभार : प्रवीण दिवेदी , ब्लॉग : primarykamaster.blogspot.com

शनिवार, 9 मई 2009

रूद्रप्रयाग शिव स्थान का द्वार

देवप्रयाग के बाद रूद्रप्रयाग सर्वाधिक छविपूर्ण संगम है जहां मंदाकिनी के बिल्कुल साफ हरे जल के ठीक विपरित अलकनंदा का कम साफ पानी मिलता है। इस अंतर का एक बड़ा कारण है कि मंदाकिनी घाटी का स्थिर वातावरण जिसके फलस्वरूप नदी में कंकड एवं मिट्टी कम रहते हैं। यहां संगम का बड़ा धार्मिक महत्त्व है तथा हजारों-हजार भक्तजन यहां आकर धार्मिक स्नान करते हैं।
रूद्रप्रयाग में सड़क बंट जाती है जिनमें से एक मंदाकिनी घाटी के साथ-साथ केदारनाथ पहुंचती है, तीसरे धाम। जबकि दूसरा पथ अलकनंदा के किनारे-किनारे बद्रीनाथ को जाता है। एक समय जब कोई बद्रीनाथ या केदारनाथ जाय तो उसे दोनों जगहों से घूमकर रूद्रप्रयाग आना पड़ता था। पर आज इस चक्करदार पथ पर जाने की आवश्यकता नहीं होती तथा इसके बदले केदारनाथ के पथ पर कुंड से जुड़े केदारनाथ पक्षी विहार क्षेत्र से होते हुए सर्वाधिक मनोरम उच्च पथ से पहुंचा जा सकता है। यह पथ पर ऊखीमठ, गोपेश्वर से चमोली होते हुए है। रूद्रप्रयाग भौतिक रूप से प्रभावशाली है। दो नदियों ने पहाड़ के चट्टानों को काटकर गहरी खाई बनायी है। इन दो नदियों के प्रबल प्रवाह से उत्पन्न आवाज रूद्रप्रयाग के किसी भी स्थान से सुनी जा सकती है।



स्थिति मंदाकिनी नदी के तट पर
ऊंचाई 3581 मीटर
मंदिर ज्योतिर्लिग सदाशिव
स्थापित 8 वीं शती

भारत के उत्तर में नगाधिराज हिमालय की सुरम्य उपत्यका में स्थित केदारक्षेत्र प्राचीन काल से ही मानव मात्र के लिए पावन एवं मोक्षदायक रहा है। इस क्षेत्र की प्राचीनता एवं पौराणिक माहात्मय के सम्बन्ध में स्वयं भगवान शंकर ने स्कन्द पुराण में माता पार्वती के प्रश्न का उत्तर इस प्रकार दिया है-
पुरातनो यथाहं वैतथा स्थान सिदम् किल।
यदा सृष्टि क्रियायां च मया वै ब्रहैंममूर्तिना।।
स्थित मत्रैव सततं, परब्रहैंमजिगीषया।
तदादिक मिदं स्थानं, देवानामपिदुर्लभम्।।


अर्थात हे प्रोणश्वरी! यह क्षेत्र उतना ही प्राचीन है जितना कि मैं हूँ। मैंने इसी स्थान पर सृष्टि की रचना के लिए ब्रह्मा के रूप में परब्रह्रमत्व प्राप्त किया। तभी से यह स्थान मेरा चिरप्रिय आवास है। यह केदारखण्ड मेरा चिरनिवास होने के कारण भूस्वर्ग के समान है।
शिव महापुराण की कोटिरूद्र संहिता में द्वादश ज्योतिर्लिंगों की कथा विस्तार से कही गयी है। उत्तराखण्ड हिमालय में स्थित होने के कारण श्री केदारनाथजी उसमें सर्वोपरि है। केदारखण्ड, बदरीवन में भगवान नर-नारायण द्वारा पार्थिव पूजा विधि से भगवान शंकर का साक्षात्कार एवं वर प्राप्त किया जाना निम्न श्लोक से स्पष्ट है -
यदि प्रसन्नो देवेश यदि देयो वरस्त्वया।
स्थीयतां स्वेन रूपेश पूजार्थ शंकर स्वयं।। (शि0पु0)


अर्थात हे प्रभो! यदि आप प्रसन्न हैं और वर देना चाहते है तो अपने इसी स्वरूप् में जगत् कल्याण एवं हमारी पूजा प्राप्त करने हेतु यहां स्थित होवें, ताकि जगत् का महान उपकार एवं भक्तों के मनोरथ आफ दर्शनों से पूर्ण हो। यह प्रकार भगवान शंकर वहां स्थित हुए एवं-
देवाश्च पूजयन्तीहैं ऋषयश्च पुरातनाः।
मनोऽभिष्ट फलं तेते, सुप्रसन्नान्महेश्वरात्।। (शि0पु0)


