शनिवार, 29 नवंबर 2008

सोलह सोमवार व्रत

कथा – मृत्यु लोक में विवाह करने की इच्छा करके एक समय श्री भूतनाथ महादेव जी माता पार्वती के साथ पधारे वहाँ वे ब्रमण करते-करते विदर्भ देशांतर्गत अमरावती नाम की अतीव रमणीक नगरी में पहुँचे । अमरावती नगरी अमरपुरी के सदृश सब प्रकार के सुखों से परिपूर्ण थी । उसमें वहां के महाराज का बनाया हुआ अति रमणीक शिवजी का मन्दिर बना था । उसमें भगवान शंकर भगवती पार्वती के साथ निवास करने लगे । एक समय माता पार्वती प्राणपति को प्रसन्न देख के मनोविनोद करने की इच्छा से बोली – हे माहाराज, आज तो हम तुम दोनों चौसर खेलें । शिवजी ने प्राणप्रिया की बात को मान लिया और चौसर खेलने लगे । उसी समय इस स्थान पर मन्दिर का पुजारी ब्राहमण मन्दिर मे पूजा करने को आया । माताजी ने ब्राहमण से प्रश्न किया कि पुजारी जी बताओ कि इस बाजी में दोनों में किसकी जीत होगी । ब्राहमण बिना विचारे ही शीघ्र बोल उठा कि महादेवजी की जीत होगी । थोड़ी देर में बाजी समाप्त हो गई और पार्वती जी की विजय हुई । अब तो पार्वती जी ब्राहमण को झूठ बोलने के अपराध के कारण श्राप देने को उघत हुई । तब महादेव जी ने पार्वती जी को बहुत समझाया परन्तु उन्होंने ब्राहमण को कोढ़ी होने का श्राप दे दिया । कुछ समय बाद पार्वती जी के श्रापवश पुजारी के शरीर में कोढ़ पैदा हो गया । इस प्रकार पुजारी अनेक प्रकार से दुखी रहने लगा । इस तरह के कष्ट भोगते हुए जब बहुत दिन हो गये तो देवलोक की अप्सराएं शिवजी की पूजा करने उसी मन्दिर मे पधारी और पुजारी के कष्ट को देखकर बड़े दया भाव से उससे रोगी होने का कारण पूछने लगी – पुजारी ने निःसंकोच सब बाते उनसे कह दी । वे अप्सरायें बोली – हे पुजारी । अब तुम अधिक दुखी मत होना । भगवान शिवजी तुम्हारे कष्ट को दूर कर देंगे । तुम सब बातों में श्रेष्ठ षोडश सोमवार का व्रत भक्तिभाव से करो । तब पुजारी अप्सराओं से हाथ जोड़कर विनम्र भाव से षोडश सोमवार व्रत की विधि पूछने लगा । अप्सरायें बोली कि जिस दिन सोमवार हो उस दिन भक्ति के साथ व्रत करें । स्वच्छ वस्त्र पहनें आधा सेर गेहूँ का आटा ले । उसके तीन अंगा बनाये और घी, गुड़, दीप, नैवेघ, पुंगीफल, बेलपत्र, जनेऊ का जोड़ा, चन्दन, अक्षत, पुष्पादि के द्घारा प्रदोष काल में भगवान शंकर का विधि से पूजन करे तत्पश्चात अंगाऔं में से एक शिवजी को अर्पण करें बाकी दो को शिवजी का प्रसाद समझकर उपस्थित जनों में बांट दें । और आप भी प्रसाद पावें । इस विधि से सोलह सोमवार व्रत करें । तत्पश्चात् सत्रहवें सोमवार के दिन पाव सेर पवित्र गेहूं के आटे की बाटी बनायें । तदनुसार घी और गुड़ मिलाकर चूरमा बनावें । और शिवजी का भोग लगाकर उपस्थित भक्तों में बांटे पीछे आप सकुटुंबी प्रसादी लें तो भगवान शिवजी की कृपा से उसके मनोरथ पूर्ण हो जाते है । ऐसा कहकर अप्सरायें स्वर्ग को चली गयी । ब्राहमण ने यथाविधि षोड़श सोमवार व्रत किया तथा भगवान शिवजी की कृपा से रोग मुक्त होकर आनन्द से रहने लगा । कुछ दिन बाद जब फिर शिवजी और पार्वती उस मन्दिर में पधारे, तब ब्राहमण को निरोग देखकर पार्वती ने ब्राहमण से रोग-मुक्त होने का कारण पूछा तो ब्राहमण ने सोलह सोमवार व्रत कथा कह सुनाई । तब तो पार्वती जी अति प्रसन्न होकर ब्राहमण से व्रत की विधि पूछकर व्रत करने को तैयार हुई । व3त करने के बाद उनकी मनोकामना पूर्ण हुई तथा उनके रुठे हुये पुत्र स्वामी कार्तिकेय स्वयं माता के आज्ञाकारी हुए परन्तु कार्तिकेय जी को अपने विचार परिवर्तन का रहस्य जानने की इच्छा हुई और माता से बोले – हे माताजी आपने ऐसा कौन सा उपाय किया जिससे मेरा मन आपकी ओर आकर्षित हुआ । तब पार्वती जी ने वही षोड़श सोमवार व्रत कथा उनको सुनाई । स्वामी कार्तिकजी बोले कि इस व्रत को मैं भी करुंगा क्योंकि मेरा प्रियमित्र ब्राहमण दुखी दिल से परदेश चला गया है । हमें उससे मिलने की बहुत इच्छा है । कार्तिकेयजी ने भी इस व्रत को किया और उनका प्रिय मित्र मिल गया । मित्र ने इस आकस्मिक मिलन का भेद कार्तिकेयजी से पूछा तो वे बोले – हे मित्र । हमने तुम्हारे मिलने की इच्छा करके सोलह सोमवार का व्रत किया था । अब तो ब्राहमण मित्र को भी अपने विवाह की बड़ी इच्छा हुई । कार्तिकेयजी से व्रत की विधि पूछी और यथाविधि व्रत किया । व्रत के प्रभाव से जब वह किसी कार्यवश विदेश गया तो वहाँ के राजा की लड़की का स्वयंवर था । राजा ने प्रण किया था कि जिस राजकुमार के गले में सब प्रकार ऋंडारित हथिनी माला डालेगी मैं उसी के साथ प्यारी पुत्री का विवाह कर दूंगा । शिवजी की कृपा से ब्राहमण भी स्वयंवर देखने की इच्छा से राजसभा में एक ओर बैठ गया । नियत समय पर हथिनी आई और उसने जयमाला उस ब्राहमण के गले में डाल दी । राजा की प्रतिज्ञा के अनुसार बड़ी धूमधाम से कन्या का विवाह उस ब्राहमण के साथ कर दिया और ब्राहमण को बहुत-सा धन और सम्मान देकर संतुष्ट किया । ब्राहमण सुन्दर राजकन्या पाकर सुख से जीवन व्यतीत करने लगा ।

एक दिन राजकन्या ने अपने पति से प्रश्न किया । हे प्राणनाथ आपने ऐसा कौन-सा भारी पुण्य किया जिसके प्रभाव से हथिनी ने सब राजकुमारों को छोड़कर आपको वरण किया । ब्राहमण बोला – हे प्राणप्रिये । मैंने अपने मित्र कार्तिकेयजी के कथनानुसार सोलह सोमवार का व्रत किया था जिसके प्रभाव से मुझे तुम जैसी स्वरुपवान लक्ष्मी की प्राप्ति हुई । व्रत की महिमा को सुनकर राजकन्या को बड़ा आश्चर्य हुआ और वह भी पुत्र की कामना करके व्रत करने लगी । शिवजी की दया से उसके गर्भ से एक अति सुन्दर सुशील धर्मात्मा विद्घान पुत्र उत्पन्न हुआ । माता-पिता दोनों उस देव पुत्र को पाकर अति प्रसन्न हुए । और उनका लालन-पालन भली प्रकार से करने लगे ।

जब पुत्र समझदार हुआ तो एक दिन अपने माता से प्रश्न किया कि मां तूने कौन-सा तप किया है जो मेरे जैसा पुत्र तेरे गर्भ से उत्पन्न हुआ । माता ने पुत्र का प्रबल मनोरथ जान के अपने किये हुए सोलह सोमवार व्रत को विधि सहित पुत्र के सम्मुख प्रकट किया । पुत्र ने ऐसे सरल व्रत को सब तरह के मनोरथ पूर्ण करने वाला सुना तो वह भी इस व्रत को राज्याधिकार पाने की इच्छा से हर सोमवार को यथाविधि व्रत करने लगा । उसी समय एक देश के वृद्घ राजा के दूतों ने आकर उसको एक राजकन्या के लिये वरण किया । राजा ने अपनी पुत्री का विवाह ऐसे सर्वगुण सम्पन्न ब्राहमण युवक के साथ करके बड़ा सुख प्राप्त किया ।

वृद्घ राजा के दिवंगत हो जाने पर यही ब्राहमण बालक गद्दी पर बिठाया गया, क्योंकि दिवंगत भूप के कोई पुत्र नहीं था । राज्य का अधिकारी होकर भी वह ब्राहमण पुत्र अपने सोलह सोमवार के व्रत को कराता रहा । जब सत्रहवां सोमवार आया तो विप्र पुत्र ने अपनी प्रियतमा से सब पूजन सामग्री लेकर शिवालय में चलने के लिये कहा । परन्तु प्रियतमा ने उसकी आज्ञा की परवाह नहीं की । दास-दासियों द्घारा सब सामग्रियं शिवालय पहुँचवा दी और आप नहीं गई । जब राजा ने शिवजी का पूजन किया, तब एक आकाशवाणी राजा के प्रति हुई । राजा ने सुना कि हे राजा । अपनी इस रानी को महल से निकाल दे नहीं तो तेरा सर्वनाश कर देगी । वाणी को सुनकर राजा के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा और तत्काल ही मंत्रणागृह में आकर अपने सभासदों को बुलाकर पूछने लगा कि हे मंत्रियों । मुझे आज शिवजी की वाणी हुई है कि राजा तू अपनी इस रानी को निकाल दे नहीं तो तेरा सर्वनाश कर देगी । मंत्री आदि सब बड़े विस्मय और दुःख में डूब गये क्योंकि जिस कन्या के साथ राज्य मिला है । राजा उसी को निकालने का जाल रचता है, यह कैसे हो सकेगा । अंत में राजा ने उसे अपने यहां से निकाल दिया । रानी दुःखी हृदय भाग्य को कोसती हुई नगर के बाहर चली गई । बिना पदत्राण, फटे वस्त्र पहने, भूख से दुखी धीरे-धीरे चलकर एक नगर में पहुँची ।

वहाँ एक बुढ़िया सूत कातकर बेचने को जाती थी । रानी की करुण दशा देख बोली चल तू मेरा सूत बिकवा दे । मैं वृद्घ हूँ, भाव नहीं जानती हूँ । ऐसी बात बुढ़िया की सुत रानी ने बुढ़िया के सर से सूत की गठरी उतार अपने सर पर रखी । थोड़ी देर बाद आंधी आई और बुढ़िया का सूत पोटली के सहित उड़ गया । बेचारी बुढ़िया पछताती रह गई और रानी को अपने साथ से दूर रहने को कह दिया । अब रानी एक तेली के घर गई, तो तेली के सब मटके शिवजी के प्रकोप के कारण चटक गये । ऐसी दशा देख तेली ने रानी को अपने घर से निकाल दिया । इस प्रकार रानी अत्यंत दुख पाती हुई सरिता के तट पर गई तो सरिता का समस्त जल सूख गया । तत्पश्चात् रानी एक वन में गई, वहां जाकर सरोवर में सीढ़ी से उतर पानी पीने को गई । उसके हाथ से जल स्पर्श होते ही सरोवर का नीलकमल के सदृश्य जल असंख्य कीड़ोमय गंदा हो गया ।

रानी ने भाग्य पर दोषारोपण करते हुए उस जल को पान करके पेड़ की शीतल छाया में विश्राम करना चाहा । वह रानी जिस पेड़ के नीचे जाती उस पेड़ के पत्ते तत्काल ही गिरते चले गये । वन, सरोवर के जल की ऐसी दशा देखकर गऊ चराते ग्वालों ने अपने गुंसाई जी से जो उस जंगल में स्थित मंदिर में पुजारी थे कही । गुंसाई जी के आदेशानुसार ग्वाले रानी को पकड़कर गुंसाई के पास ले गये । रानी की मुख कांति और शरीर शोभा देख गुंसाई जान गए । यह अवश्य ही कोई विधि की गति की मारी कोई कुलीन अबला है । ऐसा सोच पुजारी जी ने रानी के प्रति कहा कि पुत्री मैं तुमको पुत्री के समान रखूंगा । तुम मेंरे आश्रम में ही रहो । मैं तुम को किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने दूंगा । गुंसाई के ऐसे वचन सुन रानी को धीरज हुआ और आश्रम में रहने लगी ।

आश्रम में रानी जो भोजन बनाती उसमें कीड़े पड़ जाते, जल भरकर लाती उसमें कीड़े पड़ जाते । अब तो गुंसाई जी भी दुःखी हुए और रानी से बोले कि हे बेटी । तेरे पर कौन से देवता का कोप है, जिससे तेरी ऐसी दशा है । पुजारी की बात सुन रानी ने शवजी की पूजा करने न जाने की कथा सुनाई तो पुजारी शिवजी महाराज की अनेक प्रकार से स्तुति करते हुए रानी के प्रति बोले कि पुत्री तुम सब मनोरथों के पूर्ण करने वाले सोलह सोमवार व्रत को करो । उसके प्रभाव से अपने कष्ट से मुक्त हो सकोगी । गुंसाई की बात सुनकर रानी ने सोलह सोमवार व्रत को विधिपूर्वक सम्पन्न किया और सत्रहवें सोमवार को पूजन के प्रभाव से राजा के हृदय में विचार उत्पन्न हुआ कि रानी को गए बहुत समय व्यतीत हो गया । न जाने कहां-कहां भटकती होगी, ढूंढना चाहिये ।


यह सोच रानी को तलाश करने चारों दिशाओं में दूत भेजे । वे तलाश करते हुए पुजारी के आश्रम में रानी को पाकर पुजारी से रानी को मांगने लगे, परन्तु पुजारी ने उनसे मना कर दिया तो दूत चुपचाप लौटे और आकर महाराज के सन्मुख रानी का पता बतलाने लगे । रानी का पता पाकर राजा स्वयं पुजारी के आश्रम में गये और पुजारी से प्रार्थना करने लगे कि महाराज । जो देवी आपके आश्रम में रहती है वह मेरी पत्नी ही । शिवजी के कोप से मैंने इसको त्याग दिया था । अब इस पर से शिवजी का प्रकोप शांत हो गया है । इसलिये मैं इसे लिवाने आया हूँ । आप इसेमेरे साथ चलने की आज्ञा दे दीजिये ।

गुंसाई जी ने राजा के वचन को सत्य समझकर रानी को राजा के साथ जाने की आज्ञा दे दी । गुंसाई की आज्ञा पाकर रानी प्रसन्न होकर राजा के महल में आई । नगर में अनेक प्रकार के बाजे बजने लगे । नगर निवासियों ने नगर के दरवाजे पर तोरण बन्दनवारों से विविध-विधि से नगर सजाया । घर-घर में मंगल गान होने लगे । पंड़ितों ने विविध वेद मंत्रों का उच्चारण करके अपनी राजरानी का आवाहन किया । इस प्रकार रानी ने पुनः अपनी राजधानी में प्रवेश किया । महाराज ने अनेक प्रकार से ब्राहमणों को दानादि देकर संतुष्ट किया ।

याचकों को धन-धान्य दिया । नगरी में स्थान-स्थान पर सदाव्रत खुलवाये । जहाँ भूखों को खाने को मिलता था । इस प्रकार से राजा शिवजी की कृपा का पात्र हो राजधानी में रानी के साथ अनेक तरह के सुखों का भोग भोग करते सोमवार व्रत करने लगे । विधिवत् शिव पूजन करते हुए, लोक के अनेकानेक सुखों को भोगने के पश्चात शिवपुरी को पधारे ऐसे ही जो मनुष्य मनसा वाचा कर्मणा द्घारा भक्ति सहित सोमवार का व्रत पूजन इत्यादि विधिवत् करता है वह इस लोक में समस्त सुखोंक को भोगकर अन्त में शिवपुरी को प्राप्त होता है । यह व्रत सब मनोरथों को पूर्ण करने वाला है ।

सोमवार की आरती

जय शिव ओंकारा, भज शिव ओंकारा।
ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव अद्र्धागी धारा॥ \हर हर हर महादेव॥

एकानन, चतुरानन, पंचानन राजै।
हंसासन, गरुड़ासन, वृषवाहन साजै॥ \हर हर ..

दो भुज चारु चतुर्भुज, दशभुज ते सोहे।
तीनों रूप निरखता, त्रिभुवन-जन मोहे॥ \हर हर ..

अक्षमाला, वनमाला, रुण्डमाला धारी।
त्रिपुरारी, कंसारी, करमाला धारी। \हर हर ..

श्वेताम्बर, पीताम्बर, बाघाम्बर अंगे।
सनकादिक, गरुड़ादिक, भूतादिक संगे॥ \हर हर ..

कर मध्ये सुकमण्डलु, चक्र शूलधारी।
सुखकारी, दुखहारी, जग पालनकारी॥ \हर हर ..

ब्रह्माविष्णु सदाशिव जानत अविवेका।
प्रणवाक्षर में शोभित ये तीनों एका। \हर हर ..

त्रिगुणस्वामिकी आरती जो कोई नर गावै।
कहत शिवानन्द स्वामी मनवान्छित फल पावै॥ \हर हर ..


2. हर हर हर महादेव।

सत्य, सनातन, सुन्दर शिव! सबके स्वामी।
अविकारी, अविनाशी, अज, अन्तर्यामी॥ हर हर .

आदि, अनन्त, अनामय, अकल कलाधारी।
अमल, अरूप, अगोचर, अविचल, अघहारी॥ हर हर..

ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर, तुम त्रिमूर्तिधारी।
कर्ता, भर्ता, धर्ता तुम ही संहारी॥ हरहर ..

रक्षक, भक्षक, प्रेरक, प्रिय औघरदानी।
साक्षी, परम अकर्ता, कर्ता, अभिमानी॥ हरहर ..

मणिमय भवन निवासी, अति भोगी, रागी।
सदा श्मशान विहारी, योगी वैरागी॥ हरहर ..

छाल कपाल, गरल गल, मुण्डमाल, व्याली।
चिताभस्मतन, त्रिनयन, अयनमहाकाली॥ हरहर ..

