सोमवार, 29 दिसंबर 2008

महाशिवरात्रि पर सात रंग बदलता है शिवलिंग (खटीमा, ऊधमसिंहनगर)

चकरपुर स्थित ऐतिहासिक बनखंडी महादेव शिवमंदिर का शिवलिंग महाशिवरात्रि पर्व पर सात रंग बदलता है। इसके दर्शन से भक्तों की मनोकामनाएं पूर्ण होती है। इसी आस्था व विश्वास के चलते ही शिवरात्रि पर मंदिर में मत्था टेकने वालों भक्तों का सैलाब उमड़ता है। आसपास क्षेत्रों के साथ ही पड़ोसी देश नेपाल के लोग भी जलाभिषेक करने यहां पहुंचते है।

इस शिव मंदिर के बारे में कई मान्यताएं प्रचलित है। बताया जाता है कि इस मंदिर की स्थापना थारु जनजाति द्वारा वर्ष 1830 में की गई थी। शिव भक्तों द्वारा एक शिवलिंग को नर्मदा से चकरपुर क्षेत्र के गांव नौगंवनाथ में स्थापित करने के लिए ले जाया जा रहा था। इसी दौरान यह शिवलिंग जंगल के रास्ते में गिर गया। जब लोग नौगांवनाथ गांव पहुंचे तो शिवलिंग को न पाकर भौचक्के रह गए। बताते हैं कि बाद में गांव वासियों ने शिवलिंग की खोजबीन शुरू कर दी। जिस जगह पर शिव मंदिर स्थापित है। वहां गांव वालों को शिवलिंग पड़ा हुआ मिला। लोगों ने जब शिवलिंग को उठाने की कोशिश की तो वह उठने के बजाए जमीन में और धंसने लगा। नौगंवानाथ में जहां शिवलिंग को स्थापित करने के लिए भूमि चयन की गई थी। वहां गुरु गोरखनाथ मंदिर की स्थापना की गई। इस मंदिर के बारे में यह बताया जाता है कि चकरपुर क्षेत्र में रहने वाले थारु जनजाति के एक किसान की गाय पास के ही जंगल में चरने जाती थी। एक स्थान पर खड़ी होकर वह खुद ही दूध देने लगती थी। यह विचित्र समाचार पाते ही एक दिन लोगाें ने गाय का पीछा किया तो वह यह नजारा देखकर हैरत में पड़ गए। उस स्थान की सफाई करने पर वहां एक शिवलिंग दिखाई पड़ा। धीरे-धीरे लोगों ने इस शिवलिंग की पूजा शुरू कर दी। महाशिवरात्रि पर लाखों लोग यहां शीश नवांने आते है। बताया जाता है कि जब रोहिणी नक्षत्र में शिवरात्रि पड़ती है तो यह शिवलिंग सात रंग बदलता है। मंदिर के पुजारी बाबा पुष्कर गिरी बताते है कि उन्होंने स्वयं शिवलिंग के तीन रूप देखे है।

पौराणिक मान्यताओ के विपरीत पूर्ण खण्डित गोतमेश्वर महादेव की होती है पूजा

रतलाम से लगभग सौ किमी दूर राजस्थान सीमा मे अरनोद नामक स्थान पर एक ऐसा अति प्राचीन धार्मिक स्थल है जिसके बारे मे बहुत कम लोग जानते है। वह है गौतमेश्वर महादेव का मदिर | हिन्दू धर्म शास्त्रो मे खण्डित देवी देवताओ की प्रतिमाओं, खंडित शिवलिंगों एवं तस्वीरों का पूजन वर्जित माना गया है पौराणिक मान्यताओं के अनुसार खंडित देवी देवताओं की प्रतिमाओं को विसर्जित कर प्रथा है | किन्तु संभवतः विश्व मे एक मात्र ऐसी जगह सिर्फ गौतमेश्वर महादेव है जिनके दो भागों मे विभाजित एवं पूर्ण रुप से खण्डित शिवलिंग की पूजा अर्चना होती है आराधना होती है। दूर दूर से यहाँ भक्तों का तांता लगा रहता है | इस पूजा अर्चना के पीछे छिपे तथ्यो एवं रोचक जानकारी को जानने के पहले हम आपकों बताना चाहेंगे कि राजस्थान की सीमा मे प्रतापगढ रोड पर खतरनाक घाटीयों में लगभग एक हजार से ग्यारह सो फीट नीचे, सुरम्य प्राकृतिक हरीयाली के बीच विराजित हैं, गौतमेश्वर महादेव | इस मंदिर के बारे मे मान्यता है कि गौहत्या के साथ अन्य जीव हत्या का पाप लगने पर यदि समाज द्वारा किसी व्यक्ति को समाज या जाति से अलग कर दिया जाता है तो यहां स्थित मोक्षदायीनी कुण्ड मे स्नान करने के पश्चात उस व्यक्ति को मंदिर के पुजारी द्वारा पाप मुक्ति का प्रमाण पत्र दिया जाता है क्योंकि सप्तऋषियों में से एक गौतम ऋषी पर लगा गौहत्या का कलंक भी यही मिटा था। यह भी मान्यता है कि इस कुण्ड मे स्नान करने पर यदि आपके शरीर से लाल पानी टपके तो मान लें कि आपके पाप धुल गये है |

क्या है गोतमेश्वर महादेव का इतिहास और क्या है खण्डित शिवलिंग से जुडी कथा :- वेसे तो गोतमेश्वर महादेव के साथ कई कहानियां जुडी हुई है सप्तऋषियों मे एक ऋषी गौतम ऋषी थे, उन्हे वरदान था कि वे कभी किसी को भूखा नही मरने देंगे। एक बार नासिक त्र्यंबकेश्वर मे घनघोर अकाल पडा इस दौरान 88 हजार के करीब साधु संतो को भोजन कराने की जबाबदारी गौतम ऋषी पर आयी वे एक मुठ्ठी अनाज रोज उगाते और उससे साधु संतो सहित पूरे क्षेत्र के लोगो का पेट भरने योग्य अन्न उत्पन्न हो जाता था, यह अकाल 12 साल तक चला तत्पश्चात वहां पर बारीश हुई और खुशहाली छा गई। एक समय सभी साधु संतो ने वहां से जाने का मन बनाया किंतु वे गौतम ऋषी को छोडकर जाये तो केसे जाये गौतम ऋषी ने उनकी मंशा के समझते हुए एक मायावी गाय की रचना की और उसे लहलहाते खेतों मे छोड दिया सुबह जब गाय फसलों को नष्ट करते हुए विचर रही थी तब गौतम ऋषी ने एक कंकर उठाकर उस गाय को मारा मायावी गाय तुरंत मर गई। तत्पश्चात गौतम ऋषी पर गौहत्या का पाप लगा और यह आरोप लगाते हुए सभी साधु संत वहां से चले गये। गौतम ऋषी गौहत्या के कलंक को लेकर पूर्व से पश्चिम इस स्थान पर आये यहां पर उन्होने घनघोर तपस्या की और जब शिवजी प्रकट हुए तो उन्होने उनसे वरदान मांगा कि उन पर लगा गौहत्या का पाप तो हटे ही साथ ही भोलेनाथ स्वयं यहां पर विराजित हो जाएँ और पापियों को मोक्ष प्रदान करें । जिसके बाद भगवान् शंकर यहां पर विराजित हुए और गोतमेश्वर के नाम से जाने गये। गौतम ऋषी पर गौहत्या के पाप के चलते यह शाप था कि वे सूर्य को नही देख पाते थे भोलेनाथ के आर्शीवाद से यहां एक मोक्षदायी कुण्ड उत्पन्न हुआ जिसमें स्नान करते ही गौतम ऋषी पर लगा गौहत्या का कलंक धुल गया और आकाश मे से उन्हे सूर्य की रोशनी दिखाई देने लगी और उनको दिखने वाला अंधेरा वहां से हट गया। तभी से इस स्थान गौतमेश्वर महादेव के नाम से जाना जाने लगा और तभी से यहाँ विशेष् रुप से पूजा अर्चना की जाती है |
प्राचीनकाल की परम्पराओं के अनुसार गौह्त्या के दोषियों को धर्म, जात और समाज से बेदखल कर दिया जाता था | और यदि गौहत्या का दोषी यहाँ के कुण्ड में स्नान कर लेते तो उन्हें समाज में पुनः स्थान मिल जाता | इन्ही पौराणिक मान्यताओं के अनुसार आज भी सैकडों लोग यहां अपने पापों को धोकर मोक्ष प्राप्ति की कामना के लिए आते है आज भी गौहत्या सहित जीव हत्या आदि के आरोपों से मुक्ति के लिए दर्शनार्थियों को यहाँ स्थित कुण्ड मे स्नान के पश्चात एक प्रमाण पत्र दिया जाता है जो इस बात का प्रमाण होता है कि वे पापमुक्त हो गये है इसके अलावा चट्टानों मे स्थापित गोतमेश्वर महादेव का गुम्बदनुमा शिखर है जिसे गदा कहा जाता है और ऐसी मान्यता है कि इस गदा के चारों और लोट लगाने से सभी असाध्य रोग ठीक हो जाते है।
क्या है खण्डित शिवलिंग की कहानी :- मोहम्मद गजनबी जब सभी हिन्दू मंदिरों पर आक्रमण करते हुए यहां पहुंचा तो उसने गोतमेश्वर महादेव शिवलिंग को भी खंडित करने का प्रयास किया । प्राचीन कथाओं के अनुसार शिवलिंग पर प्रहार करने पर भोलेनाथ ने अपना चमत्कार दिखाने के लिए पहले तो शिवलिंग से दूध की धारा छोडी, दुसरे प्रहार पर उसमे से दही की धारा निकली और जब गजनवी ने तीसरा प्रहार शिवलिंग पर किया तो भोलेनाथ क्रुध हो गये इसके पश्चात शिवलिंग से एक आंधी की तरह मधुमखियों का झुंड निकला जिसने गजनवी सहित उसकी पुरी सेना को परास्त किया। यहां पर गजनवी ने भोले की शक्ति का स्वीकारते हुए शीश नवाया मंदिर का पुन: निर्माण करवाया और एक शिलालेख भी लगाया कि यदि कोई मुसलमान हमला करेगा या बुरी नजर से देखेगा तो वह सुअर की हत्या का दोषी होगा, इसी प्रकार यदि कोई हिन्दू इस मंदिर पर बुरी नजर डालेगा या नुकसान पहुंचाने की कोशीश करेगा तो वह गौहत्या का भागी बनेगा। आज भी यह शिलालेख यहाँ मौजूद है और उस पर सुअर तथा गाय का चित्र भी बना हुआ है।

साभार : अमित निगम, रतलाम

गुफाओं में मिले अद्भुत शिवलिंग (ऊधमपुर)

इन दिनों भोले के भक्तों को शहर से करीब 60 किलोमीटर दूर मजालता तहसील की खून पंचायत में भगवान शिव का वह रूप देखने को मिल रहा है, जिसकी उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। खून पंचायत के गांव जखैन स्थित तीन गुफाओं में भगवान शंकर की मुखाकृति वाले चार अनोखे शिवलिंग व चार मूर्तियों वाली एक शिला मिली है। लोग इसे मौजूदा हालात में भोले शंकर की कृपा बता रहे हैं। इन अद्भुत शिवलिंगों की पूजा-अर्चना करने के लिए अब यहां लोगों की भीड़ जुटने लगी है।

गांववासियों ने बताया कि करीब तीन महीने पहले थैयाल गांव में रहने वाले शिवभक्त मास्टर अनिल को सपने में भोले शंकर ने दर्शन देकर कहा था कि वह जखैन गांव कीएक पहाड़ी पर जाकर वहां मिट्टी की खुदाई कराए तो वहां उसे भगवान की सौगात मिलेगी। अनिल ने दूसरे दिन ही गांववासियों के साथ जाकर वहां खुदाई का काम शुरू कर दिया।

खुदाई के दौरान सबसे पहले एक गुफा मिली जिसमें भगवान शिव का चार मुख वाला शिवलिंग रखा हुआ था। इसके बाद उन्होंने वहां लगातार एक महीने तक खुदाई जारी रखी। इस दौरान मिली कुल तीन गुफाओं में उन्हें चार मुख वाले तीन और एक मुख वाला एक शिवलिंग मिला। इसके अलावा एक शिला पर चार मूर्तियां भी मिलीं। एक मुख वाले शिवलिंग की ऊंचाई करीब ढाई फीट है जबकि अन्य तीनों शिवलिंगों की ऊंचाई लगभग एक फुट है। जुगल सिंह, अजय सिंह, राहुल सम्याल व केवल सिंह ने बताया कि उन्होंने कभी भी अपने पुरखों के मुंह से यहां इस तरह के शिवलिंगों के बारे में नहीं सुना था। उनका मानना है कि यहां शायद पांडवों के समय के शिवलिंग व गुफाएं हैं। उन्होंने बताया कि शिवलिंग मिलने की जानकारी फैलने के बाद से यहां काफी संख्या में श्रद्धालु दर्शन के लिए पहुंच रहे हैं। गांववासियों ने प्रशासन से यहां पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध कराने की मांग की है।

हम क्यों मानते हैं ईश्वर को

समय के साथ-साथ हम मानवों में सोचने की शक्ति भी विकसित हुई। सबसे पहले हमें यह ज्ञान हुआ कि इस सृष्टि की रचना के पीछे कोई अदृश्य शक्ति है और इसका संचालन भी उन्हीं के हाथों में है। मानव के एक समूह ने उस शक्ति को ईश्वर या प्रभु का नाम दिया, तो दूसरे समूह ने अल्लाह या गॉड कहकर पुकारा। ये सभी समूह बाद में अलग-अलग धर्मो के रूप में विकसित हो गए।

वास्तव में, भिन्न-भिन्न नामों से पुकारे जाने वाले ईश्वर एक ही हैं, जिनकी उपस्थिति के प्रति हम अपना विश्वास प्रकट करने के लिए उनकी वंदना करते हैं। उनकी वंदना करने का एक माध्यम अध्यात्म भी है। सच तो यह है कि परमात्मा तक पहुंचने का बाहरी मार्ग धर्म यानी भक्ति है। वहीं ध्यान के जरिए परमात्मा तक पहुंचने का भीतरी मार्ग अध्यात्म है। हम ईश्वर तक कैसे, किस मार्ग से पहुंचते हैं यह मुख्य नहीं, मुख्य है उन तक पहुंचना। लेकिन सवाल यह उठता है कि मनुष्य ईश्वर को क्यों मानता है? क्या ईश्वर को मानना उसकी जरूरत है या मजबूरी? उसका भय है या विश्वास? उसकी श्रद्धा है या लोभ? व्यक्ति के ईश्वर के प्रति आस्था के पीछे कौन-सी मनोवैज्ञानिक वजह अधिक प्रभावी होती है, यह शोध का विषय है। ईश्वर का स्वरूप

अलग-अलग व्यक्तियों के लिए ईश्वर का स्वरूप भी अलग-अलग ही होता है।

कोई ईश्वर को साकार रूप में मानता है, तो कोई निराकार रूप में। किसी के लिए ईश्वर मंदिरों एवं मूर्तियों में बसते हैं, तो किसी के लिए मन-मंदिर एवं दूसरों की सेवा में।

किसी के लिए जीवन ही परमात्मा है, तो किसी के लिए आस-पास मौजूद प्रकृति परमात्मा के समान है। कोई उन तक पहुंचने के लिए भजन-कीर्तन या धार्मिक कर्मकांडों का सहारा लेता है, तो कोई ध्यान एवं योग का। कारण और ढंग भले ही अलग-अलग हो, लेकिन यह सच है कि लोग ईश्वर को किसी न किसी रूप में मानते जरूर हैं। ईश्वर को मानने का चलन सदियों नहीं, युगों पुराना है। ईश्वर एक रहस्य

