बुधवार, 24 दिसंबर 2008

क्या है महाशिवरात्रि-व्रत

महाशिवरात्रि-व्रत के रहस्य को जानने के लिए यह आवश्यक है कि उसका पदच्छेद करके उसके अंगीभूत प्रत्येक शब्द पर विचार किया जाय। देखा जाय कि ‘शिव’ किसे कहते हैं, ‘रात्रि’ क्या चीज है और ‘व्रत’ का क्या अर्थ है। साथ ही, इसका साधन क्या है और इसे करने से किस फल की प्राप्ति होती है, आदि। शिव- ‘शिव क्या है’ इसकी जानकारी प्राप्त कर लेना शिव कृपा पर ही अवलम्बित है। वस्तुत: इसे जानना ही शिव का साक्षात्कार कर लेना है, जो बहुत दूर की बात है, फिर भी साधारण ज्ञान के लिए इतना जान लेना आवश्यक है -
शेते तिष्ठति सर्वं जगत् यस्मिन् स: शिव: शम्भु: विकाररहित: …।
अर्थात ‘जिसमें सारा जगत् शयन करता है, जो विकार रहित है वह ‘शिव’ है, अथवा जो अमंगल का ह्रास करते हैं, वे ही सुखमय, मंगलरूप भगवान् शिव हैं। जो सारे जगत् को अपने अंदर लीन कर लेते हैं वे ही करुणा सागर भगवान् शिव हैं। जो भगवान् नित्य, सत्य, जगदाधार, विकाररहित, साक्षीस्वरूप हैं, वे ही शिव हैं।’महासमुद्र रूपी शिवजी ही एक अखण्ड पर तत्व हैं, इन्हीं की अनेक विभूतियां अनेक नामों से पूजी जाती हैं, यही सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान् हैं, यही व्यक्त-अव्यक्त रूप से क्रमश: ‘सगुण ईश्वर’ और ‘निर्गुण ब्रह्म’ कहे जाते हैं तथा यही ‘परमानंद’, ‘जगदात्मा’, ‘शम्भव’, ‘मयोभव’, ‘शंकर’, ‘मयस्कर’, ‘शिव’, ‘रुद्र’ आदि नामों से संबोधित किये जाते हैं। भगवान शिव वर्णनातीत होते हुए भी अनुभवगम्य हैं, यही आशुतोष भक्तों को अपनी गोद में रखते हैं, यही त्रिविधि तापों का शमन करने वाले हैं। इन्हीं से समस्त विद्याएं एवं कलाएं निकली हैं, ये ही वेद तथा प्रणव के उद्गम हैं। इन्हीं को वेदों ने ‘नेति-नेति’ कहा है। यही नित्याश्रय और अनन्ताश्रय हैं और यही दयासागर एवं करुणावतार हैं। इनकी महिमा का वर्णन करना मनुष्य की शक्ति के बाहर है।रात्रि ‘रा’ दानार्थक धातु से ‘रात्रि’ शब्द बनता है, अर्थात् जो सुखादि प्रदान करती है - वह ‘रात्रि’ है।
रात्रि सदा आनन्ददायिनी है, अत: सबकी आश्रयदात्री होने के कारण धर्मग्रंथों में उसकी स्तुति की गयी है और यहां रात्रि की स्तुति से प्रकृतिदेवी, दुर्गादेवी अथवा शिवादेवी की ही स्तुति समझनी चाहिए। इस प्रकार शिवरात्रि का अर्थ होता है ‘वह रात्रि जो आनन्द देने वाली है और जिसका शिव के नाम के साथ विशेष संबंध है।’ ऐसी रात्रि माघ फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की है, जिसमें शिवपूजा, उपवास और जागरण होता है। उक्त फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि को शिवपूजा करना एक महाव्रत है। अत: उसका नाम महाशिवरात्रि-व्रत पड़ा। शिव के भावुक भक्तों के लिए इस संबंध में कुछ आवश्यक उद्धरण दिये जाते हैं -
परात् परत्तरं नास्ति शिवरात्रिपरात् परम्।न पूजयति भक्त्येशं रुद्रं
भ्रमते नात्र संशय:॥
(स्कन्दपुराण)
सौरो वा वैष्णवो वान्यो देवतान्तरपूजक:
पूजाफलमान्नोति शिवरात्रिबहिर्मुख:॥
(नृसिंह-परिचर्या और पद्मपुराण)
इसका आशय यह है कि शिवरात्रि-व्रत परात्पर है। जो जीव इस शिवरात्रि में महादेव की भक्तिपूर्वक पूजा नहीं करता, वह अवश्य सहस्रों वर्षों तक घूमता रहता है। चाहे सूर्यदेव का उपासक हो, चाहे विष्णु तथा अन्य किसी देव का, जो शिवरात्रि का व्रत नहीं करता, उसको फल की प्राप्ति नहीं होती। स्कन्दपुराण के अनुसार -
शिवं तु पूजयित्वा यो जागर्ति च चतुर्दशीम्।
मातु: पयोधररसं न पिवेत् स कदाचन॥
जो शिव-चतुर्दशी में शिव की पूजा करके जागता रहता है, उसको फिर किसी जन्म में अपनी माता का दूध नहीं पीना पड़ता अर्थात वह मुक्त हो जाता है। ‘चाहे सागर सूख जाय, हिमालय भी क्षय को प्राप्त हो जाय, मन्दर, विन्ध्यादि पर्वत भी विचलित हो जाये, पर शिव-व्रत कभी विचलित (निष्फल) नहीं हो सकता।’ इसका फल अवश्य मिलता है। जो मनुष्य ‘कालतत्व’ का भाव जानते हैं, उन्हें विदित है कि समय पर कार्य करने से इष्ट पदार्थों की प्राप्ति होती है। फाल्गुन के पश्चात् नये वर्ष चक्र का प्रारम्भ होता है। रात्रि के पश्चात् दिन और दिन के पश्चात् रात्रि होती है अथवा लय के बाद सृष्टि और सृष्टि के बाद लय होता है। इस प्रकार लय के बाद सृष्टि और फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी के बाद वर्षचक्र की पुनरावृत्ति एक ही बात है। वर्ष चक्र की पुनरावृत्ति के समय मुमुक्षु जीव परम तत्व शिव के पास पहुंचना चाहता है। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार कृष्ण चतुर्दशी में चन्द्रमा सूर्य के समीप होते हैं। अत: उसी समय में जीवरूपी चन्द्र का शिवरूपी सूर्य के साथ योग होता है। अतएव फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को शिव पूजा करने से जीव को इष्ट पदार्थ की प्राप्ति होती है।
शिवरात्रि-व्रतअब यह समझना है कि शिवरात्रि-व्रत क्या है? इस व्रत में उपवास, जागरण और शिव-पूजा करने की परंपरा है। इन सबका तात्विक अर्थ समझना चाहिए। इसके पहले ‘व्रत’ क्या है, यह समझना आवश्यक है। वैदिक साहित्य में व्रत का अर्थ वेदबोधित, इष्टप्रापक कर्म है। दार्शनिक काल में ‘अभ्युदय’ और ‘नि:श्रेयस’ कर्मों का हेतु-पदार्थ ही ‘व्रत’ शब्द का अर्थ समझा जाता था। अमरकोष में ‘व्रत’ का अर्थ नियम है। पुराणों में व्रत ‘धर्म’ का वाचक हैँ निष्कर्ष यह है कि वेदबोधित अगि्होत्रादि कर्म, शास्त्रविहित नियमादि अथवा साधारण तथा असाधारण धर्म को ही ‘व्रत’ कहते हैं अथवा थोड़े में यों समझिये कि जिस कर्म द्वारा भगवान का सान्निध्य होता है वही व्रत है। उपवास क्या है? जीवात्मा का शिव के समीप वास ही ‘उपवास’ कहा जाता है।
उप-समीपे यो वास: जीवात्मपरमात्मनो: : स विज्ञेयो न तु कायस्य शोषणम्॥(वराहोपनिशद्)देवीपुराण में कहा गया है - ‘भगवान् (शिव) का ध्यान, उनका जप, स्नान, भगवान् की कथा का श्रवण आदि - इन गुणाें के साथ वास अर्थात् इन क्रियाओं को करते हुए काल-यापन करना ही उपवासकर्ता का लक्षण है। व्रती के अन्दर ये लक्षण अवश्य होने चाहिए। व्रती के लिए सब प्रकार के विषय-भोगों का वर्जन आवश्यक है। केवल अनशन करने से उपवास या व्रत नहीं होता।’ जागरण-मुमुक्षु जीवात्मा के लिए ‘जागरण’ आवश्यक है-