प्रेत पिशाच सुसेवित, पीत जटाधारी।
विवसन विकट रूपधर रुद्र प्रलयकारी॥ हरहर ..

शुभ्र-सौम्य, सुरसरिधर, शशिधर, सुखकारी।
अतिकमनीय, शान्तिकर, शिवमुनि मनहारी॥ हरहर ..

निर्गुण, सगुण, निर†जन, जगमय, नित्य प्रभो।
कालरूप केवल हर! कालातीत विभो॥ हरहर ..

सत्, चित्, आनन्द, रसमय, करुणामय धाता।
प्रेम सुधा निधि, प्रियतम, अखिल विश्व त्राता। हरहर ..

हम अतिदीन, दयामय! चरण शरण दीजै।
सब विधि निर्मल मति कर अपना कर लीजै। हरहर ..


(3) शीश गंग अर्धग पार्वती सदा विराजत कैलासी।
नंदी भृंगी नृत्य करत हैं, धरत ध्यान सुखरासी॥

शीतल मन्द सुगन्ध पवन बह बैठे हैं शिव अविनाशी।
करत गान-गन्धर्व सप्त स्वर राग रागिनी मधुरासी॥

यक्ष-रक्ष-भैरव जहँ डोलत, बोलत हैं वनके वासी।
कोयल शब्द सुनावत सुन्दर, भ्रमर करत हैं गुंजा-सी॥

कल्पद्रुम अरु पारिजात तरु लाग रहे हैं लक्षासी।
कामधेनु कोटिन जहँ डोलत करत दुग्ध की वर्षा-सी॥

सूर्यकान्त सम पर्वत शोभित, चन्द्रकान्त सम हिमराशी।
नित्य छहों ऋतु रहत सुशोभित सेवत सदा प्रकृति दासी॥

ऋषि मुनि देव दनुज नित सेवत, गान करत श्रुति गुणराशी।
ब्रह्मा, विष्णु निहारत निसिदिन कछु शिव हमकू फरमासी॥

ऋद्धि सिद्ध के दाता शंकर नित सत् चित् आनन्दराशी।
जिनके सुमिरत ही कट जाती कठिन काल यमकी फांसी॥

त्रिशूलधरजी का नाम निरन्तर प्रेम सहित जो नरगासी।
दूर होय विपदा उस नर की जन्म-जन्म शिवपद पासी॥

कैलाशी काशी के वासी अविनाशी मेरी सुध लीजो।
सेवक जान सदा चरनन को अपनी जान कृपा कीजो॥

तुम तो प्रभुजी सदा दयामय अवगुण मेरे सब ढकियो।
सब अपराध क्षमाकर शंकर किंकर की विनती सुनियो॥


(4) अभयदान दीजै दयालु प्रभु, सकल सृष्टि के हितकारी।
भोलेनाथ भक्त-दु:खगंजन, भवभंजन शुभ सुखकारी॥

दीनदयालु कृपालु कालरिपु, अलखनिरंजन शिव योगी।
मंगल रूप अनूप छबीले, अखिल भुवन के तुम भोगी॥

वाम अंग अति रंगरस-भीने, उमा वदन की छवि न्यारी। भोलेनाथ

असुर निकंदन, सब दु:खभंजन, वेद बखाने जग जाने।
रुण्डमाल, गल व्याल, भाल-शशि, नीलकण्ठ शोभा साने॥

गंगाधर, त्रिसूलधर, विषधर, बाघम्बर, गिरिचारी। भोलेनाथ ..

यह भवसागर अति अगाध है पार उतर कैसे बूझे।
ग्राह मगर बहु कच्छप छाये, मार्ग कहो कैसे सूझे॥

नाम तुम्हारा नौका निर्मल, तुम केवट शिव अधिकारी। भोलेनाथ ..

मैं जानूँ तुम सद्गुणसागर, अवगुण मेरे सब हरियो।
किंकर की विनती सुन स्वामी, सब अपराध क्षमा करियो॥

तुम तो सकल विश्व के स्वामी, मैं हूं प्राणी संसारी। भोलेनाथ ..

काम, क्रोध, लोभ अति दारुण इनसे मेरो वश नाहीं।
द्रोह, मोह, मद संग न छोड़ै आन देत नहिं तुम तांई॥

क्षुधा-तृषा नित लगी रहत है, बढ़ी विषय तृष्णा भारी। भोलेनाथ ..

तुम ही शिवजी कर्ता-हर्ता, तुम ही जग के रखवारे।
तुम ही गगन मगन पुनि पृथ्वी पर्वतपुत्री प्यारे॥

तुम ही पवन हुताशन शिवजी, तुम ही रवि-शशि तमहारी। भोलेनाथ

पशुपति अजर, अमर, अमरेश्वर योगेश्वर शिव गोस्वामी।
वृषभारूढ़, गूढ़ गुरु गिरिपति, गिरिजावल्लभ निष्कामी।

सुषमासागर रूप उजागर, गावत हैं सब नरनारी। भोलेनाथ ..

महादेव देवों के अधिपति, फणिपति-भूषण अति साजै।
दीप्त ललाट लाल दोउ लोचन, आनत ही दु:ख भाजै।

परम प्रसिद्ध, पुनीत, पुरातन, महिमा त्रिभुवन-विस्तारी। भोलेनाथ ..

ब्रह्मा, विष्णु, महेश, शेष मुनि नारद आदि करत सेवा।
सबकी इच्छा पूरन करते, नाथ सनातन हर देवा॥

भक्ति, मुक्ति के दाता शंकर, नित्य-निरंतर सुखकारी। भोलेनाथ ..

महिमा इष्ट महेश्वर को जो सीखे, सुने, नित्य गावै।
अष्टसिद्धि-नवनिधि-सुख-सम्पत्ति स्वामीभक्ति मुक्ति पावै॥

श्रीअहिभूषण प्रसन्न होकर कृपा कीजिये त्रिपुरारी। भोलेनाथ ..

अष्टावक्र महादेव, कश्मीर

खोला गांव के ऊपर एक पहाड़ी पर श्रीनगर से तीन किलोमीटर पैदल यात्रा एवं आठ किलोमीटर की सड़क यात्रा की दूरी पर है।

माना जाता है कि अष्टावक्र मुनि ने यहां भगवान शिव की आराधना की थी। प्रसन्न होकर भगवान शिव, मुनि के सामने प्रकट हुए तथा वरदान के अनुसार वहां रहने का निश्चय किया। स्वयं मंदिर देखने में साधारण ही है। यह एक 15 फीट ऊंचा ढांचा है जहां गर्भ गृह में एक स्वयंभू शिवलिंग के ऊपर आठ पांवों पर टिका एक कलश है। जब मंदिर का पुनरूद्धार हो रहा था तब शिवलिंग की जड़ पता नहीं चलने के कारण खुदाई रोक दी गई। लोगों का ऐसा भी विश्वास है कि शिवलिंग की लंबाई बढ़ रही है। मंदिर में गणेश एवं नंदी की प्रतिमाएं भी हैं।

मंदिर एक सुंदर स्थान पर अवस्थित है जहां एक ओर अलकनंदा की घाटी का मनोरम दृश्य है तथा दूसरी ओर देवदार पेड़ों से भरे पौड़ी की पहाड़ियां हैं।

किलकिलेश्वर महादेव

अलकनंदा के विपरित किनारे पर श्रीनगर से छ: किलोमीटर दूर।

मंदिर के महंथ सुखदेव पुरी के अनुसार, मन्दिर से संबंधित एक अन्य बात यह है कि अपने वनवास के पांचवें वर्ष अर्जुन ने इसी स्थान पर भगवान शिव की आराधना की थी। वह भगवान शिव का निजी अस्त्र पाशुपात प्राप्त करना चाहता था, जो इतना शक्तिशाली था कि किसी भी अन्य अस्त्र को निष्प्रभावी कर सकता था। अर्जुन ने लंबे समय तक तप किया। उसके तप से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उसके सामने एक धृष्ट शिकारी के रूप में प्रकट होकर उसे ललकारा। दोनो में घमासान द्वंद हुआ। अर्जुन परास्त होकर शिकारी को पहचान लिया और भगवान शिव के पैरों पर गिर गया। इसके बाद भगवान शिव ने उसे पाशुपात का ज्ञान दिया। जंगल में इर्द-गिर्द छिपे किरातों के बीच किलकिलाहट हुई और किलकिल शब्द पर ही मंदिर का नाम पड़ा।



इस मंदिर का शिवलिंग पुराना है जबकि मंदिर नवनिर्मित है।


कमलेश्वर/सिद्धेश्वर मंदिर

यह श्रीनगर का सर्वाधिक पूजित मन्दिर है। कहा जाता है कि जब देवता असुरों से युद्ध में परास्त होने लगे तो भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र प्राप्त करने के लिये भगवान शिव की आराधना की। उन्होंने उन्हें 1,000 कमल फूल अर्पित किये (जिससे मंदिर का नाम जुड़ा है) तथा प्रत्येक अर्पित फूल के साथ भगवान शिव के 1,000 नामों का ध्यान किया। उनकी जांच के लिये भगवान शिव ने एक फूल को छिपा दिया। भगवान विष्णु ने जब जाना कि एक फूल कम हो गया तो उसके बदले उन्होंने अपनी एक आंख (आंख को भी कमल कहा जाता है)चढ़ाने का निश्चय किया। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें सुदर्शन चक्र प्रदान कर दिया, जिससे उन्होंने असुरों का विनाश किया।


चूंकि भगवान विष्णु ने कार्तिक महीने में शुक्ल पक्ष के चौदहवें दिन सुदर्शन चक्र प्राप्त किया था, इसलिये बैकुंठ चतुर्दशी का उत्सव यहां बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है। यही वह दिन है जब संतानहीन माता-पिता एक जलते दीये को अपनी हथेली पर रखकर खड़े रहकर रात-भर पूजा करते हैं। माना जाता है कि उनकी इच्छा पूरी होती है। इसे खड रात्रि कहा जाता है और कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं इस मंदिर पर अपनी पत्नी जामवंती के आग्रह पर इस प्रकार की पूजा की थी।



कहा जाता है कि इस मंदिर का ढ़ांचा देवों द्वारा आदि शंकराचार्य की प्रार्थना पर तैयार किया गया, जो उन 1,000 मंदिरों में से एक है, जिसका निर्माण रातों-रात गढ़वाल में हुआ था। मूलरूप में यह एक खुला मंदिर था जहां 12 नक्काशीपूर्ण सुंदर स्तंभ थे। संपूर्ण निर्माण काले पत्थरों से हुआ है, जिसे संरक्षण के लिये रंगा गया है। वर्ष 1960 के दशक में बिड़ला परिवार ने इस मंदिर को पुनर्जीवित किया तथा इसके इर्द-गिर्द दीवारें बना दी।

यहां का शिवलिंग स्वयंभू है तथा मंदिर से भी प्राचीन है। कहा जाता है कि गोरखों ने इस शिवलिंग को खोदकर निकालना चाहा पर 122 फीट जमीन खोदने के बाद भी वे लिंग का अंत नहीं पा सके। तब उन्होंने क्षमा याचना की, गढ़ढे को भर दिया तथा मंदिर को यह कहकर प्रमाणित किया कि मंदिर में कोई तोड़-फोड़ नहीं हो सकता। अन्य प्राचीन प्रतिमाओं में एक खास, सुंदर एवं असामान्य गणेश की प्रतिमा है। वे पद्माशन में बैठे है, एक कमंडल हाथ में है तथा गले से लिपटा एक सांप है। ऐसी चीजें जो उनके पिता भगवान शिव से संबद्ध होती हैं।



मंदिर को पंवार राजाओं का संरक्षण प्राप्त था तथा उन्होंने 64 गांवों का अनुदान दिया, जिसकी आय से ही मंदिर का खर्च चलाया जाता था। बलभद्र शाह के समय (वर्ष 1575-1591) का रिकार्ड, प्रदीप शाह के समय (वर्ष 1755) का तांबे का प्लेट एवं प्रद्युम्न शाह (वर्ष 1787) तथा गोरखों का समय प्रमाणित करते हैं कि मंदिर का उद्भव एवं पवित्रता प्राचीन है। आयुक्त ट्रैल ने कोलकाता भेजे गये अपने रिपोर्ट में गढ़वाल के जिन पांच महत्त्वपूर्ण मंदिरों का वर्णन किया था उनमें से एक यह मंदिर भी था।

मंदिर के बगल में बने भवन भी उतने ही पुराने हैं तथा छोटे-छोटे कमरे की भूल-भुलैया जैसे हैं और प्रत्येक कमरे से दूसरे कमरे में जाया जा सकता है जिसे घूपरा कहते है। कहा जाता है कि जब गोरखों का आक्रमण हुआ तो प्रद्युम्न शाह यहीं किसी कमरे में तब तक छिपा रहा, जहां से कि सुरक्षित अवस्था में उसे बाहर निकाल लिया गया। मंदिर के पीछे, का वर्गाकार स्थल का इस्तेमाल परंपरागत रूप से श्रीनगर के प्रसिद्ध रामलीला के लिये होता रहा है।

वर्ष 1894 में गोहना झील में आए उफान से विनाशकारी बाढ़ में शहर का अधिकांश भाग बह गया लेकिन मंदिर को क्षति नहीं पहुंची। कहा जाता है कि नदी का जलस्तर बढ़ता गया लेकिन ज्यों ही मंदिर के शिवलिंग से स्पर्श हुआ, जल स्तर कम हो गया। अगस्त 1970 में जब झील की दीवाल ढह गयी तो पुन: विशाल भू-स्खलन हुआ लेकिन मंदिर अछूता रहा। मंदिर के महंथ आशुतोष पुरी के अनुसार मंदिर का प्रशासन सदियों से पुरी वंश के महंथों के हाथ रहा है। यहां गुरू-शिष्य परंपरा का पालन होता है तथा प्रत्येक महंथ अपने उत्तराधिकारी के रूप में अपने सबसे निपुण शिष्य को चुनता है।

बागेश्वर -आध्यात्मिक शहर

अल्मोरा से 90 किमी की दुरी पर स्थित बागेश्वर अपने धार्मिक रीती-रिवाजों के लिए बहुत प्रसिद्द है| यहाँ पर्तिवर्ष कई धार्मिक त्योंहारों, धार्मिक मेलों का आयोजन होता है, जिसमें देश- विदेश के बहुत से लोग शामिल होते हैं| वर्तमान मैं बागेश्वर मैं सुन्दर्धुन्गा, पिन्दारी एवं कफनी जैसे सुंदर ग्लेशियर हैं| इन्हीं ग्लेशिरों के कारण यहाँ बहुत प्रकार के क्रीडा का आयोजन होता है| जिसमे प्रतिभागी बड़े ही साहसिक खेलों का जोहर दिखता है, जिसके कारण इसे साहसिक पर्यटक स्थल के नाम से भी जाना जाता है|

बागेश्वर का इतिहास बहुत ही पुराना है| स्कन्द पुरान के मानस खंड मैं यहाँ के विभिन्न स्थानों का उल्लेख किया है| पौराणिक कथाओं मैं बागेश्वर का बहुत ही सुंदर वरण हुआ है, उनके अनुसार बागेश्वर भगवान् शम्भू (शिव) की लीला स्थल था| बागेश्वर की स्थापना शिव गण चंदिस ने शिव के आदेश पर दूसरी कशी के रूप मैं की थी तदुपरांत इसे शिव पार्वती ने अपने निवास स्थान बनाया| शिव की कृपा से आस्मां से शिव लिंग उत्पन्न हुआ जिसे मुनियों ने बगिश्वर के रूप मैं उनकी पूजा की| कथाओं के अनुसार सरयू, गोमती, सरस्वती की संगम्स्थाली बागेश्वर मैं मृत्यु प्राप्त मनुष्य मुक्ति को प्राप्त होता है|

स्कंद्पुरान के अनुसार ऋषि मार्कंडेय जी ने यहाँ तपस्या की थे| वशिष्ठ जी जब भगवान् विष्णु की मनास्पुर्ती सरयू को लेकर आए तब ऋषि सारकंडेय जी कारन सरयू को बदने से रुकना पड़ा| शिव पार्वती ने ब्याघ्र का रूप रखकर तपस्यारत ऋषि से सरयू को मार्ग दिलाया| क्योंकि ऋषि तपस्या कर रहे थे सो उनकी तपस्या भंग न हो और सरयू को मार्ग मिल जाए| जिसके कारण इसका नाम ब्याघ्रेश्वर पड़ा, जो बाद मैं बागेश्वर के नाम से सम्भोधित हुआ|

बागेश्वर मैं पर्तिवर्ष उतरैणी का मेले का आयोजन किया जाता है| जिसमे प्रतिवर्ष बहुत से लोग मेले मैं आकर आनंद उठाते हैं, जो की माघ के महीने मैं मनाया जाता है| पौराणिक कथाओं के अनुसार बागेश्वर की भूमि पर उनका पूर्ण स्वामित्व था जिसकी आय से मंदिरों का रख रखाव किया जाता था, बागनाथ के मन्दिर मैं उन्होंने पुजारी की व्यस्था की थी जो मन्दिर के देखरेख किया करता था| पूर्व मैं मेलों मैं दूर-दूर से व्यापारी यहाँ आते थे और बहुत मात्रा मैं सामान की खरीद फरोख किया करते थे| यहाँ नेपाल के व्यापारी आया करते थे, तिब्बत के व्यापारी नमक, चंवर, पशुओं की खाल लेकर आते थे| भोटिया लोग गलीचे, जड़ी-बूटी, कम्बल इत्यादी लेकर आते थे, स्थानिये व्यापार भी अपने चरम सीमा पर था| दाल, सूप, तांबे के बर्तन, जुटे, चटाइन इत्यादी लेकर आते थे और बेचते थे| गुड़ की भेली से लेकर मिश्री और चूड़ी चरेऊ से लेकर टिकूली बिन्दी तक की खरीते थे|

दर्शनीय मन्दिर

बागनाथ का मन्दिर
बागनाथ मन्दिर मैं प्रतिवर्ष मेले का आयोजन किया जाता है| यह प्राचीन मन्दिर सरयू और गोमती नदी के संगम पर बसा है| यह मन्दिर भगवान् शिव का मन्दिर है| इस मेल मैं पहाड़ एवं गडवाल से हजारों संख्या मैं लोग पहुँचते हैं|

