काशी, प्रयाग, अयोध्या आदि तीर्थों की तरह "गढ़मुक्तेश्वर" भी पुराण चर्चित तीर्थ है। शिवपुराण के अनुसार गढ़मुक्तेश्वर का प्राचीन नाम "शिववल्लभ" (शिव का प्रिय) है, किन्तु यहां भगवान मुक्तीश्वर (शिव) के दर्शन करने से अभिशप्त शिवगणों की पिशाच योनि से मुक्ति हुई थी, इसलिए इस तीर्थ का नाम "गढ़मुक्तीश्वर" (गणों की मुक्ति करने वाले ईश्वर) विख्यात हो गया. पुराण में भी उल्लेख है- गणानां मुक्तिदानेन गणमुक्तीश्वर: स्मृत:।
शिवगणों की शापमुक्ति की संक्षिप्त कथा इस प्रकार है-
प्राचीन समय की बात है क्रोधमूर्ति महर्षि दुर्वासा मंदराचल पर्वत की गुफा में तपस्या कर रहे थे. भगवान शंकर के गण घूमते हुए वहां पहुंच गये. गणों ने तपस्यारत महर्षि का कुछ उपहास कर दिया. उससे कुपित होकर दुर्वासा ने गणों को पिशाच होने का शाप दे दिया. कठोर शाप को सुनते ही शिवगण व्याकुल होकर महर्षि के चरणों पर गिर पड़े और प्रार्थना करने लगे. उनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर दुर्वासा ने उनसे कहा- हे शिवगणो! तुम हस्तिनापुर के निकट खाण्डव वन में स्थित शिववल्लभ क्षेत्र में जाकर तपस्या करो तो तुम भगवान आशुतोष की कृपा से पिशाच योनि से मुक्त हो जाओगे. पिशाच बने शिवगणों ने शिववल्लभ क्षेत्र में आकर कार्तिक पूर्णिमा तक तपस्या की. उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने कार्तिक पूर्णिमा के दिन उन्हें दर्शन दिए और पिशाच योनि से मुक्त कर दिया. तब से शिववल्लभ क्षेत्र का नाम गणमुक्तीश्वर पड़ गया. बाद में गणमुक्तीश्वर का अपभ्रंश गढ़मुक्तेश्वर हो गया. गणमुक्तीश्वर का प्राचीन ऐतिहासिक मंदिर आज भी इस कथा का साक्षी है.
इस तीर्थ को काशी से भी पवित्र माना गया है, क्योंकि इस तीर्थ की महिमा के विषय में पुराण में उल्लेख है- "काश्यां मरणात्मुक्ति: मुक्ति: मुक्तीश्वर दर्शनात्" अर्थात् काशी में तो मरने पर मुक्ति मिलती है, किन्तु मुक्तीश्वर में भगवान मुक्तीश्वर के दर्शन मात्र से ही मुक्ति मिल जाती है. इसलिए यह तीर्थ प्राचीन काल से ही श्रद्धालुओं की आस्था का केन्द्र रहा है, जो अपनी पावनता से श्रद्धालुओं को लुभाता रहा है. पुराणों में उल्लेख है कि कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी से लेकर पूर्णिमा तक गंगा-स्नान करने का यहां विशेष महत्व है और विशेष कर पूर्णिमा को गंगा स्नान कर भगवान गणमुक्तीश्वर पर गंगाजल चढ़ाने से व्यक्ति पापों से मुक्त हो जाता है. पुराणों की यह भी मान्यता है कि कार्तिक मास में गंगा स्नान के पर्व के अवसर पर गणमुक्तीश्वर तीर्थ में अग्नि, सूर्य और इन्द्र का वास रहता है तथा स्वर्ग की अप्सरायें यहां आकर महिलाओं व विशेष कर कुमारियों पर अपनी कृपा-वृष्टि करती हैं, अत: यहां स्नान हेतु कुमारी कन्याओं के आने की पुरानी परम्परा है.
