शुक्रवार, 28 नवंबर 2008

साधना का परिणाम है सिद्धि

मनुष्य अपने जीवन में धन, अनुगामिनी पत्नी, आज्ञाकारी संतान, पद के साथ-साथ यश भी चाहता है। संसार में शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति होगा, जो प्रसिद्धि के शिखर पर नहीं पहुँचना चाहता हो। यही वजह है कि जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में शीर्षस्थजनों को देखकर व्यक्ति यही कामना करता है कि काश, मैं भी उन जैसा यशस्वी हो जाऊँ।
वर्तमान अर्थ युग में यह माना जाता है कि मनुष्य का अंतिम लक्ष्य अर्थ संपन्न होना है। मगर यह मान्यता अर्धसत्य है, वह यूँ कि जिस व्यक्ति ने धनोपार्जन की इच्छा पूरी कर ली हो, उसका अगला लक्ष्य प्रसिद्धि प्राप्त करना होता है।
ऐसी मनोकामना रखने वाले के सामने प्रेरक व्यक्तित्व वे लोग होते हैं, जो अपने-अपने क्षेत्रों में शिखर पर विराजित होते हैं। यशेच्छुजनों में ज्यादातर ऐसे होते हैं, जो अपनी निगाहें शिखर पर रखते हैं, मगर शिखर की शुरुआत कहाँ से हुई, इस पर उनका ध्यान नहीं जाता।
यह मानसिकता सिरे से गलत है। इसे विपरीत शुरुआत भी कह सकते हैं। सही मानसिकता और सही शुरुआत यह है कि यशेच्छु व्यक्ति प्रथम सोपान देखे। पहली सीढ़ी पर पैर रखे बगैर भला अंतिम सीढ़ी पर कभी पहुँचा जा सकता है?
पहली सीढ़ी का नाम है साधना, तपस्या और अभ्यास। जो व्यक्ति साधना, तपस्या और अभ्यास की आग में नहीं तपता है, वह कुंदन नहीं बन सकता। प्रसिद्ध कवि डॉ. शिवमंगलसिंह 'सुमन' ने एक मुलाकात में हम रचनाकर्मियों से कहा था- 'आसन सिद्ध बनो।' इसी तरह एक अन्य प्रसिद्ध रचनाकारने लिखा था- 'हजार पंक्तियाँ पढ़ो, तब एक पंक्ति लिखो।' साधक के जीवन में अभ्यास सतत चलने वाली प्रक्रिया है, फिर चाहे वह प्रसिद्धि के शिखर पर ही क्यों न विराजमान हो।
अभ्यास की अनिवार्यता इस कथन से सिद्ध होती है- 'चाकू चाहे कितने ही अच्छे लोहे का क्यों न बना हो, अगर उसकी धार रोज तेज न की जाए, तो वह भोथरा हो जाएगा।' वस्तुतः चाकू अच्छे लोहे का होना प्रकृति प्रदत्त वरदान है, मगर वह वरदान तब ही फलीभूत होता है, जब नित्य अभ्यास की धार होती रहे।
यह बात शत-प्रतिशत सत्य है कि शीर्ष पर बैठा कोई भी रचनाकार, कोई भी कलाकार क्यों न हो, अगर वह साधना से विमुख हो जाता है, तो प्रकृति प्रदत्त प्रतिभा भी उसका साथ छोड़ देती है। फलतः उसकी महत्ता, उसकी ऊँचाई घटती चली जाती है।
यही वजह है कि सतर्क रचनाकार कलाकार निरंतर साधनारत रहते हैं। वे जानते हैं कि उन्हें जो प्रसिद्धि प्राप्त हुई है, उसके पीछे वह सिद्धि है, जो साधना का परिणाम है। जो साधना से विमुख होगा, सिद्धि उसका साथ छोड़ देगी और सिद्धि के द्वारा साथ छोड़ते ही प्रसिद्धि का महल ताश के पत्तों की तरह गिर जाएगा।

कोई टिप्पणी नहीं: