भगवान शंकर की उपासना में रुद्राक्ष का अत्यन्त महत्व है। रुद्राक्ष शब्द की शास्त्रीय विवेचना से यह स्पष्ट हो जाता है कि इसकी उत्पत्ति महादेव जी के अश्रुओं से हुई है-
रुद्रस्य अक्षि रुद्राक्ष:, अक्ष्युपलक्षितम्अश्रु, तज्जन्य: वृक्ष:।
शिवपुराणकी विद्येश्वर संहिता तथा श्रीमद्देवी भागवत में इस संदर्भ में कथाएं मिलती हैं। उनका सारांश यह है कि अनेक वर्षो की समाधि के बाद जब सदाशिव ने अपने नेत्र खोले, तब उनके नेत्रों से कुछ आँसू पृथ्वी पर गिरे। उन्हीं अश्रु बिन्दुओं से रुद्राक्ष के महान वृक्ष उत्पन्न हुए।
रुद्राक्ष धारण करने से तन-मन में पवित्रता का संचार होता है। रुद्राक्ष पापों के बडे से बडे समूह को भी भेद देते हैं। चार वर्णो के अनुरूप ये भी श्वेत, रक्त, पीत और कृष्ण वर्ण के होते हैं। ऋषियों का निर्देश है कि मनुष्य को अपने वर्ण के अनुसार रुद्राक्ष धारण करना चाहिए। भोग और मोक्ष, दोनों की कामना रखने वाले लोगों को रुद्राक्ष की माला अथवा मनका जरूर पहिनना चाहिए। विशेषकर शैवोंके लिये तो रुद्राक्ष को धारण करना अनिवार्य ही है।
जो रुद्राक्ष आँवले के फल के बराबर होता है, वह समस्त अरिष्टोंका नाश करने में समर्थ होता है। जो रुद्राक्ष बेर के फल के बराबर होता है, वह छोटा होने पर भी उत्तम फल देने वाला व सुख-सौभाग्य की वृद्धि करने वाला होता है। गुन्जाफालके समान बहुत छोटा रुद्राक्ष सभी मनोरथों को पूर्ण करता है। रुद्राक्ष का आकार जैसे-जैसे छोटा होता जाता है, वैसे-वैसे उसकी शक्ति उत्तरोत्तर बढती जाती है। विद्वानों ने भी बडे रुद्राक्ष से छोटा रुद्राक्ष कई गुना अधिक फलदायी बताया है किन्तु सभी रुद्राक्ष नि:संदेह सर्वपापनाशक तथा शिव-शक्ति को प्रसन्न करने वाले होते हैं। सुंदर, सुडौल, चिकने, मजबूत, अखण्डित रुद्राक्ष ही धारण करने हेतु उपयुक्त माने गए हैं। जिसे कीडों ने दूषित कर दिया हो, जो टूटा-फूटा हो, जिसमें उभरे हुए दाने न हों, जो व्रणयुक्तहो तथा जो पूरा गोल न हो, इन पाँच प्रकार के रुद्राक्षों को दोषयुक्त जानकर त्याग देना ही उचित है। जिस रुद्राक्ष में अपने-आप ही डोरा पिरोने के योग्य छिद्र हो गया हो, वही उत्तम होता है। जिसमें प्रयत्न से छेद किया गया हो, वह रुद्राक्ष कम गुणवान माना जाता है।
रुद्राक्ष दो जाति के होते हैं- रुद्राक्ष एवं भद्राक्ष। रुद्राक्ष के मध्य में भद्राक्षधारण करना महान फलदायक होता है- रुद्राक्षाणांतुभद्राक्ष:स्यान्महाफलम्।
शास्त्रों में एक से चौदहमुखी तक रुद्राक्षों का वर्णन मिलता है। इनमें एकमुखी रुद्राक्ष सर्वाधिक दुर्लभ एवं सर्वश्रेष्ठ है।
एकमुखी रुद्राक्ष साक्षात् शिव का स्वरूप होने से परब्रह्म का प्रतीक माना गया है। इसका प्राय: अर्द्धचन्द्राकार रूप ही दिखाई देता है। एकदम गोल एकमुखी रुद्राक्ष लगभग अप्राप्य ही है। एकमुखी रुद्राक्ष धारण करने से ब्रह्महत्या के समान महापात कभी नष्ट हो जाते हैं। समस्त कामनाएं पूर्ण होती हैं तथा जीवन में कभी किसी वस्तु का अभाव नहीं होता है। भोग के साथ मोक्ष प्रदान करने में समर्थ एकमुखी रुद्राक्ष भगवान शंकर की परम कृपा से ही मिलता है।
दोमुखी रुद्राक्ष को साक्षात् अर्द्धनारीश्वर ही मानें। इसे धारण करने वाला भगवान भोलेनाथ के साथ माता पार्वती की अनुकम्पा का भागी होता है। इसे पहिनने से दाम्पत्य जीवन में मधुरता आती है तथा पति-पत्नी का विवाद शांत हो जाता है। दोमुखी रुद्राक्ष घर-गृहस्थी का सम्पूर्ण सुख प्रदान करता है।
तीन-मुखी रुद्राक्ष अग्नि का स्वरूप होने से ज्ञान का प्रकाश देता है। इसे धारण करने से बुद्धि का विकास होता है, एकाग्रता और स्मरण-शक्ति बढती है। विद्यार्थियों के लिये यह अत्यन्त उपयोगी है।
