गुरुवार, 18 दिसंबर 2008

मण्डलेश्वर मंदिर (अमरावती अर्थात अरथुना)


मण्डलेश्वर यहां का प्रमुख शिवालय है जिसमें पूर्व, उत्तर एवं दक्षिण तीनों तरफ कलात्मक तोरण वाले द्वार हैं। गर्भगृह सभामण्डप की तुलना में काफी नीचे भूगर्भ म बना है जिसमें पहुंचने क लिए सीढयां बनी हुई हैं। सभा मण्डप में लगे विक्रम संवत् 1136 तद्नुसार सन् 1080 ई. के शिलालेख से पता चलता है कि वागड के प्रतापी शासक चामुण्डाराज ने अपने पिता मण्डलीक की स्मृति में इसका निर्माण करवाया था जिनके नाम से इसे मण्डलेश्वर मंदिर के नाम से जाना जाता है।

यहां प्राचीन मण्डलेश्वर शिवालय मुख्य है। यहां के मण्डलेश्वर शिवालय में गर्भगृह सभा मण्डप से काफी नीचे है जिसमें 2 फीट का बडा शिवलिंग है जिसकी जलाधारी तीन फीट गोलाई वाली है। इस मन्दिर का निर्माण दक्षिण भारतीय शैली में हुआ है। मण्डलेश्वर के पास छोटी मन्दरी है जिस पर सूक्ष्म तक्षण कला है। यहां कलात्मक छतरी भी है। मन्दिर के तल से लेकर शिखर तक सुन्दर कारीगरी का दिग्दर्शन होता है। मन्दिर के उत्तरी हिस्से में गौमुख है जिसका मुँह मगर के आकार का है। मन्दिरों में कहीं-कहीं कृशेरी, नरमुण्ड, श्वान, पाश कमण्डल, नागपाश, बिच्छू, ग्रहों, इन्द्र आदि की प्रतिमाएं हैं। एक मन्दिर पर 84 आसन, 64 योगिनियों आदि की मूर्तियां हैं। यहां एक मन्दिर के बाहर सुरसुन्दरी, भैरव, आदि की प्रतिमाएं हैं।

इसके पास ही अन्य शिवालय और विभिन्न देवी-देवताओं के प्राचीन मन्दिर हैं। मण्डलेश्वर शिवालय के सम्मुख प्राचीन जल कुण्ड है। न सिर्फ वागड अंचल बल्कि आस-पास के क्षेत्रों के लोगों की मण्डलेश्वर तथा हनुमान मन्दिर पर अगाध श्रद्धा भाव रहा है। लोक मान्यता है कि यहां आने पर मनोकामना अवश्य पूरी होती है।

सोमेश्वर महादेव मंदिर - पंचायतन शैली का यह भव्य मंदिर पहाडी के पीछे गमेला तालाब के किनारे पर स्थित है, जिसमें पूर्व में प्रवेश हेतु एक तोरण द्वार बना हुआ है। मंदिर का शिखर आज खण्डित अवस्था में है, परन्तु इसके निचले भाग में शिव ताण्डव एवं अन्धकासुर रूपों तथा चामुण्डा देवी की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं।

किम्वदन्ती के अनुसार अरथुना या उत्थुनक का संबंध अर्जुन से भी जोडा जाता है। मान्यता है कि तत्कालीन राजा के पास कोई पारस पत्थर था। दैवीय स्वप्नादेश से राजा पुण्डरीक ने अमरावती अर्थात अरथुना में शिव मंदिर बनाकर मन्दिर निर्माण का अपना अभियान आरंभ किया और अरथुना से लेकर त्रिपुरा सुन्दरी तक पूरे क्षेत्र में काफी संख्या में मन्दिरों का निर्माण किया। जनश्रुति है कि इस राजा के पास पारस पत्थर था और यह रोजाना एक मन्दिर की नींव रखने के बाद ही भोजन करता था।

पुरातत्व और प्राचीन शिल्प-वैभव के लिहाज से महत्वपूर्ण अरथुना के लिए बांसवाडा-अहमदाबाद मार्ग पर बांसवाडा जिला मुख्यालय से 38 किलोमीटर दूर गढी से रास्ता जाता है। गढी से यह आनन्दपुरी मार्ग पर 20 किलोमीटर दूर है। यहां कई प्राचीन मन्दिर और मूर्तियां खुदायी में निकली हैं जिन्हें पुरातात्विक दृष्टि से बेशकीमती एवं दुर्लभ माना जाता है।

अरथुना क्षेत्र को सन् 1954 में पुरातत्व विभाग के संरक्षण में लेने के बाद इस समूचे क्षेत्र की व्यापक खुदाई में बडी संख्यामें मूर्तियां और मन्दिरों का अस्तित्व सामने आया। अब तक खुदाई में 30 से अधिक मंदिरों को अस्तित्व में लाया जा चुका है। इसमें सर्वाधिक प्राचीन मंदिर मण्डलेश्वर शिवालय है जिसे चामुण्डराज द्वारा अपने पिता मंडलीक की स्मृति में विक्रम संवत् 1136 तद्नुसार 1080 ईस्वी मंद बनवाया गया।

