रविवार, 23 नवंबर 2008

राजिम का पुरातात्विक महत्व

राजीव लोचन मंदिर में कल्चुरी संवत् 1816 (अर्थात् संभवत: 1145 ई.) का एक शिलालेख है जिसे रतनपुर के कल्चुरी नरेशों के सामंत जगतपाल ने लिखवाया था। अभिलेख में रतपालदेव के वंश का नाम राजमल लिखा हुआ है। ""राजमल'' से ""राजम'' जिसे कनिंधम ने राजिम शब्द की उत्पत्ति माना है। राजिम शब्द की उत्पत्ति के बारे में अलग-अलग व्याख्या है।

राजिम से बहुत सारी पुरातात्विक सामग्रियां प्राप्त हुई हैं। इसीलिए पुरातात्वविदों के लिए राजिम एक आकर्षण का केन्द्र है। इसके उपरान्त राजिम एक ऐसी जगह है जहां से प्राप्त सामग्रियों का काल किसी विशेष युग से न होकर भिन्न-भिन्न कालों से हैं।

रतनपुर के कलचुरी नरेश जालल्लदेव प्रथम एवं रन्तदेव द्वितीय के विजय का उल्लेख राजीव लोचन मंदिर से प्राप्त शिलालेखों मे हुआ है और उसके सम्बंध में अन्य अभिलेखों में कोई जानकारी नहीं मिलती। महाशिव तीवरदेव का जो ताम्रपत्र राजिम से प्राप्त हुआ है उससे उसके साम्राज्य की सीमा के बारे में जानकारी मिलती है। विलासतुंग के नल वंश के बारे में जानकारी, राजीव लोचन मंदिर से जो शिलालेख मिला है, उसी से पता चलता है। राजिम के पास पितईबंद नाम का एक गांव है जहां से मुद्रा मिली है। उसी मुद्रा से पहली बार ""क्रमादित्य'' नाम के राजा के बारे में पता चला है और यह भी प्रमाणित हुआ है कि महेन्द्रादित्य के साथ उसके पारिवारिक संबंध थे। इसके अलावा यहां ज्यादा मात्रा में मृण्पात्र के अवशेष मिले है जिसके अवशेषों के अध्ययन से कहा गया है कि यहां की संस्कृति की शुरुआत चाल्कोलिथिक युग में हुई थी।

यहां के मंदिर और मूर्तियां लोगों की धार्मिक आस्था का प्रतीक होने के साथ भारतीय मूर्तिकला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।

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