शुक्रवार, 19 दिसंबर 2008

अद्भुत प्राचीन तीर्थ पाराहेडा (बांसवाडा राजस्थान)


राजस्थान का सुदूरवर्ती दक्षिणाँचल वाग्वर क्षेत्र अर्थात बांसवाडा, डूंगरपुर और निकटवर्ती अंचल कई-कई सभ्यताओं और संस्कृतियों का पावन तीर्थराज है। शिल्प, स्थापत्य और मूर्तिकला की दृष्टि से यह सदियों से अत्यन्त समृद्ध रहा है। अतीत में इस इलाके में हर कहीं सांस्कृतिक केन्द्रों के रूप में देवालयों का निर्माण हुआ, लेकिन कालान्तर में उपयुक्त देख-रेख के अभाव में जीर्ण-शीर्ण होते गये। अब भी यहां कई सारे ऐसे मंदिर और पुरातत्व धाम हैं, जो अद्वितीय एवं अविस्मरणीय हैं। आज भी ये जन-जन की असीम श्रद्धा और ऐतिहासिक धरोहरों के पुरातन धाम बने हुए हैं।

पाराहेडा गांव में नांगेला तालाब के किनारे अवस्थित मंदिर समूह में कई मंदिर हैं, जो अत्यधिक प्राचीन हैं पर जीर्ण-शीर्ण होते जा रहे हैं। इस ऊँची टेकरी पर स्थित शिवालय को पाराहेडा शिवालय के नाम से जानते हैं। मंदिर की बनावट उत्तर भारतीय शैली के अन्य मंदिरों से भिन्न और विशिष्ट है।

यह समूचा क्षेत्र प्राचीनकाल में अति समृद्ध और धर्म श्रद्धा का अप्रतिम केन्द्र रहा है। मंदिर का निर्माण ईस्वी सन् १०५९ में बताया जाता है। मुख्य शिवालय विभिन्न मंदिरों और छतरियों के बीच पूर्वाभिमुख बना हुआ है। पूरी तरह पत्थरों से निर्मित इस मन्दिर का शिल्प-स्थापत्य हर किसी को चकित कर देने वाला है।

निज मंदिर में श्वेत प्रस्तर निर्मित बडी-सी जलाधारी है जिसके केन्द्र में सात ईंच ऊंचा एवं एक फीट से अधिक घेरे वाला कृष्ण वर्ण का शिवलिंग है, जिसकी लोग श्रद्धा और भक्तिभाव से पूजा करते हैं। गर्भ गृह में देवी गौरी की तीन फीट की श्यामवर्ण प्राचीन मूर्ति है। अष्टभुजा इस मूर्ति द्वारा दिव्य आयुध धारण किए हुए व माथे पर मुकुट शोभायमान है। पार्वती की मूर्ति के आभामण्डलीय क्षेत्र में ऊपरी हिस्से में दोनों और लघु मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। गर्भ गृह की छत पर चक्रनुमा गुम्बद है जिस पर सूक्ष्म कारीगरी है। निज मंदिर के द्वार का शिल्प वैविध्य भी उत्कृष्ट है।

गर्भ गृह का द्वार तीन-तीन शिलाखण्डों की परतों से समन्वित कर बना है, जिसके दोनों पार्श्वो पर तीन-तीन फीट की मूर्तियां काले स्तम्भ पर खुदी हुई हैं। इसी द्वार पर विविध देवी-देवताओं, द्वारपालों आदि की प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं। कीर्तिमुख की प्रतिमाओं के अलावा हर तरफ तीन-तीन मूर्तियां काले चमकीले पाषाण से निर्मित हैं। इस परिसर में किसी समय शिव पंचायतन मंदिर थे। निज मंदिर की पार्श्व दीवार पर संवत् १६५० का एक लेख भी अंकित है।

