वास्तव में, भिन्न-भिन्न नामों से पुकारे जाने वाले ईश्वर एक ही हैं, जिनकी उपस्थिति के प्रति हम अपना विश्वास प्रकट करने के लिए उनकी वंदना करते हैं। उनकी वंदना करने का एक माध्यम अध्यात्म भी है। सच तो यह है कि परमात्मा तक पहुंचने का बाहरी मार्ग धर्म यानी भक्ति है। वहीं ध्यान के जरिए परमात्मा तक पहुंचने का भीतरी मार्ग अध्यात्म है। हम ईश्वर तक कैसे, किस मार्ग से पहुंचते हैं यह मुख्य नहीं, मुख्य है उन तक पहुंचना। लेकिन सवाल यह उठता है कि मनुष्य ईश्वर को क्यों मानता है? क्या ईश्वर को मानना उसकी जरूरत है या मजबूरी? उसका भय है या विश्वास? उसकी श्रद्धा है या लोभ? व्यक्ति के ईश्वर के प्रति आस्था के पीछे कौन-सी मनोवैज्ञानिक वजह अधिक प्रभावी होती है, यह शोध का विषय है। ईश्वर का स्वरूप
अलग-अलग व्यक्तियों के लिए ईश्वर का स्वरूप भी अलग-अलग ही होता है।
कोई ईश्वर को साकार रूप में मानता है, तो कोई निराकार रूप में। किसी के लिए ईश्वर मंदिरों एवं मूर्तियों में बसते हैं, तो किसी के लिए मन-मंदिर एवं दूसरों की सेवा में।
किसी के लिए जीवन ही परमात्मा है, तो किसी के लिए आस-पास मौजूद प्रकृति परमात्मा के समान है। कोई उन तक पहुंचने के लिए भजन-कीर्तन या धार्मिक कर्मकांडों का सहारा लेता है, तो कोई ध्यान एवं योग का। कारण और ढंग भले ही अलग-अलग हो, लेकिन यह सच है कि लोग ईश्वर को किसी न किसी रूप में मानते जरूर हैं। ईश्वर को मानने का चलन सदियों नहीं, युगों पुराना है। ईश्वर एक रहस्य
ईश्वर को मानने के पीछे न केवल धार्मिक कारण हैं, बल्कि कई मनोवैज्ञानिक कारण भी हैं। आज मनुष्य चाहे जितनी भी तरक्की कर ले, वह ईश्वर के रहस्यों को नहीं जान पाया है। वे इनसान के लिए आज भी एक चुनौती के समान हैं।
इनसान का विज्ञान आज भी आत्मा-परमात्मा, जन्म-मृत्यु के रहस्यों को लांघ नहीं पाया है। लेकिन यह सौ प्रतिशत सही नहीं है कि ईश्वर को मानने के पीछे उसका शक्तिशाली होना या रहस्यमयी होना ही एकमात्र कारण है। कुछ लोग भगवान को प्रेम वश भी चाहते हैं। वे ईश्वर को मानते ही इसीलिए हैं, क्योंकि वे उन्हें जान गए हैं। ईश्वर अब उनके लिए कोई रहस्य नहीं रहे। सरल है ईश्वर को मानना
इनसान ईश्वर को क्यों मानता है? क्योंकि मानने के अलावा, इनसान के पास और कोई चारा भी नहीं है। जब हम किसी चीज को मान लेते हैं, तो खोज करने के श्रम से खुद-ब-खुद बच जाते हैं। व्यक्ति सदा मेहनत से बचता रहा है। वह इस बात को भी जानने का प्रयास नहीं करना चाहता कि यह जीवन क्या है? क्यों है? यह सृष्टि किसने बनाई? वह बस मान लेता है, क्योंकि यही उसके लिए सरल है। ईश्वर को जानना या अनुभव में लाना आसान नहीं है।
दरअसल, ईश्वर को जान लेने का अर्थ है- स्वयं को मिटा देना और इनसान स्वयं को मिटाना नहीं चाहता है। इसीलिए वह मान लेता है कि ईश्वर का अस्तित्व है। विश्वास से उपजी श्रद्धा