ईश्वर को मानने के पीछे न केवल धार्मिक कारण हैं, बल्कि कई मनोवैज्ञानिक कारण भी हैं। आज मनुष्य चाहे जितनी भी तरक्की कर ले, वह ईश्वर के रहस्यों को नहीं जान पाया है। वे इनसान के लिए आज भी एक चुनौती के समान हैं।

इनसान का विज्ञान आज भी आत्मा-परमात्मा, जन्म-मृत्यु के रहस्यों को लांघ नहीं पाया है। लेकिन यह सौ प्रतिशत सही नहीं है कि ईश्वर को मानने के पीछे उसका शक्तिशाली होना या रहस्यमयी होना ही एकमात्र कारण है। कुछ लोग भगवान को प्रेम वश भी चाहते हैं। वे ईश्वर को मानते ही इसीलिए हैं, क्योंकि वे उन्हें जान गए हैं। ईश्वर अब उनके लिए कोई रहस्य नहीं रहे। सरल है ईश्वर को मानना

इनसान ईश्वर को क्यों मानता है? क्योंकि मानने के अलावा, इनसान के पास और कोई चारा भी नहीं है। जब हम किसी चीज को मान लेते हैं, तो खोज करने के श्रम से खुद-ब-खुद बच जाते हैं। व्यक्ति सदा मेहनत से बचता रहा है। वह इस बात को भी जानने का प्रयास नहीं करना चाहता कि यह जीवन क्या है? क्यों है? यह सृष्टि किसने बनाई? वह बस मान लेता है, क्योंकि यही उसके लिए सरल है। ईश्वर को जानना या अनुभव में लाना आसान नहीं है।

दरअसल, ईश्वर को जान लेने का अर्थ है- स्वयं को मिटा देना और इनसान स्वयं को मिटाना नहीं चाहता है। इसीलिए वह मान लेता है कि ईश्वर का अस्तित्व है। विश्वास से उपजी श्रद्धा

यदि हम ईश्वर को मानते हैं, तो उसके पीछे संपूर्ण सृष्टि के संचालक की शक्ति को मानना या उसके प्रति श्रद्धा व्यक्त करना तर्कसंगत है। दरअसल, ईश्वर के प्रति श्रद्धा की वजह है हमारा विश्वास। हम यह मानते हैं कि हमारे पास जो कुछ भी है, वह ईश्वर की ही देन है। यहां तक कि हमें जीवन भी उन्होंने ही दिया है, यानी वे दाता हैं। इसलिए उनके प्रति आभार प्रकट करना लाजिमी है। फल प्राप्ति का माध्यम

ईश्वर को मानने का एक कारण भय भी हो सकता है। कुछ लोगों के मन में यह भय होता है कि जीवन में आने वाली विपत्तियां ईश्वर के क्रोधित होने के कारण ही आती हैं। इसलिए यदि वे ईश्वर की पूजा-अर्चना नहीं करेंगे, तो जीवन में कष्ट और तकलीफों का अंबार लग जाएगा। वहीं दूसरी ओर, यदि हम उनकी वंदना करते हैं, तो हमारे ऊपर अच्छे स्वास्थ्य, आयु, धन आदि की कृपा बनी रहेगी।

कुछ लोगों के लिए ईश्वर उनके द्वारा संपन्न किए गए कर्मो के लिए फल प्राप्ति का माध्यम है। सच तो यह है कि उनकी पूजा-अर्चना, धार्मिक कर्मकांड कुछ और नहीं, बल्कि उन्हें प्रसन्न कर मनोवांछित फल प्राप्त करने का माध्यम भर है।

कुछ लोग न केवल ज्योतिषीयगणना को ईश्वर की कृपा प्राप्ति का आधार मानते हैं, बल्कि कुछ लोग दान-पुण्य में ही ईश्वर की प्राप्ति करते हैं। परंपरा का पालन

कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो केवल दूसरों की देखा-देखी में ईश्वर को मानने लगते हैं। उन्हें नफा-नुकसान और सच-झूठ किसी से कोई मतलब नहीं होता है। वे ईश्वर को मानते हैं, क्योंकि उनका परिवार मान रहा है या संपूर्ण दुनिया मान रही है। इसलिए वे भी उस भीड का हिस्सा बने रहना चाहते हैं। भीड से अलग चलना उन्हें समाज से अलग चलने के समान प्रतीत होता है।

सदियों से पीढी-दर-पीढी उनके घर-परिवार के लोग ईश्वर को मानते चले आ रहे हैं। कुछ लोग अपनी परंपरा को निभाने के कारण ईश्वर को पूजतेव मानते आए हैं। वे उसे तोडना नहीं चाहते, बल्कि उसे बरकरार रखना चाहते हैं। संभव है कि वे कुल देवी या कुल पूजन के रूप में इस प्रथा को निभाते आ रहे हों। धार्मिकताका पालन

अधिकतर लोगों का यही मानना है कि ईश्वर को मानना ही धार्मिक होने की परिभाषा है। जो लोग ईश्वर को नहीं मानते हैं, उन्हें नास्तिक समझा जाता है। उनका विचार होता है कि धार्मिक आदमी सीधा, सच्चा, साफ और सात्विक होता है। इस छवि को बनाए रखने के लिए स्वयं को धार्मिक या आस्तिक कहलवाने के लिए लोग ईश्वर के प्रति श्रद्धा रखते हैं या उनकी पूजा-अर्चना करते रहते हैं। ध्यान का माध्यम

ईश्वर को ध्यान एवं योग साधना का सबसे सशक्त माध्यम माना जाता है। दरअसल, हम सभी स्थान से अपना ध्यान हटाकर ईश्वर को याद करते हैं। ऐसे लोगों का मानना यही है कि यदि मन को एकाग्रचित्त करना है, तो उस सर्वशक्तिमान को सच्चे मन से याद करना चाहिए। इससे न केवल हमारे मन के विकार दूर होते हैं, बल्कि हम अपने इंद्रियों को वश में करने में भी सामर्थवानहो जाते हैं।

रुद्रावतार रामभक्त हनुमान

यस्यनि:श्वसितंवेदायो

वंदेभ्योऽखिलंजगत्।

निर्भयंतमहंवंदे

विद्यातीर्थमहेश्वरम्॥

वेद जिनके नि:श्वास हैं, जिन्होंने वेदों से सारी सृष्टि की रचना की और जो विद्याओं के तीर्थ हैं, ऐसे शिव की मैं वंदना करता हूं।

ॐनम: शिवाय

यह सौभाग्य की ही बात है कि भगवान शिव के ही एक अंश माने जानेवाले अनन्य राम भक्त हनुमान का ननिहाल झारखण्ड में ही अवस्थितहै, जिसे हम आंजन ग्राम के रूप में जानते हैं। गुमलाजिले के टोटोसे चार मील की दूरी पर अवस्थितआंजन ग्राम ही माता अंजनी और हनुमान का जन्मस्थलहै। गांव की सीमा पर स्थित एक पहाडी को आंजन पहाड कहा जाता है, जिसमें एक गुफाहै और धार्मिक मान्यता के अनुसार उसी गुफामें भगवान रुद्र स्वरूप हनुमान का अवतार हुआ था। एक मान्यता के अनुसार इस गांव में प्राचीन काल में 360तालाब व उतनी ही संख्या में शिवलिंगथे। माता अंजनी में भगवान शिव की अनन्य भक्ति थी, जो प्रतिदिन एक-एक तालाब में स्नान कर एक-एक शिवलिंगकी पूजा करती थी। अब भी गांव में सौ से अधिक शिवलिंगमौजूद हैं, जो विभिन्न आकार-प्रकार के हैं। अंजनी गुफामें प्राचीन काल से स्थापित अंजनी माता की सुंदर प्रस्तर-प्रतिमा को आंजन गांव में एक मंदिर बना कर स्थापित कर दिया गया है। साथ ही मंदिर में एक सुन्दर शंखमर्मरकी प्रतिमा भी स्थापित की गई है। इस तीर्थ की सबसे बडी विशेषता यह है कि वहां स्थापित प्रतिमा में माता अंजनी शिशु हनुमान को स्तनपान कराती दिखाई गई हैं। कहते हैं, इस मुद्रा की प्रतिमा देश के अन्य किसी भी तीर्थ में सुलभ नहीं है। आंजन ग्राम को भगवान शिव के श्रद्धालु भक्त विशेष फलदायक तीर्थ मानते हैं। ऐसा विश्वास है कि अंजनी गुफाके अंदर ही अंदर एक सुरंग है, जो पास बहने वाली खटवा नदी तक जाती है तथा जिससे हो कर अंजनी माता नदी तक स्नान करने जाती थीं। अभी भी दूर दराज से लोग अंजनी माता के दर्शन करने आते हैं तथा खटवा नदी में स्नान कर भगवान शिव की पूजा-अर्चना करते हैं। इस स्थान को सिद्ध स्थल माना गया है और ऐसा विश्वास है कि यहां मनौतियां बहुत जल्दी फलवती होती हैं। विशेष कर सुयोग्य पुत्र प्राप्त होने की मनौती।

श्रावण और शिवोपासना

शताश्वमेधेनकृतेनपुण्यं

गोकोटिभि:स्वर्ण सहस्त्रदानात्।

नृणांभवेत्सूतकदर्शनेन

यत्सर्वतीर्थेषुकृताभिषेकात्॥

सैकडों अश्वमेध यज्ञ करने अथवा करोडों गौओंके दान करने और हजारों मन सोने का दान करने तथा सभी तीर्थोमें स्नान-पूजा करने से जो पुण्य फल प्राप्त होता है, वहीं पुण्य फल मनुष्य को केवल पारद के दर्शन मात्र से प्राप्त हो जाता है।

ॐनम: शिवाय

श्रावण का महीना एवं देवाधिदेव महादेव का दर्शन पूजन रुद्राभिषेक इनमें नैसर्गिक अन्योन्याश्रित संबंध है। बोल बम करता हुआ कांवरियोंका समूह नास्तिकोंके मन में भी आस्था का संचार करता है। विशेषकर सोमवार के दिन भगवान शिव का पूजन। प्रश्न उठता है कि शिव की अर्चना के लिए श्रावण मास ही क्यों? इस प्रश्न के उत्तर में ऋग्वेद कहता है-

संवत्सरंशशमानाब्रह्मणाव्रतचारिण:।

वाचंपर्जन्यानिन्वितांप्रमण्डूकाअवादिषु॥

(सप्तम मंडल 763का प्रथम श्लोक)

अर्थात् वृष्टिकालमें ब्राह्मण वेद पाठ का व्रत करते हैं और उस समय में प्राय: उन सूक्तोंको पढते हैं, जो तृप्तिदायक हैं। इसका यह भी अर्थ है कि वर्षा ऋतु के मंडन करनेवाले जीव वर्षा ऋतु में इस प्रकार ध्वनि करते हैं, मानो एक वर्ष के अंतराल में उन्होंने मौन व्रत धारण रखा हो और इस ऋतु में बोलना प्रारंभ कर दिया हो। इस मंत्र में परमात्मा ने यह उपदेश दिया है कि जिस प्रकार क्षुद्र जंतु भी वर्षा काल में आह्लादजनकध्वनि करते हैं अथवा परमात्मा का यशोगान करते हैं, तुम भी उसी प्रकार परमात्मा का यशोगान करो।

गोमायुरदादबमायुरदात्पृष्नरदाद्धरितोनो वसूनि।

गवां मंडूकादक्ष: शतानिसहस्त्रसावेप्रतिरंतआयु:॥

अर्थात् अनंत प्रकार की औषधियां, जिसमें उत्पन्न होती हैं, उस वर्षा काल अथवा श्रावण मास को सहस्त्रासापकहते हैं। उस काल में परमात्मा हमको अनंत प्रकार का शिक्षा-लाभ कराएं और हमारे ऐश्वर्य और आयु को बढाएं। शिव पूजन से संतान, धन-धान्य, ज्ञान और दीर्घायु की प्राप्ति होती है। शिव को जलधारा प्रिय है। विशेष कर सोमवार को अनजाने में भी किया गया शिवव्रतमोक्ष को देनेवालाहोता है। अनजाने में शिवरात्रि व्रत करने से एक भील पर भगवान शंकर की कृपा हुई। एक दिन एक भील के मातापिताएवं पत्नी भूख से पीडित होकर उससे याचना की-हे वनचर, हमें कुछ खाने को दो। इस प्रकार की याचना सुनकर वह भील मृगों के शिकार के लिए वन में निकल गया। वह सारे वन में घूमने लगा। दैवयोग से उसे उस दिन कुछ भी नहीं मिला तथा सूर्यास्त हो गया। उसने मन में यह निश्चय किया कि बिना कुछ लिए घर जाना बेकार है। वह शिकार की प्रतीक्षा में भूखा-प्यासा वहीं वन में ठहर गया। रात्रि के प्रथम प्रहर में वह एक बिल्व वृक्ष पर चढकर जलाशय के समीप बैठा था। एक प्यासी हिरणीवहां आ गई। उसे देखकर व्याध को बडा हर्ष हुआ। तुरंत उसने अपने धनुष पर एक वाण संधान किया। उसके हाथ के धक्के से थोडा सा जल तथा बिल्वपत्रनीचे गिर पडा। उस वृक्ष के नीचे शिवलिंगथा। उक्त जल और बिल्वपत्रसे प्रथम प्रहर में ही शिव की पूजा संपन्न हो गई। उस पूजा के महात्म्यसे उस व्याध का सारा पातक तत्काल नष्ट हो गया। तब जो मनुष्य पूरी चेतना में जानबूझ कर पूरी श्रद्धा भक्ति के साथ भगवान शिव की पूजा जल, अक्षत, चंदन, फूल, बिल्वपत्रआदि से करेगा, उस पर भला शिव की विशेष अनुकंपा कैसे नहीं होगी?