मण्डलेश्वर के बीच हनुमान की शिवस्वरूप प्रतिमा लगी हुई है। इसकी चरण चौकी में 1109 ई। में परमार राजा विजयराज का लेख खुदा हुआ है। वर्तमान में दर्शन का मुख्य केन्द्र यही है। यहां मंगलवार और शनिवार को हनुमान भक्तों का मेला लगा रहता है।

अरथुना के प्राचीन वैभव का दिग्दर्शन करने देशी-विदेशी पर्यटक भी आते रहते हैं। कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की चौदस (छोटी दीपावली) पर यहां मेला भरता है। अरथुना या प्राचीन अमराती 23030 उत्तरी अक्षांश से 760 06 पूर्वी देशान्तर के मध्य स्थित जिला मुख्यालय से 55 किमी पश्चिम में स्थित है। परमार शासकों के संरक्षण में अरथुना में शैव एवं जैन धर्म के मन्दिरों और उपासना पद्धतियों का खास प्रभाव रहा। सामान्यतः ये मंदिर गुलाबी और नीले हरे रंग के पत्थरों से निर्मित किए गए हैं। कुछ मंदिरों के शिखर भाग पक्की मिट्टी की ईंटों से बने हैं।
अरथुना वह पुरातात्विक धाम है जहां श्रद्धा-आस्था और सौन्दर्य के साथ शिल्प-स्थापत्य का बहुरंगी समावेश दृष्टिगोचर होता है। अरथुना के मन्दिरों में विभिन्न शैलियों की मन्दिर निर्माण कला दिखाई देती है।

पूर्ववर्ती मंदिर मालवा की परमार कला से प्रभावित हैं जिनमें मध्य भारत की तत्कालीन कला परम्परा का क्रमिक विकास मिलता है। परवर्ती मंदिरों में महामारु एवं महागुर्जर शैली का सम्मिश्रण मिलता है। कुछ मंदिरों की वास्तुकला एवं चिन्ह गुजरात एवं मेवाड शैली से प्रभावित हैं। अरथूना की मन्दिर निर्माण कला में शिल्प, स्थापत्य और कलात्मक वैशिष्ट्य के साथ मूर्ति सौन्दर्य तथा आकर्षक मूर्ति शिल्प देखने को मिलता है।

हनुमानगढी मंदिर समूह - अरथूना में कई मन्दिर एक क्षेत्र विशेष में समूहों में बने हैं इसे हनुमानगढी मंदिर समूह कहा जाता है। यहां हनुमानजी की काले पाषाण की विशाल प्रतिमा है जिसे परमार शासक विजयराज ने सन् 1107 ईस्वी में प्रतिष्ठित किया। इसी वजह से क्षेत्र को हनुमानगढी मन्दिर समूह के रूप में जाना जाता है। इस समूह में 11 वीं सदी का नीलकण्ठ महादेव मंदिर है जिसके ऊपर ध्वज पुरुष अंकित है।

कुम्भेश्वर मंदिर - 1080 ईस्वी के आस-पास बना कुम्भेश्वर मन्दिर माताजी मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। इस मंदिर में वर्गाकार गर्भगृह, अन्तराल तथा पार्श्व आलिन्द युक्त सभामण्डप एवं मुख्य मण्डप है।

शैवाचार्य मंदिर - कनफटे साधु के मन्दिर नाम से प्रसिद्ध इस मन्दिर का निर्माण 11 वीं शताब्दी के आस-पास हुआ। इनका संबंध नाथ सम्प्रदाय से माना जाता है।

हनुमान मंदिर - मूलतः यह मंदिर शिव को समर्पित था जिसका प्रमाण मंदिर के गर्भगृह के प्रवेश द्वार के उत्तरंग के मध्य लकुलीश की प्रतिमा एवं दोनों पार्श्व में ब्रह्मा एवं विष्णु हैं। मंदिर में लगी हनुमान की मूर्ति की स्थापना 1107 ई. में परमार राजा विजयराज ने करवायी थी तदुपरान्त यह हनुमान मंदिर के नाम से जाना जाने लगा।

चौंसठ योगिनी मंदिर - जैन मंदिर के पूर्व में स्थित यह मंदिर अरथुना के परमार कालीन शासकों की सुन्दरतम् कृतियों में से एक है, जिसे पिपालिया महादेव के नाम से जाना जाता है। यह मंदिर बारहवी शताब्दी के पूर्वार्द्ध में निर्मित हुआ था।

जैन मंदिर समूह - परमार शासकों के शासनकाल में अरथुना जैन धर्म का भी एक प्रमुख केन्द्र रहा है। इसका सबसे ज्वलन्त प्रमाण बारहवीं सदी के पूर्वार्द्ध में निर्मित विशाल पार्श्वनाथ जैन मंदिर है। इस मंदिर के गर्भगृह में पार्श्वनाथ की एक आदमकद मूर्ति स्थापित थी।
अन्य मंदिर - सोमेश्वर महादेव के पूर्व में स्थित कुम्भेश्वर मंदिर और हनुमानगढी के दक्षिण में ऊँचे टीले पर दो अन्य मंदिर हैं, जिन्हे ‘कन्धार डेरा’ के नाम से पुकारा जाता है।

साभार / स्‍त्रोत - डॉ. दीपक आचार्य

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