इसी महत्व के कारण यहां प्रत्येक वर्ष कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष में एकादशी से लेकर पूर्णिमा तक एक पखवारे का विशाल मेला लगता है, जिसमें दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, पंजाब आदि राज्यों से लाखों श्रद्धालु मेले में आते हैं और पतित पावनी गंगा में स्नान कर भगवान गणमुक्तीश्वर पर गंगाजल चढ़ाकर पुण्यार्जन करते हैं. यहां मुक्तीश्वर महादेव के सामने पितरों को पिंडदान और तर्पण (जल-दान) करने से गया श्राद्ध करने की जरूरत नहीं रहती. पांडवों ने महाभारत के युद्ध में मारे गये असंख्य वीरों की आत्मा की शांति के लिए पिंडदान यहीं मुक्तीश्वरनाथ के मंदिर के परिसर में किया था. यहां कार्तिक शुक्ला चतुदर्शी को पितरों की शांति के लिए दीपदान करने की परम्परा भी रही है सो पांडवों ने भी अपने पितरों की आत्मशांति के लिए मंदिर के समीप गंगा में दीपदान किया था तथा कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी से लेकर पूर्णिमा तक यज्ञ किया था. तभी से यहां कार्तिक पूर्णिमा पर मेला लगना प्रारंभ हुआ. वैसे तो कार्तिक पूर्णिमा पर अन्य नगरों में भी मेले लगते लैं, किन्तु गढ़मुक्तेश्वर का मेला उत्तर भारत का सबसे बड़ा मेला माना जाता है.
इन दिनों यह मेला गढ़मुक्तेश्वर कस्बे से लगभग 6 किलोमीटर दूर उत्तर दिशा में गंगाजी के विस्तृत रेतीले मैदान में लगभग 7 किलोमीटर के क्षेत्र में लगता है, जिसे अनेक संतरों में विभाजित कर मेला यात्रियों के ठहरने का समुचित प्रबंध किया जाता है. मेले में सर्कस, चलचित्र आदि मनोरंजन के भरपूर साधन रहते हैं. इनके अतिरिक्त विभिन्न सम्प्रदायों व अखाड़ों के कैम्प लगते हैं, जिनमें विभिन्न धर्मों के धर्मगुरु, संत-महात्मा पधार कर मानव एकता, आत्मीयता एवं देश-प्रेम से ओत-प्रोत धार्मिक व्याख्यानों से जनता को रसमग्न करते है. इससे 'अनेकता में एकता' के सूत्र में बंधने की भावना साकार हो उठती है.
आज के उपेक्षित गढ़मुक्तेश्वर का इतिहास वैभवशाली रहा है. पहले इस शहर के चारों ओर चार सिंहद्वार थे और उत्तर में इस तीर्थ का स्पर्श करती हुई पतित पावनी भागीरथी अपनी चंचल तरंगों से कलकल ध्वनि करती हुई बहती थी और इस तीर्थ की पावनता में चार चांद लगाए रहती थी. उन दिनों गांगा के किनारे मुक्तीश्वर महादेव के मंदिर से लेकर गंगा मंदिर तक भव्य मंदिरों की कतार थी, जिनमें सुबह-शाम घंटों और शंखों की ध्वनि, स्तोत्र-पाठ एवं आरतियों से गंगा का किनारा देवलोक सा प्रतीत होता था.
महाभारत काल में गढ़मुक्तेश्वर पांडवों के राज्य की राजधानी हस्तिनापुर का एक हिस्सा था और गंगा के जल मार्ग से व्यापार का मुख्य केन्द्र था. उन दिनों यहां इमारती लकड़ी, बांस आदि का व्यापार होता था, जिसका आयात दून और गढ़वाल से किया जाता था. इसके साथ ही यहां गुड़-गल्ले की बड़ी मंडी थी. यहां का मूढा़ उद्योग भी अति प्राचीन है. यहां के बने मूढे़ कई देशों में निर्यात किए जाते रहे हैं. इस उद्योग को अपने चरम पर होना चाहिए था, किन्तु सरकार की उपेक्षा के कारण यह उद्योग अंतिम सांसें ले रहा है.