सर्वव्यापक और मंगलमय

यस्यप्रणम्य चरणौवरदस्यभक्त्या

स्तुत्वाचवाग्भिरमलाभिरतंद्रिताभि:।

दीप्तैस्तमासिनुदतेस्वकरैर्विवस्वां

तंशंकरंशरणदंशरणंव्रजामि॥

जिन वरदायक भगवान के चरणों में भक्तिपूर्वकप्रणाम करने तथा आलस्य रहित निर्मल वाणी द्वारा जिनकी स्तुति करके सूर्य देव अपनी उद्दीप्त किरणों से जगत का अंधकार दूर करते हैं, उन शरणदाताभगवान शंकर की शरण ग्रहण करता हूं।

ॐनम: शिवाय

भगवान शिव सर्वव्यापक हैं। सर्वोपरि हैं। सर्वश्रेष्ठ भी हैं। न तो उनके नामों का अंत है और न ही विशेषणों का। वही प्रभु हैं। अपने हाथ में त्रिशूल धारण करने के कारण त्रिशूलधारीया शूलपाणिकहलाते हैं। वह विभु हैं। वह विश्वनाथ हैं अर्थात् समस्त संसार के मालिक हैं। इस अर्थ में सभी प्राणियों के रक्षक हैं। शिव महादेव हैं अर्थात् देवों के देव के रूप में पूज्य हैं। वह शंभु हैं, ईशोंमें महान हैं। उनसे बडा कोई नहीं है। उनके तीन नेत्र हैं, इसलिए वह त्रिनेत्रधारीकहे जाते हैं। वह मां पार्वती के कांतस्वरूपहैं। पार्वती के प्राणबल्लभहैं। वह अचल, अविनाशी होने के कारण शांत हैं। रतिपतिकामदेव के एकमात्र संहारक भी शिव ही हैं। अपने अत्याचार से संसार में त्राहि-त्राहि मचा देनेवाले, त्रिपुर दैत्य का अंत करनेवाले यही भगवान शिव त्रिपुरारि हैं। अजन्मा, नित्य, समस्त कारणों के भी कारण, अनादि, अनंत शिव के अतिरिक्त न तो कोई श्रेष्ठ है, न माननीय है और न ही गणनीयहै। सभी गुणों का सार शिवत्व ही है। इसलिए उनकी स्तुति में कहा गया है-

प्रभोशूल पाणे,विभोविश्वनाथ:,

महादेव शंभोमहेश: त्रिनेत्र:।

शिवाकान्त शान्त स्मरारेपुरारे

त्वदन्योवरेण्योन मान्योन गण्य:॥

शिव सर्व कल्याणकारी हैं। यह जल्द प्रसन्न होनेवाले देवता हैं। बाबा भोले शंकर सर्वसुलभ भी हैं। इनकी पूजा-अर्चना भी अत्यंत सरल है। यह तो जल की एक धारा से भी प्रसन्न हो जाते हैं। अगर गंगा जल से भगवान शिव का अभिषेक किया जाए तब तो कहना ही क्या? कभी भी जाने अनजाने एक विल्वपत्रभी चढाना महान फलदायक होता है।

अकाल मृत्यु से बचाता है मृत्युंजय

भगवान शंकर की उपासना अनेक रूपों में होती है। अकाल मृत्यु के भय-नाश तथा पूर्णायु की प्राप्ति के उद्देश्य से शिवजी के मृत्युंजय रूप की आराधना की जाती है। मृत्युंजय अपने भक्त की अपमृत्यु और दुर्गति से रक्षा करने में पूर्ण समर्थ हैं। भगवान मृत्युंजय के ध्यान एवं उनके मंत्र के जप से निíमत सुरक्षा-चक्र को भेदने की क्षमता यमराज में भी नहीं है। अकाल मृत्यु पर विजय पाने के लिए मानव सदा से प्रयत्नशील रहा है। मनुष्य पूर्णायु का सुख तभी भोग सकता है, जब वह अकाल मृत्यु का ग्रास न बने।

मंत्रशास्त्रमें वेदोक्त

˜यम्बकं यजामहेसुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम्उर्वारुकमिवबन्धनान्मृत्योर्मुक्षीयमामृतात्

को ही मृत्युंजय मंत्र माना गया है। तंत्रविद्याके ग्रंथों में मृत्युंजय मंत्र के अनेक स्वरूपों तथा प्रयोगों का वर्णन मिलता है। आयुर्वेद में भी मृत्युंजय-योग मिलते हैं जिनके सेवन से प्राणी दीर्घायु होता है। ज्योतिषशास्त्र में जन्मकुण्डली में मारकेशकी दशा के समय मृत्युंजय मंत्र का अनुष्ठान निíदष्ट है।

मृत्युंजय मंत्र के साधक के लिए महादेव के मृत्युंजय रूप की जानकारी परमावश्यक है। मृत्युंजय देव का ध्यान इस प्रकार करें-

हस्ताभ्याम्कलशद्वयामृत-रसैराप्लावयन्तंशिरोद्वाभ्यांतौदधतंमृगाक्षवलयेद्वाभ्यांवहन्तंपरम्।

अङ्कन्यस्तकरद्वयामृतघटंकैलासकान्तंशिवंस्वच्छाम्भोजगतंनवेन्दुमुकुटं

देवंत्रिनेत्रंभजे॥

भगवान मृत्युंजय ऊपर के दोनों हाथों में स्थित दो कलशों के द्वारा अपने सिर को अमृतरससे सींच रहे हैं। वे अन्य दो हाथों में मृगमुद्रातथा वलयाकार रुद्राक्षमालाधारण किए हुए हैं। नीचे के दो हाथों में वे अमृत-कलश (घट) लिए हुए हैं। इस प्रकार आठ हाथों वाले, कैलास पर्वत पर स्थित स्वच्छ कमल पर विराजमान, ललाट पर बालचंद्र को मुकुट रूप में धारण किए, त्रिनेत्र, मृत्युंजयदेवका मैं ध्यान करता हूं।

पूर्वोक्त मृत्युंजय मंत्र का जप शुरू करने से पूर्व दाहिने हाथ में जल लेकर यह विनियोग पढें-

ॐअस्यश्री˜यम्बकमन्त्रस्यवशिष्ठ-ऋषि: अनुष्टुप्छन्द: ˜यम्बक-पार्वतीपतिर्देवता ˜यंबीजम्,बंशक्ति:, कंकीलकम्,मम सर्वरोगनिवृत्तये जपे विनियोग:। विनियोग का जल पृथ्वी पर छोडने के बाद ऋष्यादिन्यासमें मंत्र पढते हुए दाहिने हाथ से सम्बन्धित अंगों को छुएं-वशिष्ठऋषयेनम:-शिरसि (सिर), अनुष्टुप्छन्दसेनम:-मुखे (मुंह), ˜यम्बकदेवतायैनम:-हृदये (हृदय), ˜यंबीजायनम:-गुह्ये (गुह्यांग), बंशक्तयेनम: -पादयो: (पैर), कंकीलकायनम:- नाभौ(नाभि), विनियोगायनम:- सर्वागे(संपूर्ण शरीर)।

मृत्युंजय मंत्र को 6भागों में विभक्त करके उनसे क्रमश:करन्यासऔर हृदयादिन्यासइस प्रकार करें-ॐ ˜यम्बकं-अंगुष्ठाभ्याम्नम:दोनोंहाथों की तर्जनी अंगुलियों से दोनों अंगूठोंका स्पर्श, यजामहे-तर्जनीभ्याम्नम: दोनों हाथों के अंगूठोंसे दोनों तर्जनी अंगुलियों का स्पर्श , सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्-मध्यमाभ्याम्नम:अंगूठोंसे मध्यमा अंगुलियों का स्पर्श, उर्वारुकमिवबन्धनान्-अनामिकाभ्याम्नम: अनामिका अंगुलियों का स्पर्श, मृत्योर्मुक्षीय-कनिष्ठिकाभ्याम्नम: कनिष्ठिका अंगुलियों का स्पर्श, मामृतात्-करतलकरपृष्ठाभ्याम्नम:हथेलियोंऔर उनके पृष्ठभागों का परस्पर स्पर्श।

ॐ˜यम्बकं-हृदयायनम: दाहिने हाथ की अंगुलियों से हृदय का स्पर्श, यजामहे-शिरसेस्वाहा सिर का स्पर्श, सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्-शिखायैवषद्शिखा का स्पर्श, उर्वारुकमिवबन्धनान्-कवचायहुम्दाहिने हाथ की अंगुलियों से बाएं कंधे का और बाएं हाथ की अंगुलियों से दाहिने कंधे का एक साथ स्पर्श करें, मृत्योर्मुक्षीय-नेत्रत्रयायवौषट्दाहिने हाथ की तर्जनी,मध्यमा,अनामिका अंगुलियों के अग्रभाग से दोनों नेत्रों और ललाट के मध्यभाग का स्पर्श, मामृतात्-अस्त्रायफट् यह पढकर दाहिने हाथ को सिर के ऊपर से दाहिनी तरफ पीछे की ओर ले जाकर बायीं तरफ से आगे की ओर लाएं और दाहिने हाथ की तर्जनी तथा मध्यमा अंगुलियों से बाएं हाथ की हथेली पर ताली बजाएं।

मंत्र के जप से पूर्व उसका विनियोग करने से साधक का उद्देश्य सफल होता है तथा अंगन्यास करने से शरीर साधना के उपयुक्त बनता है। यह प्रक्रिया जटिल नहीं है, बस जरूरत है इसे एक बार समझने की। विनियोग एवं अंगन्यास के बिना जप करने से मंत्र की शक्ति क्षीण होती है। मृत्युंजयदेवके शास्त्रोक्त स्वरूप का ध्यान करने के उपरांत रुद्राक्ष की माला पर मृत्युंजय मंत्र को जपें। मंत्र जपने वाले को मृत्युंजय मंत्र का अर्थ भी मालूम होना चाहिए। इस मंत्र का अर्थ है-दिव्यसुगन्ध से युक्त, मृत्युरहित,पुष्टिवर्धक,त्रिनेत्र रुद्र की हम पूजा करते हैं। वे रुद्र हमें अकाल मृत्यु के भय तथा भव-बन्धन से मुक्त करें। जिस प्रकार ककडी (फूट) का फल पक जाने पर अपने डंठल से छूट जाता है, उसी तरह हम भी अपमृत्यु से दूर हो जाएं किन्तु अमृत से हमारा संबंध छूटने न पाए।

˜यम्बक मंत्र में कई प्रकार के सम्पुट लगाकर भी उसे जपा जा सकता है। ˜यम्बक (मृत्युंजय) मंत्र के पुरश्चरण में इसका एक लाख जप करके,उसकी दशांश संख्या में (दस हजार)हवन करें। बेल, तिल, खीर, घी, दूध, दही, दूर्वा तथा बरगद, पलाश एवं खैर की समिधा- इन दस वस्तुओं से होम करें।

एतत्पश्चात्होम (दस हजार) की क्रमश:उत्तरोत्तर दशांश संख्या में तर्पण (एक हजार), मार्जन (सौ) करके दस विद्वानों को भोजन कराएं। इस प्रकार सविधि पुरश्चरण करने से मंत्र सिद्ध हो जाएगा और तब साधक मंत्र का प्रयोग अपना अभीष्ट सिद्ध करने केलिएकर सकता है।

संपत्ति की प्राप्ति हेतु मृत्युंजय मंत्र पढकर बेल की समिधा से दस हजार आहुतियां दें। ब्रह्मतेजके लिए पलाश की समिधा, पापों केनाशहेतु तिल से, अकाल मृत्यु एवं शत्रु पर विजय प्राप्त करने के लिए पीली सरसों से, श्री एवं कीíत हेतु खीर से, दूसरे के द्वारा किए गए कृत्या आदि अभिचार कर्मो (तांत्रिक प्रयोगों) को नष्ट करने के लिए दूध में भीगे अन्न से दस हजार आहुतियां दें। जो व्यक्ति अपने जन्मदिवस के दिन गाय के दूध से भीगी दूब और गोदुग्धसे निíमत घी द्वारा दो हजार आहुतियां देगा, वह समस्त रोगों से मुक्त होकर शतायु होगा। प्रदोष व्रत करते हुए प्रदोषकालमें घी और दूध से सिक्त अन्न से होम करने वाले का आर्थिक संकट छह मास में दूर हो जाएगा। जो साधक स्नान करने के बाद सूर्यनारायण की ओर मुख करके मृत्युंजय मंत्र का नित्य एक हजार जप करेगा, वह सब आधि-व्याधि से मुक्त होकर दीर्घायु होगा।

स्त्रियां एवं यज्ञोपवीत धारण न करने वाले पुरुष पूर्वोक्त ˜यम्बक मंत्र के बजाय इस पौराणिक मृत्युंजय मंत्र को जपें-

मृत्युंजयायरुद्रायनीलकण्ठायशम्भवे।

अमृतेशायशर्वायमहादेवायतेनम:॥

यह सब करने में असमर्थ रोगी आरोग्यताहेतु यह सरल लघु मृत्युंजय मंत्र जप सकते हैं-

ॐजूँ स:माम्पालयपालयस:जँू ॐ।यदि आप किसी दूसरे व्यक्ति के लिए जप करना चाहते हों तो मंत्र में माम् के स्थान उसके नाम का उच्चारण करें।

मृत्युंजय मंत्र में लोगों का सदा से ही बडा विश्वास रहा है। युग बदला-समय बदला पर इस महामंत्र के प्रति श्रद्धालुओं की आस्था कभी नहीं डिगी। इस महामंत्र ने कभी भी अपने साधक को निराश नहीं किया। मृत्युंजय मंत्र अपने नाम के अनुरूप फल देने वाला है। लोगों की यह दृढ मान्यता है कि मृत्युंजयदेवकी शरण में रहने वाले की कभी अकाल मृत्यु नहीं होती।

साभार : डा. अतुल टण्डन

समन्वयकारी देवता भगवान शिव

यस्यप्रणम्य चरणौवरदस्यस्तुत्वा

चवाग्भिरमलमभितंद्रिताभि:।

दीप्तैस्तमासिनुदतेस्वकरैर्विवस्वां

तंशंकरंशरणदंशरणंव्रजामि॥

जिन वरदायक भगवान के चरणों में भक्तिपूर्वकप्रणाम करके तथा आलस्य रहित निर्मल वाणी द्वारा जिनकी स्तुति कर के सूर्य देव अपनी उद्दीप्त किरणों से जगत का अंधकार दूर करते हैं, उन शरणदाताभगवान शंकर की शरण ग्रहण करता हूं।

ॐनम: शिवाय

अनंत है भगवान शिव की महिमा। इसलिए तो वेदों, पुराणों और श्रुतियों ने भी उनकी महिमा का गुणगान नेति-नेति कह कर किया है। सामान्य तौर हम जितना भगवान शिव को जान पाते हैं, उसके अनुसार वे समन्वयकारीदेवता है। वे सभी देवताओं में सर्वाधिक कृपालु और थोडी सी भक्ति से प्रसन्न हो कर मनवांछितवरदान देने को हमेशा तैयार रहते हैं। इस संबंध में शास्त्रों का कहना है-

शिवेतिद्वयक्षरंनाम

व्याहरिष्यन्तिये जना:।

तेषांस्वर्गश्चमोक्षश्च

भविष्यतिन चान्यथा॥

अर्थात् जो लोग दो अक्षरवालेशिव के नाम का उच्चारण करेंगे, उन्हें स्वर्ग और मोक्ष दोनों प्राप्त होंगे, इसमें कोई संदेह नहीं है। पुराणों के अनुसार संसार में सर्वाधिक भक्त भगवान शिव के ही हैं। इसलिए की उनकी उपासना अन्य देवताओं की अपेक्षा अत्यंत सहज है। कोई भी व्यक्ति शुद्ध हृदय से कम से कम पूजन सामग्री से भगवान शिव की पूजा कर उन्हें प्रसन्न कर सकता है। उन्हें प्रसन्न करने के लिए एक रुद्रीयानी ग्यारह बेलपत्रऔर जल ही काफी होता है। भगवान शिव ऐसे देवता हैं, जिनकी भक्ति कोई भी बिना किसी भेदभाव के कर सकता है। वह सबके लिए मंगल स्वरूप हैं और सबका मंगल करते हैं।

थोड़ी सी भक्ति से प्रसन्न होते महादेव

त्रयी साख्यंयोग: पशुपतिमतंवैष्णवमिति

प्रभिन्नेप्रस्थानेपरिमिदमद:पथ्यमितिच।

रुचीनांवैचि˜यादृजुकुटिलनानापथजुषां,

नृणामेकोगंतस्त्वमपिपथसामर्णवइव।।

हे देव, जिस प्रकार सभी नदियां समुद्र में मिलती हैं, उसी प्रकार आपको प्राप्त करने के लिए वेद-शास्त्र, भक्ति आदि अनेक मार्ग हैं, लेकिन सभी प्राणी विभिन्न मतों और पंथों का अनुसरण करते हुए आपकी ही शरण में चले जाते हैं।