बैजनाथ मंदिर

गोमती के तट पर कत्युर घाटी मैं स्थित है, जो बागेश्वर से 22 किमी की दुरी पर स्थित है| इस मन्दिर का निर्माण 13 वीं शताब्दी मैं हुआ| इस मन्दिर मैं शिव, पार्वती और उनके पुत्र गणेश की मूर्तियां प्रमुख हैं| प्राचीन काल की कीमती मूर्तियाँ यहाँ हैं जो पुरातत्व विभाग की निगरानी मैं रखे गए हैं|
बागनाथ मंदिरः यह प्राचीन मंदिर सरयू और गोमती नदियों के संगम पर शहर के बीचो-बीच में स्थित है। यह भगवान शिव को समर्पित है। यहां शिवरात्रि के दौरान वार्षिक मेले का आयोजन किया जाता है। इस दौरान पूरे कुमायूं और गढ़वाल पहाड़ियों से बड़ी संख्या में लोग शहर पहुंचते हैं। इस मन्दिर मैं शिव, पार्वती, इकमुखी और चतुर्मुखी, शिव लिंग, त्रिमुखी शिव, गणेश, विष्णु, सरयू आदि देवी-देवताओं की मूर्तियां हैं जो बहुत ही प्राचीन हैं|
टोटा शिव मंदिरः लोगों का कहना है की इस मन्दिर का निर्माण पांडवो ने किया था| यह मन्दिर सनेती के पास बना है जो अपने मैं एक रहस्य है| इस मन्दिर को लोग शिव मन्दिर के नाम से संबोधित करते हैं, परन्तु इस मन्दिर मैं कोई शिव लिंग नहीं है| और इस मन्दिर मन कोई श्रद्धालु पूजा नहीं करता है|

चंद्रिका मंदिर

यह मन्दिर देवी चन्द्रिका का है जिसे दुर्गा भी कहते हैं| नव रात्रि के अवसर पर यहाँ पर लोग पशुओं की बलि देकर देवी को प्रसन्न करतें हैं, और मुराद मागते हैं| इसको लोग बड़े हर्षोल्लास से मनाते हैं| यह मन्दिर बागेश्वर से लगभग 500 किमी की दुरी पर स्थित है|

कोटे की माई

बैजनाथ से मात्र 3 किलोमीटर पर कोटे की माई का मंदिर है। इस मन्दिर मैं भगवान् विष्णु की सुंदर मूर्ति विराजमान है| लोग यहाँ पूर्ण शारदा से पूजा अर्चना करते हैं| जो भी श्रद्धालु बैजनाथ मन्दिर के दर्शन के लिए आता है वे कोटे की माई के दर्शन करने को जरुर जाते हैं|

भैरवाष्टमी कथा एवं महात्मय

अष्टमी तिथि यूं तो भगवती महामाया का दिन होता है। परंतु मार्गशीर्ष यानी अगहन की कृष्ण पक्ष में जो अष्टमी तिथि होती है वह महामाया के साथ भगवान भोले शंकर का भी प्रिय दिन है। इस दिन ही भगवान भोले नाथ भैरव रूप में प्रकट हुए थे। आइये इनकी उपसना एवं कथा में मन लगाएं।

कथा : किस प्रकार नीलकंठ कैलाशपति ने भैरव रूप धारण किया

कथा के अनुसार एक बार श्री हरि विष्णु और ब्रह्मा जी में इस बात को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया कि उनमें श्रेष्ठ कौन है। विवाद इस हद तक बढ़ गया कि शिव शंकर की अध्यक्षता में एक सभा बुलायी गयी। इस सभा में ऋषि-मुनि, सिद्ध संत, उपस्थित हुए। सभा का निर्णय श्री विष्णु ने तो स्वीकार कर लिया परंतु ब्रह्मा जी निर्णय से संतुष्ट नहीं हुए और उन्होंने महादेव का अपमान कर दिया।

यह तो सर्वविदित है कि भोले नाथ जब शांत रहते हैं तो उस गहरी नदी की तरह प्रतीत होते हैं जिसकी धारा तीव्र होती है परंतु देखने में उसका जल ठहरा हुआ नज़र आता है और जब क्रोधित होते हैं तो प्रलयकाल में गरजती और उफनती नदी के दिखाई देते हैं। ब्रह्मा जी द्वारा अपमान किये जाने पर महादेव प्रलय के रूप में नज़र आने लगे और उनका रौद्र रूप देखकर तीनो लोक भयभीत होने लगा। भगवान आशुतोष के इसी रौद्र रूप से भगवान भैरव प्रकट हुए। भगवान भैरव कुत्ते पर सवार थे और इनके हाथ में दंड था। हाथ में दण्ड होने से ये दण्डाधिपति भी कहे जाते हैं। इनका रूप अत्यंत भयंकर था। भैरव जी के इस रूप को देखकर ब्रह्मा जी को अपनी ग़लती का एहसास हुआ और वे भगवान भोले नाथ एवं भैरव की वंदना करने लगे।

शिव के इस भैरव रूप की उपासना करने वाले भक्तों के सभी प्रकार पाप, ताप एवं कष्ट दूर हो जाते हैं। इनकी भक्ति मनोवांछित फल देने वाली कही गयी है। भैरव जी की उपासना करने वाले को भैरवाष्टमी के दिन व्रत रख कर प्रत्येक प्रहर में भैरवोनाथ जी की षोड्षोपचार सहित पूजा करनी चाहिए व उन्हें आर्घ्य देना चाहिए। रात के समय जागरण करके माता पार्वती और भोले शंकर की कथा एवं भजन कीर्तन करना चाहिए व भैरव जी उत्पत्ति की कथा कहनी व सुननी चाहिए। रात का आधा पहर यानी मध्य रात्रि होने पर शंख, नगाड़ा, घंटा आदि बजाकर भैरव जी की आरती करनी चाहिए।

भगवान भैरव नाथ का वाहन कुत्ता है। भैरव जी की प्रसन्नता के लिए इस दिन कुत्ते को उत्तम भोजन दें। मान्यता के अनुसार इस दिन प्रात: काल पवित्र नदी या सरोवर में स्नान करके पितरों का श्राद्ध व तर्पण करें फिर भैरव जी की पूजा व व्रत करें तो विघ्न बाधाएं समाप्त हो जाती हैं व आयु में वृद्धि होती है। भैरव जी के विषय में यह भी कहा गया है कि इनकी पूजा व भक्ति करने वाले से भूत, पिशाच एवं काल भी दूर दूर रहते हैं। इन्हें रोग दोष स्पर्श नहीं करते हैं। शुद्ध मन एवं आचरण से ये जो भी कार्य करते हैं उनमें इन्हें सफलता मिलती है।

काल भैरव के साथ ही इस दिन देवी कालिका की उपासना एवं व्रत का विधान भी है। इस रात देवी काली की उपासना करने वालों को अर्ध रात्रि के बाद मां की उसी प्रकार से पूजा करनी चाहिए जिस प्रकार दुर्गा पूजा में सप्तमी तिथि को देवी कालरात्रि की पूजा का विधान है।

॥ अथ श्री शिवमहिम्नस्तोत्र ॥

महिम्नः पारं ते परमविदुषो यज्ञसदृशी
स्तुतिर्ब्रह्मादीना मपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः ।
अथावाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामधि गृणन्
ममाप्येषः स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः ॥१॥

१. हे प्रभु ! बड़े बड़े पंडित और योगीजन आपके महिमा को नहीं जान पाये तो मैं तो एक साधारण बालक हूँ, मेरी क्या गिनती ? लेकिन क्या आपके महिमा को पूर्णतया जाने बिना आपकी स्तुति नहीं हो सकती ? मैं ये नहीं मानता क्योंकि अगर ये सच है तो फिर ब्रह्मा की स्तुति भी व्यर्थ कहेलायेगी । मैं तो ये मानता हूँ कि सबको अपनी मति अनुसार स्तुति करने का हक है । इसलिए हे भोलेनाथ ! आप कृपया मेरे हृदय के भाव को देखें और मेरी स्तुति का स्वीकार करें ।

अतीतः पंथानं तव च महिमा वाड् मनसयो
रतद्व्यावृत्यायं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि ।
स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः
पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः ॥२॥

२. हे प्रभु ! आप मन और वाणी से पर है ईसलिए वाणी से आपकी महिमा का वर्णन कर पाना असंभव है । यही वजह है की वेद आपकी महिमा का वर्णन करते हुए 'नेति नेति' (मतलब ये नहि, ये भी नहि) कहकर रुक जाते है । आपकी महिमा और आपके स्वरूप को पूर्णतया जान पाना असंभव है, लेकिन जब आप साकार रूप में प्रकट होते हो तो आपके भक्त आपके स्वरूप का वर्णन करते नहीं थकते । ये आपके प्रति उनके प्यार और पूज्यभाव का परिणाम है ।

मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवत
स्तव ब्रह्मन्किं वा गपि सुरगुरोर्विस्मयपदम् ।
मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः
पुनामीत्यर्थेस्मिन् पुरमथनबुद्धिर्व्यवसिता ॥३॥

३. हे त्रिपुरानाशक प्रभु, आपने अमृतमय वेदों की रचना की है । इसलिए जब देवों के गुरु, बृहस्पति आपकी स्तुति करते है तो आपको कोई आश्चर्य नहीं होता । मै भी अपनी मति अनुसार आपके गुणानुवाद करने का प्रयास कर रहा हूँ । मैं मानता हूँ कि इससे आपको कोई आश्चर्य नहीं होगा, मगर मेरी वाणी इससे अधिक पवित्र और लाभान्वित अवश्य होगी ।



तवैश्चर्यें यत्तद् जगदुदयरक्षाप्रलयकृत
त्रयी वस्तु व्यस्तं तिसृषु गुणभिन्नासु तनुषु ।
अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं
विहंतुं व्योक्रोशीं विदधत इहै के जडधियः ॥४॥

४. हे प्रभु, आप इस सृष्टि के सृजनहार है, पालनहार है और विसर्जनकार है । इस प्रकार आपके तीन स्वरूप है – ब्रह्मा, विष्णु और महेश तथा आप में तीन गुण है – सत्व, रज और तम । वेदों में इनके बारे में जीक्र किया गया है फिर भी अज्ञानी लोग आपके बारे में उटपटांग बातें करते रहते है । एसा करने से भले उन्हें संतुष्टि मिलती हो, मगर हकिकत से वो मुँह नहीं मोड़ सकते ।

किमिहः किंकायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं ।
किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च ॥
अतकर्यैश्वर्येत्वय्यनवसरदुःस्थो हतधियः ।
कुतर्कोडयंकांश्चिन्मुखरयति मोहाय जगतः ॥५॥

५. हे प्रभु, मूर्ख लोग अक्सर तर्क करते रहते है कि ये सृष्टि की रचना कैसे हुई, किसकी ईच्छा से हुई, किन चिजों से उसे बनाया गया वगैरह वगैरह । उनका उद्देश्य लोगों में भ्रांति पैदा करने के अलावा कुछ नहि । सच पूछो तो ये सभी प्रश्नों के उत्तर आपकी दिव्य शक्ति से जुड़े है और मेरी सीमित शक्ति से उसे बयाँ करना असंभव है

अजन्मानो लोकाः किमवयवंवतोडपि जगता ।
मधिष्ठातारं किं भवविधिरनादत्य भवति ॥
अनीशो वा कुर्याद भुवनजनने कः परिकरो ।
यतो मंदास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे ॥६॥

६. हे प्रभु, आपके बिना ये सब लोक (सप्त लोक – भू: भुव: स्व: मह: जन: तप: सत्यं) का निर्माण क्या संभव है ? ये जगत का कोई रचयिता न हो, एसा क्या मुमकिन है ? आपके अलावा ईस सृष्टि का निर्माण कौन कर सकता है भला ? आपके अस्तित्व के बारे केवल मूर्ख लोगों को ही शंका हो सकती है ।

त्रयी सांख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति
प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च ।
रुचीनां वैचित्र्या दजुकुटिलनानापथजुषां
नृणामेको गम्य स्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥७॥

७. हे प्रभु ! आपको पाने के लिए अनगिनत मार्ग है - सांख्य मार्ग, वैष्णव मार्ग, शैव मार्ग, वेद मार्ग आदि । लोग अपनी रुचि के मुताबिक कोई एक मार्ग को पसंद करते है । मगर आखिरकार ये सभी मार्ग, जैसे अलग अलग नदियों का पानी बहकर समंदर में जाकर मिलता है वैसे ही, आप तक पहूँचते है । सचमुच, किसी भी मार्ग का अनुसरण करने से आपकी प्राप्ति हो सकती है ।

महोक्षः खड्वांगं परशुरजिनं भस्म फणिनः
कपालं चेतीय त्तव वरद तंत्रोपकरणम् ।
सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु भव द्भ्रूप्रणिहितां
नहि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति ॥८॥

८. हे प्रभु, आपने केवल एक दृष्टिपात से देवगण को सर्व भोग-सुख से संपन्न कर दिया, मगर अपने लिए क्या छोडा ? सिर्फ कुल्हाडी, बैल, व्याघ्रचर्म, शरीर पर भस्म तथा हाथ में खप्पर (खोपड़ी) ! इससे ये फलित होता है कि जो आत्मानंद में लीन रहता है वो संसार के भोगपदार्थो में नहीं फँसता ।

ध्रुवं कश्चित्सर्वं सकलमपरस्त्वद्ध्रुवमिदं
परो ध्रोव्याध्रोव्ये जगति गदति व्यस्तविषये ।
समस्तेडप्येतस्मि न्पुरमथन तैर्विस्मित इव
स्तुवंजिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता ॥९॥

९. हे प्रभु, कोई कहता है कि ये जगत सत्य है, तो कोई कहता है ये असत्य और अनित्य है । लोग जो भी कहें, आपके भक्त तो आपको हमेंशा सत्य मानते है और आपकी भक्ति मे आनंद पाते है । मैं भी उनका समर्थन करता हूँ, चाहे किसीको मेरा ये कहेना ज्यादा लगे, मुझे उसकी परवाह नहीं ।

तवैश्वर्यं यत्ना द्यदुपरि विरिंचिर्हरिरधः
परिच्छेतुं याता वनलमनलस्कंधवपुषः ।
ततो भक्तिश्रद्धा भरगुरुगृणद्भ्यां गिरिश यत्
स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिने फलति ॥१०॥

१०. हे प्रभु ! जब ब्रह्मा और विष्णु के बीच विवाद हुआ की दोनों में से कौन महान है, तब आपने उनकी परीक्षा करने के लिए अग्निस्तंभ का रूप लिया । ब्रह्मा और विष्णु - दोनोंनें स्तंभ को अलग अलग छोर से नापने की कोशिश की मगर वो नाकामियाब रहे । आखिरकार अपनी हार मानकर उन्होंने आपकी स्तुति की, जिससे प्रसन्न होकर आपने अपना मुल रूप प्रकट किया । सचमुच, अगर कोई सच्चे दिल से आपकी स्तुति करे और आप प्रकट न हों एसा कभी हो सकता है भला ?

अयत्नादापाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं
दशास्यो यद्बाहू नभृन रणकंडुपरवशान् ।
शिरःपद्मश्रेणी रचितचरणांभोरुहबलेः
स्थिरायास्त्वद्भक्ते स्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम् ॥११॥

११. हे त्रिपुरानाशक ! आपके परम भक्त रावण ने पद्म की जगह अपने नौ-नौ मस्तक आपकी पूजा में समर्पित कर दिये । जब वो अपना दसवाँ मस्तक काटकर अर्पण करने जा रहा था तब आपने प्रकट होकर उसको वरदान दिया । ये वरदान की वजह से ही उसकी भुजाओं में अतूट बल प्रकट हुआ और वो तीनो लोक में शत्रुओं पर विजय पाने में समर्थ रहा । ये सब आपकी दृढ भक्ति का नतीजा है ।

अमुष्य त्वत्सेवा समधिगतसारं भुजवनं
बलात्कैलासेडपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः ।
अलभ्यापाताले डप्यलसचलितांगुष्ठशिरसि
प्रतिष्ठा प्रत्वय्या सीद्ध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः ॥१२॥

१२. आपकी परम भक्ति से रावण अतुलित बल का स्वामी बन बैठा मगर इससे उसने क्या करना चाहा ? आपकी पूजा के लिए हररोज कैलाश जाने का श्रम बचाने के लिए कैलाश को उठाकर लंका में गाढ़ देना चाहा । जब कैलाश उठाने के लिए रावण ने अपनी भूजाओं को फैलाया तब पार्वती भयभीत हो उठी । उसे भयमुक्त करने के लिए आपने सिर्फ अपने पैर का अंगूठा हिलाया तो रावण जाकर पाताल में गिरा और वहाँ भी उसे स्थान नहीं मिला । सचमुच, जब कोई आदमी अनधिकृत बल या संपत्ति का स्वामी बन जाता है तो उसका उपभोग करने में विवेक खो देता है ।

यदद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सती
मधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयस्त्रिभुवनः ।
न तच्चित्रं तस्मिंन्वरिवसितरि त्वच्चरणयो
र्न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः ॥१३॥

१३. हे प्रभु ! बाण जैसा साधारण राक्षस त्रिभुवन का स्वामी और देवराज ईन्द्र से ज्यादा ऐश्वर्यवान बन गया । लेकिन इसमें आश्चर्य करने जैसी कोई बात नहीं है क्योंकि वो आपका परम भक्त था । जो मनुष्य आपके चरण में श्रद्धाभक्तिपूर्वक शीश रखता है उसकी उन्नति और समृद्धि निश्चित है ।

अकाण्डब्रह्माण्डक्षयचकितदेवासुरकृपा
विधेयस्यासीद्यस्त्रिनयविषं संह्रतवतः ।
स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो
विकारोडपि श्लाध्यो भुवनभयभंगव्यसनिनः ॥१४॥

१४. हे प्रभु ! जब समुद्रमंथन हुआ तब अन्य मूल्यवान रत्नों के साथ महाभयानक विष निकला, जिससे समग्र सृष्टि का विनाश हो सकता था । आपने बड़ी कृपा करके उस विष का पान किया । विषपान करने से आपके कंठ में नीला चिन्ह हो गया और आप नीलकंठ कहलाये । परंतु हे प्रभु, क्या ये आपको कुरुप बनाता है ? हरगिझ नहीं, ये तो आपकी शोभा को ओर बढाता है । जो व्यक्ति ओरों के दुःख दुर करता है उसमें अगर कोई विकार भी हो तो वो पूजापात्र बन जाता है ।

असिद्धार्था नैव कवचिदपि सदेवासुरनरे
निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः ।
स पश्यन्नीश त्वामितरसरुरसाधारणमभूत्
स्मरः स्मर्तव्यात्मा नहि वशिषु पथ्यः परिभवः ॥१५॥