चार-मुखी रुद्राक्ष चतुर्मुख ब्रह्माजीका प्रतिरूप होने से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चारों पुरुषार्थो को देने वाला है। नि:संतान व्यक्ति यदि इसे धारण करेंगे तो संतति-प्रतिबन्धक दुर्योगका शमन होगा। कुछ विद्वान चतुर्मुखी रुद्राक्ष को गणेश जी का प्रतिरूप मानते हैं।
पाँचमुखी रुद्राक्ष पंचदेवों-शिव, शक्ति, गणेश, सूर्य और विष्णु की शक्तियों से सम्पन्न माना गया है। कुछ ग्रन्थों में पंचमुखी रुद्राक्ष के स्वामी कालाग्नि रुद्र बताए गए हैं। सामान्यत: पाँच मुख वाला रुद्राक्ष ही उपलब्ध होता है। संसार में ज्यादातर लोगों के पास पाँचमुखी रुद्राक्ष ही हैं।
इसकी माला पर पंचाक्षर मंत्र (नम:शिवाय) जपने से मनोवांछित फल प्राप्त होता है।
छह मुखी रुद्राक्ष षण्मुखी कार्तिकेय का स्वरूप होने से शत्रुनाशकसिद्ध हुआ है। इसे धारण करने से आरोग्यता,श्री एवं शक्ति प्राप्त होती है। जिस बालक को जन्मकुण्डली के अनुसार बाल्यकाल में किसी अरिष्ट का खतरा हो, उसे छह मुखी रुद्राक्ष सविधि पहिनाने से उसकी रक्षा अवश्य होगी।
सातमुखी रुद्राक्ष कामदेव का स्वरूप होने से सौंदर्यवर्धकहै। इसे धारण करने से व्यक्तित्व आकर्षक और सम्मोहक बनता है। कुछ विद्वान सप्तमातृकाओंकी सातमुखीरुद्राक्ष की स्वामिनी मानते हैं। इसको पहिनने से दरिद्रता नष्ट होती है और घर में सुख-समृद्धि का आगमन होता है।
आठमुखीरुद्राक्ष अष्टभैरव-स्वरूपहोने से जीवन का रक्षक माना गया है। इसे विधिपूर्वक धारण करने से अभिचार कर्मो अर्थात् तान्त्रिक प्रयोगों (जादू-टोने) का प्रभाव समाप्त हो जाता है। धारक पूर्णायु भोगकर सद्गति प्राप्त करता है।
नौमुखीरुद्राक्ष नवदुर्गा का प्रतीक होने से असीम शक्तिसम्पन्न है। इसे अपनी भुजा में धारण करने से जगदम्बा का अनुग्रह अवश्य प्राप्त होता है। शाक्तों(देवी के आराधकों)के लिये नौमुखीरुद्राक्ष भगवती का वरदान ही है। इसे पहिनने वाला नवग्रहों की पीडा से सुरक्षित रहता है।
दसमुखीरुद्राक्ष साक्षात् जनार्दन श्रीहरिका स्वरूप होने से समस्त इच्छाओं को पूरा करता है। इसे धारण करने से अकाल मृत्यु का भय दूर होता है तथा कष्टों से मुक्ति मिलती है।
ग्यारहमुखीरुद्राक्ष एकादश रुद्र- स्वरूप होने से तेजस्विता प्रदान करता है। इसे धारण करने वाला कभी कहीं पराजित नहीं होता है।
बारहमुखीरुद्राक्ष द्वादश आदित्य- स्वरूप होने से धारक व्यक्ति को प्रभावशाली बना देता है। इसे धारण करने से सात जन्मों से चला आ रहा दुर्भाग्य भी दूर हो जाता है और धारक का निश्चय ही भाग्योदय होता है।
तेरहमुखीरुद्राक्ष विश्वेदेवोंका स्वरूप होने से अभीष्ट को पूर्ण करने वाला, सुख-सौभाग्यदायक तथा सब प्रकार से कल्याणकारी है। कुछ साधक तेरहमुखीरुद्राक्ष का अधिष्ठाता कामदेव को मानते हैं।
चौदहमुखीरुद्राक्ष मृत्युंजय का स्वरूप होने से सर्वरोगनिवारकसिद्ध हुआ है। इसको धारण करने से असाध्य रोग भी शान्त हो जाता है। जन्म-जन्मान्तर के पापों का शमन होता है।
एक से चौदहमुखीरुद्राक्षों को धारण करने के मंत्र क्रमश:इस प्रकार हैं-
1.ॐह्रींनम:, 2.ॐनम:, 3.ॐक्लींनम:, 4.ॐह्रींनम:, 5.ॐह्रींनम:, 6.ॐ ह्रींहुं नम:, 7.ॐहुं नम:, 8.ॐहुं नम:, 9.ॐह्रींहुं नम:, 10.ॐह्रींनम:, 11.ॐह्रींहुं नम:, 12.ॐक्रौंक्षौंरौंनम:, 13.ॐह्रींनम:, 14.ॐनम:।
निर्दिष्ट मंत्र से अभिमंत्रित किए बिना रुद्राक्ष धारण करने पर उसका शास्त्रोक्त फल प्राप्त नहीं होता है और दोष भी लगता है। रुद्राक्ष धारण करने पर मद्य, मांस, लहसुन, प्याज, सहजन,लिसोडा आदि पदार्थो का परित्याग कर देना चाहिए। इन निषिद्ध वस्तुओं के सेवन का रुद्राक्ष-जाबालोपनिषद् में सर्वथा निषेध किया गया है। रुद्राक्ष वस्तुत:महारुद्रका अंश होने से परम पवित्र एवं पापों का नाशक है। इसके दिव्य प्रभाव से जीव शिवत्व प्राप्त करता है।
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