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने:॥
‘सर्व प्राणियों की अर्थात् विषयासक्त संसारी जनों की जो निशा है, उसमें संयमी जगे रहते हैं। आत्मदर्शन विमुख प्राणिगण जिस जगदवस्था में जागते हैं, वह मनीषी, आत्मदर्शननिरत योगी के लिए निशा है।’ अत: सिद्ध है कि विषयासक्त जिसमें निद्रित हैं उसमें संयमी प्रबुद्ध हैं। अत: शिवरात्रि में जागरण करना आवश्यक है। शिवपूजा का अर्थ पुष्प-चन्दन-बिल्बपत्र अर्पितकर शिवनाम का जप-ध्यान करना एवं चित्तवृत्ति का निरोध कर जीवात्मा का परमात्मा ‘शिव’ के साथ योग करना है।योगशास्त्र के शब्दों में इन्द्रियों का प्रत्याहार, चित्तवृत्ति का निरोध और महाशिव रात्रि व्रत वास्तव में एक ही पदार्थ हैं। पंच ज्ञानेन्द्रियां, पंच कर्मेन्द्रियां तथा मन, अहंकार, चित्त और बुद्धि-इन चतुर्दश का समुचित निरोध ही सच्ची ‘शिव-पूजा’ या ‘शिवरात्रि-व्रत’ है। चाहे शिव-पूजा ज्ञान योग द्वारा कीजिये अथवा कर्मयोग द्वारा, भक्ति का सम्मिश्रण दोनों में रहेगा। ज्ञानप्रधान भक्ति अथवा कर्मप्रधान भक्ति द्वारा फाल्गुन-कृष्ण चतुर्दशी को शिवरात्रि-व्रत करने से मुक्ति मिलेगी।जो लोग शिव-भक्ति से प्रेरित होकर सच्चे पवित्र मन से अनशनव्रतकर परतत्व शिव की पूजा बिल्व-पत्र, दुग्ध व पुष्पादि से करते हैं, उन्हें भी अपनी भक्ति के अनुसार फल मिलता है। क्योंकि वास्तव में महाशिवरात्रि-व्रत का उद्देश्य जीवात्मा का परमात्मा के साथ सहयोग ही है। अपनी-अपनी भक्ति के अनुसार समस्त भूमण्डल के भावुकजन वैज्ञानिक महाशिवरात्र-व्रत का अनुष्ठान कर सकते हैं। भगवान् भूतनाथ की दया से उन्हें सिद्धि अवश्य मिलेगी। अज्ञानवश एक व्याध ने महाशिवरात्रि-व्रत का अनुष्ठान किया था, जिससे शिव के गणों ने उसके लिए भी एक विमान भेजकर उसे शिवलोक में पहुंचा दिया। यम ने भगवान् शिव के पास जाकर उस व्याध की इन शब्दों में शिकायत की -निषादो जीवघाती च सर्वधर्मबहिष्कृत:।न धर्मोऽप्यर्जितस्तेन निर्गतं यमशासनम्॥
आदि। भगवान शिव ने यमदेय को उस व्याध की कहानी कह सुनायी कि कैसे उसने बिल्वपत्र द्वारा शिवलिंग की उपासना की और कैसे अनशन-व्रत द्वारा ज्ञान प्राप्त किया। उन्होंने यमदेव को आध्यात्मिक घटनाओं का तारतम्य भी समझा दिया। अनशन द्वारा भक्तिपूर्वक शिव की बिल्वपत्र, पुष्प, चन्दन, दुग्ध, दधि द्वारा पूजा से बहुत बड़ा आध्यात्मिक लाभ और सांसारिक अभ्युदय प्रारम्भ में होगा। आज ईश्वर के नाम पर जगह-जगह झगड़े हो रहे हैं। शैव-पदार्थों की अवहेलना है। यद्यपि अनेक व्रतों तथा साधनों द्वारा शान्ति की चेष्टा की जा रही है तथापि महाशिवरात्रि-व्रत द्वारा ही इस ओर विशेष सफलता मिल सकती है।

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