यदि हम ईश्वर को मानते हैं, तो उसके पीछे संपूर्ण सृष्टि के संचालक की शक्ति को मानना या उसके प्रति श्रद्धा व्यक्त करना तर्कसंगत है। दरअसल, ईश्वर के प्रति श्रद्धा की वजह है हमारा विश्वास। हम यह मानते हैं कि हमारे पास जो कुछ भी है, वह ईश्वर की ही देन है। यहां तक कि हमें जीवन भी उन्होंने ही दिया है, यानी वे दाता हैं। इसलिए उनके प्रति आभार प्रकट करना लाजिमी है। फल प्राप्ति का माध्यम
ईश्वर को मानने का एक कारण भय भी हो सकता है। कुछ लोगों के मन में यह भय होता है कि जीवन में आने वाली विपत्तियां ईश्वर के क्रोधित होने के कारण ही आती हैं। इसलिए यदि वे ईश्वर की पूजा-अर्चना नहीं करेंगे, तो जीवन में कष्ट और तकलीफों का अंबार लग जाएगा। वहीं दूसरी ओर, यदि हम उनकी वंदना करते हैं, तो हमारे ऊपर अच्छे स्वास्थ्य, आयु, धन आदि की कृपा बनी रहेगी।
कुछ लोगों के लिए ईश्वर उनके द्वारा संपन्न किए गए कर्मो के लिए फल प्राप्ति का माध्यम है। सच तो यह है कि उनकी पूजा-अर्चना, धार्मिक कर्मकांड कुछ और नहीं, बल्कि उन्हें प्रसन्न कर मनोवांछित फल प्राप्त करने का माध्यम भर है।
कुछ लोग न केवल ज्योतिषीयगणना को ईश्वर की कृपा प्राप्ति का आधार मानते हैं, बल्कि कुछ लोग दान-पुण्य में ही ईश्वर की प्राप्ति करते हैं। परंपरा का पालन
कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो केवल दूसरों की देखा-देखी में ईश्वर को मानने लगते हैं। उन्हें नफा-नुकसान और सच-झूठ किसी से कोई मतलब नहीं होता है। वे ईश्वर को मानते हैं, क्योंकि उनका परिवार मान रहा है या संपूर्ण दुनिया मान रही है। इसलिए वे भी उस भीड का हिस्सा बने रहना चाहते हैं। भीड से अलग चलना उन्हें समाज से अलग चलने के समान प्रतीत होता है।
सदियों से पीढी-दर-पीढी उनके घर-परिवार के लोग ईश्वर को मानते चले आ रहे हैं। कुछ लोग अपनी परंपरा को निभाने के कारण ईश्वर को पूजतेव मानते आए हैं। वे उसे तोडना नहीं चाहते, बल्कि उसे बरकरार रखना चाहते हैं। संभव है कि वे कुल देवी या कुल पूजन के रूप में इस प्रथा को निभाते आ रहे हों। धार्मिकताका पालन
अधिकतर लोगों का यही मानना है कि ईश्वर को मानना ही धार्मिक होने की परिभाषा है। जो लोग ईश्वर को नहीं मानते हैं, उन्हें नास्तिक समझा जाता है। उनका विचार होता है कि धार्मिक आदमी सीधा, सच्चा, साफ और सात्विक होता है। इस छवि को बनाए रखने के लिए स्वयं को धार्मिक या आस्तिक कहलवाने के लिए लोग ईश्वर के प्रति श्रद्धा रखते हैं या उनकी पूजा-अर्चना करते रहते हैं। ध्यान का माध्यम
ईश्वर को ध्यान एवं योग साधना का सबसे सशक्त माध्यम माना जाता है। दरअसल, हम सभी स्थान से अपना ध्यान हटाकर ईश्वर को याद करते हैं। ऐसे लोगों का मानना यही है कि यदि मन को एकाग्रचित्त करना है, तो उस सर्वशक्तिमान को सच्चे मन से याद करना चाहिए। इससे न केवल हमारे मन के विकार दूर होते हैं, बल्कि हम अपने इंद्रियों को वश में करने में भी सामर्थवानहो जाते हैं।
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