शास्त्रों में गढ़मुक्तेश्वर की सीमा दो कोस की बतलाई गई है. कार्तिक मास में इस तीर्थ की परिक्रमा करने से मनुष्य सब पापों से मुक्त होकर मुक्ति का अधिकारी हो जाता है. परिक्रमा करते समय पग पग पर कपिला गोदान करने का पुण्य प्राप्त होता है. इस तीर्थ में जप, तप और दान करने से अक्षय पुण्य प्राप्त होता है. भगवान परशुराम ने खाण्डव वन में जो पांच शिवलिंग स्थापित किए थे, उनमें से तीन शिवलिंग गढ़मुक्तेश्वर क्षेत्र में ही हैं- पहला शिवलिंग मुक्तीश्वर महादेव का, दूसरा मुक्तीश्वर महादेव के पीछे झारखण्डेश्वर महादेव का और तीसरा शिवलिंग कल्याणेश्वर महादेव का है.
गणमुक्तीश्वर महादेव का मंदिर
यह मंदिर गढ़मुक्तेश्वर कस्बे के उत्तरी छोर पर स्थित है. यहां भगवान शिव के दर्शन से शापग्रस्त शिवगणों को पिशाच योनि से मुक्ति प्राप्त हुई थी, इसी कारण शिववल्लभ तीर्थ का नाम गणमुक्तीश्वर पड़ गया. मुक्तीश्वर महादेव का मंदिर श्रद्धालुओं की आस्था का केन्द्र है. इस मंदिर के प्रांगण में एक प्राचीन बाबड़ी है, जो नृगकूप के नाम से प्रसिद्ध है. इसके विषय में महाभारत में उल्लेख है कि दानवीर महाराज नृग भूलवश किये एक छोटे से अपराध के कारण गिरगिट बन गये थे. गिरगिट की योनि से मुक्त होने पर उन्होंने यज्ञ कराया और यज्ञशाला के निकट ही, जिस स्थान पर वे गिरगिट बनकर पड़े रहे, वहां एक कूप बनवाया, जो नृगकूप के नाम से प्रसिद्ध है. उस नृगकूप को आज 'नक्का कुआं' के नाम से जाना जाता है.
झारखंडेश्वर महादेव
मुक्तीश्वर महादेव मंदिर के पीछे जंगल में झारखंडेश्वर महादेव का विशाल शिवलिंग पीपल के वृक्ष की जड़ में प्रतिष्ठित है. कहा जाता है कि इस मंदिर में लगातार 40 दिन दीप जलाने से श्रद्धालु की मनोकामना पूर्ण हो जाती है. किन्तु लगातार 40 दिन तक दीप जला पाना सहज कार्य नहीं है, क्योंकि बीच में बाधा उपस्थित हो जाती है. कई लोगों से सुना है कि जब चालीस दिन पूरे होने को होते हैं, तब वहां नियमित दीप जलाने गये श्रद्धालुओं को द्वार पर विशाल सर्प बैठा हुआ दिखाई दिया, जिससे भयभीत होकर वे वापस लौट आये. लगभग दो वर्ष पहले तक वहां शिवलिंग के चारों तरफ सिर्फ तीन फुट ऊंची दीवार ही बनी थी और चारों तरफ जंगल था, किन्तु भगवान झारखंडेश्वर की प्रेरणा से किसी श्रद्धालु ने वहां मंदिर बनवा दिया है. मंदिर बनाते समय झारखंडेश्वर शिवलिंग और प्राचीन पीपल के वृक्ष के स्वरूप को ज्यों का त्यों रहने दिया गया है. मुक्तीश्वर महादेव के मंदिर से झारखंडेश्वर मंदिर तक जाने के लिए पक्का मार्ग बनवाया गया है तथा श्रद्धालुओं को धूप, वर्षा के कष्ट से बचाने के लिए मार्ग पर टीनशेड भी पड़ा हुआ है तथा विद्युत प्रकाश की भी व्यवस्था है.