भगवान शिव ऐसे देवाधिदेव महादेव हैं, जो थोडी सी भक्ति से ही प्रसन्न हो जाते हैं। यही कारण है कि इनके भक्तों की संख्या विश्व में सर्वाधिक है। श्रावण माह में तो इनके भक्तों की संख्या को सहज ही महसूस किया जा सकता है। भगवान शिव की सबसे बडी विशेषता तो यह है कि कोई व्यक्ति यदि अनजाने में भी कुछ ऐसा कार्य करता है, जिसमें भक्ति का आभास हो तो भगवान शिव प्रसन्न हो जाते हैं तथा अवलंब वरद मुद्रा में आ जाते हैं। इस समय भक्त जो भी मांग दे, वह उसे प्रदान कर देते हैं। अपने इसी स्वभाव के कारण भगवान शिव ने कई बार तो वरदान दे कर स्वयं को भी संकट में डाल लिया। भस्मासुर का प्रसंग उनके इसी स्वभाव का उदाहरण है। वैसे तो भगवान शिव की आराधना सकाम और निष्काम दोनों प्रकार की होती है, लेकिन सकाम भक्तों की संख्या अधिक होती है। सामान्य जीवन में धन के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। इसके लिए हमारे शास्त्रों में सिद्ध मनीषियोंने भगवान शिव की उपयुक्त आराधना के उपाय बताये हैं। उनके अनुसार श्रावण मास में प्रतिदिन एक सौ आठ बिल्व पत्रों पर चंदन से पंचाक्षर मंत्र यानी ॐ नम: शिवायलिखें। उस बिल्वपत्रको वही मंत्र बोलते हुए भगवान शिव पर चढाते जायें। ऐसा इकतीस दिनों तक किया जाना चाहिए। शास्त्रों के मत के अनुसार जो श्रद्धालु इस विधि से भगवान शिव की पूजा-अर्चना करता है, उसपरभगवान शिव अवश्य ही प्रसन्न हो जाते हैं और उसे धन-धान्य प्रदान करते हैं। साथ ही सभी मनोकामनाएंपूर्ण कर देते हैं। इसलिए गृहस्थ आश्रम में रहने वाले भक्तों को सावन महीने में शिव की आराधना अवश्य ही करनी चाहिए।

ब्रह्म के पर्याय हैं शिव और रुद्र

कृपाललितर्वाक्षणंस्मितमनोक्षवक्त्राम्बुजं

शशांकलयो”वलंशामितधोरतापत्रयम्।

करोतुकिमपिस्फुदत्परमसौरण्यसात्रिचद्-

वेषुर्धराधरसुताभुजोद्वलयितमहोमंगलम्॥

जिनका कृपापूर्ण चितवन अत्यंत सुन्दर है, जिनका मुखारविन्दमन्द मुस्कान की छटा से अत्यंत मनोहर दिखायी देता है। जो चंद्रमा की कला से परम उज्जवल हैं, जो तीनों तापों को शांत कर देने में समर्थ हैं। जिनका स्वरूप सच्चिन्मयएवं परमानन्द रूप से प्रकाशमान है तथा जो गिरिराज नन्दिनी पार्वती के भुजपाश से आवेष्टित हैं, वह अनिर्वचनीयतेजोपुंजभगवान शिव सबका मंगल करें।

ॐनम: शिवाय

शिव और रुद्र ब्रह्म के ही पर्यायवाची शब्द हैं। शिव को रुद्र इसलिए कहा जाता है कि ये रुत् अर्थात् दुख को विनष्ट कर देते हैं। यथा-रुतं दुखंद्रावयति-नाशयतीतिरुद्र:। रुद्राष्टाध्यायीका विशेष महात्म्यहै। शिवपुराणमें सनकादिऋषियों के प्रश्न पर स्वयं शिवजी ने रुद्राष्टाध्यायीके मंत्रों द्वारा अभिषेक का महात्म्यबताते हुए कहा है कि मन, कर्म तथा वाणी से परम पवित्र तथा सभी प्रकार की असशक्तियोंसे रहित हो कर भगवान शूलपाणिकी प्रसन्नता के लिए रुद्राभिषेक करना चाहिए। इससे वह भगवान शिव की कृपा से सभी कामनाओं को प्राप्त करता है और अंत में परम गति को प्राप्त होता है। रुद्राभिषेक से मनुष्यों की कुलपरंपराको भी आनंद की प्राप्ति होती है-

मनसा वाचा कर्मणा शुचि: संगविवर्जित:

कुर्याद्रुद्रभिषेकंचप्रीतयेशूलपाणिन:॥

सर्वान्कामायवाप्नोतिलभतेपरमांगतिम्।

नन्दतेचकुलंपुंसांश्रीमच्छंभुप्रसादत:॥

अत:इसका जाप करने से मनुष्य की सभी कामनाएं पूर्ण होती है।

ध्यायेन्नित्यंमहेशंरजतगिरिनिभंचारुचंद्रावतंसं।

रत्नाकल्पो”वलांगंपरशुमृगवरैर्भीतिहस्तंप्रसन्नम्।

ध्यानार्थेअक्षत पुष्पाणिसमर्पयामिऊंशिवायनम:।

चांदी के पर्वत के समान जिनकी श्वेत कांति है, जो सुंदर चंद्रमा को आभूषण रूप में धारण करते हैं, रत्नमयअलंकारों से जिनका शरीर उज्जवल है। देवतागणजिनकीचारोंओर खडे हो कर स्तुति करते हैं, जो ब्रह्माण्ड के आदि, जगत की उत्पत्ति के बीज और समस्त भयों को हरने वाले भव स्वरूप महेश्वर का प्रतिदिन ध्यान करना चाहिए। भगवान शंकर की पूजा के समय शुद्ध आसन पर बैठकर पहले आचमन, पवित्री धारण, शरीर शुद्धि और आसन शुद्धि कर लेनी चाहिए। तत्पश्चात् पूजन सामग्री को यथास्थान रख कर दीप प्र”वलित कर लें। इसके बाद स्वस्ति पाठ करें और गणेश तथा गौरी का स्मरण पूर्वक पूजन करना चाहिए। रुद्राभिषेक, लघुरुद्र,नवग्रह पूजन, कलश स्थापन, षोडषमातृकाका पूजन करना चाहिए। इस प्रकार के पूजन से भगवान शिव प्रसन्न होते हैं और भक्तों की कामनाएं पूर्ण कर देते हैं। भगवान शिव पर पुष्प चढाने का विशेष महत्व है। शास्त्रों के अनुसार तपोशील,सर्वगुणसंपन्नऔर वेदों में निष्णात किसी विप्र को सौ बार सुवर्ण दान करने पर जो फल की प्राप्ति होती है, वही फल भगवान शिव को सौ फूल अर्पित कर देने मात्र से प्राप्त हो जाता है। भगवान शिव पर धतूरा और नीलकमलका फूल चढाया जाना सबसे अच्छा माना गया है। इसके अलावा मौलसिरी,बक और बकुल फूलों का भी अत्यधिक महत्व है। कनेर, बेलपत्र,चिचिडा,कुश के फूल एवं शमी का पत्ता भी चढाया जाता है। शिव को कदंब, केवडा, शिरीष,गाजर, पत्रकंटक,जूही और दोपहरिया के फूल नहीं चढाया जाना चाहिए।

शिवत्व के बिना सुंदरता मूल्यहीन

मूल्यशास्त्रका महावाक्य है सत्यं शिवंसुन्दरं।मानव जीवन के यही तीन मूल्य हैं। जो सत्य है वही शिव है और जो शिव है वहीं सुंदर है। पश्चिम का सौंदर्यशास्त्रीयह मानकर चलता है कि सुंदरता द्रष्टा की दृष्टि में है। यानी सौंदर्य बोध नितांत व्यक्तिनिष्ठ है। परंतु भारतीय मनीषा सुंदरता की इस परिभाषा को खारिज कर देती है। वह सत्य-शिव-सुन्दर को सर्वथा वस्तुनिष्ठ मानती है। मूल्य सापेक्ष न होकर निरपेक्ष हैं। मनुष्य इसलिए मनुष्य है, क्योंकि वह मूल्यों के अधीन है। मूल्य उसकी विशिष्ट संपत्ति है। सुन्दर क्या है? जो शिव है वही सुंदर है। अर्थात जिसमें शिवत्व नहीं है, उसमें सौंदर्य भी नहीं है।

यस्मिन् शिवत्वंनास्तितस्मिनसुन्दरंअपिनास्तिएव।

हमारे मन को सुख देने वाली चीज सुंदर है-यह सुंदरता की बचकानी परिभाषा है। सुख और दु:ख संस्कारगत होने के नाते व्यक्तिनिष्ठ हैं। अनुकूल वेदना का नाम सुख है और प्रतिकूल वेदना का नाम दु:ख है। एक ही चीज किसी को सुख देती है और किसी को दु:ख। परंतु सुंदरता तो वस्तुनिष्ठ ही है। हमारा शास्त्र बोलता है कि जो कल्याणकारी है वही सुंदर है। यह जरूरी नहीं है कि सुखद चीज सुंदर भी हो।

गीता कहती है कि भोग का सुख भ्रामक है और अंतत:दु:खवर्धकहै।

ये हि संस्पर्शजाभोगा दु:खयोनयएवते।

ऐसा सुख भी होता है जो शुरू में अमृत जैसा लगता है, किंतु उसका परिणाम विषतुल्यहोता है। यदि क्षणिक सौंदर्यबोध आगे चलकर दीर्घकालीन दु:ख का कारण बने तो वह कतई सुंदर नहीं है। कष्टकर होने के नाते वर्तमान में साधना भले ही असुंदर लगे, किंतु प्रगति में सहायक होने के नाते अंतत:वही सुन्दर है।

गीता भी कहती है: यत्तदग्रे विषामिवपरिणामेमृतोपमम्।यहां यह सवाल उठ सकता है कि जो कष्ट देने वाला है वह सुंदर कैसे हो सकता है? यदि कोई कष्टकर अभ्यास दीर्घकालीन सौन्दर्य का बोध कराने में समर्थ है तो वह तप है और इसलिए सुंदर है। प्रमादजनितसुख सुंदर हो ही नहीं सकता। चूंकि तप विकास में हेतु है,अत: सुन्दर है।

इस प्रकार सुन्दरं की परिभाषा निश्चित हुई । यत् शिवंतत् सुन्दरम्।शिव का अर्थ है मंगल। मंगल शब्द मग् धातु से बना है, जिसका अर्थ है कल्याण। इस प्रकार शिव में उत्कर्ष है; विकास है; प्रगति है। शास्त्र बाहरी प्रगति का तिरस्कार नहीं करता है, अपितु सम्मान से उसे अभ्युदय कहता है। अशिक्षा से शिक्षा की ओर, दरिद्रता से समृद्धि की ओर, अपयश से यश की ओर, निस्तेज से तेजस्विता की ओर बढना प्रगति है। समृद्धि के पीछे कर्मकौशल होता है। प्रतिष्ठा किसी को उपहार में नहीं मिल जाती। विद्वान ही विद्वान के श्रम को जानता है: विद्वान जानातिविद्वज्जन परिश्रम:। श्रम तो स्वयं सुंदर है,क्योंकि वह तप है।

भीतरी प्रगति का भी प्रस्थान बिंदु जीवन मूल्य है। जीवत्व से ब्रह्मत्व की ओर जाना ही आध्यात्मिक प्रगति है। सत्व में स्थित होना प्रगति है; विनम्रता में अवस्थितहोना प्रगति है; भक्ति में प्रतिष्ठित होना प्रगति है। शिवत्व का अर्थ ही है प्रगति या कल्याण। अत:यह मानकर चलें कि जो शिव है वही सुंदर है। यह जीवन दर्शन की प्रमाणित मंगलमयी कसौटी है।

आखिर शिवं का हेतु क्या है। भारतीय ऋषि बोलता है सत्यं। वेदान्त की भाषा में सत्य-शिव-सुन्दर में हेतुफलात्मकसम्बंध है। इसका अर्थ हुआ: यत् सत्यं तत् शिवं,यत् शिवंतत् सुंदरं। शास्त्र को समझना हमारी बुद्धि की जिम्मेदारी है। शास्त्र को समझने के साथ-साथ उससे हमारे अनुभव का भी तालमेल बैठना चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता है तो काम बिगडने लगता है। गांधी जी की तरह हमें भी सत्य की गहराई में प्रवेश करना चाहिए। वह कहा करते थे कि सत्य को छोडने का मतलब है ईश्वर को छोडना। गांधी जी ने सत्य को केवल समझा ही नहीं, अपितु जीवन में उसका भरपूर प्रयोग भी किया। यही कारण है कि वह सत्यनिष्ठ से भी आगे प्रयोगनिष्ठबन गए।

रामायण और महाभारत हमारे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रंथ हैं। जहां रामायण पारिवारिक सौहार्द का पर्याय है, वहीं महाभारत पारिवारिक कलह का। नीति को लेकर दोनों में अंतर है। नीति कहती है कि अपंग को राजा नहीं बनाया जा सकता। इसीलिए बडे भाई होने के बावजूद जन्मांध धृतराष्ट्र को राजा नहीं बनाया गया और पाण्डु को राजा बना दिया गया। बाद में धृतराष्ट्र को हस्तिनापुर का प्रतिनिधि बनाकर पाण्डु वन चले गए। इस सत्य को धृतराष्ट्र ने कभी नहीं स्वीकार किया और इसे अपने खिलाफ षड्यंत्र मानता रहा। यदि वे इस सत्य को स्वीकार कर लिए होते कि राजवंश पाण्डु का चलना चाहिए तो महाभारत होने का प्रश्न ही न उठता। धृतराष्ट्र शिवत्व की तलाश जीवनभरअसत्य में करता रहा। उसकी इस उलटी चाल से कौरव वंश का नाश हो गया।

इधर मर्यादा पुरुष भरत ने कभी भी सत्य को नहीं छोडा। उन्होंने भरी सभा में घोषणा की कि सब सम्पत्ति रघुपति कै आहीऔर आगे विनम्रता दिखाते हुए कहा कि हित हमारसियपतिसेवकाई।सर्वसम्मति से राजा घोषित होने के बाद भी श्रीराम के आदेश पर वे अयोध्या के प्रतिनिधि ही बने रहे। इस प्रकार भरत के सत्याग्रह से रामायण निकली और धृतराष्ट्र के असत्याग्रहसे महाभारत। जिस सुंदरता से शिव न प्रकट हो वह छलावा है और जिस शिव से सत्य न प्रकट हो वह अमंगलकारीहै।

साभार : डॉ. दुर्गादत्त पाण्डेय

रुद्राभिषेक से सब पाप-ताप का निवारण

शिव और रुद्र परस्पर पर्यायवाची शब्द हैं। शिव को रुद्र इसलिए कहा जाता है-रुतम्-दु:खम्, द्रावयति-नाशयतीतिरुद्र: ये दु:खों को नष्ट कर देते हैं। सब धर्मग्रंथों का यह साफ-साफ कहना है कि हमारे द्वारा किए गए पाप ही हमारे दु:खों के कारण हैं। रुद्रार्चनऔर रुद्राभिषेक से पातक भस्म हो जाते हैं और साधक में शिवत्व का उदय होता है। रुद्र के पूजन से सब देवताओं की पूजा स्वत:सम्पन्न हो जाती है।

रुद्रहृदयोपनिषद्में लिखा है-सर्वदेवात्मको रुद्र: सर्वे देवा: शिवात्मका:।

प्राचीनकाल से ही रुद्र की उपासना शुक्लयजुर्वेदीयरुद्राष्टाध्यायीके द्वारा होती आ रही है। इसके साथ रुद्राभिषेक का विधान युगों से वांछाकल्पतरुबना हुआ है। साम्बसदाशिवअभिषेक से शीघ्र प्रसन्न होते हैं। इसीलिए कहा भी गया है-शिव: अभिषेकप्रिय:।शिव जी को पूजा में अभिषेक सर्वाधिक प्रिय है।