१५. हे प्रभु, जब आप समाधि में लीन थे तब (तारकासुर को मारने के लिए आपके द्वारा कोई पुत्र हो एसा सोचकर) देवोंने आपकी समाधि भंग करने के लिए कामदेव को भेजा । यूँ तो कामदेव के बाण मनुष्य हो या देवता - सब के लिए अमोघ सिद्ध होते है मगर आपने तो कामदेव को ही अपने तीसरे नेत्र से भस्मीभूत कर दिया । सचमुच, किसी संयमी मनुष्य का अपमान करने से अच्छा फल नहीं मिलता ।

मही पादाधाताद् व्रजति सहसा संशयपदं
पदं विष्णोर्भ्राम्यद्भुजपरिघरुग्णग्रहगणम् ।
मुहुद्यौंर्दोस्थ्यं यात्यनिभृतजटाताडिततटा
जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता ॥१६॥

१६. जब विश्व की रक्षा के लिये आपने तांडव नृत्य करना प्रारंभ किया तब समग्र सृष्टि भय के मारे कांप उठी । आपके पदप्रहार से पृथ्वी को लगा कि उसका अंत समीप है, आपकी जटा से स्वर्ग में विपदा आ पड़ी और आपकी भुजाओं के बल से वैंकुंठ में खलबली मच गई । हे प्रभु ! सचमुच आपका बल अतिशय कष्टप्रद है ।

वियद्व्यापी तारागणगुणितफेनोद्गमरुचिः
प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदष्टः शिरसि ते ।
जगद् द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमि
त्यनेनैवोन्नेयं धृतमहिम दिव्यं तव वपुः ॥१७॥

१७. गंगा नदी जब मंदाकिनी के नाम से स्वर्ग से उतरती है तब नभोमंडल में चमकते हुए सितारों की वजह से उसका प्रवाह अत्यंत आकर्षक दिखाई देता है, मगर आपके शिर पर सिमट जाने के बाद तो वह एक बिंदु समान दिखाई पडती है । बाद में जब गंगाजी आपकी जटा से निकलती है और भूमि पर बहने लगती है तब बड़े बड़े द्वीपों का निर्माण करती है । ईससे पता चलता है कि आपका शरीर कितना दिव्य और महिमावान है ।

रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो
रथाडगे चन्द्रार्कौ रथचरणपाणिः शर इति ।
दिधक्षोस्ते कोडयं त्रिपुरतृणमाडम्बरविधिर्
विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः ॥१८॥

१८. हे प्रभु ! आप जब (तारकासुर के पुत्रों द्वारा रचित) तीन नगरों का विध्वंश करने निकले तब आपने पृथ्वी का रथ बनाया, ब्रह्माजी को रथी किया, सूर्य और चंद्र के दो पहिये किये, मेरु पर्वत का धनुष्य बनाया और विष्णुजी का बाण लिया .. मगर ये सब दिखावा करने की आपको क्या जरूरत थी ? (अर्थात् आप स्वयं ईतने महान है कि आपको किसीका साथ लेने की जरूरत नहीं थी ।) आपने तो केवल (अपने नियंत्रण में रही) शक्तियों के साथ खेल किया था, लीला की थी ।

हरिस्ते साहस्त्रं कमलबलिमाधाय पदयो
यदिकोने तस्मिन् निजमुदहरन्नेत्रकमलम् ।
गतो भकत्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषा
त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागर्ति जगताम् ॥१९॥

१९. हे प्रभु ! हजार पद्मों से आपकी पूजा करने का विष्णुजी का नियम था । एक बार विष्णुजी की परीक्षा करने के लिए आपने एक पद्म गायब कर दिया । तब विष्णुजीने पद्म के बजाय अपना एक नेत्र आपके चरणों में अर्पित किया । उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर आपने विष्णुजी को सुदर्शन चक्र प्रदान किया । हे प्रभु, आप तीनों लोक (स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल) की रक्षा के लिए सदैव जाग्रत रहते हो ।

क्रतौ सुप्ते जाग्रत्त्वमसि फलयोगे क्रतुमतां
क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते ।
अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदानप्रतिभुवं
श्रुतौ श्रद्धां बद्ध्वा दटपरिकरः कर्मसु जनः ॥२०॥

२०. हे प्रभु ! यज्ञ की समाप्ति होने पर आप यज्ञकर्ता को उसका फल देते हो । आपकी उपासना और श्रद्धा बिना किया गया कोई कर्म फलदायक नही होता । यही वजह है कि वेदों मे श्रद्धा रखके और आपको फलदाता मानकर हरकोई अपने कार्यो का शुभारंभ करते है ।

क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्तनुभृता
मृषीणामार्त्विज्यं शरणद सदस्याः सुरगणाः ।
क्रतुभ्रंषस्त्वत्तः क्रतुफलविधानव्यसनिनो
ध्रुवं कर्तुः श्रद्धाविधुरमभिचाराय हि मखाः ॥२१॥

२१. हे प्रभु, आप यज्ञकर्ता को हमेशा फल देते हो । मगर दक्ष प्रजापति का यज्ञ, जिसमें बड़े ऋषिमुनि यज्ञकर्ता थे और जिसे देखने के लिए कई देवता पधारे थे, उसे आपने नष्ट कर दिया, क्यूँकि उसमें आपका सम्मान नहीं किया गया । सचमुच, भक्ति के बिना किये गये यज्ञ किसी भी यज्ञकर्ता के लिए हानिकारक सिद्ध होते है ।

प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं
गतं रोहिद्भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा ।
धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतंममुं
त्रसन्तं तेडद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः ॥२२॥

२२. एक बार प्रजापिता ब्रह्मा को अपनी पुत्री पर मोह हुआ ।जब उसने मृगिनी का रूप धारण किया तो ब्रह्माजी ने मृग का रूप लिया । उश वक्त हे प्रभु ! आपने हाथ में धनुष्यबाण लेकर शिकारी का रूप लिया और ब्रह्मा को मार भगाया । ब्रह्माजी नभोमंडल में अदृश्य अवश्य हुए मगर आज तक आपसे डरते रहते है ।

स्वलावण्याशंसाधृतधनुषमह्नाय तृणवत्
पुरः प्लुष्टं दष्टवा पुरमथन पुष्पायुधमपि ।
यदि स्त्रैणं देवी यमनिरत देहार्धघटना
दवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतयः ॥२३॥

२३. हे त्रिपुरानाशक ! जब कामदेव ने आपकी तपश्चर्या में बाधा डालनी चाहि और आपके मन में पार्वती के प्रति मोह उत्पन्न करने की कोशिश की, तब आपने कामदेव को तृणवत् भस्म कर दिया । अगर तत्पश्चात् भी पार्वती ये समझती है कि आप उन पर मुग्ध है क्योंकि आपके शरीर का आधा हिस्सा उसका है, तो ये उसका भ्रम होगा । सच पूछो तो हर युवती अपनी सुंदरता पे मुग्ध होती है ।

स्मशानेष्वाक्रीडा स्महर पिशाचाः सहचरा
श्चिताभस्मालेपः स्तगपि नृकरोटीपरिकरः ।
अमंगल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं
तथाडपि स्मर्तृणां वरद परमं मंगलमसि ॥२४॥

२४. हे प्रभु ! आप स्मशानवासी है, भूत-प्रेत आपके मित्र है, आपके शरीर पर भस्म का लेपन है और खोपडीयों की माला आपके गले में सुहाती है । अगर बाह्य रूप से देखा जाय तो आप में कुछ मंगल या शुभ नहीं दिखाई पडता, मगर जो मनुष्य आपका स्मरण करते है, उसका आप सदैव शुभ और मंगल करते है ।

मनः प्रत्यक्चित्ते सविधमवधायात्तमरुतः
प्रह्रष्यद्रोमाणः प्रमदसलिलोत्संगितदशः ।
यदालोक्याह्लादं ह्रद इव निमज्ज्यामृतमये
दद्यत्यंतस्तत्त्वं क्रिमपि यमिनस्तत्किल भवान् ॥२५॥

२५. हे प्रभु ! आपको पाने के लिए योगी क्या क्या नहीं करते ? बस्ती से दूर, एकांत में आसन जमाकर, शास्त्रों में बताई गई विधि के अनुसार प्राण की गति को नियंत्रित करने की कठिन साधना करते है और उसमें कामयाब होने पर हर्षाश्रु बहाते है । सचमुच, सभी प्रकार की साधना का अंतिम लक्ष्य आपको पाना ही है ।

त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवह
स्त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च ।
परिच्छिन्नामेवं त्वयिपरिणता बिभ्रतु गिरं
न विद्मस्तत्तत्वं वयमिह तु यत्त्वं न भवसि ॥२६॥

२६. हे प्रभु ! आप के बारे में कहा जाता है कि आप सूर्य हो, चंद्र हो, पंच तत्व यानि पृथ्वी, आकाश, जल, अग्नि और वायु भी आप हो । लेकिन यह सोच भी संकुचित और सीमित है क्यूँकि सच पूछो तो एसा क्या है जो आप नहीं हो ? मतलब कि आप ही सबकुछ हो ।

त्रयीं तिस्त्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथोत्रीनपिसुरा
नकाराद्यैर्वर्णै स्त्रिभिरभिदधत्तीर्ण विकृतिः ।
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः
समस्तं व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम् ॥२७॥

२७. ॐ शब्द अ, उ और म से बनता है । ये तीन शब्द तीन लोक – स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल; तीन देव – ब्रह्मा, विष्णु और महेश तथा तीन अवस्था – स्वप्न, जागृति और सुषुप्ति के द्योतक है । लेकिन जब पूरी तरह से ॐ कार का ध्वनि निकलता है तो ये आपके तुरिय पद (तीनों से पर) को अभिव्यक्त करता है ।

भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सहमहां
स्तथां भीमशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम् ।
अमुष्मिन्प्रत्येकं प्रवितरति देव श्रुतिरपि
प्रियायास्मै धाम्ने प्रणिहितनमस्योडस्मि भवते ॥२८॥

२८. हे प्रभो ! वेद में आपके इन आठ नामों का जीक्र किया गया है – भव, शर्व, रुद्र, पशुपति, उग्र, महादेव, भीम और इशान। आपके ये सभी नामों को मैं भावपूर्वक नमस्कार करता हूँ ।

नमो नेदिष्ठाय प्रियदवदविष्ठाय च नमो
नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः ।
नमोवर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठा च नमः
नमः सर्वस्मै ते तदिदमितिशर्वाय च नमः ॥२९॥

२९. हे एकांतप्रिय प्रभु ! आप सब से दूर है फिर भी सब के पास है । हे कामदेव को भस्म करनेवाले प्रभु ! आप अति सूक्ष्म है फिर भी विराट है । हे तीन नेत्रोंवाले प्रभु ! आप वृद्ध है और युवा भी है । हे महादेव ! आप सब में है फिर भी सब से पर है । आपको मेरा प्रणाम हो ।

बहलरजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नमः
प्रबलतमसे तत्संहारे हराय नमो नमः ।
जनसुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ मृडाय नमो नमः
प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नमः ॥३०॥

३०. हे प्रभु, रजोगुण को धारण करके आप जगत की उत्पत्ति करते हो, आपके उस ब्रह्मा स्वरूप को मेरा प्रणाम हो । तमोगुण को धारण करके आप जगत का संहार करते हो, आपके उस रुद्र स्वरूप को मेरा नमस्कार हो । सत्वगुण धारण करके आप लोगों के सुख के लिए कार्य करते हो, आपके उस विष्णु स्वरूप को मेरा वंदन हो । और ईन तीनों गुणों से पर आपका त्रिगुणातीत स्वरूप है, आपके उस शिव स्वरूप को मेरा नमस्कार हो ।

कृशपरिणति चेतः क्लेशवश्यं क्व चेदं
क्व च तव गुणसीमोल्लंधिनी शश्वद्रद्धिः
इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद्
वरद चरणयोस्ते वाक्य-पुष्पोपहारम् ॥३१॥

३१. हे वरदाता ! मेरा मन शोक, मोह और दुःख से संतप्त तथा क्लेश से भरा पड़ा है । मैं दुविधा में हूँ कि एसे भ्रमित मन से मैं आपके दिव्य और अपरंपार महिमा का गान कैसे कर पाउँगा ? फिर भी आपके प्रति मेरे मन में जो भाव और भक्ति है उसे अभिव्यक्त किये बिना मैं नहीं रह सकता । अतः ये स्तुति की माला आपके चरणों में अर्पित करता हूँ ।

असितगिरिसमंस्यात् कज्जलं सिंधुपात्रे
सुरतरुवरशाखा लेखिनी पत्रमुर्वि ।
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं
तदपि तव गुणाना मीश पारं न याति ॥३२॥

३२. अगर समंदर का पात्र बनाया जाय, उसमें काले पर्वत की स्याही डाली जाय, कल्पवृक्ष के पेड की शाखा को कलम बनाकर और पृथ्वी का कागज़ बनाकर स्वयं मा शारदा दिनरात आपके गुणों का वर्णन करें फिर भी हे प्रभु ! आपके गुणों को पूर्णतया बयाँ करना नामुमकिन है ।

असुरसुरमुनीन्द्रैरर्चितस्येन्दुमौले
र्ग्रथितगुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य ।
सकलगणवरिष्ठः पुष्पदन्ताभिधानो
रुचिरमलधुवृत्तैः स्तोत्रमेतच्चकार ॥३३॥

३३. हे प्रभु, आप सुर, असुर और मुनियों के पूजनीय है, आपने मस्तक पर चंद्र को धारण किया है, और आप सभी गुणों से पर है । आपके एसे दिव्य महिमा से प्रभावित होकर मैं, पुष्पंदत गंधर्व, आपकी स्तुति करता हूँ ।

अहरहरनवद्यं धूर्जटेः स्तोत्रमेतत्
पठति परमभक्त्या शुद्धचित्तः पुमान्यः ।
स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाडत्र
प्रचुरतरधनायुः पुत्रवान्कीर्तिमांश्च ॥३४॥

३४. पवित्र और भक्तिभावपूर्ण हृदय से अगर कोई मनुष्य यह स्तोत्र का नित्य पाठ करेगा, तो वो पृथ्वीलोक में अपनी ईच्छा के मुताबिक धन, पुत्र, आयुष्य और कीर्ति को प्राप्त करेगा । ईतना ही नहीं, देहत्याग के पश्चात् वो शिवलोक में गति पाकर शिवतुल्य शांति का अनुभव करेगा । शिवमहिम्न स्तोत्र के पठन से उसकी सभी लौकिक व पारलौकिक कामनाएँ पूर्ण होगी ।

महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः ।
अघोरान्नापरो मंत्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम् ॥३५॥

३५. शिव से अधिक कृपालु कोई देव नहिं है, और शिवमहिम्न स्तोत्र से श्रेष्ठ ना ही कोई स्तुति है । भगवान शंकर के नाम से अधिक महिमावान ना कोई मंत्र है और ना ही गुरु से बढकर कोई पूजनीय तत्व ।

दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिकाः क्रियाः ।
महिम्नस्तवपाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥३६॥

३६. शिवनहिम्न स्तोत्र का पाठ करने से जो फल मिलता है वो दीक्षा या दान देने से, तप करने से, तीर्थाटन करने से, शास्त्रों का ज्ञान पाने से तथा यज्ञ करने से कहीं अधिक है ।

कुसुमदशननामा सर्वगन्धर्वराजः
शिशुशशिधरमौलेर्देव देवस्य दासः ।
स खलु निजमहिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात्
स्तवनमिदमकार्षीद् दिव्यदिव्यं महिम्नः ॥३७॥

३७. पुष्पंदत गंधवराज था और भगवान शंकर, जो अपने मस्तक पर चंद्र को धारण करते है उसका, परम भक्त था । मगर भगवान शिव के क्रोध की वजह से वह अपने स्थान से च्युत हुआ । महादेव को प्रसन्न करने के लिए उसने ये महिम्नस्तोत्र की रचना की है ।

सुरवरमुनिपूज्यं स्वर्गमोक्षैकहेतुं
पठति यदि मनुष्यः प्रांजलिर्नान्यचेताः ।
व्रजति शिवसमीपं किन्नरैः स्तूयमानः
स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम् ॥३८॥

३८. अगर कोई मनुष्य अपने दोनों हाथों को जोड़कर, भक्तिभावपूर्ण, इस स्तोत्र का पठन करेगा, तो वह स्वर्ग-मुक्ति देनेवाले, देवता और मुनिओं के पूज्य तथा किन्नरों के प्रिय ऐसे भगवान शंकर के पास अवश्य जायेगा । पुष्पदंत द्वारा रचित यह स्तोत्र अमोघ और निश्चित फल देनेवाला है ।

आसमाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गंधर्वभाषितम् ।
अनौपम्यं मनोहारिशिवमीश्वरवर्णनम् ॥३९॥

३९. पुष्पदंत गांधर्व द्वारा रचित, भगवान शिव के गुणानुवाद से भरा, मनमोहक, अनुपम और पुण्यप्रदायक स्तोत्र यहाँ पर संपूर्ण होता है ।

इत्येषा वाडमयी पूजा श्रीमच्छंकरपादयोः ।
अर्पिता तेन देवेशः प्रीयतां मे सदाशिवः ॥४०॥

४०. हे प्रभु ! वाणी के माध्यम से की गई मेरी यह पूजा आपके चरणकमलों में सादर अर्पित है । कृपया इसका स्वीकार करें और आपकी प्रसन्नता मुझ पर बनाये रखें ।

तव तत्त्वं न जानामि कीद्शोडसि महेश्वर ।
याद्सोडसि महादेव ताद्शाय नमो नमः ॥४१॥

४१. हे प्रभु!हे महेश्वर!मैं आपका सही स्वरूप नहीं पहेचानता,लेकिन आप जैसे भी है, जो भी है,मैं आपको प्रणाम करता हूँ ।

एककालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेन्नरः ।
सर्वपापविनिर्मुक्तः शिवलोके महीयते ॥४२॥

४२. अगर कोई मनुष्य यह स्तोत्र का (हररोज) केवल एक, दो या तीन बार भी पठन करेगा तो वह पवित्र और सर्व प्रकार के पाप से विमुक्त होकर शिवलोक में सुख और समृद्धि का हकदार होगा ।

श्री पुष्पदंतमुखपंकजनिर्गतेन
स्तोत्रेंण किल्बिहरेण हरप्रियेण ।
कंठस्थितेन पठितेन समाहितेन
सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः ॥४३॥

४३. अगर कोई मनुष्य पुष्पदंत के मुखपंकज से उदित, पाप का नाश करनेवाली, भगवान शंकर की अतिप्रिय यह स्तुति का पठन करेगा, गान करेगा या उसे सिर्फ अपने स्थान में रखेगा, तो भोलेनाथ शिव उन पर अवश्य प्रसन्न होंगे ।

