रविवार, 2 नवंबर 2008

गनगौर व्रत

यह चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनाया जाता है । इस दिन सौभाग्यवती स्त्रियाँ व्रत रखती है । कहावत है कि इस दिन पार्वती ने भगवान शंकर से सौभाग्यवती रहने का वरदान प्राप्त किया था तथा पार्वती ने अन्य स्त्रियों के सौभाग्यवती रहने का वरदान दिया था ।

पूजन के समय रेणुकी की गौर बनाकर उस र महावर और सिन्दूर चढ़ाने का विशेष प्रावधान है । चन्दन, अक्षते, धूपबत्ती, दीप, नैवेघ से पूजन करके भोग लगाया जाता है । विवाहित स्त्रियों को गौर पर चढ़ाये सिन्दूर को अपनी माँग में लगाना चाहिये ।

कथा ः एक बार भगवान शंकर पार्वती जी एवं नारद जी के साथ भ्रमण हेतु चल दिये । वे चलते-चलते चैत्र शुक्ल तृतीया को एक गाँव में पहुँचे । उनका आना सुनकर ग्राम की निर्धन स्त्रियाँ उनके स्वागत के लिये थालियों में हल्दी अक्षत लेकर पूजन हेतु तुरन्त पहुँच गई । पार्वती जी ने उनके पूजा भाव को समझकर सारा सुहाग रस उन पर छिड़क दिया । वे अटल सुहाग प्राप्त कर लौंटी ।

धनी वर्ग की स्त्रियाँ थोड़ी देर बाद अनेक प्रकार के पकवान, सोने-चाँदी के थालों में सजाकर पहुँची । इन स्त्रियों को देखकर भगवान शंकर ने पार्वती से कहा – तुमने सारा सुहाग रस तो निर्धन वर्ग की स्त्रियों को ही दे दिया । अब इन्हें क्या दोगी ।

पार्वती जी बोली – प्राणनाथ । उन स्त्रियों को ऊपरी पदार्थों से बना रस दिया गया है । इसलिये उनका रस धोती से रहेगा । परन्तु मैं इन धनी वर्ग की स्त्रियों को अपनी अंगुली चीरकर रक्त का सुहाग रस दूंगी जो मेरे समान सौभाग्यवती हो जायेंगी । जब इन स्त्रियों ने पूजन समाप्त कर लिया तब पार्वती जी ने अपनी अंगुली चीरकर उस रक्त को उनके ऊपर छिड़क दिया । जिस पर जैसे छीटें पड़े उसने वैसा ही सुहाग पा लिया ।

इसके बाद पार्वती जी अपने पति भगवान शंकर से आज्ञा लेकर नदी में स्नान करने चली गई । स्नान करने के पश्चात् बालू की शिवजी की मूर्ति बनाकर पूजन किया । भोग लगाया तथा प्रदक्षिणा करके दो कणों का प्रसाद खाकर मस्तक पर टीका लगाया । उसी समय उस पार्थिव लिंग से शिवजी प्रकट हुए तथा पार्वती को वरदान दिया – आज के दिन जो स्त्री मेरा पूजन और तुम्हारा व्रत करेगी उसका पति चिरंजीवी रहेगा । तथा मोक्ष को प्राप्त होगा । भगवान शिव यह वरदान देकर अन्तर्धान हो गये ।

इतना सब करते-करते पार्वती जी को काफी समय लग गया । पार्वती जी नदी के तट से चलकर उस स्थाने पर आईं जहाँ पर भगवान शंकर व नारदजी को छोड़कर गई थी । शिवजी ने विलम्ब से आने का कारण पूछा तो इस पर पार्वती जो बोली, मेरे भाई-भावज नदी किनारे मिल गए थे । उन्होंने मुझसे दूध-भात खाने तथा ठहरने का आग्रह किया । इसी कारण से आने में देर हो गई । ऐसा जानकर अन्तर्यामी भगवान शंकर भी दूध-भात खाने के लालच में नदी तट की ओर चल दिये । पार्वती जी ने मौन भाव से भगवान शिवजी का ही ध्यान करके प्रार्थना की, भगवान आप अपनी इस अनन्य दासी की लाज रखिये । प्रार्थना करती हुई पार्वती जी उनके पीछे-पीछे चलने लगी । उन्हें दूर नदी तट पर माया का महल दिखाई दिया । वहाँ महल के अन्दर शिवजी के साले तथा सहलज ने शिव-पार्वती का स्वागत किया ।

वे दो दिन वहाँ रहे । तीसर दिन पार्वती जी ने शिवजी से चलने के लिये कहा तो भगवान शिव चलने को तैयार न हुए । तब पार्वती जी रुठकर अकेली ही चल दी । ऐसी परिस्थिति में भगवान शिव को भी पार्वती के साथ चलना पड़ा । नारदजी भी साथ चल दिये । चलते-चलते भगवान शंकर बोले, मैं तुम्हारे मायके में अपनी माला भूल आया हूँ । माला लाने के लये पार्वती जी तैयार हुई तो भगवान ने पार्वती जी को न भेजकर नारदजी को भेजा । पर वहाँ पहुँचने पर नारदजी को कोई महल नजर नहीं आया । वहाँ दूर-दूर तक जंगल-ही-जंगल था । सहसा बिजली कौंधी । नारदजी को शिवजी की माला एक पेड़ पर टंगी दिखाई दी । नारदजी ने माला उतारी और शिवजी के पास पहुँच कर यात्रा कर कष्ट बताने लगे । शिवजी हँसकर कहने लगे – यह सब पार्वती की ही लीला है ।

इस पर पार्वती जी बोलीं – मैं किस योग्य हूँ । यह सब तो आपकी ही कृपा है । ऐसा जानकर महर्ष नारदजी ने माला पार्वती तथा उनके पतिव्रत प्रभाव से उत्पन्न घटना की मुक्त कंठ से प्रशंसा की । जहाँ तक उनके द्घारा पूजन की बात को छिपाने का प्रश्न है वह भी उचित ही जान पड़ता है क्योंकि पूजा छिपाकर ही करनी चाहिये । चूँकि पार्वती जी ने इस व्रत को छिपाकर किया था, उसी परम्परा के अनुसार आज भी पूजन के अवसर पर पुरुष उपस्थित नहीं रहते ।

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