बुधवार, 22 अप्रैल 2009

एक और बदरीनाथ (हिमाचल)

हिमालय की गोद में बहुत से ऐसे स्थल हैं, जिनके साथ धार्मिक आस्थाएं तो जुडी ही हैं, साथ ही इन स्थलों की यात्रा रोमांचकारी पर्यटन का पर्याय भी मानी जाती हैं। मीलों लम्बा और दुर्गम सफर तय करके जब श्रद्धालु या पर्यटक इन स्थलों पर पहुंचते हैं, तो प्रकृति के बीच धार्मिक गीतों की स्वर लहरियां सुनकर अभिभूत हो उठते हैं। किन्नर कैलाश भी ऐसा ही एक स्थल है।

तिब्बत स्थित मानसरोवर कैलाश के बाद किन्नर कैलाश को ही दूसरा बडा कैलाश पर्वत माना जाता है। समुद्र तल से 18,168फुट की ऊंचाई पर स्थित किन्नर कैलाश भगवान शिव की साधना स्थली रहा है, शैव मतावलंबियों की ऐसी आस्था है और धर्म-ग्रन्थों में भी इस बात का जिक्र आया है। किन्नर कैलाश के बारे में अनेक मान्यताएं भी प्रचलित हैं। कुछ विद्वानों के विचार में महाभारत काल में इस कैलाश का नाम इन्द्रकीलपर्वत था, जहां भगवान शंकर और अर्जुन का युद्ध हुआ था और अर्जुन को पासुपातास्त्रकी प्राप्ति हुई थी। यह भी मान्यता है कि पाण्डवों ने अपने बनवास काल का अन्तिम समय यहीं पर गुजारा था। किन्नर कैलाश को वाणासुर का कैलाश भी कहा जाता है। क्योंकि वाणासुरशोणितपुरनगरी का शासक था जो कि इसी क्षेत्र में पडती थी। कुछ विद्वान रामपुर बुशैहररियासत की गर्मियों की राजधानी सराहन को शोणितपुरनगरी करार देते हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि किन्नर कैलाश के आगोश में ही भगवान कृष्ण के पोते अनिरुधका विवाह ऊषा से हुआ था। इसी पर्वत श्रृंखला के सिरे पर करीब साठ फुट ऊंचा तिकोना पत्थर का शिवलिंगबना है, जिसके दर्शन किन्नौरघाटी के कल्पानगरसे भी किए जा सकते हैं। यह शिवलिंग21हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित है और इस शिवलिंगकी एक चमत्कारी बात यह है कि दिन में कई बार यह रंग बदलता है। सूर्योदय से पूर्व सफेद, सूर्योदय होने पर पीला, मध्याह्न काल में यह लाल हो जाता है और फिर क्रमश:पीला, सफेद होते हुए संध्या काल में काला हो जाता है। क्यों होता है ऐसा, इस रहस्य को अभी तक कोई नहीं समझ सका है। किन्नौरवासी इस शिवलिंगके रंग बदलने को किसी दैविक शक्ति का चमत्कार मानते हैं, कुछ बुद्धिजीवियों का मत है कि यह एक स्फटिकीयरचना है और सूर्य की किरणों के विभिन्न कोणों में पडने के साथ ही यह चट्टान रंग बदलती नजर आती है। बुद्धिजीवियों का दलील है कि यदि आसमान मेघों से आच्छादित हो तो यह चट्टान रंग नहीं बदलती और अपने सामान्य स्वरूप में ही रहती है। कुछ विद्वानों की यह भी मान्यता है कि पाण्डवों ने अपने गुप्तवासके दौरान यहां इस पवित्र शिवलिंगकी स्थापना करके भगवान शिव की आराधना की थी।

इस शिवलिंगकी परिक्रमा करना बडे साहस और जोखिम का कार्य है। कई शिव भक्त जोखिम उठाते हुए स्वयं को रस्सियों से बांध कर यह परिक्रमा पूरी करते हैं। पूरे पर्वत का चक्कर लगाने में एक सप्ताह से दस दिन का समय लगता है और भगवान शिव की जय-जयकार करते हुए श्रद्धालु यह परिक्रमा पूरी करते हैं। चूंकि आस-पास कोई आबादी नहीं, इसलिए श्रद्धालुओं को खुले आकाश तले भी रात बितानी पडती है और कुछ श्रद्धालु गुफाओं में जा घुसते हैं। ऐसी मान्यता भी है कि किन्नर कैलाश की यात्रा से मनोकामनाएं तो पूरी होती ही हैं, साथ ही आत्म शुद्धि भी होती है। किन्नौरी लोगों की यह भी मान्यता है कि किन्नर कैलाश ही वास्तव में स्वर्ग लोक है और यही बैठकर इन्द्र अन्य देवताओं पर राज्य करते हैं।

किन्नर कैलाश की यात्रा सतलुजऔर वास्पानदी के संगम स्थल कदछाम से आरंभ होती है। किन्नर पहुंचने का पहला पडाव पंगीगांव है। यहां तक तो किसी भी वाहन से पहुंचा जा सकता है। इसके बाद अगला पडाव है-चरंग गांव, जोकि साढे चौदह हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित है। यहां से दो किलोमीटर आगे रेंगरिकटुगमा में एक बौद्ध मंदिर है, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण एक लामा द्वारा एक ही रात में किया गया था। इस बौद्ध मंदिर को रांगरिक शुमाभी कहा जाता है। यहां लोग मृत आत्माओं की शान्ति के लिए दीप जलाते हैं। यह मंदिर बौद्ध व हिन्दू धर्म का संगम भी है। भगवान बुद्ध की अनेक छोटी-बडी मूर्तियों के बीच दुर्गा मां की भव्य मूर्ति भी स्थित है। तिब्बती ग्रन्थों की पाण्डु लिपियों का भी यहां अवलोकन किया जा सकता है। मंदिर की ऊपरी मंजिल में प्रागैतिहासिक काल के प्राचीन अस्त्र, शस्त्र भी सुरक्षित हैं। किन्नर कैलाश यात्रा पर निकले श्रद्धालु चरंगगांव में ही रात्रि पडाव डालते हैं। चरंगके बाद अगला पडाव लालान्ती दर्रा है, जो कि सोलह हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित है। लालान्ती दर्रा पहुंचने से पूर्व रास्ते में कई मनोहारी स्थल आते हैं और कई बेशकीमती जडी- बूटियां देखने को मिलती हैं। लालान्ती दर्रा के निकट एक झील भी है, जहां स्नान करना श्रद्धालु पुण्य समझते हैं। लालान्ती दर्रे से चरंगऔर छितकुल घाटियों का सौंदर्यवलोकन भी किया जा सकता है। यहां से आगे की यात्रा काफी थका देने वाली है। दुर्गम रास्ते में कई हिमखंड लांघने पडते हैं। कदम-कदम पर प्रकृति हमारे धैर्य की परीक्षा लेती प्रतीत होती है। किन्नर कैलाश पहुंचने से पूर्व पार्वती कुंड और एक गुफाभी आती है। यहां से शिवलिंग तक पहुंचने के लिए सीधी चढाई है।

किन्नर कैलाश को हिमाचल का बदरीनाथभी कहा जाता है और इसे रॉक कैसलके नाम से भी जाना जाता है। सर्वेक्षण मानचित्रों में भी इसका नाम रोकाकैसल अंकित किया गया है।

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