सोमवार, 29 दिसंबर 2008

श्रावण और शिवोपासना

शताश्वमेधेनकृतेनपुण्यं

गोकोटिभि:स्वर्ण सहस्त्रदानात्।

नृणांभवेत्सूतकदर्शनेन

यत्सर्वतीर्थेषुकृताभिषेकात्॥

सैकडों अश्वमेध यज्ञ करने अथवा करोडों गौओंके दान करने और हजारों मन सोने का दान करने तथा सभी तीर्थोमें स्नान-पूजा करने से जो पुण्य फल प्राप्त होता है, वहीं पुण्य फल मनुष्य को केवल पारद के दर्शन मात्र से प्राप्त हो जाता है।

ॐनम: शिवाय

श्रावण का महीना एवं देवाधिदेव महादेव का दर्शन पूजन रुद्राभिषेक इनमें नैसर्गिक अन्योन्याश्रित संबंध है। बोल बम करता हुआ कांवरियोंका समूह नास्तिकोंके मन में भी आस्था का संचार करता है। विशेषकर सोमवार के दिन भगवान शिव का पूजन। प्रश्न उठता है कि शिव की अर्चना के लिए श्रावण मास ही क्यों? इस प्रश्न के उत्तर में ऋग्वेद कहता है-

संवत्सरंशशमानाब्रह्मणाव्रतचारिण:।

वाचंपर्जन्यानिन्वितांप्रमण्डूकाअवादिषु॥

(सप्तम मंडल 763का प्रथम श्लोक)

अर्थात् वृष्टिकालमें ब्राह्मण वेद पाठ का व्रत करते हैं और उस समय में प्राय: उन सूक्तोंको पढते हैं, जो तृप्तिदायक हैं। इसका यह भी अर्थ है कि वर्षा ऋतु के मंडन करनेवाले जीव वर्षा ऋतु में इस प्रकार ध्वनि करते हैं, मानो एक वर्ष के अंतराल में उन्होंने मौन व्रत धारण रखा हो और इस ऋतु में बोलना प्रारंभ कर दिया हो। इस मंत्र में परमात्मा ने यह उपदेश दिया है कि जिस प्रकार क्षुद्र जंतु भी वर्षा काल में आह्लादजनकध्वनि करते हैं अथवा परमात्मा का यशोगान करते हैं, तुम भी उसी प्रकार परमात्मा का यशोगान करो।

गोमायुरदादबमायुरदात्पृष्नरदाद्धरितोनो वसूनि।

गवां मंडूकादक्ष: शतानिसहस्त्रसावेप्रतिरंतआयु:॥

अर्थात् अनंत प्रकार की औषधियां, जिसमें उत्पन्न होती हैं, उस वर्षा काल अथवा श्रावण मास को सहस्त्रासापकहते हैं। उस काल में परमात्मा हमको अनंत प्रकार का शिक्षा-लाभ कराएं और हमारे ऐश्वर्य और आयु को बढाएं। शिव पूजन से संतान, धन-धान्य, ज्ञान और दीर्घायु की प्राप्ति होती है। शिव को जलधारा प्रिय है। विशेष कर सोमवार को अनजाने में भी किया गया शिवव्रतमोक्ष को देनेवालाहोता है। अनजाने में शिवरात्रि व्रत करने से एक भील पर भगवान शंकर की कृपा हुई। एक दिन एक भील के मातापिताएवं पत्नी भूख से पीडित होकर उससे याचना की-हे वनचर, हमें कुछ खाने को दो। इस प्रकार की याचना सुनकर वह भील मृगों के शिकार के लिए वन में निकल गया। वह सारे वन में घूमने लगा। दैवयोग से उसे उस दिन कुछ भी नहीं मिला तथा सूर्यास्त हो गया। उसने मन में यह निश्चय किया कि बिना कुछ लिए घर जाना बेकार है। वह शिकार की प्रतीक्षा में भूखा-प्यासा वहीं वन में ठहर गया। रात्रि के प्रथम प्रहर में वह एक बिल्व वृक्ष पर चढकर जलाशय के समीप बैठा था। एक प्यासी हिरणीवहां आ गई। उसे देखकर व्याध को बडा हर्ष हुआ। तुरंत उसने अपने धनुष पर एक वाण संधान किया। उसके हाथ के धक्के से थोडा सा जल तथा बिल्वपत्रनीचे गिर पडा। उस वृक्ष के नीचे शिवलिंगथा। उक्त जल और बिल्वपत्रसे प्रथम प्रहर में ही शिव की पूजा संपन्न हो गई। उस पूजा के महात्म्यसे उस व्याध का सारा पातक तत्काल नष्ट हो गया। तब जो मनुष्य पूरी चेतना में जानबूझ कर पूरी श्रद्धा भक्ति के साथ भगवान शिव की पूजा जल, अक्षत, चंदन, फूल, बिल्वपत्रआदि से करेगा, उस पर भला शिव की विशेष अनुकंपा कैसे नहीं होगी?

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