शास्त्रों में विविध कामनाओं की पूíत के लिए रुद्राभिषेक के निमित्त अनेक द्रव्यों का निर्देश किया गया है। जल से अभिषेक करने पर वर्षा होती है। असाध्य रोगों को शांत करने के लिए कुशोदकसे रुद्राभिषेक करें। भवन-वाहन प्राप्त करने की इच्छा से दही तथा लक्ष्मी-प्राप्ति का उद्देश्य होने पर गन्ने के रस से अभिषेक करें। धन-वृद्धि के लिए शहद एवं घी से अभिषेक करें। तीर्थ के जल से अभिषेक करने पर मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है। पुत्र की इच्छा करनेवालादूध के द्वारा रुद्राभिषेक करे। वन्ध्या,काकवन्ध्या(मात्र एक संतान उत्पन्न करनेवाली) अथवा मृतवत्सा(जिसकी संतानें पैदा होते ही मर जायं)गोदुग्धसे अभिषेक करे। ज्वर की शांति हेतु शीतल जल से रुद्राभिषेक करें।

सहस्रनाम-मंत्रोंका उच्चारण करते हुए घृत की धारा से रुद्राभिषेक करने पर वंश का विस्तार होता है। प्रमेह रोग की शांति भी दुग्धाभिषेकसे हो जाती है। शक्कर मिले दूध से अभिषेक करने पर जडबुद्धि वाला भी विद्वान हो जाता है। सरसों के तेल से अभिषेक करने पर शत्रु पराजित होता है। शहद के द्वारा अभिषेक करने पर यक्ष्मा (तपेदिक) दूर हो जाती है। पातकों को नष्ट करने की कामना होने पर भी शहद से रुद्राभिषेक करें। गोदुग्धसे निíमत शुद्ध घी द्वारा अभिषेक करने से आरोग्यताप्राप्त होती है। पुत्रार्थी शक्कर मिश्रित जल से अभिषेक करें। इस प्रकार विविध द्रव्यों से शिवलिंगका विधिवत् अभिषेक करने पर अभीष्ट निश्चय ही पूर्ण होता है। शिव-भक्तों को यजुर्वेदविहितविधान से रुद्राभिषेक करना चाहिए। किंतु असमर्थ व्यक्ति प्रचलित मंत्र-ॐ नम:शिवायको जपते हुए भी रुद्राभिषेक कर सकते हैं। रुद्राभिषेक से समस्त कार्य सिद्ध होते हैं। अंसभवभी संभव हो जाता है। प्रतिकूल ग्रहस्थितिअथवा अशुभ ग्रहदशा से उत्पन्न होने वाले अरिष्ट का शमन होता है। जन्मकुंडली में मारकेशजैसे दुर्योगके बनने पर महामृत्युंजयमंत्र पढते हुए रुद्राभिषेक करें। वैदिक मृत्युंजय मंत्र-˜यम्बकं यजामहेसुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम्।उर्वारुकमिवबन्धनान्मृत्योर्मुक्षीयमामृतात्।इसका अर्थ है- दिव्य सुगंध से युक्त, मृत्युरहित,धन-धान्यवर्धक, त्रिनेत्र रुद्र का हम पूजन करते हैं। वे रुद्र हमें अकालमृत्यु और सांसारिक बंधन से मुक्त करें। जिस प्रकार खरबूजा पक जाने पर डंठल से अपने-आप पृथक हो जाता है, उसी प्रकार हम भी मृत्यु से दूर हो जाएं किंतु अमृत (मोक्ष) से हमारा अलगाव न हो।

ज्योतिषशास्त्र के प्राचीन प्रमुख ग्रंथ बृहत्पाराशरहोराशास्त्र में विभिन्न ग्रहों की दशा-अंतर्दशा में बनने वाले अनिष्टकारकयोग की निवृत्ति के लिए(शांति हेतु) शिवार्चन और रुद्राभिषेक का परामर्श दिया गया है। भृगुसंहितामें भी जन्मपत्रिकाका फलादेश करते समय महíष भृगुअधिकांश जन्मकुंडलियों में जन्म-जन्मांतरों के पापों और ग्रहों की पीडा के समूल नाश एवं नवीन प्रारब्ध के निर्माण हेतु महादेव शंकर की आराधना तथा रुद्राभिषेक करने का ही निर्देश देते हैं।

किसी कामना से किए जाने वाले रुद्राभिषेक में शिव-वास का विचार करने पर अनुष्ठान अवश्य सफल होता है और मनोवांछित फल प्राप्त होता है। प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की प्रतिपदा (1), अष्टमी (8), अमावस्या तथा शुक्लपक्ष की द्वितीया (2)व नवमी (9) के दिन भगवान शिव माता गौरी के साथ होते हैं, इस तिथि में रुद्राभिषेक करने से सुख-समृद्धि उपलब्ध होती है। कृष्णपक्ष की चतुर्थी (4), एकादशी (11) तथा शुक्लपक्ष की पंचमी (5) व द्वादशी (12) तिथियों में भगवान शंकर कैलास पर्वत पर होते हैं और उनकी अनुकंपा से परिवार में आनंद-मंगल होता है। कृष्णपक्ष की पंचमी (5), द्वादशी (12) तथा शुक्लपक्ष की षष्ठी (6)व त्रयोदशी (13) तिथियों में भोलेनाथनंदी पर सवार होकर संपूर्ण विश्व में भ्रमण करते हैं। अत:इन तिथियों में रुद्राभिषेक करने पर अभीष्ट सिद्ध होता है।

कृष्णपक्ष की सप्तमी (7), चतुर्दशी (14) तथा शुक्लपक्ष की प्रतिपदा (1), अष्टमी (8), पूíणमा (15) में भगवान महाकाल श्मशान में समाधिस्थ रहते हैं अतएव इन तिथियों में किसी कामना की पूíत के लिए किए जाने वाले रुद्राभिषेक में आवाहन करने पर उनकी साधना भंग होगी। इससे यजमान पर महाविपत्तिआ सकती है। कृष्णपक्ष की द्वितीया (2), नवमी (9) तथा शुक्लपक्ष की तृतीया (3) व दशमी (10) में महादेवजीदेवताओं की सभा में उनकी समस्याएं सुनते हैं। इन तिथियों में सकाम अनुष्ठान करने पर संताप (दुख) मिलेगा। कृष्णपक्ष की तृतीया (3), दशमी (10) तथा शुक्लपक्ष की चतुर्थी (4) व एकादशी (11)में नटराज क्रीडारतरहते हैं। इन तिथियों में सकाम रुद्रार्चनसंतान को कष्ट दे सकता है। कृष्णपक्ष की षष्ठी (6), त्रयोदशी (13) तथा शुक्लपक्ष की सप्तमी (7) व चतुर्दशी (14) में रुद्रदेवभोजन करते हैं। इन तिथियों में सांसारिक कामना से किया गया रुद्राभिषेक पीडा दे सकता है।

यह ध्यान रहे कि शिव-वास का विचार सकाम अनुष्ठान में ही जरूरी है। निष्काम भाव से की जाने वाली अर्चना कभी भी हो सकती है। ज्योतिíलंग-क्षेत्र एवं तीर्थस्थान में तथा शिवरात्रि-प्रदोष, सावन के सोमवार आदि पर्वो में शिव-वास का विचार किए बिना भी रुद्राभिषेक किया जा सकता है।

वस्तुत:शिवलिंगका अभिषेक आशुतोष शिव को शीघ्र प्रसन्न करके साधक को उनका कृपापात्र बना देता है और तब उसकी सारी समस्याएं स्वत:समाप्त हो जाती हैं। दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि रुद्राभिषेक से सारे पाप-ताप-शाप धुल जाते हैं।

साभार : डा. अतुल टण्डन

शिवलिंग पूजन की परिपाटी

सर्वत्र मां रक्षतुविश्वमूर्ति

ज्र्योतिर्मयानन्दघनश्चिदात्मा।

अघोरणीयानुरुशक्तिरेक:

सईश्वर: पातुभयादशेषात्॥

संपूर्ण विश्व जिनकी मूर्ति है, जो ज्योतिर्मय आनन्दघनस्वरूप चिदात्मा हैं, वे भगवान शिव मेरी रक्षा करें। जो सूक्ष्म से भी अत्यन्त सूक्ष्म हैं, महान् शक्ति से संपन्न हैं, वे अद्वितीय ईश्वर महादेव जी संपूर्ण भयों से मेरी रक्षा करें।

ॐनम: शिवाय

ॐतत्पुरुषायविद्यहेमहादेवायधीमहि।

तन्नोरुद्र: प्रचोदयात्।

शिवलिंगके पूजन के प्रारंभ के संबंध में एक पौराणिक कथा है। दक्ष प्रजापति ने अपने यज्ञ में शिव जी का भाग नहीं रखा, जिससे कुपित होकर जगज्जननीसती दक्ष के यज्ञ मंडप में योगाग्निद्वारा जल कर भस्म हो गई। माता सती के शरीर त्याग की सूचना प्राप्त होते ही भगवान शिव अत्यंत क्रुद्ध हो गए और वे नग्न हो कर पृथ्वी में भ्रमण करने लगे। एक दिन वह उसी अवस्था में ब्राह्मणों की बस्ती में पहुंच गए। शिव जी को उस अवस्था में देख कर वहां की स्त्रियां मोहित हो गई। यह देख कर ब्राह्मणों ने उन्हें श्राप दे दिया कि उनका लिंग तत्काल शरीर से अलग हो कर भूमि पर गिर जाए। ब्राह्मणों के शाप के प्रभाव से शिव का लिंग उनके शरीर से अलग होकर गिर गया, जिससे तीनों लोकों में उत्पात होने लगा। समस्त देव, ऋषि, मुनि व्याकुल हो कर ब्रह्मा की शरण में गए। ब्रह्मा ने योगबलसे शिवलिंगके अलग होने का कारण जान लिया और वह समस्त देवताओं, ऋषियों और मुनियों को अपने साथ लेकर शिव जी के पास पहुंचे। ब्रह्मा ने शिव जी की स्तुति वंदना की और उन्हें प्रसन्न करते हुए उनसे लिंग धारण करने का निवेदन किया। तब भगवान शिव ने कहा कि आज से सभी लोग मेरे लिंग की पूजा प्रारंभ कर दें तो मैं पुन:उसे धारण कर लूंगा। शिव जी की बात सुनकर ब्रह्मा जी ने सर्वप्रथम स्वर्ण का शिवलिंगबना कर उसकी पूजा की। तत्पश्चात् देवताओं, ऋषियों और मुनियों ने अनेक द्रव्यों के शिवलिंगबनाकर पूजन किया। तभी से शिव लिंग के पूजन की परिपाटी प्रारंभ हो गई। शिव लिंग के महात्म्यका वर्णन करते हुए शास्त्रों ने कहा है कि जो मनुष्य किसी तीर्थ की मृत्तिका से शिवलिंगबना कर उनका हजार बार अथवा लाख बार अथवा करोड बार विधि-विधान के साथ पूजा करता है, वह शिवस्वरूपहो जाता है। जो मनुष्य तीर्थ में मिट्टी, भस्म, गोबर अथवा बालू का शिवलिंगबनाकर एक बार भी सविधि पूजन करता है, वह दस हजार कल्पोंतक स्वर्ग में निवास करता है। शिवलिंगका सविधि पूजन करने से मनुष्य संतान, धन, धन्य, विद्या, ज्ञान, सद्बुद्धि,दीर्घायु और मोक्ष की प्राप्ति करता है। जिस स्थान पर शिवलिंगकी पूजा होती है, वह तीर्थ न होने पर भी तीर्थ बन जाता है। जिस स्थान पर सर्वदाशिवलिंगका पूजन होता है, उस स्थान पर मृत्यु होने पर मनुष्य शिवलोक जाता है। शिव शब्द के उच्चारण मात्र से मनुष्य समस्त पापों से मुक्त हो जाता है और उसका बाह्य और अंतकरणशुद्ध हो जाता है। दो अक्षरों का मंत्र शिव परब्रह्मस्वरूपएवं तारक है। इससे अलग दूसरा कोई तारक ब्रह्म नहीं है-

तारकंब्रह्म परमंशिव इत्यक्षरद्वयम्।

नैतस्मादपरंकिंचित् तारकंब्रह्म सर्वथा॥

शिवाराधना से आत्मकल्याण

हृतपुण्डरीकान्तरसन्निविष्टं

स्वतेजसाव्याप्तनभोवकाशं।

अतीन्द्रियंसूक्ष्ममनन्तमाद्यं

ध्यायेत्परानन्दमयंमहेशम्॥

परमानन्दमयभगवान महेश्वर हृदय-कमल के भीतर की कर्णिका में विराजमान हैं, उन्होंने अपने तेज से आकाशमंडल को व्याप्त कर रखा है। वे इन्द्रियातीत, सूक्ष्म, अनन्त एवं सबके आदिकारणहैं। उन भगवान महेश्वर का मैं ध्यान करता हूं।

ॐनम: शिवाय

शिव साक्षात् कल्याण हैं। शिव शुद्ध ब्रह्म हैं। सूर्य की आभा शिव हैं। शिव और शक्ति के प्रभाव से ही सूर्य प्रकाश और ऊष्मा बिखेरने में सक्षम होता है। शिव पराशक्ति हैं। पूरे ब्रह्माण्ड को दो भागों में बांटा गया है-अपरा प्रकृति और परा प्रकृति। अपरा प्रकृति के आठ स्वरूप हैं-भूमि, आप (जल), अनल, वायु, नभ, मन, बुद्धि तथा अहंकार। परा प्रकृति प्राण को कहते हैं, जो आत्मा है और अमर है। इसमें प्रभा-प्रभाकर, शिवा-शिव, नारायणी-नारायणआते हैं, जो परा प्रकृति को जानते हैं। अपरा प्रकृति किसी को नहीं जानती। शिव निराकार हैं, शंकर साकार हैं। शिव जब साकार हो जाते हैं तो गंगाधर, चंद्रशेखर, त्रिलोचन, नीलकंठ एवं दिगंबर कहलाते हैं। ओम का अर्थ है कल्याण रूपी ओंकार परमात्मा। जो शिव निर्गुण निराकार रूप में रोम-रोम में ओम बिराजते, उसी शिव का ध्यान भक्तगण शंकर के रूप में करते हैं। शिव जब सगुण साकार हो कर शंकर बनते हैं तो स्वयं ओम का जाप करते हैं स्वयं की शक्ति में ओज के निमित्त। जैसे सूर्य अपनी आभा में सारी सृष्टि को देखता है, उसी तरह शिव अपनी शिवा में पूरी सृष्टि को देखते हैं। विद्वान संत शिवानन्द स्वामी ने कहा है-

ब्रह्मा विष्णु सदाशिवजानतअविवेका।

प्रणवाक्षरमध्य तीनों ही एका॥

गोस्वामी तुलसीदास ने भी शिव और शक्ति को इस रूप में देखा है-

भवानी शंकरौवंदे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ।

याभ्यांविनान पश्यंतिसिद्धास्वांतस्थमीश्वर:॥

अर्थात् मैं श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप भवानी और शंकर की वंदना करता हूं, जिनकी कृपादृष्टि के बिना कोई भी सिद्ध योगी अपने अंतकरणमें अवस्थितईश्वर को देख नहीं सकता।