मंदिर में लाल-गुलाबी पत्थरों का प्रयोग खासा आकर्षक बन पडा है। अत्यन्त आकर्षण भरे सभामण्डप का शिल्प वैशिष्ट्य देलवाडा और रणकपुर से भी ज्यादा मनोहारी कहा जा सकता है। यहीं पर एक स्थान पर भगवान गणेश की भग्न प्रतिमा रखी हुई है। कुछ वर्ष पूर्व तक सभा मण्डप में तीन भग्न किन्तु अद्भुत प्रतिमाएं देखी गईं। इनमें से एक प्रतिमा श्वेत संगमरमर से बनी भगवान लकुलीश की तीन फीट की है। यह पद्मासन में ध्यानमग्न है। उनके कानों में कुण्डल हैं। मूर्ति के आधार भाग में मनुष्य और पशु की छोटी-छोटी मूर्तियां विनय मुद्रा में उत्कीर्ण हैं, जो मानव जाति को जीव मात्र के प्रति प्रेम, अहिंसा, दया आदि का उपदेश देती प्रतीत होती हैं। इस सुन्दर मूर्ति के दोनों हाथों के अग्रभाग को खण्डित कर दिया गया है। सभा मण्डप में इस मूर्ति के पास ही कृष्ण वर्ण की तीन-तीन फीट की दो मूर्तियां विलक्षण हैं। पद्मासन में ध्यानावस्थित एवं ज्ञान मुद्रायुक्त ये मूर्तियां मूर्तिकला की दृष्टि से विशिष्ट हैं।

संभवतः ये मूर्तियां शिव के लकुलीश अवतार की हैं। लकुलीश मत का यहां अतीत में प्रचलन रहा है। यह शिव के अवतारों में प्रथम माना जाता है। इतिहास है कि लकुलीश अथवा लकुटीश संप्रदाय पाशुपत शैव उपासना पद्धति में ख्याति प्राप्त रहा है और इस अंचल के मंदिरों में भी इसकी झलक दृष्टिगोचर होती है। अरथुना के देवालयों में भी इसी प्रकार की मूर्तियां हैं। इन दोनों मूर्तियों के आभा मण्डल में जहां सुन्दर कारीगरी है वहीं इनके पार्श्वों में दोनों ओर हाथ जोडे ध्यानस्थ मनु प्रतिमाएं हैं। पाराहेडा शिव पंचायतन की पुरातात्विक दृष्टि से महत्वपूर्ण मूर्तियों पर मूर्ति तस्करों की निगाह रही है व इनमें से कुछ मूर्तियां गायब हो गई हैं।

पाराहेडा मुख्य शिवालय का सभा मण्डप षोडश स्तम्भों का बना हुआ है। देवी की छोटी-छोटी मूर्तियों को आधार बनाकर इसकी छत की रचना की गई है। छत की कारीगरी निश्चय ही बेजोड और कला के चरम बिन्दुओं का स्पर्श करने वाली है। सभा मण्डप की छत पर अजीब कारीगरी से निर्मित सोलह बडी व मनभावन मूर्तियां भी थीं, लेकिन इस समय कोई ६-७ ही शेष रह गई हैं। ये सभी मूर्तियां अपने-अपने विशिष्ट अन्दाजों में नृत्यरत दिखाई दे रही हैं। काले पाषाण पर उत्कीर्ण ये प्रतिमाएं हर किसी को मोहित कर देने वाली हैं। सभा मण्डप के खम्भों पर भी उत्कृष्ट कलाकृतियां खुदी हुई हैं। यहीं पर एक तरफ की दीवार पर चमकीले संगमरमर का ४ गुणा ३ फीट आकार का शिलालेख है, जिस पर प्राच्य लिपि अंकित है। एक भाग से टूट जाने पर यह शिलालेख सीमेंट लगाकर ठीक किया गया है। मंदिर में इस कदर शीतलता है कि भरी गर्मी में भी हर किसी को असीम आत्मतोष का अनुभव होता है।

मंदिर के परिक्रमा स्थल में ऊपरी हिस्सों में तीन दिशाओं के आलियों में दो-दो फीट की विलक्षण प्रतिमाएं हैं, जिनमें नृत्यरत भैरव की प्रतिमा दुर्लभ है। इस मूर्ति को डमरू-पिनाक-त्रिशूल के साथ नृत्य करते दिखाया गया है। यह जीवन्त मूर्ति शिल्प देखते ही बनता है। अन्य मूर्तियां ढोलक बजाती हुई दिखलायी है। इनमें दिग्पाल, देवी आदि की मूर्तियां हैं। इन मूर्तियों के आभामण्डल में अन्य कलाकृतियां भी हैं। मुख्य मंदिर के सामने ही एक छतरी में तीन फुट का सफेद रंग का नन्दी एवं इससे अपेक्षाकृत कुछ छोटे-छोटे काले रंग के नन्दी रखे हुए हैं, जो बहुत पुराने समय के हैं। चार स्तम्भों वाली यह काली छतरी एवं खम्भे अलग ही जान पडते हैं।