कल्याणेश्वर महादेव का मंदिर
यह मंदिर गढ़मुक्तेश्वर के प्रसिद्ध मंदिर मुक्तीश्वर महादेव से चार किलोमीटर की दूरी पर उत्तर दिशा में वन क्षेत्र में स्थित है. भगवान शिव का यह मंदिर आने में कई रहस्यों को छिपाए हुए है, जिनके कारण इस मंदिर की दूर-दूर तक प्रसिद्धि है. इस मंदिर की विशेषता यह है कि यहां भक्तों द्वारा शिवलिंग पर चढ़ाया हुआ जल और दूध भूमि में समा जाता है. न जाने वह जल कहां समा जाता है, इस रहस्य का पता आज तक नहीं चल पाया है. सुना जाता है कि एक बार अपने समय के प्रसिद्ध राजा नल ने यहां शिवलिंग का जलाभिषेक किया था, किन्तु उनके देखते ही देखते शिव पर चढ़ाया जल भूमि में समा गया. यह चमत्कार देखकर राजा नल चौंक गए और उन्होंने इस रहस्य को जानने के लिए बैलगाड़ी से ढुलवा कर हजारों घड़े गंगाजल शिवलिंग पर चढ़ाया, पर वह सारा जल कहां समाता गया, राजा नल इस रहस्य का पता न लगा पाये. अंत में अपनी इस धृष्टता की भगवान शिव से क्षमा मांग कर अपने देश को लौट गए.
महारानी कुंती के पुत्र पांण्डवों ने भी झारखंडेश्वर मंदिर में पूजन-यज्ञ किया था. मराठा छत्रपति शिवाजी ने भी यहां तीन मास तक रुद्रयज्ञ किया था. भक्तों की मनोकामना पूर्ति के लिए कल्याणेश्वर महादेव का मंदिर दूर-दूर तक विख्यात है. यह शिव भक्तों की आस्था का केन्द्र होने के कारण यहां शिवभक्तों का आगमन लगा ही रहता है, किन्तु श्रावणमास में आने वाली शिवरात्रि और फाल्गुन मास की महाशिवरात्रि पर तो इस मंदिर में शिवभक्तों का सैलाव उमड़ पड़ता है.
इस चर्चित पौराणिक और ऐतिहासिक शिव मंदिरों के अतिरिक्त कई अन्य मंदिर भी प्रसिद्ध हैं, जिनमें से गंगा मंदिर विशेष उल्लेखनीय है.
गंगा मंदिर
मुक्तीश्वर महादेव मंदिर के सामने लगभग आधा किलोमीटर दूर एवं ऊंचे टीले पर प्राचीन ऐतिहासिक गंगा मंदिर है. इसमें भगवती गंगाजी की भव्याकर्षक आदमकद प्रतिमा है और एक अमूल्य एवं अद्भुत शिवलिंग है. शिवलिंग में हर वर्ष एक गांठ फूटती है, जो शिव की अलग-अलग आकृति का रूप ले लेती है. आज के वैज्ञानिक युग में यह अद्भुत चमत्कार है. बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी इस रहस्य को नहीं जान पाए हैं. सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी एक प्रतिमा पुष्कर तीर्थ में ब्रह्माजी के मंदिर में है और दूसरी प्रतिमा इस गंगा मंदिर में है. कहते हैं कि यह मंदिर हजारों वर्ष पुराना है. सन 1900 तक गंगाजी इस मंदिर का स्पर्श करती हुई बहती थीं. गंगा मंदिर के दायें-बायें ऊंची ढाय (गंगा का किनारा) आज भी मौजूद है. गंगा की धारा से स्नानार्थियों को मंदिर तक पहुंचने के लिए 101 सीढ़ियां बनाई गई थीं, जिनमें से 17 सीढ़ियां मिट्टी में दब चुकी है, अब केवल 84 सीढ़ियां ही शेष हैं. जहां कभी इन सीढ़ियों से गंगा की पावन धारा टकराती हुई बहती थी, वहां आज पक्की सड़क है. अब गंगाजी इस मंदिर से लगभग 6 किलोमीटर दूर बहती हैं. गंगा मंदिर से कुछ ही दूरी पर शिवाजी के किले के खण्डहर हैं. यह किला मराठा शासन की चौकी के रूप में था.