शिव की आराधना से आत्मबल में वृद्धि होती है। शिवाराधनमें शुद्धता को महत्व दिया जाता है, जिसका आधार फलाहार है। फलाहार से व्यवहार शुद्ध होता है। हर जीव शिव का ही अंश है और जब वह इसकी आराधना करता है तो अंत:सुखकी प्राप्ति होती है। शिव पूजा के लिए बेलपत्र,धूप, पुष्प, जल की महत्ता तो है ही, मगर शिव-श्रद्धा से अति प्रसन्न होते हैं, क्योंकि श्रद्धा जगज्जननीपार्वती हैं और सदाशिवभगवान शंकर स्वयं विश्वास हैं। श्रावण में शिवलिंगकी पूजा का काफी महत्व है, क्योंकि शिवलिंगभी अपने आप में भगवान शिव का ही एक विग्रह है। इसे सर्वतोमुखी भी कहा गया है, क्योंकि इसके चारों ओर मुख होते हैं। हमारे सतानतधर्म में जो 33करोड देवता हैं, उनकी पूजा शिवलिंगमें बिना आह्वान के ही मान्य हो जाती है। शिव की पूजा वस्तुत:आत्मकल्याण के लिए ही किया जाना चाहिए, न कि सांसारिक वैभव के लिए।

सभी देवों में श्रेष्ठ हैं महादेव

यस्यप्रणम्य चरणौवरदस्यभक्त्या

स्तुत्वाचवाग्भिरमलाभिरतंद्रिताभि:।

दीप्तैस्तमासिनुदतेस्वकरैर्विवस्वां

तंशंकरंशरणदंशरणंव्रजामि॥

जिन वरदायक भगवान के चरणों में भक्तिपूर्वकप्रणाम करने तथा आलस्य रहित निर्मल वाणी द्वारा जिनकी स्तुति करके सूर्य देव अपनी उद्दीप्त किरणों से जगत का अंधकार दूर करते हैं, उन शरणदाताभगवान शंकर की शरण ग्रहण करता हूं।

ॐनम: शिवाय

तेंतीस कोटि देवी-देवताओं का अपना-अपना अलग-अलग महत्व है, परन्तु सनातन धर्म में शिव का महत्व अत्यंत व्यापक है। इसलिए कि ये ऐसे देव हैं, जो क्षणिक साधना से भी अपने आराधकपर प्रसन्न हो जाते हैं। यही कारण है कि इन्हें सभी देवों में श्रेष्ठ और महादेव कहा गया है। भगवान शिव ऐसे देवता हैं कि जब प्रसन्न होते हैं तो अपने भक्त की कोई भी कामना पूरी करने में कोई संकोच नहीं करते। शिव के असंख्य स्वरूप हैं और उन्हीं स्वरूपों में से एक है रुद्र रूप। रुद्र सभी प्रकार के दुख-दारिद्र मिटानेवाले देवता हैं। रुद्र के भी पांच विग्रह हैं-रूपक, रुद्र, रुद्री,महारुद्रऔर अतिरुद्र।इसी प्रकार शिव की पूजा-अर्चना विभिन्न नामों से होती है। शास्त्रों में शिव की पूजा-अर्चना के सरल विधानों की चर्चा की गई है। शास्त्रों के अनुसार रात्रि वेला में उत्तराभिमुखहोकर, प्रात:काल में पूर्व दिशा में मुंह कर तथा संध्या काल में पश्चिम दिशा की ओर मुंह कर भगवान शिव की अर्चना करनी चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि श्रद्धालु भक्तगण शिव मंदिर या अपने घर में स्नान के बाद शुद्ध आसन पर बैठ जाएं और इन मंत्रों का उच्चारण करते हुए तीन बार आचमन करें-ॐ केशवायनम: ॐनारायणायनम: ॐमाधवायनम:। इसके उपरांत न्यास-ध्यान पूर्वक भगवान शिव की पूजा करें। इससे भक्तों की मनोकामना तो पूर्ण हो ही जाती है, संतानों को भी उसका फल मिलता है और घर में सुख-शांति बनी रहती है।

संपूर्ण कर्मो का त्याग कर शांत हृदय से जो भक्त रुद्राभिषेक करता है, उसके सभी दुखों का नाश हो जाता है। भगवान शिव का एक अत्यंत प्रभावशाली विग्रह है शिवलिंग।यह सर्वत्र ही सहज उपलब्ध होता है और इसकी पूजा-अर्चना भी अत्यंत सरल होती है। मात्र जल और बेलपत्रशिव लिंग पर अर्पित करने से भी भगवान शिव प्रसन्न हो जाते हैं। शास्त्रों ने शिवलिंगकी पूजा का महात्म्यबताया है, जिसके अनुसार जो मनुष्य एक बार भी धतूरा के फूल और फल से शिवलिंगकी पूजा करता है, उसे गोदान का फल प्राप्त होता है। शिवलिंगकी पूजा करने से मनुष्य को श्रेष्ठ विद्या की प्राप्ति होती है। वह भक्त धन-धान्य और समृद्धि से परिपूर्ण जीवन व्यतीत कर मृत्यु के उपरांत सीधे शिवलोक गमन करता है। पार्थिव लिंग की पूजा से कार्यसिद्धि, पुष्पमयलिंग के पूजन से भूमि की प्राप्ति, नमक द्वारा निर्मित शिवलिंगके पूजन से सौभाग्य, वंशांकुर निर्मित शिवलिंगके पूजन से वंशवृद्धि और स्वर्ण निर्मित शिवलिंगके पूजन से महामुक्तिप्राप्त होती है। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी कामनासिद्धिके लिए अवश्य ही शिव की पूजा-अर्चना करे और इसके सर्वश्रेष्ठ समय होता श्रावण।

वेद ही शिव हैं, शिव ही वेद

दु:स्वप्नदुश्शकुनदुर्गतिदौर्मनस्य,दुर्भिक्षदु‌र्व्यसनदुस्सहदुर्यशांसि।

उत्पाततापविषभीतिमसद्ग्रहार्ति,

व्याधीश्चनाशयतुमेजगतातमीश:॥

जगदीश्वरभगवान शिव मेरे बुरे स्वप्न, बुरे शकुन, बुरी गति, मन की दुष्ट भावना, दुर्भिक्ष, दु‌र्व्यसन, दुस्सह अपयश, उत्पात, संताप, विषभय,दुष्ट ग्रहों की पीडा तथा समस्त रोगों का नाश करें।

वेद: शिव: शिवोवेद:। अर्थात् वेद ही शिव हैं और शिव ही वेद हैं। अर्थात् शिव वेद स्वरूप हैं। यह भी कहा गया है कि वेद नारायण का साक्षात् स्वरूप हैं-वेदो नारायण: साक्षात् स्वयंभूतिरितिसुश्रूम।इसके साथ ही वेद को परमात्मप्रभु का नि:श्वास कहा गया है। वेद के प्रावधान के अनुरूप ही सनातन जगत में अनादि भगवान शिवजी का पूजन अभिषेक, यज्ञ और जप आदि किया जाता है। शिव और रुद्र ब्रह्म के ही पर्यायवाची शब्द हैं। शिव को रुद्र इसलिए कहा जाता है कि यह रुत अर्थात् दुख को विनष्ट कर देते हैं-रुतम दुखमद्रावयति-नाशयतीतिरुद्र:। अर्थात् शिव का अर्थ है कल्याण। इस शरीर में शिव न रहें तो व्यक्ति शव हो जाता है। यही कारण है कि अपने भीतर शिव को जाग्रत करने के लिए ही ॐ नम: शिवायका जाप किया जाता है। मनुष्य का मन विषयलोलुप हो कर अधोगति को प्राप्त न हो और व्यक्ति अपनी चित्तवृत्तियोंको स्वच्छ रख सके, इसके निमित्त रुद्र का अनुष्ठान करना मुख्य और उत्कृष्ट साधन है। यह रुद्रानुष्ठानप्रवृत्ति मार्ग से निवृत्ति मार्ग को प्राप्त कराने में समर्थ है। जो व्यक्ति समुद्र, वन, पर्वत, वृक्षों तथा श्रेष्ठ गुणों से युक्त ऐसी पृथ्वी का दान करता है, जो धन-धान्य, सुवर्ण और औषधियों से युक्त है, उससे भी अधिक पुण्य एक बार में रुद्रीजपएवं रुद्राभिषेक से प्राप्त हो जाता है। इसलिए जो भगवान रुद्र का ध्यान करके रुद्रीका पाठ करता है, वह उसी देह से निश्चित ही रुद्रमयहो जाता है। सोमवारीव्रत श्रावण मास के सभी सोमवार को किया जाता है।

इस समय व्रतों और पूजा का विशेष महत्व है। यह व्रत अत्यंत शुभकारीऔर फलदायीहोता है। श्रावण में इस व्रत को धारण करनेवाले सभी भक्तों पर शिव अपनी विशेष अनुकंपा रखते हैं। सभी मनोकामनाएंपूर्ण होती हैं। सावन के प्रत्येक सोमवार को शिव के अलावा जगज्जननीपार्वती, गणेश जी तथा नंदी जी की पूजा की जानी चाहिए। भगवान शिव की पूजा के लिए आसन पर पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुखबैठ जाएं। फिर पूजन तथा अभिषेक सामग्री जैसे दूध, जल, शहद, घी, गुड, जनेऊ, चंदन, रोली, बेलपत्र,भांग-धतूरा, धूप, दीप से पूजन करना चाहिए। कपूर से आरती करके रात्रि में जागरण करे। इसलिए सोलह सोमवार व्रत कथा का महात्म्यसुनना चाहिए।

महाभारत कालीन शिवलिंग (चम्‍बल)

चम्‍बल की विरासत-महाभारत कालीन शिवलिंग by SANJAY GUPTA (MANDIL) GWALIOR TIMES MORENA BUREAU.
मुरैना जिला में स्थित यह दुर्लभ एंतिहासिक महाभारत कालीन शिवलिंग है । इसी शिवलिंग की पूजा पाण्‍डवों की मॉं महारानी कुन्‍ती और कुन्‍तलपुर का राजपरिवार करता था । इसी स्‍थान पर सूर्य का रथ उतरा था, इस मन्दिर के ठीक नीचे आसन नदी बह रही है, जिसमें कर्ण को प्रवाहित किया गया था । यह असल शिवलिंग बनवाट और आकृति में भी विलक्षण व अदभुत है, लिंग पर स्थित सभी चिहन इस पर स्‍पष्‍ट होकर यह अपनी कहानी खुद ही बयां करता है । यह मन्दिर मुगलों के हमले से भी और खण्‍डन से भी अछूता रहा है ।

रुद्राक्ष

रुद्राक्ष के उद्भव के विषय में शिवपुराण में एक कहानी है। इसके अनुसार, हजारों वर्ष तक तप करने के बाद भगवान शिव ने जब आंखें खोलीं, तो उनकी आंखों से एक-एक करके कई बूंदेंटपक पडीं। यही बूंदेंबाद में रुद्राक्ष का वृक्ष बन गई। पुराणों में यह उल्लेख मिलता है कि रुद्र का जन्म ब्रह्मा की आंखों से हुआ था। माना जाता है कि शिव जब क्रोधित होते हैं, तो वे रुद्र कहलाते हैं।

रूप की दृष्टि से अनेक प्रकार के रुद्राक्ष पाए जाते हैं, जैसे-एकमुखी से चतुर्दश तक। एकमुखीतथा पंचमुखीरुद्राक्ष को साक्षात शिव का स्वरूप माना जाता है। इसे धारण करने से हमें भक्ति तथा मुक्ति की प्राप्ति होती है। ऐसी मान्यता है कि द्वि-मुखी रुद्राक्ष धारण करने से गोवध का पाप नष्ट हो जाता है। त्रि-मुखी रुद्राक्ष धन तथा विद्या प्रदान करते हैं। चतुर्मुखी रुद्राक्ष को साक्षात ब्रह्मा का स्वरूप माना जाता हैं। षष्ठमुखीरुद्राक्ष दाहिनी बांह में धारण करना चाहिए। वह स्कंद का प्रतीक है।

सप्तमुखीरुद्राक्ष को धारण करने से निर्धन भी धन-धान्य से पूर्ण हो जाते हैं। अष्टमुखीबटुकभैरव का प्रतीक है। नवमुखीदुर्गा का प्रतीक है, दसमुखीजनार्दन का। एकादशमुखीरुद्रस्वरूप,द्वादशमुखीसूर्यस्वरूप,त्रयोदशमुखीविश्वदेवका प्रतीक है। चतुर्दशमुखीरुद्राक्ष को मस्तक पर धारण करना चाहिए, क्योंकि यह साक्षात् आनंददाताशिव का प्रतीक माना जाता है।

दहताल के बीचोबीच पानी में सैदनाथ का अद्भुत शिवलिंग (बलिया उत्तर प्रदेश)

भगवान सैदनाथ के अद्भुत शिवलिंग के दर्शन पूजन से लोगों की मनोकामनायें पूर्ण होती हैं। यह शिवलिंग तहसील मुख्यालय से पश्चिम व उत्तर में दहताल के उस पार सैदपुरा शिवालय में स्थित है। इस सम्बंध में यहां के बुजुर्गो का कहना है कि दहताल पर पुल नहीं होने के कारण इस क्षेत्र में लोगों का आने का एक मात्र साधन नाव से दहताल को पार करके ही आना पड़ता था और यह क्षेत्र वनों से आक्षादित था बहुत पहले इस क्षेत्र के जमींदार ब्राह्माण परिवार के मुखिया ने इस शिवलिंग को बनों के बीच देखा और अद्भुत लगने वाले पत्थर के शिवलिंग को खोदवाकर कहीं अन्यत्र स्थापित कराने के विचार से खोदवाना शुरू कर दिया। खुदाई होती रही लेकिन उसका मूल नहीं पता लगा। एक रात जमींदार ब्राह्माण को रात में स्वप्न में आया कि बेकार परेशान न हों हमें इसी बन में ही रहने दो। तब से अबतक छोटा सा मंदिर बनाकर सैदनाथ मंदिर पर श्रद्धालु पूजा करते आ रहे हैं। धीरे-धीरे भगवान शिव के मंदिर पर आस्था भारी पड़ी और आस्थावानों की भीड़ लगी रहती है। जो भी मन्नत मानी जाती है सैदनाथ महादेव पूर्ण भी करते हैं। यहां माह में पूर्ण होने वालों का हरिकीर्तन होता रहता है। इसका ताजा उदाहरण कोड़र निवासी कैलाश मल्लाह है। किसी बात को लेकर सैदनाथ महादेव मंदिर में गये जहां वह मंदिर की दीवार से चिपक रहे वहीं 30 जुलाई 1990 को मंदिर के पास असंख्य सर्प दिखे जो मंदिर की परिक्रमा कर फिर अंतरध्यान हो गये।

इस क्षेत्र में शिवालयों की अधिकता है और सरयू एवं गंगा के मध्य जाने वाले मार्गो पर नाथ मंदिरों की एक लम्बी श्रृंखला है उन्हीं श्रृंखला में सैदनाथ मंदिर, मझोस में मझोसनाथ, राजपुर में अवनीनाथ, दिउली में बालखण्डीनाथ, छितौनी में छितेश्वरनाथ, असेगा शोकहरण नाथ जो नाथ मंदिरों के घेरा में स्थापित हैं। यहां सावन में पूजन करने से लोगों की मनोकामना पूर्ण होती है। सैदनाथ मंदिर के क्षेत्र को रमणीक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने की बात भी स्थानीय लोगों द्वारा उठायी जाती रही है, कारण कि प्रसिद्ध ताल दहताल इस मंदिर के चारों तरफ घेरे है और इस दहताल के सम्बंध में जानकार लोगों का कहना है कि गोखर जैसा ताल है जिसका पानी कभी प्रदूषित अब तक नहीं हुआ।