प्रयाग के शिव मन्दिर

प्रयाग की पावनतम तीर्थ रूप में ख्याति ऋग्वेद काल से ही रही है। इसका मूल कारण है यहाँ पर भारत वर्ष की दो ज्येष्ठ नदियों का संगम गंगा और यमुना। यह प्रयाग तीर्थ मृत पुरूषों को मुक्त करने वाला माना जाता है। महाभारत में प्रयाग को सब तीर्थॊं में ज्येष्ठ बताया गया है। अग्निपुराण, पदमपुराण, सूर्यपुराण में प्रयाग को तीर्थ राज कहा गया है। विनयपत्रिका में कहा गया है कि गौतम बुद्ध प्रयाग होकर गये थे। प्रयाग में गौतम बुद्ध के आने का समय ई०पू ४५० है।

भरद्वाज आश्रम

भरद्वाज आश्रम में इस समय भरद्वाज ॠषि द्वारा स्थापित भरद्वाजेश्वर महादेव का शिवलिंग है जो अत्यन्त फलदायक एवं मनः कामना पूर्ण करने वाला है। इसके अतिरिक्त मन्दिर परिसर में अनेक छॊटे-छॊटे मन्दिर व सैकड़ों प्रतिमाएं हैं जिनमें मुख्य इस प्रकार हैं राम लक्ष्मण, महिषासुर मर्दिनी, सूर्य, शेषनाग, नर वाराह ।
महर्षि भरद्वाज आयुर्वेद के प्रथम कुलपति रहे हैं। मर्यादा पुरूषोत्तम राम वन जाते समय महर्षि भरद्वाज के आश्रम में जाकर उनके दर्शन किये और उपदेश ग्रहण किया था। इस समय यह आश्रम कहां था, यह तो अनुसंधान का विषय है, परन्तु वर्तमान में यह आनन्द भवन के समीप स्थित है। यहां भगवान शिव मंदिर के साथ ही भरद्वाज याज्ञवल्क्य तथा अन्य ऋषियों, देवी देवताओं की मूर्तियां हैं। भरद्वाज जी वृहस्पति पुत्र द्रोणाचार्य के पिता तथा बाल्मीकि के शिष्य थे। पहले यहाँ एक विशाल मंदिर था, जिसके शिखर पर दीप था, जिसे तोड़ डला गया। एक टीले पर स्थित आश्रम में भरतकुण्ड था जिसे कूड़े कर्कट से पाट दिया गया है।

नागवासुकी मन्दिर

वर्तमान नागवासुकी का प्रसिद्ध मन्दिर संगम के उत्तर में दारागंज के उत्तरी कोने पर गंगा तट पर स्थित है। नागवासुकी मन्दिर के गर्भगृह में जो प्रतिमाएं हैं, उसमें नाग नागिन की स्पर्श धारी मानवी प्रतिमा १०वीं शती की है। गणेश व पार्वती की भी प्रतिमाएं दर्शनीय हैं। मन्दिर के बाहर भीष्म पितामह की शर शय्या पर लेटी हुयी प्रतिमा है। मन्दिर परिसर में एक शिव मन्दिर भी है। नागवासुकी पर नागपंचमी के दिन बड़ा मेला लगता है और भारी संख्या में श्रद्धालु नागवासुकी के दर्शन करते हैं।
यहां पहुँचने के लिए, त्रिवेणी बांध, बक्शी बांध, तथा बांध के नीचे से निर्मित नव निर्मित सड़क से जाया जा सकता है। यहां भी नागराज तथा भीष्म पितामह की शराशैय्या पर लेटी हुई विशाल प्रतिमा है।

मनकामेश्वर मन्दिर

वर्तमान में यह मन्दिर किले के पश्चिम यमुना नदी के किनारे मिण्टो पार्क के पास स्थित है। मन्दिर में शिव जी का काले पत्थर का लिंग है। शिवलिंग के पास नन्दी बैल व गणेश जी की प्रतिमा है। मन्दिर परिसर में दो छॊटे-छॊटे मन्दिर हैं जिनमें शंकर जी के तीन और लिंग स्थापित हैं। हनुमान जी की भी प्रतिमा अत्यन्त भव्य है। मन्दिर परिसर से सटा हुआ एक अति प्राचीन पीपल का वृक्ष भी है। प्रत्येक सोमवार को यहाँ हजारों श्रद्धालु भगवान मनकामेश्वर की जलाभिषेक से पूजा करते हैं।
इलाहाबाद से लगभग ४० किमी दूर दक्षिण पश्चिम बारा तहसील के अन्तर्गत शिवजी का यह प्राचीन मन्दिर है। लगभग ८० फीट ऊँची छोटी पहाड़ी के पर यह शिवलिंग स्थापित है। पहाड़ी की रमणीयता दर्शनीय है। शिवलिंग ३ फीट लम्बा है। उसका व्यास नीचे की ओर कुछ अधिक व ऊपर क्रमशः कम है। बताया जाता है कि शिवलिंग जितना लम्बा ऊपर दिखाई पड़ता है उससे अधिक नीचे है। मनकामेश्वर का यह शिवलिंग भगवान श्री राम द्वारा चित्रकूट जाते वक्त स्थापित किया गया था। मन्दिर में शिवलिंग के अतिरिक्त छॊटी-छॊटी और कई मूर्तियाँ हैं। मन्दिर के नीचे विशाल बरगद व पीपल का वृक्ष तथा कुआँ है। यह स्थान लालापुर थाने से ४ किमी० पर नहर की पट्टी के पास स्थित है।

पड़िला महादेव

यह स्थान सोराँव तहसील में फाफामऊ कस्बे से ३ किमी उत्तर पूर्व में स्थित हैं। किंवदन्ती है कि श्री कृष्ण की सलाह पर यहाँ पाण्ड्वों ने भगवान शंकर के लिंग की स्थापना अपने वनवासकाल के दौरान किया था। यह मन्दिर पूर्ण रूप से पत्थरों से बना हुआ है। गजेटियर के अनुसार यहाँ शिवरात्रि व फाल्गुन कृष्ण १५ को मेला लगता है।

तक्षकेश्वर नाथ

तक्षकेश्वर भगवान शंकर का यह मन्दिर इलाहाबाद शहर के दक्षिणी क्षेत्र में दरियाबाद मुहल्ले में यमुना नदी के किनारे स्थित है। इस मन्दिर से थोड़ी दूर पर यमुना नदी में तक्षक कुण्ड् स्थित है। भगवान कृष्ण द्वारा मथुरा से भगाये जाने के पश्चात तक्षक नाग ने इसी स्थान पर वास किया था जो तक्षक कुण्ड् कहा गया। तक्षकेश्वर महादेव के लिंग के चारों ओर तांबे का अर्घ्य बना है। लिंग के ऊपर नागदेवता है। मन्दिर में गणेश, पार्वती व कार्तिकेय की छॊटी-छॊटी प्रतिमाएं हैं। बाहर नन्दी हैं। परिसर में हनुमान जी की मूर्ति है।

समुद्रकूप

वर्तमान में यह कूप गंगा के किनारे एक विशाल, उंचे टीले पर स्थित है। इस कूप का व्यास लगभग १५ फीट है। यह कूप पूर्ण रूप से पत्थरों से बना है। इस कूप के जगत पर विष्णु का पदचाप एवं शिवजी की मूर्ति है। समुद्रकूप का पूरा परिसर ५-६ फीट ऊँची ईंट की चहारदीवारी से घिरा है। समुद्रकूप जिस प्रांगण में स्थित है उसका क्षेत्रफल ४-५ एकड़ है। समुद्रकूप जिस टीले पर स्थित है उस पर जाने के लिए अब खड़न्जे की सड़क भी बना दी गई है। कुछ् विद्वानों के अनुसार इस कूप का निर्माण समुद्रगुप्त ने कराया था इसलिए इसे समुद्रकूप कहते हैं। कुछ लोगों के अनुसार इस कुएं में नीचे जल का स्तर समुद्र से मिलता था इसलिए इसे समुद्रकूप कहते हैं। समुद्रकूप के पास एक छॊटा आश्रम भी है जिसमें कुछ साधु-सन्त रहते हैं।

सोमेश्वर मन्दिर

वर्तमान में संगम के दक्षिण अरैल में सोमेश्वर महादेव का प्राचीन मन्दिर है। मन्दिर में भगवान शिव का छॊटा सा लिंग है। मन्दिर परिसर में ५ छॊटे-छॊटे और मन्दिर है जिनमें नर्मदेश्वर महादेव व हनुमान जी की मूर्तियाँ हैं।

पातालपुरी मन्दिर

यमुना के तट पर सम्राट अकबर द्वारा निर्मित किले के अन्तर्गत आंगन के पूर्व वाले द्वार की ओर भूमि स्तर के नीचे पातालपुरी मन्दिर बना हुआ है। इसमें दर्शनार्थी सीढियों से नीचे उतरते हैं। नीचे मन्दिर में लम्बा कक्ष बना हुआ है। कक्ष में अनेक खम्भे भी लगे हुए हैं। कक्ष में तथा दीवारों में देवताओं की मूर्तियाँ स्थापित हैं। इनकी संख्या ४४ है। कक्ष के मध्य में शिवलिंग है। पातालपुरी मन्दिर का जीर्णोद्धार सन १७३५ ई में वाजीराव पेशवा ने करवाया था। कुछ इतिहासकारों के अनुसार यहाँ पर स्थापित मूर्तियाँ गुप्तकालीन है। कुछ प्रतिमाएं १७-१८वीं शताब्दी की भी हैं। एसी किंवदन्ती है कि वनवास की अवधि में भगवान राम भी यहाँ आये थे।

शिवकुटी

इलाहाबाद शहर के उत्तरी छोर पर गंगा के किनारे शिवकुटी का मन्दिर व आश्रम स्थित है। यहाँ पर श्री १००८ श्री नारायण प्रभु का आश्रम है। इसकी स्थापना श्री नारायण महाप्रभु ने १९४८ में की थी। यहाँ पर लक्ष्मी नारायण का भव्य मन्दिर है। उसमें गणेश व लक्ष्मी की मूर्तियाँ भी हैं। सभी मूर्तियाँ संगमरमर की बनी हैं। आश्रम परिसर में दुर्गा जी का एक मन्दिर है। हर वर्ष शिवकुटी के मेले के नाम से यहाँ श्रावण मास में विशाल मेला लगता है।

कमौरी नाथ महादेव

यह शिव मन्दिर इलाहाबाद के सूरजकुण्ड मुहल्ले के पास रेलवे कालोनी में स्थित है। यहाँ पर पंचमुखी महादेव की मूर्ति है। १८५९ ई में रेलवे लाइन के बनते समय भी यह मन्दिर था, जिसके कारण रेलवे लाइन को टेढा़ करना पड़ा था। कहा जाता है कि भगवान शंकर ने कामदेव का यहाँ वध किया था, जिसके कारण इन्हें कामारि (कमौरी) महादेव कहते हैं। मन्दिर के सामने एक कुआँ व पीपल का पेड़ है। शिवरात्रि को यहाँ काफी भीड़ होती है।

भीटा धनुहा सुजावन देव

यह स्थान घूरपुर से ३ किमी पश्चिम यमुना नदी के किनारे है। यहाँ पर शंकर और यम की बहन यमुना का मन्दिर है। यह मन्दिर यमुना नदी में बना हुआ है। मन्दिर के नीचे उत्तर की ओर पाँच पाण्ड्वों की मूर्तियाँ भी हैं। यम द्वितिया के दिन यहाँ पर बहुत बड़ा मेला लगता हैं।

बरगद घाट शिव मन्दिर

इलाहाबाद नगर में मीरापुर के पास यमुना नदी के तट पर बरगद घाट पर एक छोटा सा शिव मन्दिर है। यहाँ पर ताँबे के अर्घ्य में काले पत्थर का शिवलिंग है। शिवलिंग के ऊपर सर्प का फण है। मन्दिर परिसर में एक पुराना बरगद का पेड़ है जिसके बारे में कहा जाता है कि वह पेड़ हजारों वर्ष पुराना है। प्रांगण में चार पीपल के पेड़ भी हैं। मन्दिर परिसर के परी हिस्से में हनुमान जी की पत्थर की लेटी हुई प्रतिमा है।

सिद्धेश्वरी पीठ

यह वर्तमान में इलाहाबाद के सिविल लाइन्स बस अड्ङे के सामने स्थित है। यहाँ एक छॊटा सा मन्दिर है। जिसमें भगवान शंकर, अष्टभुजा देवी व हनुमान जी की प्रतिमाएं हैं।

शंकर विमान मण्ड्पम

कांची कामकोटी पीठ के शंकराचार्य चन्द्रशेखरेन्द्र सरस्वती की प्रेरणा से यह मन्दिर मार्च १९८६ ई में बनकर तैयार हुआ। इसका उद्घाटन शंकराचार्य जयेन्द्रसरस्वती ने किया। द्रविड़ियन वास्तु शास्त्र का यह मन्दिर १६ बड़े खम्भों पर बना है। संगम तट पर बना यह मन्दिर तीन मंजिला है। इसकी ऊँचाई १३० फीट है। यह मन्दिर १६ वर्ष में बनकर तैयार हुआ है। इस मन्दिर में कामाक्षी, बालाजी व शिवजी की मूर्तियाँ स्थापित हैं। शिव की मूर्ति में एक सहस्र लिंग बने हुए हैं। यहाँ पर स्थापित शंकर जी की मूर्ति का वजन १० टन है। प्रयाग के माघ मेले में आने वाले श्रद्धालु यहाँ पर भी दर्शन पूजन करते हैं। मन्दिर अत्यन्त भव्य व विशाल है। इस मन्दिर के हर तल से संगम का दृश्य बड़ा ही मनोरम दिखाई पड़ता है। इस मन्दिर के पास अपनी एक गोशाला भी है।

शंकर मन्दिर महुआँव

इलाहाबाद के मेजा तहसील के दक्षिणी भाग में कोराँव से ८ किमी उत्तर पश्चिम कोराँव कौड़हार मार्ग पर यह ऎतिहासिक मन्दिर स्थित है। यह मन्दिर तालाब के किनारे भीटे पर है। शंकर जी की मूर्ति काले पत्थर की है। यहाँ पर एक पुराना पीपल का वृक्ष भी है।

शंकर मन्दिर जमसोत

यह ११वीं शताब्दी का कलचुरि राज्य काल का मन्दिर है। यह लपरी नदी के किनारे कोराँव से पश्चिम उत्तर दिशा में लगभग १५ किमी पर स्थित है। वर्तमान में यह मन्दिर जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है। यहाँ पर प्राप्त कई मूर्तियाँ इलाहाबाद संग्रहालय में सुरक्षित है। जमसोत से प्राप्त गुप्तकालीन महिला की पत्थर की मूर्ति स्टेट म्यूजियम लखनऊ में रक्खी हुई है।

लोकनाथ मन्दिर

यह मन्दिर इलाहाबाद नगर के प्राचीन मुहल्ले लोकनाथ में स्थित है। शिवलिंग के पर तांबे का नाग फन फैलाए है। मन्दिर परिसर में सिंहवाहिनी दुर्गा की संगमरमर की प्रतिमा है। मन्दिर प्रांगण में एक पुराना कुआं है।

कुनौरा महादेव

यह स्थान हण्डि्या बाजार से १२ किमी उत्तर में है। यहाँ पर एक तालाब के किनारे उत्तर की ओर शंकर जी का प्राचीन मन्दिर है। यहाँ पर एक हनुमान जी का भी मन्दिर है। तालाब व मन्दिर के पास एक अति प्राचीन बरगद का विशाल वृक्ष भी है।

पत्थर शिवाला मन्दिर

यह मन्दिर इलाहाबाद नगर के खुल्दाबाद सब्जीमंडी मुहल्ले में पुराने जी टी रोड पर स्थित है। इसमें काले पत्थर का शंकर जी का लिंग है। पूरा मन्दिर पत्थरों से बना है। इसमें अदभुत शिल्पकारी की गई है। शिल्प कला की दृष्टि से इलाहाबाद में यह अद्वितीय मन्दिर है।

शंकर मन्दिर बोलन

मेजा तहसील के पूरब आधा फलरंग पर विन्ध्य पर्वत के मुहाने पर एक बहुत बड़ा तालाब है, जिसमें पहाड़ के झरने से जल आता है। तालाब में आज भी कमल के फूलों का बाहुल्य है। तालाब के किनारे शंकर जी का प्राचीन मन्दिर है। जिसमें कुछ मूर्तियाँ भग्न अवस्था में भी हैं। कहा जाता है कि यहां पर शिवलिंग की स्थापना पाण्डुपुत्रों ने की थी। बोलन तालाब से जुड़ी बाउली को लोग बाणगंगा के नाम से पुकारते हैं। कहा जाता है कि अर्जुन ने अपने बाण के प्रहार से पर्वत फाड़कर भीम को हिड्मिबा का तर्पण करने के लिए शुद्धजल उपलब्ध कराया था। तभी से इसे लोग बाण गंगा कहते हैं। बाण गंगा में विषधर सर्प भी बहुत अधिक संख्या में पाये जाते हैं।

शाश्वमेध मन्दिर

दारागंज में गंगाजी के बिल्कुल किनारे दशाश्वमेध घाट पर यह अत्यन्त प्राचीन व विशाल मन्दिर है। मन्दिर गंगाजी के सतह से काफी ऊँचाई पर है। मन्दिर के मुख्य गर्भगृह में दो लिंग हैं। मन्दिर में अपूर्ण देवी व हनुमान जी की भी प्रतिमा है। दोनों लिंगों के सामने नन्दी बैल स्थित है। मन्दिर परिसर में शेषनाग, दुर्गाजी, पार्वती, कार्तिकेय, गणेश, राम, लक्ष्मण व सीता की भी प्रतिमाएं हैं। मन्दिर की दीवारों पर शिवमहिम्नस्तोत्र व अन्य शिव स्तुतियाँ संगमरमर पर उल्लिखित हैं।

दरबेश्वरनाथ मन्दिर

यह मन्दिर जानसेनगंज में चौक के पास स्थित है। मन्दिर में तीन शिवलिंग हैं। आनन्दी माता शीतला माँ की प्रतिमा भी है।

बन्दर शिवाला

शंकर जी का यह मन्दिर इलाहाबाद नगर के त्रिपोलिया व महाजनी टोला के बीच में स्थित है। पूरा मन्दिर पत्थर का बना हुआ है। यह मन्दिर संवत १९२३ में बना था। इस मन्दिर के पर मुड़ेरों पर चारों तरफ बन्दर की मूर्तियाँ बनी हुई हैं। इसलिए इसे बन्दर शिवाला कहते हैं। सात घोड़ों वाले रथ पर सवार सूर्य भगवान की भी प्रतिमा है। संगमरमर का नन्दी बना हुआ है।