अर्थात तब से निरन्तर देवता, ऋषि आदि प्रसन्न चित्त भगवान शिव की पूजा अभीष्ट फलों की प्राप्ति हेतु करते रहते है। भूस्वर्ग केदार क्षेत्र में पहुंचकर भगवान शिव के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हो जाय तो स्वप्न में भी दुःख सम्भव नही -
पूजितो येन भक्त्यावै दुःख स्वप्नेऽपि दुर्लभम् (शि0पु0)


कालान्तर द्वापर युग में महाभारत युद्ध के उपरान्त गोत्र हत्या के पाप से पाण्डव अत्यन्त दुःखी हुए और वेदव्यासजी की आज्ञा से केदारक्षेत्र में भगवान शंकर के दर्शनार्थ आये। शिव गोत्रघाती पाण्डवों को प्रत्यक्ष दर्शन नही देना चाहते थे। अतएव वे मायामय महिष का रूप धारण कर केदार अंचल में विचरण करने लगे, बुद्धि योग से पाण्डवों ने जाना कि यही शिव है। तो वे मायावी महिष रूप धारी भगवान शिव का पीछा करने लगे, महिष रूपी शिव भूमिगत होने लगे तो पाण्डवो ने दौडकर महिष की पूंछ पकड ली और अति आर्तवाणी से भगवान शिव की स्तुति करने लगे। पाण्डवो की स्तुति से प्रसन्न होकर उसी महिष के पृष्ठ भाग के रूप में भगवान शंकर वहां स्थित हुए एवं भूमि में विलीन भगवान का श्रीमुख नेपाल में पशुपतिनाथ के रूप में प्रकट हुआ -
तद्रूपेण स्थित स्तत्र भक्तवत्सल नाम भाक
नयपाले शिरोभाग गतस्तद्रूपतस्थितः(शि0पु0)


आकाशवाणी हुई कि हे पाण्डवों मेरे इसी स्वरूप की पूजा से तुम्हारे मनोरथ पूर्ण होंगे। तदन्तर पाण्डवों ने इसी स्वरूप की विधिवत पूजा की, तथा गोत्र हत्या के पाप से मुक्त हुए और भगवान केदारनाथजी के विशाल एवं भव्य मन्दिर का निर्माण किया। तबसे भगवान आशुतोष केदारनाथ में दिव्य ज्योर्तिलिंग के रूप में आसीन हो गये। वर्तमान में भी उनका केदारक्षेत्र में वास है -
तत्र नित्यं हैंर साक्षात् क्षेत्र केदार संक्षक
भारतीभिः प्रजाभिश्च तथैव परिपूज्यते (शि.पु.)


बदरीकाश्रम की यात्रा से पूर्व केदारनाथजी के पुण्य दर्शनो का माहात्म्य है। केदारखण्ड में स्पष्ट है कि -
अकृत्वा दर्शनं पुण्यं केदारस्याऽघनाशिनः
योगच्छेद् बदरी तस्य, यात्रा निष्फलतां ब्रजेत्)


पुराणो में कल्पान्तर भेद से यह भी अंकित है कि महिष रूपी भगवान शिव का मुखभाग रूद्रनाथ में, भूजाएं तुंगनाथ में, नाभि मद्महेश्वर में एवे जटाजूट कल्पेश्वर में प्रकट होते है। केदारनाथजी सहित भगवान शिव के कैलाश में यही पंच केदार है।
पूजा का समय-प्रातः एवं सायंकाल है। सुबह की पूजा निर्वाण दर्शन कहलाती है जबकि शिवपिंड को प्राकृतिक रूप से पूजा जाता है। घृत और जल मुख्य आहार है। सायंकालीन पूजा को श्रृंगार दर्शन कहते हैं जब शिव पिंड को फूलो, आभूषणो से सजाते है। यह पूजा मंत्रोच्चारण, घंटीवादन एवं भक्तो की उपस्थिति में ही संपत्र की जाती है। दैवीय आशीर्वाद की खोज की जाती है एवं सुप्रभाती पूजा में सुप्रभात, बालभोग, शिवपूजा, असतोतार, शिवमहिमा, शिवनामावली, शिव संहारम आदि शामिल है। केदारनाथ पर आधारित पद संस्कृत के विद्वानों द्वारा उच्चारित किये जाते है। जो कि आसपास के गांवों में (उखीमठ-गुप्तकाशी) रहने वाले ब्राह्मणो द्वारा संपत्र की जाती है।

केदारनाथ मदिंर के खुलने के समय महाशिवरात्री के दिन उखीमठ के साधुओ द्वारा निश्चित है, जो सामान्य तौर पर अप्रैल माह के अंतिम सप्ताह में या मई के प्रथम सप्ताह में होता है। केदारनाथ मंदिर श्री बदरीनाथ के एक दिन पहले ही खुल जाता है