गढ़मुक्तेश्वर तीर्थ पौराणिक और ऐतिहासिक मंदिरों के साथ-साथ विद्या का भी गढ़ रहा है. सन 1909 में यहां गंगा के किनारे मस्तराम की कुटी नामक स्थान पर मध्यमा पर्यंत संस्कृत विद्यालय की स्थापना हुई, जिसके संस्थापक और प्रधानाचार्य हरियाणा निवासी श्री चन्द्रमणिजी थे. सन 1932 में गंगा में आई भीषण बाढ़ में वह विद्यालय बह गया. उसके बाद कस्बे में पंचमंजिली धर्मशाला में विद्यालय चलने लगा. श्री चन्द्रमणिजी के परलोकवासी हो जाने पर सन 1944 में श्रीसांगवेद महाविद्यालय नरवर (बुलंदशहर) के रत्न, विद्वान शिरोमणि, शास्त्रार्थ महारथी, नव्य न्याय व्याकरण वेदान्ताचार्य श्री पं. सत्यव्रत शर्मा इस विद्यालय के प्रधानाचार्य के पद पर आसीन हुए. प्रधानाचार्य के पद से श्रीसत्यव्रत शर्मा का गौरव नहीं बढ़ा, अपितु विद्वान आचार्य के पदासीन होने से प्रधानाचार्य के पद का गौरव बढ़ा. उन्होंने अपने अथक प्रयास और परिश्रम से इस माध्यमिक विद्यालय को आचार्य पर्यन्त महाविद्यालय की मान्यता प्राप्त कराई. इतना ही नहीं, हर वर्ष अच्छा परीक्षाफल देकर इस संस्कृत महाविद्यालय को प्रथम श्रेणी (क वर्ग) का दर्जा दिलाकर भारत के गिनेचुने संस्कृत महाविद्यालयों की पंक्ति में खड़ा कर दिया. फिर क्या, विद्वान आचार्य श्रीसत्यव्रत शर्मा की ख्याति पूरे भारतवर्ष ही क्या, विदेशों तक फैल गई. उनकी अद्भुत पाठन शैली की प्रशंसा सुन कर भारत ही क्या, पड़ोसी देश नेपाल तक के विद्यार्थी ज्ञानार्जन के लिए आने लगे और विद्वद्वर आचार्यजी के श्रीचरणों में बैठकर अध्ययन कर यहां शास्त्री-आचार्य बन कर इस महाविद्यालय की कीर्ति-पताका भारत के कोने-कोने तक फैलाने लगे.
विद्वान आचार्य श्रीसत्यव्रत शर्मा की विद्वत्ता की उत्तर भारत ही क्या, विद्या का गढ़ माने जाने वाली काशी नगरी में भी धाक थी. उन्होंने शास्त्रार्थ में कितनी ही बार बड़े-बड़े दिग्गज विद्वानों के दांत खट्टे किये थे. गढ़मुक्तेश्वर में हुए शास्त्रार्थ में कितने ही विद्वान आर्य सामाजियों को आचार्य ने अकेले ही परास्त कर सदैव के लिए उनका मुंह बंद कर दिया था. धर्मसम्राट, अभिनव शंकराचार्य करपात्रीजी द्वारा भारत की राजधानी दिल्ली में कराए गए विश्वयज्ञ में शास्त्रार्थ के दौरान दक्षिण भारत के कितने ही विद्वानों को आचार्य ने अकेले ही परास्त किया था. विद्वानों की मंडली में सुशोभित सम्मानित आचार्यजी (जो 'गुरुजी' के नाम से विख्यात थे) आत्मश्लाघा से दूर उदार, धार्मिक, सदाचारी और सनातनी धर्मी थे. वे विद्यालय और विद्यार्थियों से अपार स्नेह करते थे और उनकी सुरक्षा का सारा ध्यान रखते थे. 1979 को अकस्मात गुरुजी के शिवलोक चले जाने पर समूचे कस्बे में शोक की लहर उमड़ पड़ी. बाजार बंद हो गया. आर्य समाजियों ने भी श्रद्धा से विद्वान आचार्य को श्रद्धांजलि अर्पित की.