बहुरहे महादेव

सम्पूर्ण रूप से पत्थरों से निर्मित शंकर जी का यह प्राचीन मन्दिर इलाहाबाद नगर के ऊँचामण्डी मुहल्ले में है। लोकचर्चा के अनुसार औरंगजेब ने शंकर जी के लिंग के पर तलवार से प्रहार किया था। उसका चिन्ह आज भी है। इस परिसर में बहुरहे महादेव के अतिरिक्त दो छॊटे-छॊटे और मन्दिर हैं।

गंगा यमुना सरस्वती धाम

यह आश्रम गंगा तट पर झूंसी में स्थित है। आश्रम में ५४ फीट लम्बी हनुमान जी की खड़ी प्रतिमा भक्तों के लिए विशेष आकर्षक का केन्द्र है। यहाँ पर एक विशाल शिव मन्दिर भी बना है। मन्दिर में १११ शिवलिंग हैं।

विजयानाथ महादेव

तहसील बारा के ग्राम देवरा में विजयानाथ महादेव का मन्दिर है। यह ग्राम म०प्र० की सीमा से लगा हुआ है। इस मन्दिर में विशाल शिवलिंग है।

पंचमुखी महादेव

भगवान शंकर का यह मन्दिर बलुआ घाट तिलकनगर मुट्ठीगंज में है। मन्दिर के मुख्य गर्भगृह में एक ही अर्घ्य के भीतर पाँच एकसदृश शिवलिंग है। सभी शिवलिंग काले पत्थर के हैं। जनश्रुति के अनुसार जब इन लिंगों की स्थापना हुई तब से लगातार शनैः-शनैः उनके आकार में वृद्धि हो रही है। बताया जाता है कि यह मन्दिर २०० वर्ष पुराना है, बीच में इसका जीर्णाद्धार कराया गया है। मन्दिर परिसर में एक दर्जन छॊटे-छॊटे पत्थर के शिव मन्दिर और हैं। एक मन्दिर हनुमान जी का भी है। पंचमुखी महादेव का मुख्य मन्दिर काफी ऊँचाई पर बना हुआ है। स्थानीय लोगों में इस मन्दिर की बहुत अधिक मान्यता है।

बेलनाथ

भीटी रेलवे स्टेशन बरौत के दक्षिण आधा किमी० पर शंकर जी का मन्दिर है। यहाँ पर शिवलिंग को विशेष रूप से दूध चढ़ाते हैं। हर सोमवार को श्रद्धालुओं की भीड़ होती है। श्रद्धालुओं में महिलाओं की संख्या अधिक होती है।

बागेश्वर -आध्यात्मिक शहर

अल्मोरा से 90 किमी की दुरी पर स्थित बागेश्वर अपने धार्मिक रीती-रिवाजों के लिए बहुत प्रसिद्द है| यहाँ पर्तिवर्ष कई धार्मिक त्योंहारों, धार्मिक मेलों का आयोजन होता है, जिसमें देश- विदेश के बहुत से लोग शामिल होते हैं| वर्तमान मैं बागेश्वर मैं सुन्दर्धुन्गा, पिन्दारी एवं कफनी जैसे सुंदर ग्लेशियर हैं| इन्हीं ग्लेशिरों के कारण यहाँ बहुत प्रकार के क्रीडा का आयोजन होता है| जिसमे प्रतिभागी बड़े ही साहसिक खेलों का जोहर दिखता है, जिसके कारण इसे साहसिक पर्यटक स्थल के नाम से भी जाना जाता है|

बागेश्वर का इतिहास बहुत ही पुराना है| स्कन्द पुरान के मानस खंड मैं यहाँ के विभिन्न स्थानों का उल्लेख किया है| पौराणिक कथाओं मैं बागेश्वर का बहुत ही सुंदर वरण हुआ है, उनके अनुसार बागेश्वर भगवान् शम्भू (शिव) की लीला स्थल था| बागेश्वर की स्थापना शिव गण चंदिस ने शिव के आदेश पर दूसरी कशी के रूप मैं की थी तदुपरांत इसे शिव पार्वती ने अपने निवास स्थान बनाया| शिव की कृपा से आस्मां से शिव लिंग उत्पन्न हुआ जिसे मुनियों ने बगिश्वर के रूप मैं उनकी पूजा की| कथाओं के अनुसार सरयू, गोमती, सरस्वती की संगम्स्थाली बागेश्वर मैं मृत्यु प्राप्त मनुष्य मुक्ति को प्राप्त होता है|

स्कंद्पुरान के अनुसार ऋषि मार्कंडेय जी ने यहाँ तपस्या की थे| वशिष्ठ जी जब भगवान् विष्णु की मनास्पुर्ती सरयू को लेकर आए तब ऋषि सारकंडेय जी कारन सरयू को बदने से रुकना पड़ा| शिव पार्वती ने ब्याघ्र का रूप रखकर तपस्यारत ऋषि से सरयू को मार्ग दिलाया| क्योंकि ऋषि तपस्या कर रहे थे सो उनकी तपस्या भंग न हो और सरयू को मार्ग मिल जाए| जिसके कारण इसका नाम ब्याघ्रेश्वर पड़ा, जो बाद मैं बागेश्वर के नाम से सम्भोधित हुआ|

बागेश्वर मैं पर्तिवर्ष उतरैणी का मेले का आयोजन किया जाता है| जिसमे प्रतिवर्ष बहुत से लोग मेले मैं आकर आनंद उठाते हैं, जो की माघ के महीने मैं मनाया जाता है| पौराणिक कथाओं के अनुसार बागेश्वर की भूमि पर उनका पूर्ण स्वामित्व था जिसकी आय से मंदिरों का रख रखाव किया जाता था, बागनाथ के मन्दिर मैं उन्होंने पुजारी की व्यस्था की थी जो मन्दिर के देखरेख किया करता था| पूर्व मैं मेलों मैं दूर-दूर से व्यापारी यहाँ आते थे और बहुत मात्रा मैं सामान की खरीद फरोख किया करते थे| यहाँ नेपाल के व्यापारी आया करते थे, तिब्बत के व्यापारी नमक, चंवर, पशुओं की खाल लेकर आते थे| भोटिया लोग गलीचे, जड़ी-बूटी, कम्बल इत्यादी लेकर आते थे, स्थानिये व्यापार भी अपने चरम सीमा पर था| दाल, सूप, तांबे के बर्तन, जुटे, चटाइन इत्यादी लेकर आते थे और बेचते थे| गुड़ की भेली से लेकर मिश्री और चूड़ी चरेऊ से लेकर टिकूली बिन्दी तक की खरीते थे|

दर्शनीय मन्दिर

बागनाथ का मन्दिर
बागनाथ मन्दिर मैं प्रतिवर्ष मेले का आयोजन किया जाता है| यह प्राचीन मन्दिर सरयू और गोमती नदी के संगम पर बसा है| यह मन्दिर भगवान् शिव का मन्दिर है| इस मेल मैं पहाड़ एवं गडवाल से हजारों संख्या मैं लोग पहुँचते हैं|

बैजनाथ मंदिर

गोमती के तट पर कत्युर घाटी मैं स्थित है, जो बागेश्वर से 22 किमी की दुरी पर स्थित है| इस मन्दिर का निर्माण 13 वीं शताब्दी मैं हुआ| इस मन्दिर मैं शिव, पार्वती और उनके पुत्र गणेश की मूर्तियां प्रमुख हैं| प्राचीन काल की कीमती मूर्तियाँ यहाँ हैं जो पुरातत्व विभाग की निगरानी मैं रखे गए हैं|
बागनाथ मंदिरः यह प्राचीन मंदिर सरयू और गोमती नदियों के संगम पर शहर के बीचो-बीच में स्थित है। यह भगवान शिव को समर्पित है। यहां शिवरात्रि के दौरान वार्षिक मेले का आयोजन किया जाता है। इस दौरान पूरे कुमायूं और गढ़वाल पहाड़ियों से बड़ी संख्या में लोग शहर पहुंचते हैं। इस मन्दिर मैं शिव, पार्वती, इकमुखी और चतुर्मुखी, शिव लिंग, त्रिमुखी शिव, गणेश, विष्णु, सरयू आदि देवी-देवताओं की मूर्तियां हैं जो बहुत ही प्राचीन हैं|
टोटा शिव मंदिरः लोगों का कहना है की इस मन्दिर का निर्माण पांडवो ने किया था| यह मन्दिर सनेती के पास बना है जो अपने मैं एक रहस्य है| इस मन्दिर को लोग शिव मन्दिर के नाम से संबोधित करते हैं, परन्तु इस मन्दिर मैं कोई शिव लिंग नहीं है| और इस मन्दिर मन कोई श्रद्धालु पूजा नहीं करता है|

चंद्रिका मंदिर

यह मन्दिर देवी चन्द्रिका का है जिसे दुर्गा भी कहते हैं| नव रात्रि के अवसर पर यहाँ पर लोग पशुओं की बलि देकर देवी को प्रसन्न करतें हैं, और मुराद मागते हैं| इसको लोग बड़े हर्षोल्लास से मनाते हैं| यह मन्दिर बागेश्वर से लगभग 500 किमी की दुरी पर स्थित है|

कोटे की माई

बैजनाथ से मात्र 3 किलोमीटर पर कोटे की माई का मंदिर है। इस मन्दिर मैं भगवान् विष्णु की सुंदर मूर्ति विराजमान है| लोग यहाँ पूर्ण शारदा से पूजा अर्चना करते हैं| जो भी श्रद्धालु बैजनाथ मन्दिर के दर्शन के लिए आता है वे कोटे की माई के दर्शन करने को जरुर जाते हैं|

शुक्रवार, 28 नवंबर 2008

पौराणिक तीर्थ गढ़मुक्तेश्वर

काशी, प्रयाग, अयोध्या आदि तीर्थों की तरह "गढ़मुक्तेश्वर" भी पुराण चर्चित तीर्थ है। शिवपुराण के अनुसार गढ़मुक्तेश्वर का प्राचीन नाम "शिववल्लभ" (शिव का प्रिय) है, किन्तु यहां भगवान मुक्तीश्वर (शिव) के दर्शन करने से अभिशप्त शिवगणों की पिशाच योनि से मुक्ति हुई थी, इसलिए इस तीर्थ का नाम "गढ़मुक्तीश्वर" (गणों की मुक्ति करने वाले ईश्वर) विख्यात हो गया. पुराण में भी उल्लेख है- गणानां मुक्तिदानेन गणमुक्तीश्वर: स्मृत:।