रविवार, 28 दिसंबर 2008

पांच कोस की काशी है ज्योतिर्लिग

काशी बाबा विश्वनाथ की नगरी है। काशी के अधिपति भगवान विश्वनाथ कहते हैं-इदं मम प्रियंक्षेत्रं पञ्चक्रोशीपरीमितम्। पांच कोस तक विस्तृत यह क्षेत्र (काशी) मुझे अत्यंत प्रिय है। पतितपावनीकाशी में स्थित विश्वेश्वर (विश्वनाथ) ज्योतिर्लिगसनातनकाल से हिंदुओं के लिए परम आराध्य है, किंतु जनसाधारण इस तथ्य से प्राय: अनभिज्ञ ही है कि यह ज्योतिर्लिगपांच कोस तक विस्तार लिए हुए है- पञ्चक्रोशात्मकं लिङ्गंज्योतिरूपंसनातनम्।ज्ञानरूपा पञ्चक्रोशात् मकयह पुण्यक्षेत्र काशी के नाम से भी जाना जाता है-ज्ञानरूपा तुकाशीयं पञ्चक्रोशपरिमिता। पद्मपुराणमें लिखा है कि सृष्टि के प्रारंभ में जिस ज्योतिर्लिगका ब्रह्मा और विष्णुजीने दर्शन किया, उसे ही वेद और संसार में काशी नाम से पुकारा गया-

यल्लिङ्गंदृष्टवन्तौहि नारायणपितामहौ।

तदेवलोकेवेदेचकाशीतिपरिगीयते॥

पांच कोस की काशी चैतन्यरूपहै। इसलिए यह प्रलय के समय भी नष्ट नहीं होती। प्राचीन ब्रह्मवैक्‌र्त्तपुराणमें इस संदर्भ में स्पष्ट उल्लेख है कि अमर ऋषिगण प्रलयकालमें श्री सनातन महाविष्णुसे पूछते हैं-हे भगवन्!वह छत्र के आकार की ज्योति जल के ऊपर कैसे प्रकाशित है, जो प्रलय के समय पृथ्वी के डूबने पर भी नहीं डूबती? महाविष्णुजी बोले-हे ऋषियों! लिंगरूपधारीसदाशिवमहादेव का हमने (सृष्टि के आरम्भ में) तीनों लोकों के कल्याण के लिए जब स्मरण किया, तब वे शम्भु एक बित्ता परिमाण के लिंग-रूप में हमारे हृदय से बाहर आए और फिर वे बढते हुए अतिशय वृद्धि के साथ पांच कोस के हो गए-

लिङ्गरूपधर:शम्भुहर्दयाद्बहिरागत:।

महतींवृद्धिमासाद्य पञ्चक्रोशात्मकोऽभवत्॥

यह काशी वही पंचक्रोशात्मकज्योतिर्लिगहै। काशीरहस्य के दूसरे अध्याय में यह कथानक मिलता है।

स्कन्दपुराणके काशीखण्डमें स्वयं भगवान शिव यह घोषणा करते हैं-अविमुक्तं महत्क्षेत्रं पञ्चक्रोशपरिमितम्।

ज्योतिर्लिङ्गम्तदेकंहि ज्ञेयंविश्वेश्वराऽभिधम्।।

पांच कोस परिमाण का अविमुक्त (काशी) नामक जो महाक्षेत्रहै, उस सम्पूर्ण पंचक्रोशात्मकक्षेत्र को विश्वेश्वर नामक एक ज्योतिर्लिङ्गही मानें। इसी कारण काशी प्रलय होने पर भी नष्ट नहीं होती। काशीखण्डमें भगवान शंकर पांच कोस की पूरी काशी में बाबा विश्वनाथ का वास बताते हैं-

एकदेशस्थितमपियथा मार्तण्डमण्डलम्।

दृश्यतेसवर्गसर्वै:काश्यांविश्वेश्वरस्तथा॥

जैसे सूर्यदेव एक जगह स्थित होने पर भी सबको दिखाई देते हैं, वैसे ही संपूर्ण काशी में सर्वत्र बाबा विश्वनाथ का ही दर्शन होता है।

स्वयं विश्वेश्वर (विश्वनाथ) भी पांच कोस की अपनी पुरी (काशी) को अपना ही रूप कहते हैं- पञ्चक्रोश्या परिमितातनुरेषापुरी मम। काशी की सीमा के विषय में शास्त्रों का कथन है-असी- वरणयोर्मध्ये पञ्चक्रोशमहत्तरम। असी और वरुणा नदियों के मध्य स्थित पांच कोस के क्षेत्र (काशी) की बडी महिमा है। महादेव माता पार्वती से काशी का इस प्रकार गुणगान करते हैं-सर्वक्षेत्रेषु भूपृष्ठेकाशीक्षेत्रंचमेवपु:।

भूलोक के समस्त क्षेत्रों में काशी साक्षात् मेरा शरीर है।

पञ्चक्रोशात् मकज्योतिर्लिग-स्वरूपाकाशी सम्पूर्ण विश्व के स्वामी श्री विश्वनाथ का निवास-स्थान होने से भव-बंधन से मुक्तिदायिनीहै। धर्मग्रन्थों में कहा भी गया है-काशी मरणान्मुक्ति:।काशी की परिक्रमा करने से सम्पूर्ण पृथ्वी की प्रदक्षिणा का पुण्यफलप्राप्त होता है। भक्त सब पापों से मुक्त होकर पवित्र हो जाता है। तीन पंचक्रोशी-परिक्रमाकरने वाले के जन्म-जन्मान्तर के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। काशीवासियोंको कम से कम वर्ष में एक बार पंचकोसी-परिक्रमाअवश्य करनी चाहिए क्योंकि अन्य स्थानों पर किए गए पाप तो काशी की तीर्थयात्रा से उत्पन्न पुण्याग्निमें भस्म हो जाते हैं, परन्तु काशी में हुए पाप का नाश केवल पंचकोसी-प्रदक्षिणा से ही संभव है। काशी में सदाचार-संयम के साथ धर्म का पालन करना चाहिए। यह पर्यटन की नहीं वरन् तीर्थाटन की पावन स्थली है।

वस्तुत:काशी और विश्वेश्वर ज्योतिर्लिगमें तत्त्‍‌वत:कोई भेद नहीं है। नि:संदेह सम्पूर्ण काशी ही बाबा विश्वनाथ का स्वरूप है। काशी-महात्म्य में ऋषियों का उद्घोष है-काशी सर्वाऽपिविश्वेशरूपिणीनात्रसंशय:। अतएव काशी को विश्वनाथजीका रूप मानने में कोई संशय न करें और भक्ति-भाव से नित्य जप करें-शिव: काशी शिव: काशी, काशी काशी शिव: शिव:।

ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष की एकादशी तिथि (निर्जला एकादशी) के दिन श्री काशीविश्वनाथकी वार्षिक कलश-यात्रा वाराणसी में बडी धूमधाम एवं श्रद्धा के साथ आयोजित होती है, जिसमें बाबा का पंचमहानदियोंके जल से अभिषेक होता है।

साक्षात् रुद्र हैं श्री भैरवनाथ

श्रीभैरवनाथसाक्षात् रुद्र हैं। शास्त्रों के सूक्ष्म अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि वेदों में जिस परमपुरुष का नाम रुद्र है, तंत्रशास्त्रमें उसी का भैरव के नाम से वर्णन हुआ है। तन्त्रालोक की विवेकटीका में भैरव शब्द की यह व्युत्पत्ति दी गई है- बिभíत धारयतिपुष्णातिरचयतीतिभैरव: अर्थात् जो देव सृष्टि की रचना, पालन और संहार में समर्थ है, वह भैरव है। शिवपुराणमें भैरव को भगवान शंकर का पूर्णरूप बतलाया गया है। तत्वज्ञानी भगवान शंकर और भैरवनाथमें कोई अंतर नहीं मानते हैं। वे इन दोनों में अभेद दृष्टि रखते हैं।

वामकेश्वर तन्त्र के एक भाग की टीका- योगिनीहृदयदीपिका में अमृतानन्दनाथका कथन है- विश्वस्य भरणाद्रमणाद्वमनात्सृष्टि-स्थिति-संहारकारी परशिवोभैरव:। भैरव शब्द के तीन अक्षरों भ-र-वमें ब्रह्मा-विष्णु-महेश की उत्पत्ति-पालन-संहार की शक्तियां सन्निहित हैं। नित्यषोडशिकार्णव की सेतुबन्ध नामक टीका में भी भैरव को सर्वशक्तिमान बताया गया है-भैरव: सर्वशक्तिभरित:।शैवोंमें कापालिकसम्प्रदाय के प्रधान देवता भैरव ही हैं। ये भैरव वस्तुत:रुद्र-स्वरूप सदाशिवही हैं। शिव-शक्ति एक दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे की उपासना कभी फलीभूत नहीं होती। यतिदण्डैश्वर्य-विधान में शक्ति के साधक के लिए शिव-स्वरूप भैरवजीकी आराधना अनिवार्य बताई गई है। रुद्रयामल में भी यही निर्देश है कि तन्त्रशास्त्रोक्तदस महाविद्याओंकी साधना में सिद्धि प्राप्त करने के लिए उनके भैरव की भी अर्चना करें। उदाहरण के लिए कालिका महाविद्याके साधक को भगवती काली के साथ कालभैरवकी भी उपासना करनी होगी। इसी तरह प्रत्येक महाविद्या-शक्तिके साथ उनके शिव (भैरव) की आराधना का विधान है। दुर्गासप्तशतीके प्रत्येक अध्याय अथवा चरित्र में भैरव-नामावली का सम्पुट लगाकर पाठ करने से आश्चर्यजनक परिणाम सामने आते हैं, इससे असम्भव भी सम्भव हो जाता है। श्रीयंत्रके नौ आवरणों की पूजा में दीक्षाप्राप्तसाधक देवियों के साथ भैरव की भी अर्चना करते हैं।

अष्टसिद्धि के प्रदाता भैरवनाथके मुख्यत:आठ स्वरूप ही सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं पूजित हैं। इनमें भी कालभैरव तथा बटुकभैरव की उपासना सबसे ज्यादा प्रचलित है। काशी के कोतवाल कालभैरवकी कृपा के बिना बाबा विश्वनाथ का सामीप्य नहीं मिलता है। वाराणसी में निíवघ्न जप-तप, निवास, अनुष्ठान की सफलता के लिए कालभैरवका दर्शन-पूजन अवश्य करें। इनकी हाजिरी दिए बिना काशी की तीर्थयात्रा पूर्ण नहीं होती। इसी तरह उज्जयिनीके कालभैरवकी बडी महिमा है। महाकालेश्वर की नगरी अवंतिकापुरी(उज्जैन) में स्थित कालभैरवके प्रत्यक्ष मद्य-पान को देखकर सभी चकित हो उठते हैं।

धर्मग्रन्थों के अनुशीलन से यह तथ्य विदित होता है कि भगवान शंकर के कालभैरव-स्वरूपका आविर्भाव मार्गशीर्ष मास के कृष्णपक्ष की प्रदोषकाल-व्यापिनीअष्टमी में हुआ था, अत:यह तिथि कालभैरवाष्टमी के नाम से विख्यात हो गई। इस दिन भैरव-मंदिरों में विशेष पूजन और श्रृंगार बडे धूमधाम से होता है। भैरवनाथके भक्त कालभैरवाष्टमी के व्रत को अत्यन्त श्रद्धा के साथ रखते हैं। मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी से प्रारम्भ करके प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की प्रदोष-व्यापिनी अष्टमी के दिन कालभैरवकी पूजा, दर्शन तथा व्रत करने से भीषण संकट दूर होते हैं और कार्य-सिद्धि का मार्ग प्रशस्त होता है। पंचांगों में इस अष्टमी को कालाष्टमी के नाम से प्रकाशित किया जाता है।

ज्योतिषशास्त्र की बहुचíचत पुस्तक लाल किताब के अनुसार शनि के प्रकोप का शमन भैरव की आराधना से होता है। इस वर्ष शनिवार के दिन भैरवाष्टमीपडने से शनि की शान्ति का प्रभावशाली योग बन रहा है। शनिवार 1दिसम्बर को कालभैरवाष्टमी है। इस दिन भैरवनाथके व्रत एवं दर्शन-पूजन से शनि की पीडा का निवारण होगा। कालभैरवकी अनुकम्पा की कामना रखने वाले उनके भक्त तथा शनि की साढेसाती, ढैय्या अथवा शनि की अशुभ दशा से पीडित व्यक्ति इस कालभैरवाष्टमीसे प्रारम्भ करके वर्षपर्यन्तप्रत्येक कालाष्टमीको व्रत रखकर भैरवनाथकी उपासना करें।

कालाष्टमीमें दिन भर उपवास रखकर सायं सूर्यास्त के उपरान्त प्रदोषकालमें भैरवनाथकी पूजा करके प्रसाद को भोजन के रूप में ग्रहण किया जाता है। मन्त्रविद्याकी एक प्राचीन हस्तलिखित पाण्डुलिपि से महाकाल भैरव का यह मंत्र मिला है- ॐहंषंनंगंकंसं खंमहाकालभैरवायनम:।

इस मंत्र का 21हजार बार जप करने से बडी से बडी विपत्ति दूर हो जाती है।। साधक भैरव जी के वाहन श्वान (कुत्ते) को नित्य कुछ खिलाने के बाद ही भोजन करे। साम्बसदाशिवकी अष्टमूíतयोंमें रुद्र अग्नि तत्व के अधिष्ठाता हैं। जिस तरह अग्नि तत्त्‍‌व के सभी गुण रुद्र में समाहित हैं, उसी प्रकार भैरवनाथभी अग्नि के समान तेजस्वी हैं। भैरवजीकलियुग के जाग्रत देवता हैं। भक्ति-भाव से इनका स्मरण करने मात्र से समस्याएं दूर होती हैं।

इनका आश्रय ले लेने पर भक्त निर्भय हो जाता है। भैरवनाथअपने शरणागत की सदैव रक्षा करते हैं।

जागेश्वर धाम के प्राचीन मंदिर हैं अध्यात्म का संगम (देहरादून)

उत्तराखंड के अल्मोडा से 35किलोमीटर दूर स्थित केंद्र जागेश्वर धाम के प्राचीन मंदिर प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर इस क्षेत्र को सदियों से आध्यात्मिक जीवंतताप्रदान कर रहे हैं। यहां लगभग 250मंदिर हैं जिनमें से एक ही स्थान पर छोटे-बडे 224मंदिर स्थित हैं।

उत्तर भारत में गुप्त साम्राज्य के दौरान हिमालय की पहाडियोंके कुमाऊं क्षेत्र में कत्यूरीराजा थे। जागेश्वर मंदिरों का निर्माण भी उसी काल में हुआ। इसी कारण मंदिरों में गुप्त साम्राज्य की झलक भी दिखलाई पडती है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अनुसार इन मंदिरों के निर्माण की अवधि को तीन कालों में बांटा गया है। कत्यरीकाल, उत्तर कत्यूरीकाल एवं चंद्र काल। बर्फानी आंचल पर बसे हुए कुमाऊं के इन साहसी राजाओं ने अपनी अनूठी कृतियों से देवदार के घने जंगल के मध्य बसे जागेश्वर में ही नहीं वरन् पूरे अल्मोडा जिले में चार सौ से अधिक मंदिरों का निर्माण किया जिसमें से जागेश्वर में ही लगभग 250छोटे-बडे मंदिर हैं। मंदिरों का निर्माण लकडी तथा सीमेंट की जगह पत्थर की बडी-बडी स्लैबों से किया गया है। दरवाजों की चौखटें देवी देवताओं की प्रतिमाओं से अलंकृत हैं। मंदिरों के निर्माण में तांबे की चादरों और देवदार की लकडी का भी प्रयोग किया गया है।