गढ़मुक्तेश्वर कस्बा दिल्ली-मुरादाबाद राजमार्ग-24 पर गाजियाबाद जनपद में स्थित है. इस पावन तीर्थ का राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियों के कारण बडे़ शहर के रूप में विकास तो नहीं हो सका, फिर भी इस तीर्थ की पावनता श्रद्धालुओं को आकर्षित करती रही है. एक शताब्दी पूर्व तक पतित पावनी गंगाजी की निर्मल धारा अपनी चंचल लहरों से इस तीर्थ का स्पर्श करती बहती थी और अपनी धवल धारा की तरह इसकी उज्ज्वल कीर्ति-पताका दिग्दिगंत में फहराती रही. पर बाद में गंगाजी इस तीर्थ से रूठ कर दूर होती गईं और इस तीर्थ की चमक तिरोहित होती गई. स्नानार्थी यहां आने की बजाय ब्रजघाट जाने लगे तो पंडाओं ने भी समय के रुख को देखकर अपना अड्डा ब्रजघाट ही जमा लिया. तब से इस शहर के उजड़ने का सिलसिला शुरू हो गया. अधिकांश मंदिर देखभाल के अभाव में धराशायी हो गये. यहां तक कि पुजारी के अभाव में यहां के प्रसिद्ध मंदिर मुक्तीश्वर महादेव के मंदिर में भी पूजन-अर्चन की व्यवस्था न रही. मंदिर खंडहरों में बदलते चले गये. घोर अपेक्षा के कारण यह तीर्थ बार्बादी का शिकार हुआ. इस तीर्थ के उजड़ने का सिलसिला 1970 तक जारी रहा.
फिर समय ने करवट बदली. बाहर के लोगों ने यहां आकर एक दो स्कूल खोले. उनके अथक परिश्रम और प्रयास से डॉ. राममनोहर लोहिया जूनियर स्कूल हाईस्कूल में परिवर्तित हुआ. आस-पास के छात्र पढ़ने आने लगे, जिससे कस्बे की चहल-पहल फिर से लौटने लगी. बाद में कस्बे को तहसील का दर्जा प्राप्त होने पर यहां जनसंख्या भी दिन प्रतिदिन बढ़ने लगी. उपेक्षा का शिकार मुक्तीश्वर महादेव के मंदिर की तरफ सरकार का ध्यान आकृष्ट कराया. मंदिर की सुचारु व्यवस्था बनाये रखने के लिए कुछ धन भी स्वीकृत हुआ, किन्तु भ्रष्टाचार के युग में स्वीकृत धन का अधिकांश भाग भ्रष्ट अधिकारी निगल गये, जिस कारण आंशिक सुधार ही हो पाया.
गत वर्ष समाचार पत्रों में पढ़ा था कि हरिद्वार तीर्थ के उत्तरांचल में चले जाने पर उत्तर प्रदेश सरकार ने विदेशी पर्यटकों को लुभाने के लिए हरिद्वार की भांति उपेक्षित प्राचीन तीर्थ गढ़मुक्तेश्वर के विकास की योजना बनाई है, जिसके अंतर्गत मुक्तीश्वर महादेव मंदिर के समीप बूढी़ गंगा की पतली धार को चौड़ी और गहरी कर उसमें स्नान के लिए पर्याप्त जल की व्यवस्था की जाएगी. इसके साथ गंगा के किनारे आकर्षक और पक्के घाट बनाये जायेंगे, जिससे इस तीर्थ का खोया हुआ स्वरूप फिर से देख सकें. उससे आकर्षित होकर भारतीय श्रद्धालुओं के साथ विदेशी पर्यटक भी यहां आये.
सरकार की इस योजना के तहत इस तीर्थ के पांच किलोमीटर दूर ब्रजघाट पर तो कुछ सुधार हुआ है, जिसके अंतर्गत पहले घाट को तोड़कर दोबारा घाट बनाया गया है। घाट के नीचे दुकानें निकाली गई हैं. हरिद्वार की तरह घाट पर घंटाघर का निर्माण हुआ है और यात्रियों के लिए शौचालय की व्यवस्था की गई है, किन्तु खेद का विषय है कि इस पावन तीर्थ के विकास के लिए सरकार ने अभी तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया है, जिससे सरकार की यह योजना दिवास्वप्न ही लग रही है. सवाल यह उठता है कि इस चिर उपेक्षित पावन तीर्थ गढ़मुक्तेश्वर का विकास कब होगा?
साभार : जगदीश प्रसाद शास्त्री 'सरल'
शुक्रवार, 28 नवंबर 2008
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