शिवगणों की शापमुक्ति की संक्षिप्त कथा इस प्रकार है-
प्राचीन समय की बात है क्रोधमूर्ति महर्षि दुर्वासा मंदराचल पर्वत की गुफा में तपस्या कर रहे थे. भगवान शंकर के गण घूमते हुए वहां पहुंच गये. गणों ने तपस्यारत महर्षि का कुछ उपहास कर दिया. उससे कुपित होकर दुर्वासा ने गणों को पिशाच होने का शाप दे दिया. कठोर शाप को सुनते ही शिवगण व्याकुल होकर महर्षि के चरणों पर गिर पड़े और प्रार्थना करने लगे. उनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर दुर्वासा ने उनसे कहा- हे शिवगणो! तुम हस्तिनापुर के निकट खाण्डव वन में स्थित शिववल्लभ क्षेत्र में जाकर तपस्या करो तो तुम भगवान आशुतोष की कृपा से पिशाच योनि से मुक्त हो जाओगे. पिशाच बने शिवगणों ने शिववल्लभ क्षेत्र में आकर कार्तिक पूर्णिमा तक तपस्या की. उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने कार्तिक पूर्णिमा के दिन उन्हें दर्शन दिए और पिशाच योनि से मुक्त कर दिया. तब से शिववल्लभ क्षेत्र का नाम गणमुक्तीश्वर पड़ गया. बाद में गणमुक्तीश्वर का अपभ्रंश गढ़मुक्तेश्वर हो गया. गणमुक्तीश्वर का प्राचीन ऐतिहासिक मंदिर आज भी इस कथा का साक्षी है.
इस तीर्थ को काशी से भी पवित्र माना गया है, क्योंकि इस तीर्थ की महिमा के विषय में पुराण में उल्लेख है- "काश्यां मरणात्मुक्ति: मुक्ति: मुक्तीश्वर दर्शनात्" अर्थात् काशी में तो मरने पर मुक्ति मिलती है, किन्तु मुक्तीश्वर में भगवान मुक्तीश्वर के दर्शन मात्र से ही मुक्ति मिल जाती है. इसलिए यह तीर्थ प्राचीन काल से ही श्रद्धालुओं की आस्था का केन्द्र रहा है, जो अपनी पावनता से श्रद्धालुओं को लुभाता रहा है. पुराणों में उल्लेख है कि कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी से लेकर पूर्णिमा तक गंगा-स्नान करने का यहां विशेष महत्व है और विशेष कर पूर्णिमा को गंगा स्नान कर भगवान गणमुक्तीश्वर पर गंगाजल चढ़ाने से व्यक्ति पापों से मुक्त हो जाता है. पुराणों की यह भी मान्यता है कि कार्तिक मास में गंगा स्नान के पर्व के अवसर पर गणमुक्तीश्वर तीर्थ में अग्नि, सूर्य और इन्द्र का वास रहता है तथा स्वर्ग की अप्सरायें यहां आकर महिलाओं व विशेष कर कुमारियों पर अपनी कृपा-वृष्टि करती हैं, अत: यहां स्नान हेतु कुमारी कन्याओं के आने की पुरानी परम्परा है.
इसी महत्व के कारण यहां प्रत्येक वर्ष कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष में एकादशी से लेकर पूर्णिमा तक एक पखवारे का विशाल मेला लगता है, जिसमें दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, पंजाब आदि राज्यों से लाखों श्रद्धालु मेले में आते हैं और पतित पावनी गंगा में स्नान कर भगवान गणमुक्तीश्वर पर गंगाजल चढ़ाकर पुण्यार्जन करते हैं. यहां मुक्तीश्वर महादेव के सामने पितरों को पिंडदान और तर्पण (जल-दान) करने से गया श्राद्ध करने की जरूरत नहीं रहती. पांडवों ने महाभारत के युद्ध में मारे गये असंख्य वीरों की आत्मा की शांति के लिए पिंडदान यहीं मुक्तीश्वरनाथ के मंदिर के परिसर में किया था. यहां कार्तिक शुक्ला चतुदर्शी को पितरों की शांति के लिए दीपदान करने की परम्परा भी रही है सो पांडवों ने भी अपने पितरों की आत्मशांति के लिए मंदिर के समीप गंगा में दीपदान किया था तथा कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी से लेकर पूर्णिमा तक यज्ञ किया था. तभी से यहां कार्तिक पूर्णिमा पर मेला लगना प्रारंभ हुआ. वैसे तो कार्तिक पूर्णिमा पर अन्य नगरों में भी मेले लगते लैं, किन्तु गढ़मुक्तेश्वर का मेला उत्तर भारत का सबसे बड़ा मेला माना जाता है.
इन दिनों यह मेला गढ़मुक्तेश्वर कस्बे से लगभग 6 किलोमीटर दूर उत्तर दिशा में गंगाजी के विस्तृत रेतीले मैदान में लगभग 7 किलोमीटर के क्षेत्र में लगता है, जिसे अनेक संतरों में विभाजित कर मेला यात्रियों के ठहरने का समुचित प्रबंध किया जाता है. मेले में सर्कस, चलचित्र आदि मनोरंजन के भरपूर साधन रहते हैं. इनके अतिरिक्त विभिन्न सम्प्रदायों व अखाड़ों के कैम्प लगते हैं, जिनमें विभिन्न धर्मों के धर्मगुरु, संत-महात्मा पधार कर मानव एकता, आत्मीयता एवं देश-प्रेम से ओत-प्रोत धार्मिक व्याख्यानों से जनता को रसमग्न करते है. इससे 'अनेकता में एकता' के सूत्र में बंधने की भावना साकार हो उठती है.
आज के उपेक्षित गढ़मुक्तेश्वर का इतिहास वैभवशाली रहा है. पहले इस शहर के चारों ओर चार सिंहद्वार थे और उत्तर में इस तीर्थ का स्पर्श करती हुई पतित पावनी भागीरथी अपनी चंचल तरंगों से कलकल ध्वनि करती हुई बहती थी और इस तीर्थ की पावनता में चार चांद लगाए रहती थी. उन दिनों गांगा के किनारे मुक्तीश्वर महादेव के मंदिर से लेकर गंगा मंदिर तक भव्य मंदिरों की कतार थी, जिनमें सुबह-शाम घंटों और शंखों की ध्वनि, स्तोत्र-पाठ एवं आरतियों से गंगा का किनारा देवलोक सा प्रतीत होता था.
महाभारत काल में गढ़मुक्तेश्वर पांडवों के राज्य की राजधानी हस्तिनापुर का एक हिस्सा था और गंगा के जल मार्ग से व्यापार का मुख्य केन्द्र था. उन दिनों यहां इमारती लकड़ी, बांस आदि का व्यापार होता था, जिसका आयात दून और गढ़वाल से किया जाता था. इसके साथ ही यहां गुड़-गल्ले की बड़ी मंडी थी. यहां का मूढा़ उद्योग भी अति प्राचीन है. यहां के बने मूढे़ कई देशों में निर्यात किए जाते रहे हैं. इस उद्योग को अपने चरम पर होना चाहिए था, किन्तु सरकार की उपेक्षा के कारण यह उद्योग अंतिम सांसें ले रहा है.
शास्त्रों में गढ़मुक्तेश्वर की सीमा दो कोस की बतलाई गई है. कार्तिक मास में इस तीर्थ की परिक्रमा करने से मनुष्य सब पापों से मुक्त होकर मुक्ति का अधिकारी हो जाता है. परिक्रमा करते समय पग पग पर कपिला गोदान करने का पुण्य प्राप्त होता है. इस तीर्थ में जप, तप और दान करने से अक्षय पुण्य प्राप्त होता है. भगवान परशुराम ने खाण्डव वन में जो पांच शिवलिंग स्थापित किए थे, उनमें से तीन शिवलिंग गढ़मुक्तेश्वर क्षेत्र में ही हैं- पहला शिवलिंग मुक्तीश्वर महादेव का, दूसरा मुक्तीश्वर महादेव के पीछे झारखण्डेश्वर महादेव का और तीसरा शिवलिंग कल्याणेश्वर महादेव का है.
गणमुक्तीश्वर महादेव का मंदिर
यह मंदिर गढ़मुक्तेश्वर कस्बे के उत्तरी छोर पर स्थित है. यहां भगवान शिव के दर्शन से शापग्रस्त शिवगणों को पिशाच योनि से मुक्ति प्राप्त हुई थी, इसी कारण शिववल्लभ तीर्थ का नाम गणमुक्तीश्वर पड़ गया. मुक्तीश्वर महादेव का मंदिर श्रद्धालुओं की आस्था का केन्द्र है. इस मंदिर के प्रांगण में एक प्राचीन बाबड़ी है, जो नृगकूप के नाम से प्रसिद्ध है. इसके विषय में महाभारत में उल्लेख है कि दानवीर महाराज नृग भूलवश किये एक छोटे से अपराध के कारण गिरगिट बन गये थे. गिरगिट की योनि से मुक्त होने पर उन्होंने यज्ञ कराया और यज्ञशाला के निकट ही, जिस स्थान पर वे गिरगिट बनकर पड़े रहे, वहां एक कूप बनवाया, जो नृगकूप के नाम से प्रसिद्ध है. उस नृगकूप को आज 'नक्का कुआं' के नाम से जाना जाता है.
झारखंडेश्वर महादेव
मुक्तीश्वर महादेव मंदिर के पीछे जंगल में झारखंडेश्वर महादेव का विशाल शिवलिंग पीपल के वृक्ष की जड़ में प्रतिष्ठित है. कहा जाता है कि इस मंदिर में लगातार 40 दिन दीप जलाने से श्रद्धालु की मनोकामना पूर्ण हो जाती है. किन्तु लगातार 40 दिन तक दीप जला पाना सहज कार्य नहीं है, क्योंकि बीच में बाधा उपस्थित हो जाती है. कई लोगों से सुना है कि जब चालीस दिन पूरे होने को होते हैं, तब वहां नियमित दीप जलाने गये श्रद्धालुओं को द्वार पर विशाल सर्प बैठा हुआ दिखाई दिया, जिससे भयभीत होकर वे वापस लौट आये. लगभग दो वर्ष पहले तक वहां शिवलिंग के चारों तरफ सिर्फ तीन फुट ऊंची दीवार ही बनी थी और चारों तरफ जंगल था, किन्तु भगवान झारखंडेश्वर की प्रेरणा से किसी श्रद्धालु ने वहां मंदिर बनवा दिया है. मं‍दिर बनाते समय झारखंडेश्वर शिवलिंग और प्राचीन पीपल के वृक्ष के स्वरूप को ज्यों का त्यों रहने दिया गया है. मुक्तीश्वर महादेव के मंदिर से झारखंडेश्वर मंदिर तक जाने के लिए पक्का मार्ग बनवाया गया है तथा श्रद्धालुओं को धूप, वर्षा के कष्ट से बचाने के लिए मार्ग पर टीनशेड भी पड़ा हुआ है तथा विद्युत प्रकाश की भी व्यवस्था है.
कल्याणेश्वर महादेव का मंदिर
यह मंदिर गढ़मुक्तेश्वर के प्रसिद्ध मंदिर मुक्तीश्वर महादेव से चार किलोमीटर की दूरी पर उत्तर दिशा में वन क्षेत्र में स्थित है. भगवान शिव का यह मंदिर आने में कई रहस्यों को छिपाए हुए है, जिनके कारण इस मंदिर की दूर-दूर तक प्रसिद्धि है. इस मंदिर की विशेषता यह है कि यहां भक्तों द्वारा शिवलिंग पर चढ़ाया हुआ जल और दूध भूमि में समा जाता है. न जाने वह जल कहां समा जाता है, इस रहस्य का पता आज तक नहीं चल पाया है. सुना जाता है कि एक बार अपने समय के प्रसिद्ध राजा नल ने यहां शिवलिंग का जलाभिषेक किया था, किन्तु उनके देखते ही देखते शिव पर चढ़ाया जल भूमि में समा गया. यह चमत्कार देखकर राजा नल चौंक गए और उन्होंने इस रहस्य को जानने के लिए बैलगाड़ी से ढुलवा कर हजारों घड़े गंगाजल शिवलिंग पर चढ़ाया, पर वह सारा जल कहां समाता गया, राजा नल इस रहस्य का पता न लगा पाये. अंत में अपनी इस धृष्टता की भगवान शिव से क्षमा मांग कर अपने देश को लौट गए.
महारानी कुंती के पुत्र पांण्डवों ने भी झारखंडेश्वर मंदिर में पूजन-यज्ञ किया था. मराठा छत्रपति शिवाजी ने भी यहां तीन मास तक रुद्रयज्ञ किया था. भक्तों की मनोकामना पूर्ति के लिए कल्याणेश्वर महादेव का मंदिर दूर-दूर तक विख्यात है. यह शिव भक्तों की आस्था का केन्द्र होने के कारण यहां शिवभक्तों का आगमन लगा ही रहता है, किन्तु श्रावणमास में आने वाली शिवरात्रि और फाल्गुन मास की महाशिवरात्रि पर तो इस मंदिर में शिवभक्तों का सैलाव उमड़ पड़ता है.
इस चर्चित पौराणिक और ऐतिहासिक शिव मंदिरों के अतिरिक्त कई अन्य मंदिर भी प्रसिद्ध हैं, जिनमें से गंगा मंदिर विशेष उल्लेखनीय है.
गंगा मंदिर
मुक्तीश्वर महादेव मंदिर के सामने लगभग आधा किलोमीटर दूर एवं ऊंचे टीले पर प्राचीन ऐतिहासिक गंगा मंदिर है. इसमें भगवती गंगाजी की भव्याकर्षक आदमकद प्रतिमा है और एक अमूल्य एवं अद्भुत शिवलिंग है. शिवलिंग में हर वर्ष एक गांठ फूटती है, जो शिव की अलग-अलग आकृति का रूप ले लेती है. आज के वैज्ञानिक युग में यह अद्भुत चमत्कार है. बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी इस रहस्य को नहीं जान पाए हैं. सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी एक प्रतिमा पुष्कर तीर्थ में ब्रह्माजी के मंदिर में है और दूसरी प्रतिमा इस गंगा मंदिर में है. कहते हैं कि यह मंदिर हजारों वर्ष पुराना है. सन 1900 तक गंगाजी इस मंदिर का स्पर्श करती हुई बहती थीं. गंगा मंदिर के दायें-बायें ऊंची ढाय (गंगा का किनारा) आज भी मौजूद है. गंगा की धारा से स्नानार्थियों को मंदिर तक पहुंचने के लिए 101 सीढ़ियां बनाई गई थीं, जिनमें से 17 सीढ़ियां मिट्टी में दब चुकी है, अब केवल 84 सीढ़ियां ही शेष हैं. जहां कभी इन सीढ़ियों से गंगा की पावन धारा टकराती हुई बहती थी, वहां आज पक्की सड़क है. अब गंगाजी इस मंदिर से लगभग 6 किलोमीटर दूर बहती हैं. गंगा मंदिर से कुछ ही दूरी पर शिवाजी के किले के खण्डहर हैं. यह किला मराठा शासन की चौकी के रूप में था.
गढ़मुक्तेश्वर तीर्थ पौराणिक और ऐतिहासिक मंदिरों के साथ-साथ विद्या का भी गढ़ रहा है. सन 1909 में यहां गंगा के किनारे मस्तराम की कुटी नामक स्थान पर मध्यमा पर्यंत संस्कृत विद्यालय की स्थापना हुई, जिसके संस्थापक और प्रधानाचार्य हरियाणा निवासी श्री चन्द्रमणिजी थे. सन 1932 में गंगा में आई भीषण बाढ़ में वह विद्यालय बह गया. उसके बाद कस्बे में पंचमंजिली धर्मशाला में विद्यालय चलने लगा. श्री चन्द्रमणिजी के परलोकवासी हो जाने पर सन 1944 में श्रीसांगवेद महाविद्यालय नरवर (बुलंदशहर) के रत्न, विद्वान शिरोमणि, शास्त्रार्थ महारथी, नव्य न्याय व्याकरण वेदान्ताचार्य श्री पं. सत्यव्रत शर्मा इस विद्यालय के प्रधानाचार्य के पद पर आसीन हुए. प्रधानाचार्य के पद से श्रीसत्यव्रत शर्मा का गौरव नहीं बढ़ा, अपितु विद्वान आचार्य के पदासीन होने से प्रधानाचार्य के पद का गौरव बढ़ा. उन्होंने अपने अथक प्रयास और परिश्रम से इस माध्यमिक विद्यालय को आचार्य पर्यन्त महाविद्यालय की मान्यता प्राप्त कराई. इतना ही नहीं, हर वर्ष अच्छा परीक्षाफल देकर इस संस्कृत महाविद्यालय को प्रथम श्रेणी (क वर्ग) का दर्जा दिलाकर भारत के गिनेचुने संस्कृत महाविद्यालयों की पंक्ति में खड़ा कर दिया. फिर क्या, विद्वान आचार्य श्रीसत्यव्रत शर्मा की ख्याति पूरे भारतवर्ष ही क्या, विदेशों तक फैल गई. उनकी अद्भुत पाठन शैली की प्रशंसा सुन कर भारत ही क्या, पड़ोसी देश नेपाल तक के विद्यार्थी ज्ञानार्जन के लिए आने लगे और विद्वद्वर आचार्यजी के श्रीचरणों में बैठकर अध्ययन कर यहां शास्त्री-आचार्य बन कर इस महाविद्यालय की कीर्ति-पताका भारत के कोने-कोने तक फैलाने लगे.
विद्वान आचार्य श्रीसत्यव्रत शर्मा की विद्वत्ता की उत्तर भारत ही क्या, विद्या का गढ़ माने जाने वाली काशी नगरी में भी धाक थी. उन्होंने शास्त्रार्थ में कितनी ही बार बड़े-बड़े दिग्गज विद्वानों के दांत खट्टे किये थे. गढ़मुक्तेश्वर में हुए शास्त्रार्थ में कितने ही विद्वान आर्य सामाजियों को आचार्य ने अकेले ही परास्त कर सदैव के लिए उनका मुंह बंद कर दिया था. धर्मसम्राट, अभिनव शंकराचार्य करपात्रीजी द्वारा भारत की राजधानी दिल्ली में कराए गए विश्वयज्ञ में शास्त्रार्थ के दौरान दक्षिण भारत के कितने ही विद्वानों को आचार्य ने अकेले ही परास्त किया था. विद्वानों की मंडली में सुशोभित सम्मानित आचार्यजी (जो 'गुरुजी' के नाम से विख्यात थे) आत्मश्लाघा से दूर उदार, धार्मिक, सदाचारी और सनातनी धर्मी थे. वे विद्यालय और विद्यार्थियों से अपार स्नेह करते थे और उनकी सुरक्षा का सारा ध्यान रखते थे. 1979 को अकस्मात गुरुजी के शिवलोक चले जाने पर समूचे कस्बे में शोक की लहर उमड़ पड़ी. बाजार बंद हो गया. आर्य समाजियों ने भी श्रद्धा से विद्वान आचार्य को श्रद्धांजलि अर्पित की.
गढ़मुक्तेश्वर कस्बा दिल्ली-मुरादाबाद राजमार्ग-24 पर गाजियाबाद जनपद में स्थित है. इस पावन तीर्थ का राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियों के कारण बडे़ शहर के रूप में विकास तो नहीं हो सका, फिर भी इस तीर्थ की पावनता श्रद्धालुओं को आकर्षित करती रही है. एक शताब्दी पूर्व तक पतित पावनी गंगाजी की निर्मल धारा अपनी चंचल लहरों से इस तीर्थ का स्पर्श करती बहती थी और अपनी धवल धारा की तरह इसकी उज्ज्वल कीर्ति-पताका दिग्दिगंत में फहराती रही. पर बाद में गंगाजी इस तीर्थ से रूठ कर दूर होती गईं और इस तीर्थ की चमक तिरोहित होती गई. स्नानार्थी यहां आने की बजाय ब्रजघाट जाने लगे तो पंडाओं ने भी समय के रुख को देखकर अपना अड्डा ब्रजघाट ही जमा लिया. तब से इस शहर के उजड़ने का सिलसिला शुरू हो गया. अधिकांश मंदिर देखभाल के अभाव में धराशायी हो गये. यहां तक कि पुजारी के अभाव में यहां के प्रसिद्ध मंदिर मुक्तीश्वर महादेव के मंदिर में भी पूजन-अर्चन की व्यवस्था न रही. मंदिर खंडहरों में बदलते चले गये. घोर अपेक्षा के कारण यह तीर्थ बार्बादी का शिकार हुआ. इस तीर्थ के उजड़ने का सिलसिला 1970 तक जारी रहा.
फिर समय ने करवट बदली. बाहर के लोगों ने यहां आकर एक दो स्कूल खोले. उनके अथक परिश्रम और प्रयास से डॉ. राममनोहर लोहिया जूनियर स्कूल हाईस्कूल में परिवर्तित हुआ. आस-पास के छात्र पढ़ने आने लगे, जिससे कस्बे की चहल-पहल फिर से लौटने लगी. बाद में कस्बे को तहसील का दर्जा प्राप्त होने पर यहां जनसंख्या भी दिन प्रतिदिन बढ़ने लगी. उपेक्षा का शिकार मुक्तीश्वर महादेव के मंदिर की तरफ सरकार का ध्यान आकृष्ट कराया. मंदिर की सुचारु व्यवस्था बनाये रखने के लिए कुछ धन भी स्वीकृत हुआ, किन्तु भ्रष्टाचार के युग में स्वीकृत धन का अधिकांश भाग भ्रष्ट अधिकारी निगल गये, जिस कारण आंशिक सुधार ही हो पाया.
गत वर्ष समाचार पत्रों में पढ़ा था कि हरिद्वार तीर्थ के उत्तरांचल में चले जाने पर उत्तर प्रदेश सरकार ने विदेशी पर्यटकों को लुभाने के लिए हरिद्वार की भांति उपेक्षित प्राचीन तीर्थ गढ़मुक्तेश्वर के विकास की योजना बनाई है, जिसके अंतर्गत मुक्तीश्वर महादेव मंदिर के समीप बूढी़ गंगा की पतली धार को चौड़ी और गहरी कर उसमें स्नान के लिए पर्याप्त जल की व्यवस्था की जाएगी. इसके साथ गंगा के किनारे आकर्षक और पक्के घाट बनाये जायेंगे, जिससे इस तीर्थ का खोया हुआ स्वरूप फिर से देख सकें. उससे आकर्षित होकर भारतीय श्रद्धालुओं के साथ विदेशी पर्यटक भी यहां आये.
सरकार की इस योजना के तहत इस तीर्थ के पांच किलोमीटर दूर ब्रजघाट पर तो कुछ सुधार हुआ है, जिसके अंतर्गत पहले घाट को तोड़कर दोबारा घाट बनाया गया है। घाट के नीचे दुकानें निकाली गई हैं. हरिद्वार की तरह घाट पर घंटाघर का निर्माण हुआ है और यात्रियों के लिए शौचालय की व्यवस्था की गई है, किन्तु खेद का विषय है कि इस पावन तीर्थ के विकास के लिए सरकार ने अभी तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया है, जिससे सरकार की यह योजना दिवास्वप्न ही लग रही है. सवाल यह उठता है कि इस चिर उपेक्षित पावन तीर्थ गढ़मुक्तेश्वर का विकास कब होगा?
साभार : जगदीश प्रसाद शास्त्री 'सरल'

शिव मंदिर में पूजा करने आते हैं अश्वत्थामा?

Shiv Mandir in Asirgarh

असीरगढ़ का किला... रहस्यमय किला...। कहते हैं, यहाँ स्थित शिव मंदिर में महाभारतकाल के अश्वत्थामा आज भी पूजा-अर्चना करने आते हैं। इस किंवदंती को सुनने के बाद हमने फैसला किया कि सबसे पहले इसी किले के रहस्यों को कुरेदेंगे। देखेंगे कि यह किंवदंती कहाँ तक सच है।

असीरगढ़ का किला बुरहानपुर शहर से 20 किलोमीटर दूर है। किले पर चढ़ाई करने से पहले हमने किले के आस-पास रहने वाले बड़े-बुजुर्गों से इस बाबत जानकारी हासिल की। लगभग सभी ने हमें किले के संबंध में अजीबो-गरीब दास्तां सुनाई। किसी का कहना था कि जो एक बार अश्वत्थामा को देख लेता है, उसका मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है। बुजुर्गों से चर्चा करने के बाद हमने रुख किया, असीरगढ़ के किले की तरफ। लगभग आधे घंटे की पैदल चढ़ाई करने के बाद हमने किले के बाहरी बड़े दरवाजे पर दस्तक दी।

जाहिर है, किले का दरवाजा खुला हुआ था। हमने अंदर की तरफ रुख किया। लंबी घास के बीच जंगली पौधों को हटाते हुए हम आगे बढ़ते जा रहे थे। तभी हमारी नज़र कुछ कब्रों पर पड़ी। कब्रें काफी पुरानी-सी लग रही थीं। साथ आए गाइड मुकेश ने बताया कि यह अंग्रेज़ सैनिकों की कब्रें हैं। कुछ देर यहाँ � हरने के बाद हम आगे बढ़ते गए। हमें टुकड़ों में बंटा एक तालाब दिखाई दिया। तालाब को देखते ही मुकेश बताने लगा कि यही वह तालाब है, जिसमें स्नान करके अश्वत्थामा शिव-मंदिर में पूजा-अर्चन करने जाते हैं, वहीं कुछ लोगों का कहना था `उतालवी नदी' में स्नान करके वह पूजा के लिए यहाँ आते हैं। हमने तालाब को गौर से देखा। ऐसा लगा, मानों पहाड़ियों से घिरी इस जगह पर बारिश का पानी जमा हो जाता होगा। सफाई न होने के कारण यह पानी हरा नज़र आ रहा था, लेकिन आश्चर्य यह कि बुरहानपुर की तपती गर्मी में भी यह तालाब सूखता नहीं था।

हम थोड़ा आगे बढ़े थे कि हमें गुप्तेश्वर महादेव मंदिर दिखाई दिया। मंदिर चहुँओर से खाइयों से घिरा हुआ था। किंवदंती के अनुसार इन्हीं खाइयों में से किसी एक में गुप्त रास्ता बना हुआ है, जो खांडव वन (खंडवा जिला) से होता हुआ, सीधे इस मंदिर में निकलता है। इसी रास्ते से होते हुए अश्वत्थामा मंदिर में अंदर आते हैं। हम मंदिर के अंदर दाखिल हुए। यहां की सीढ़ियाँ घुमावदार थीं और चारों तरफ खाई बनी हुई थी। जरा-सी चूक से हम खाई में गिर सकते थे।

बड़ी सावधानी से हम मंदिर के अंदर दाखिल हुए। मंदिर देखकर महसूस हो रहा था कि भले ही इसमें कोई रोशनी और आधुनिक व्यवस्था न हो, यहाँ परिंदा भी पर न मारता हो, लेकिन पूजा लगातार जारी है। वहाँ श्रीफल के टुकड़े नज़र आए। शिवलिंग पर गुलाल चढ़ाया गया था। हमने रात इसी मंदिर में गुजारने का फैसला कर लिया। अभी रात के बारह बजे थे। गाइड मुकेश हमसे नीचे उतरने की विनती करने लगा। उसने कहा, ``यहाँ रात के समय रुकना � ीक नहीं हैं।'' लेकिन हमारे दबाव देने पर वह भी रुक गया। उस वीराने में रात भयानक लग रही थी। लग रहा था कि समय न जाने कैसे कटेगा। घड़ी की सूई दो बजे पर पहुँची ही थी कि तापमान एकदम से घट गया। बुरहानपुर जैसे इलाके में जून की तपती गर्मी में इतनी � ंड! मुझे ध्यान आया कि मैंने कहीं पढ़ा था कि `जहाँ आत्माएँ आस-पास होती हैं, वहाँ का तापमान एकदम � ंडा हो जाता है।' क्या हमारे आस-पास भी ऐसा ही कुछ था?

