ब्रम्हा और विष्णु दोनों उस स्तंभ के आदि-अंत का मूल जानने के लिए जुट गए। विष्णु शुक्र का रूप धरकर पाताल गए, मगर अंत न पा सके। ब्रम्हा आकाश से केतकी का फूल लेकर विष्णु के पास पहुंचे और बोले- ‘मैं स्तंभ का अंत खोज आया हूं, जिसके ऊपर यह केतकी का फूल है।’
ब्रम्हा का यह छल देखकर शंकर वहां प्रकट हो गए और विष्णु ने उनके चरण पकड़ लिए। तब शंकर ने कहा कि आप दोनों समान हैं। यही अग्नि तुल्य स्तंभ, काठगढ़ के रूप में जाना जाने लगा। ईशान संहिता के अनुसार इस शिवलिंग का प्रादुर्भाव फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की रात्रि को हुआ था।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
विश्वविजेता सिकंदर ईसा से 326 वर्ष पूर्व जब पंजाब पहुंचा, तो प्रवेश से पूर्व मीरथल नामक गांव में पांच हजार सैनिकों को खुले मैदान में विश्राम की सलाह दी। इस स्थान पर उसने देखा कि एक फ़कीर शिवलिंग की पूजा व्यस्त था।
उसने फ़कीर से कहा- ‘आप मेरे साथ यूनान चलें। मैं आपको दुनिया का हर ऐश्वर्य दूंगा।’ फ़कीर ने सिकंदर की बात को अनसुना करते हुए कहा- ‘आप थोड़ा पीछे हट जाएं और सूर्य का प्रकाश मेरे तक आने दें।’
फ़कीर की इस बात से प्रभावित होकर सिकंदर ने टीले पर काठगढ़ महादेव का मंदिर बनाने के लिए भूमि को समतल करवाया और चारदीवारी बनवाई। इस चारदीवारी के ब्यास नदी की ओर अष्टकोणीय चबूतरे बनवाए, जो आज भी यहां हैं।
रणजीत सिंह ने किया पुनरुद्धार
कहते हैं, महाराजा रणजीत सिंह ने जब गद्दी संभाली, तो पूरे राज्य के धार्मिक स्थलों का भ्रमण किया। वह जब काठगढ़ पहुंचे, तो इतना आनंदित हुए कि उन्होंने आदि शिवलिंग पर तुरंत सुंदर मंदिर बनवाया और वहां पूजा करके आगे निकले। मंदिर के पास ही बने एक कुएं का जल उन्हें इतना पसंद था कि वह हर शुभकार्य के लिए यहीं से जल मंगवाते थे।
अर्धनारीश्वर का रूप
दो भागों में विभाजित आदि शिवलिंग का अंतर ग्रहों एवं नक्षत्रों के अनुसार घटता-बढ़ता रहता है और शिवरात्रि पर दोनों का ‘मिलन’ हो जाता है। यह पावन शिवलिंग अष्टकोणीय है तथा काले-भूरे रंग का है। शिव रूप में पूजे जाते शिवलिंग की ऊंचाई 7-8 फुट है जबकि पार्वती के रूप में अराध्य हिस्सा 5-6 फुट ऊंचा है।
भरत की प्रिय पूजा-स्थली
मान्यता है, त्रेता युग में भगवान राम के भाई भरत जब भी अपने ननिहाल कैकेय देश (कश्मीर) जाते थे, तो काठगढ़ में शिवलिंग की पूजा किया करते थे।
कब जाएं?
काठगढ़ महादेव के दर्शनों के लिए साल भर में कभी भी जाया जा सकता है, मगर शिवरात्रि व सावन माह में लगने वाले मेलों में जाने का विशेष महत्व है।
कैसे जाएं?
मंदिर को जाने के दो मार्ग हैं। एक मार्ग पंजाब की जम्मू-कश्मीर को लगती सीमा का प्रवेश द्वार कहे जाते पठानकोट-इंदौरा जाता है। पठानकोट से यह मंदिर छह किमी दूर है। जबकि दूसरा मार्ग जालंधर-पठानकोट राजकीय मार्ग पर मीरथल क़स्बे से चार किमी दूर है। पठानकोट रेल से भी जुड़ा हुआ है। निकटतम हवाई अड्डा राजा सांसी (अमृतसर) है।
कहां ठहरें? काठगढ़ महादेव में ठहरने के लिए भव्य धर्मशाला है, जबकि निकटवर्ती नगर पठानकोट में होटलों व धर्मशालाओं की भरपूर व्यवस्था है।
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