मुख्य शिवालय के आगे-पीछे दोनों ही तरफ मूर्ति विहीन दो-दो छोटे मंदिर है जो जीर्ण-शीर्ण हो चुके हैं। मंदिर क्षेत्र के एकदम दांयी तरफ सोलह खम्भों का बना खण्डहर है, जो किसी समय यह सूर्य मंदिर रहा होगा। शिवालय के सामने ही छोटा-सा चार खम्भों का मंदिरनुमा खण्डहर खम्भों पर टिका शेष रह गया है, यह संभवतः गणेश मंदिर रहा होगा। मंदिर परिसर के बांयी और दो चबूतरे बने हुए हैं, जिन पर संगमरमर निर्मित शिलाखण्ड पर वीरवरों की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। इन्हें छतरी कहा जाता हैं। पास ही लोक देवी के दो स्थानक बने हुए हैं। इनके शिलालेखों में भाला लिये अश्वारोही वीरवरों की मूर्तियां हैं। इनके आधार पर भाग में संभवतः १७७५ अंकित किया हुआ है। दो चबूतरों पर क्रमशः एक एवं तीन शिलामूर्तियों के अलावा दो चीरे पांच से छह फुट के हैं, जिनमें से एक उखडा हुआ हैं। मंदिर समूह के सामने एक बावडी हैं, वहीं नंगेला तालाब भी इसके मनोरम वातावरण को ऊंचाइयां प्रदान करता है। समूचे मंदिर को दूसरे किनारे से देखने पर पानी में इसका रम्य प्रतिबिम्ब नजर आता है।
अरथुना से लीमथान एवं पाराहेडा तक के सारे मंदिरों के निर्माण के पीछे रोचक किम्वदन्ती पायी जाती है। इसके अनुसार तत्कालीन राजा के पास दैव कृपा से पारस पत्थर था। इस पत्थर की विशेषता है कि लोहा इससे छूने पर सोने का बन जाता है। इस राजा का नियम था कि रोजाना एक नये मंदिर की नींच रखने के बाद ही वह अन्न जल ग्रहण करता।

राजा के इसी संकल्प का ही परिणाम है कि यह सारा क्षेत्र मंदिरों के संसार जैसा हो गया है। किसी समय यहां भी भव्य प्राचीन नगर था। धर्मान्ध मुस्लिम आततायियों ने इन प्राचीन मंदिरों पर कहर बरपा कर यहां का शिल्प वैभव नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। तालाब के मुहाने मंदिर समूह के चारों और रायण के पेड क्षेत्र की हरियाली को बहुगुणित करते हैं।

पुरातत्व की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण पाराहेडा के इन मन्दिरों को बचाए रखने के लिए क्षेत्र के लोगों ने अपने स्तर पर इनके जीणेार्द्धार का प्रयास किया, लेकिन सरकारी संरक्षण के अभाव में इनके हाल बेहाल होते जा रहे हैं। कुछ वर्ष पूर्व अन्तर्राष्ट्रीय तस्कर चोरों द्वारा कुछ मूर्तियां चुरा ली गई थीं, जिन्हें बाद में बरामद किया गया। इस देवालय समूह के प्रति वागड क्षेत्र के लोगों की परम्परागत आस्थाएं बरकरार हैं और भगवान मण्डलेश्वर एवं अन्य देव प्रतिमाओं की पूजा-अर्चना निरन्तर होती रही है। विशेष अवसरों पर धार्मिक अनुष्ठान भी होते हैं।

पाराहेडा पुरातत्व का वह धाम है जो अनुसंधानकर्ताओं को सदियों से अपनी ओर आकृष्ट कर इतिहास की गाथाओं एवं धर्म आस्थाओं से रू-ब-रू कराने को लालायित है। सचमुच यह आस्था धाम अविस्मरणीय एवं अद्वितीय हैं।

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