हमारे कुछ साथी घबराने लगे थे। हमने � ंड और डर दोनों को भगाने के लिए अलाव जला लिया था। आस-पास का माहौल बेहद डरावना हो गया था। पेड़ों पर मौजूद कीड़े अजीब-सी आवाज़ें निकाल रहे थे। पौ फटने को थी। साथ आए सरपंच हारून बेग ने सुझाव दिया कि बाहर जाकर तालाब को देखना चाहिए। देखें क्या वहाँ कोई है? हम सभी तालाब की ओर निकल पड़े। कुछ देर हमने तालाब को निहारा, इधर-उधर टहलकर किले का जायजा लिया। हमें कुछ भी दिखाई नहीं दिया। भोर का हल्का उजास हर ओर फैलने लगा। हम सभी मंदिर की ओर मुड़ गए। लेकिन यह क्या! शिवलिंग पर गुलाब चढ़े हुए थे। हमारे आश्चर्य का � िकाना न था। आखिर यह कैसे हुआ? किसी के पास इसका जवाब नहीं था। अब यह सच था या किसी की शरारत या फिर इन खाइयों में कोई महात्मा साधना करते हैं, इस बारे में कोई भी नहीं जानता। हम इन खाइयों से जाती सुंग का भी पता नहीं लगा पाये, लेकिन इतना अवश्य है कि अतीत के कई राज़ इस खंडहर की दीवारों में बंद हैं, जिन्हें कुरेदने की जरूरत है।

आभार : हिन्दी मिलाप

अनिष्ट निवारक शंख

Shank

शंख निधि का प्रतीक है। ऐसा माना जाता है कि इस मंगलचिह्न को घर के पूजास्थल में रखने से अरिष्टों एवं अनिष्टों का नाश होता है और सौभाग्य की वृद्धि होती है। भारतीय धर्मशास्त्रों में शंख का विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण स्थान है। मंदिरों एवं मांगलिक कार्यों में शंख-ध्वनि करने का प्रचलन है। मान्यता है कि इसका प्रादुर्भाव समुद्र-मंथन से हुआ था। समुद्र-मंथन से प्राप्त 14 रत्नों में शंख भी एक है। विष्णु पुराण के अनुसार माता लक्ष्मी समुद्रराज की पुत्री हैं तथा शंख उनका सहोदर भाई है। अत यह भी मान्यता है कि जहाँ शंख है, वहीं लक्ष्मी का वास होता है। स्वर्गलोक में अष्टसिद्धियों एवं नवनिधियों में शंख का महत्वपूर्ण स्थान है। भगवान विष्णु इसे अपने हाथों में धारण करते हैं।

धार्मिक कृत्यों में शंख का उपयोग किया जाता है। पूजा-आराधना, अनुष्ठान-साधना, आरती, महायज्ञ एवं तांत्रिक क्रियाओं के साथ शंख का वैज्ञानिक एवं आयुर्वेदिक महत्व भी है। प्राचीन काल से ही प्रत्येक घर में शंख की स्थापना की जाती है। शंख को देवता का प्रतीक मानकर पूजा जाता है एवं इसके माध्यम से अभीष्ट की प्राप्ति की जाती है। शंख की विशिष्ट पूजन पद्धति एवं साधना का विधान भी है। कुछ गुह्य साधनाओं में इसकी अनिवार्यता होती है। शंख कई प्रकार के होते हैं और सभी प्रकारों की विशेषता एवं पूजन-पद्धति भिन्न-भिन्न है। शंख साधक को उसकी इच्छित मनोकामना पूर्ण करने में सहायक होते हैं तथा जीवन को सुखमय बनाते हैं। उच्च श्रेणी के श्रेष्ठ शंख कैलाश मानसरोवर, मालद्वीप, लक्षद्वीप, कोरामंडल द्वीप समूह, श्रीलंका एवं भारत में पाये जाते हैं।

शंख की आकृति के आधार पर इसके प्रकार माने जाते हैं। ये तीन प्रकार के होते हैं - दक्षिणावृत्ति शंख, मध्यावृत्ति शंख तथा वामावृत्ति शंख। जो शंख दाहिने हाथ से पकड़ा जाता है, वह दक्षिणावृत्ति शंख कहलाता है। जिस शंख का मुँह बीच में खुलता है, वह मध्यावृत्ति शंख होता है तथा जो शंख बायें हाथ से पकड़ा जाता है, वह वामावृत्ति शंख कहलाता है। मध्यावृत्ति एवं दक्षिणावृति शंख सहज रूप से उपलब्ध नहीं होते हैं। इनकी दुर्लभता एवं चमत्कारिक गुणों के कारण ये अधिक मूल्यवान होते हैं। इनके अलावा लक्ष्मी शंख, गोमुखी शंख, कामधेनु शंख, विष्णु शंख, देव शंख, चक्र शंख, पौंड्र शंख, सुघोष शंख, गरुड़ शंख, मणिपुष्पक शंख, राक्षस शंख, शनि शंख, राहु शंख, केतु शंख, शेषनाग शंख, कच्छप शंख आदि प्रकार के होते हैं।

महाभारत काल में सभी योद्धाओं ने युद्ध घोष के लिए अलग-अलग शंख बजाए थे। गीता के प्रथम अध्याय के श्लोक 15-19 में इसका वर्णन मिलता है -

पांचजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जय।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशंखं भीमकर्मा वृकोदर।।
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिर।
नकुल सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ।।
काश्यश्च परमेष्वास शिखण्डी च महारथ।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजिताः।।
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वश पृथिवीपते।
सौभद्रश्च महाबाहुः शंखान्दध्मुः पृथक्पृथक्।।

अर्थात् श्रीकृष्ण भगवान ने पांचजन्य नामक, अर्जुन ने देवदत्त और भीमसेन ने पौंड्र शंख बजाया। कुंती-पुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनंतविजय शंख, नकुल ने सुघोष एवं सहदेव ने मणिपुष्पक नामक शंख का नाद किया। इसके अलावा काशीराज, शिखंडी, धृष्टद्युम्न, राजा विराट, सात्यकि, राजा द्रुपद, द्रौपदी के पाँचों पुत्रों और अभिमन्यु आदि सभी ने अलग-अलग शंखों का नाद किया।

शंख को विजय, समृद्धि, सुख, यश, कीर्ति तथा लक्ष्मी का प्रतीक माना गया है। वैदिक अनुष्ठानों एवं तांत्रिक क्रियाओं में भी विभिन्न प्रकार के शंखों का प्रयोग किया जाता है। पारद शिवलिंग, पार्थिव शिवलिंग एवं मंदिरों में शिवलिंगों पर रुद्राभिषेक करते समय शंखध्वनि की जाती है। आरती, धार्मिक उत्सव, हवन-क्रिया, राज्याभिषेक, गृह-प्रवेश, वास्तु-शांति आदि शुभ अवसरों पर शंखध्वनि से लाभ मिलता है। पितृ-तर्पण में शंख की अहम भूमिका होती है।

घर में पूजा-वेदी पर शंख की स्थापना की जाती है। निर्दोष एवं पवित्र शंख को दीपावली, होली, महाशिवरात्रि, नवरात्र, रवि-पुष्य, गुरु-पुष्य नक्षत्र आदि शुभ मुहूर्त में विशिष्ट कर्मकांड के साथ स्थापित किया जाता है। रुद्र, गणेश, भगवती, विष्णु भगवान आदि के अभिषेक के समान शंख का भी गंगाजल, दूध, घी, शहद, गुड़, पंचद्रव्य आदि से अभिषेक किया जाता है। इसका धूप, दीप, नैवेद्य से नित्य पूजन करना चाहिए और लाल वस्त्र के आसन में स्थापित करना चाहिए। शंखराज सबसे पहले वास्तु-दोष दूर करते हैं। मान्यता है कि शंख में कपिला (लाल) गाय का दूध भरकर भवन में छिड़काव करने से वास्तुदोष दूर होते हैं। परिवार के सदस्यों द्वारा आचमन करने से असाध्य रोग एवं दुःख-दुर्भाग्य दूर होते हैं। विष्णु शंख को दुकान, ऑफिस, फैक्टरी आदि में स्थापित करने पर वहाँ के वास्तु-दोष दूर होते हैं तथा व्यवसाय आदि में लाभ होता है।

शंख की स्थापना से घर में लक्ष्मी का वास होता है। स्वयं माता लक्ष्मी कहती हैं कि शंख उनका सहोदर भ्राता है। शंख, जहाँ पर होगा, वहाँ वे भी होंगी। देव प्रतिमा के चरणों में शंख रखा जाता है। पूजास्थली पर दक्षिणावृत्ति शंख की स्थापना करने एवं पूजा-आराधना करने से माता लक्ष्मी का चिरस्थायी वास होता है। इस शंख की स्थापना के लिए नर-मादा शंख का जोड़ा होना चाहिए। गणेश शंख में जल भरकर प्रतिदिन गर्भवती नारी को सेवन कराने से संतान गूंगेपन, बहरेपन एवं पीलिया आदि रोगों से मुक्त होती है। अन्नपूर्णा शंख की व्यापारी व सामान्य वर्ग द्वारा अन्नभंडार में स्थापना करने से अन्न, धन, लक्ष्मी, वैभव की उपलब्धि होती है। मणिपुष्पक एवं पांचजन्य शंख की स्थापना से भी वास्तु-दोषों का निराकरण होता है। शंख का तांत्रिक-साधना में भी उपयोग किया जाता है। इसके लिए लघु शंखमाला का प्रयोग करने से शीघ्र सिद्धि प्राप्त होती है।

वैज्ञानिकों के अनुसार शंख-ध्वनि से वातावरण का परिष्कार होता है। इसकी ध्वनि के प्रसार-क्षेत्र तक सभी कीटाणुओं का नाश हो जाता है। इस संदर्भ में अनेक प्रयोग-परीक्षण भी हुए हैं। आयुर्वेद के अनुसार शंखोदक भस्म से पेट की बीमारियाँ, पीलिया, यकृत, पथरी आदि रोग ठीक होते हैं। त्र+षि श्रृंग की मान्यता है कि छोटे-छोटे बच्चों के शरीर पर छोटे-छोटे शंख बाँधने तथा शंख में जल भरकर अभिमंत्रित करके पिलाने से वाणी-दोष नहीं रहता है। बच्चा स्वस्थ रहता है। पुराणों में उल्लेख मिलता है कि मूक एवं श्वास रोगी हमेशा शंख बजायें तो बोलने की शक्ति पा सकते हैं। हृदय रोगी के लिए यह रामबाण औषधि है। दूध का आचमन कर कामधेनु शंख को कान के पास लगाने से `ँ़' की ध्वनि का अनुभव किया जा सकता है। यह सभी मनोरथों को पूर्ण करता है।

वर्तमान समय में वास्तु-दोष के निवारण के लिए जिन चीजों का प्रयोग किया जाता है, उनमें से यदि शंख आदि का उपयोग किया जाए तो कई प्रकार के लाभ हो सकते हैं। यह न केवल वास्तु-दोषों को दूर करता है, बल्कि आरोग्य वृद्धि, आयुष्य प्राप्ति, लक्ष्मी प्राप्ति, पुत्र प्राप्ति, पितृ-दोष शांति, विवाह में विलंब जैसे अनेक दोषों का निराकरण एवं निवारण भी करता है। इसे पापनाशक बताया जाता है। अत शंख का विभिन्न प्रकार की कामनाओं के लिए प्रयोग किया जा सकता है।

भय को भगाए भैरव

भैरव का अर्थ होता है भय का हरण कर जगत का भरण करने वाला। ऐसा भी कहा जाता है कि भैरव शब्द के तीन अक्षरों में ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों की शक्ति समाहित है। भैरव शिव के गण और पार्वती के अनुचर माने जाते हैं। हिंदू देवताओं में भैरव का बहुत ही महत्व है। इन्हें काशी का कोतवाल कहा जाता है।
भैरव का जन्म : काल भैरव का आविर्भाव मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी को प्रदोषकाल में हुआ था। पुराणों में उल्लेख है कि शिव के रूधिर से भैरव की उत्पत्ति हुई। बाद में उक्त रूधिर के दो भाग हो गए- पहला बटुक भैरव और दूसरा काल भैरव। भगवान भैरव को असितांग, रुद्र, चंड, क्रोध, उन्मत्त, कपाली, भीषण और संहार नाम से भी जाना जाता है। भगवान शिव के पाँचवें अवतार भैरव को भैरवनाथ भी कहा जाता है। नाथ सम्प्रदाय में इनकी पूजा का विशेष महत्व है।
बटुक भैरव : 'बटुकाख्यस्य देवस्य भैरवस्य महात्मन:। ब्रह्मा विष्णु, महेशाधैर्वन्दित दयानिधे।।'- अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु, महेशादि देवों द्वारा वंदित बटुक नाम से प्रसिद्ध इन भैरव देव की उपासना कल्पवृक्ष के समान फलदायी है। बटुक भैरव भगवान का बाल रूप है। इन्हें आनंद भैरव भी कहते हैं। उक्त सौम्य स्वरूप की आराधना शीघ्र फलदायी है। यह कार्य में सफलता के लिए महत्वपूर्ण है। उक्त आराधना के लिए मंत्र है- ।।ॐ ह्रीं बटुकाय आपदुद्धारणाचतु य कुरु कुरु बटुकाय ह्रीं ॐ।।
काल भैरव : यह भगवान का साहसिक युवा रूप है। उक्त रूप की आराधना से शत्रु से मुक्ति, संकट, कोर्ट-कचहरी के मुकदमों में विजय की प्राप्ति होती है। व्यक्ति में साहस का संचार होता है। सभी तरह के भय से मुक्ति मिलती है। काल भैरव को शंकर का रुद्रावतार माना जाता है। काल भैरव की आराधना के लिए मंत्र है- ।।ॐ भैरवाय नम:।।
भैरव आराधना : एकमात्र भैरव की आराधना से ही शनि का प्रकोप शांत होता है। आराधना का दिन रविवार और मंगलवार नियुक्त है। पुराणों के अनुसार भाद्रपद माह को भैरव पूजा के लिए अति उत्तम माना गया है। उक्त माह के रविवार को बड़ा रविवार मानते हुए व्रत रखते हैं। आराधना से पूर्व जान लें कि कुत्ते को कभी दुत्कारे नहीं बल्कि उसे भरपेट भोजन कराएँ। जुआ, सट्टा, शराब, ब्याजखोरी, अनैतिक कृत्य आदि आदतों से दूर रहें। दाँत और आँत साफ रखें। पवित्र होकर ही सात्विक आराधना करें। अपवि‍त्रता वर्जित है।
भैरव तंत्र : योग में जिसे समाधि पद कहा गया है, भैरव तंत्र में भैरव पद या भैरवी पद प्राप्त करने के लिए भगवान शिव ने देवी के समक्ष 112 विधियों का उल्लेख किया है जिनके माध्यम से उक्त अवस्था को प्राप्त हुआ जा सकता है।
लोक देवता : लोक जीवन में भगवान भैरव को भैरू महाराज, भैरू बाबा, मामा भैरव, नाना भैरव आदि नामों से जाना जाता है। कई समाज के ये कुल देवता हैं और इन्हें पूजने का प्रचलन भी भिन्न-भिन्न है, जो कि विधिवत न होकर स्थानीय परम्परा का हिस्सा है। यह भी उल्लेखनीय है कि भगवान भैरव किसी के शरीर में नहीं आते।
पालिया महाराज : सड़क के किनारे भैरू महाराज के नाम से ज्यादातर जो ओटले या स्थान बना रखे हैं दरअसल वे उन मृत आत्माओं के स्थान हैं जिनकी मृत्यु उक्त स्थान पर दुर्घटना या अन्य कारणों से हो गई है। ऐसे किसी स्थान का भगवान भैरव से कोई संबंध नहीं। उक्त स्थान पर मत्था टेकना मान्य नहीं है।
भैरव चरित्र : भैरव के चरित्र का भयावह चित्रण कर तथा घिनौनी तांत्रिक क्रियाएँ कर लोगों में उनके प्रति एक डर और उपेक्षा का भाव भरने वाले तांत्रिकों और अन्य पूजकों को भगवान भैरव माफ करें। दरअसल भैरव वैसे नहीं है जैसा कि उनका चित्रण किया गया है। वे मांस और मदिरा से दूर रहने वाले शिव और दुर्गा के भक्त हैं। उनका चरित्र बहुत ही सौम्य, सात्विक और साहसिक है।
उनका कार्य है शिव की नगरी काशी की सुरक्षा करना और समाज के अपराधियों को पकड़कर दंड के लिए प्रस्तुत करना। जैसे एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी, जिसके पास जासूसी ‍कुत्ता होता है। उक्त अधिकारी का जो कार्य होता है वही भगवान भैरव का कार्य है।
भैरव मंदिर : काशी का काल भैरव मंदिर सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। काशी विश्वनाथ मंदिर से भैरव मंदिर कोई डेढ़-दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। दूसरा नई दिल्ली के विनय मार्ग पर नेहरू पार्क में बटुक भैरव का पांडवकालीन मंदिर अत्यंत प्रसिद्ध है। तीसरा उज्जैन के काल भैरव की प्रसिद्धि का कारण भी ऐतिहासिक और तांत्रिक है। नैनीताल के समीप घोड़ा खाड़ का बटुकभैरव मंदिर भी अत्यंत प्रसिद्ध है। यहाँ गोलू देवता के नाम से भैरव की प्रसिद्धि है। इसके अलावा शक्तिपीठों और उपपीठों के पास स्थित भैरव मंदिरों का महत्व माना गया है।