जागेश्वर को पुराणों में हाटकेश्वरऔर भू-राजस्व लेखा में पट्टी पारूणके नाम से जाना जाता है। पतित पावन जटागंगाके तट पर समुद्रतल से लगभग पांच हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित पवित्र जागेश्वर की नैसर्गिक सुंदरता अतुलनीय है। कुदरत ने इस स्थल पर अपने अनमोल खजाने से खूबसूरती जी भर कर लुटाई है। लोक विश्वास और लिंग पुराण के अनुसार जागेश्वर संसार के पालनहारभगवान विष्णु द्वारा स्थापित बारह ज्योतिर्लिगोंमें से एक है।

पुराणों के अनुसार शिवजी तथा सप्तऋषियोंने यहां तपस्या की थी। कहा जाता है कि प्राचीन समय में जागेश्वर मंदिर में मांगी गई मन्नतें उसी रूप में स्वीकार हो जाती थीं जिसका भारी दुरुपयोग हो रहा था। आठवीं सदी में आदि शंकराचार्य जागेश्वर आए और उन्होंने महामृत्युंजयमें स्थापित शिवलिंगको कीलित करके इस दुरुपयोग को रोकने की व्यवस्था की। शंकराचार्य जी द्वारा कीलित किए जाने के बाद से अब यहां दूसरों के लिए बुरी कामना करने वालों की मनोकामनाएंपूरी नहीं होती केवल यज्ञ एवं अनुष्ठान से मंगलकारी मनोकामनाएंही पूरी हो सकती हैं।

नागचंद्रेश्वर मंदिर में सर्पशैय्या पर आसीन है शिव परिवार उज्जैन।देश के बारह ज्योतिर्लिगोंमें प्रमुख प्रसिद्ध महाकालेश्वर मंदिर के शीर्ष पर स्थित नागच

उज्जैन।देश के बारह ज्योतिर्लिगोंमें प्रमुख प्रसिद्ध महाकालेश्वर मंदिर के शीर्ष पर स्थित नागचंद्रेश्वरमंदिर में देवाधिदेव भगवान शिव की एक ऐसी विलक्षण प्रतिमा है, जिसमें वह अपने पूरे परिवार के साथ सर्प सिंहासन पर आसीन है।

हिंदू मान्यताओं के अनुसार सर्प भगवान शिव का कंठाहारऔर भगवान विष्णु का आसन है लेकिन यह विश्व का संभवत:एकमात्र ऐसा मंदिर है जहां भगवान शिव, माता पार्वती एवं उनके पुत्र गणेशजीको सर्प सिंहासन पर आसीन दर्शाया गया है। वर्ष में केवल एक दिन नागपंचमी पर इस मंदिर के पट 24घंटे के लिए खुलते है और इस दौरान दूरदराज से आने वाले श्रद्धालुओं की भारी भीड उमड पडती है। शनिवार को नागपंचमी का पर्व होने की वजह से शुक्रवार की मध्यरात्रि से ही इस मंदिर में भगवान शिव के दर्शनों के लिए भक्तों की कतार लगने का सिलसिला आरंभ हो जाएगा।

महाकाल भक्त मंडल के अध्यक्ष एवं महाकालेश्वर मंदिर के पुजारी पंडित रमण त्रिवेदी ने बताया कि पौराणिक मान्यता के अनुसार सर्पोके राजा तक्षक ने भगवान शंकर की यहां घनघोर तपस्या की थी। तपस्या से भगवान शिव प्रसन्न हुए और तक्षक को अमरत्व का वरदान दिया। ऐसा माना जाता है कि उसके बाद से तक्षक नाग यहां विराजितहै, जिस पर शिव और उनका परिवार आसीन है। एकादशमुखीनाग सिंहासन पर बैठे भगवान शिव के हाथ-पांव और गले में सर्प लिपटे हुए है।

इस अत्यंत प्राचीन मंदिर का परमार राजा भोज ने एक हजार और 1050ईस्वी के बीच पुनर्निर्माण कराया था। 1732में तत्कालीन ग्वालियर रियासत के राणाजीसिंधिया ने उज्जयिनीके धार्मिक वैभव को पुन:स्थापित करने के भागीरथी प्रयास के तहत महाकालेश्वर मंदिर का जीर्णाेद्धार कराया। प्रतिवर्ष श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की पंचमी के दिन नागपंचमी का पर्व पडता है और इस दिन नाग की पूजा की जाती है।

इस दिन कालसर्पयोग की शांति के लिए यहां विशेष पूजा के आयोजन भी होते है। श्री महाकाल ज्योतिष अनुसंधान केंद्र के संचालक और ज्योतिषाचार्य पंडित कृपाशंकर व्यास ने बताया कि नागचन्द्रेश्वरमंदिर दुनिया में अपनी तरह का एक ही मंदिर है।उन्होने कहा कि यहां पूजा-पाठ का विशेष महत्व है।

शिवलिंग के दो हिस्सों की पूजा

द्राक्षारामम, आंध्र प्रदेश। ये वो ही जगह है जहां शिवलिंग के दो हिस्सों की पूजा होती है। यहां शिवलिंग के एक हिस्से की पूजा पहली मंजिल पर होती है और दूसरे हिस्से की पूजा दूसरी मंजिल पर। ये शिवलिंग दो भागों में कैसे बंटा इसके पीछे भी एक बड़ी कहानी है। महाभारत काल में इस जगह पर वेद व्यास ने भी महाशिवलिंग की पूजा की थी। इस जगह पर शिव की पूजा का फल उतना ही होता है जितना वाराणसी के विश्वनाथ की पूजा से।कहते हैं कि किसी वजह से शिव पूजा के लिए वेद व्यास वाराणसी नहीं जा सके इसलिए वो पूजा के लिए इस जगह पर चले आए।

सामर्लकोटा में भी है ऐसा शिवलिंग

सामर्लकोटा। द्राक्षारामम, आंध्र प्रदेश से थोड़ी ही दूरी पर ईस्ट गोदावरी में ही सामर्लकोटा नाम की एक जगह है जहां ठीक ऐसे ही शिवलिंग की पूजा होती है। वहां भी शिवलिंग की दो भागों में पूजा होती है। पांच जगहों पर गिरे शिव का ये दूसरा लिंग है। लेकिन द्राक्षारामा वाले शिवलिंग की विशेषता ये है कि वहां पर सभी देवताओं ने पूजा अर्चना की थी। सभी सूर्य और चंद्रमा समेत सभी देवगण इस जगह पर शिवलिंग की पूजा के लिए आए थे और तब जाकर इस शिवलिंग की वृद्धि रुकी थी। सभी देवगणों की पूजा के बाद शांत होने वाला शिवलिंग का ये इकलौता मंदिर है। सामर्लकोटा का शिवलिंग की पूजा भी दो भागों में होती है। लेकिन इसे शांत करने के लिए खुद शिव के पुत्र कार्तिकेय ने पूजा की थी। दरअसल, हुआ ये कि द्राक्षाराम का शिवलिंग देव पूजा के बाद तो शांत हो गया लेकिन इसके बाद सामर्लकोटा के ये लिंग बढ़ने लगा। इसे शांत करने के लिए कार्तिकेय यहां आए और शिवलिंग की विधिवत पूजा की।

भारत के प्रसिद्ध भैरव मंदिर

भूतभावनभगवान भैरव की महत्ता असंदिग्ध है। भैरव आपत्तिविनाशकएवं मनोकामना पूर्ति के देवता हैं। भूत-प्रेत बाधा से मुक्ति में भी उनकी उपासना फलदायीहोती है। भैरव की लोकप्रियता का अनुमान उसी से लग सकता है कि प्राय: हर गांव के पूर्व में स्थित देवी-मंदिर में स्थापित सात पीढियों के पास में आठवीं भैरव-पिंडी भी अवश्य होती है। नगरों के देवी-मंदिरों में भी भैरव विराजमान रहते हैं। देवी प्रसन्न होने पर भैरव को आदेश देकर ही भक्तों की कार्यसिद्धि करा देती हैं। भैरव को शिव का अवतार माना गया है, अत:वे शिव-स्वरूप ही हैं-

भैरव: पूर्णरूपोहि शंकरस्यपरात्मन:।

मूढास्तेवैन जानन्तिमोहिता:शिवमायया॥

भैरव पूर्ण रूप से परात्पर शंकर ही हैं। भगवान शंकर की माया से ग्रस्त होने के फलस्वरूप मूर्ख, इस तथ्य को नहीं जान पाते। भैरव के कई रूप प्रसिद्ध हैं। उनमें विशेषत:दो अत्यंत ख्यात हैं-काल भैरव एवं बटुकभैरव या आनंद भैरव।

काल के सदृश भीषण होने के कारण इन्हें कालभैरवनाम मिला। ये कालों के काल हैं। हर प्रकार के संकट से रक्षा करने में यह सक्षम हैं। काशी का कालभैरवमंदिर सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। काशी विश्वनाथ मंदिर से कोई डेढ-दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस मंदिर का स्थापत्य ही इसकी प्राचीनताको प्रमाणित करता है। गर्भ-गृह के अंदर काल भैरव की मूर्ति स्थापित है, जिसे सदा वस्त्र से आवेष्टित रखा जाता है। मूर्ति के मूल रूप के दर्शन किसी-किसी को ही होते हैं। गर्भ-गृह से पहले बरामदे के दाहिनी ओर दोनों तरफ कुछ तांत्रिक अपने-अपने आसन पर विराजमान रहते हैं। दर्शनार्थियोंके हाथों में ये उनके रक्षार्थकाले डोरे बांधते हैं और उन्हें विशेष झाडू से आपादमस्तकझाडते हैं। काशी के कालभैरवकी महत्ता इतनी अधिक है कि जो काशी विश्वनाथ के दर्शनोपरान्तकालभैरवके दर्शन नहीं करता उसको भगवान विश्वनाथ के दर्शन का सुफल नहीं मिलता। नई दिल्ली के विनय मार्ग पर नेहरू पार्क में बटुकभैरव का पांडवकालीनमंदिर अत्यंत प्रसिद्ध है। यह सर्वकामनापूरकसर्वआपदानाशकहै। रविवार भैरव का दिन है। इस दिन यहां सामान्य और विशिष्ट जनों की अपार भीड होती है। मंदिर के सामने की लम्बी सडक पर कारों की लम्बी पंक्तियां लग जाती हैं। संध्या से शाम अपितु देर रात तक पुजारी इन दर्शनार्थियोंसे निपटते रहते हैं। ऐसी भीड देश के किसी भैरव मंदिर में नहीं लगती। यह प्राचीन मूर्ति इस तरह ऊर्जावान है कि भक्तों की यहां हर सम्भव इच्छा पूर्ण होती है। इस भीड का कारण यही है। इस मूर्ति की एक विशेषता है कि यह एक कुएं के ऊपर स्थापित है। न जाने कब से, एक क्षिद्रके माध्यम से पूजा-पाठ एवं भैरव स्नान का सारा जल कुएं में जाता रहा है पर कुंआ अभी तक नहीं भरा। पुराणों के अनुसार भैरव की मिट्टी की मूर्ति बनाकर भी किसी कुएं के पास उसकी पूजा की जाय तो वह बहुत फलदायीहोती है। यही कारण है कि कुएं पर स्थापित यह भैरव उतने ऊर्जावान हैं। इन्हें भीमसेन द्वारा स्थापित बताया जाता है। नीलम की आंखों वाली यह मूर्ति जिसके पा‌र्श्व में त्रिशूल और सिर के ऊपर सत्र सुशोभित है, उतनी भारी है कि साधारण व्यक्ति उसे उठा भी नहीं सकता। पांडव-किला की रक्षा के लिए भीमसेन इस मूर्ति को काशी से ला रहे थे। भैरव ने शर्त लगा दी कि जहां जमीन पर रखे कि मैं वहां से उठूंगा ही नहीं एवं वहीं मेरा मंदिर बना कर मेरी स्थापना करनी होगी। इस स्थान पर आते-आते भीमसेन ने थक कर मूर्ति जमीन पर रख दी और फिर वह लाख प्रयासों के बावजूद उठी ही नहीं। अत:बटुकभैरव को यहीं स्थापित करना पडा। पांडव-किला (नई दिल्ली) के भैरव भी बहुत प्रसिद्ध हैं। यहां भी खूब भीड लगती है। माना जाता है कि भैरव जब नेहरू पार्क में ही रह गए तो पांडवों की चिंता देख उन्होंने अपनी दो जटाएं दे दी। उन्हीं के ऊपर पांडव किला की भैरव मूर्ति स्थापित हुई जो आज तक वहां पूजित है।

ऊं ह्रींबटुकायआपदुद्धारणाय

कुरु कुरु बटुकायह्रीं

यही है बटुक-भैरवका मंत्र जिसका जप कहीं भी किया जा सकता है और बटुकभैरव की प्रसन्नता प्राप्त की जा सकती है। नैनीताल के समीप घोडा खाड का बटुकभैरव मंदिर भी अत्यंत प्रसिद्ध है। यहां गोलू देवता के नाम से भैरव की प्रसिद्धि है। पहाडी पर स्थित एक विस्तृत प्रांगण में एक मंदिर में स्थापित इस सफेद गोल मूर्ति की पूजा के लिए नित्य अनेक भक्त आते हैं। यहां महाकाली का भी मंदिर है। भक्तों की मनोकामनाओंके साक्षी, मंदिर की लम्बी सीढियों एवं मंदिर प्रांगण में यत्र-तत्र लटके पीतल के छोटे-बडे घंटे हैं जिनकी गणना कठिन है। मंदिर के नीचे और सीढियों की बगल में पूजा-पाठ की सामग्रियां और घंटों की अनेक दुकानें हैं। बटुकभैरव की ताम्बे की अश्वारोही, छोटी-बडी मूर्तियां भी बिकती हैं जिनकी पूजा भक्त अपने घरों में करते हैं। उज्जैनके प्रसिद्ध भैरव मंदिर की चर्चा आवश्यक है। यह मनोवांक्षापूरक हैं और दूर-दूर से लोग इनके पूजन को आते हैं। उनकी एक विशेषता उल्लेखनीय है। मनोकामना पूर्ति के पश्चात् भक्त इन्हें शराब की बोतल चढाते हैं। पुजारी बोतल खोल कर उनके मुख से लगाता है और बात की बात में भक्त के समीप ही मूर्ति बोतल को खाली कर देती है। यह चमत्कार है। हरिद्वार में भगवती मायादेवी के निकट आनंद भैरव का प्रसिद्ध मंदिर है। यहां सबकी मनोकामना पूर्ण होती है। भैरव जयंती पर यहां बहुत बडा उत्सव होता है। लोकप्रिय है भैरवकायह स्तुति गान-

कंकाल: कालशमन:कला काष्ठातनु:कवि:।

त्रिनेत्रोबहुनेत्रश्यतथा पिङ्गललोचन:।

शूलपाणि:खड्गपाणि:कंकाली धू्रमलोचन:।

अमीरुभैरवी नाथोभूतयोयोगिनी पति:।

शुक्रवार, 26 दिसंबर 2008

शिव स्वरूप का रहस्य (त्रिनेत्र)

image शिव की आराधना का विशेष महत्व है। यह महत्व अनायास नहीं है। केवल कर्मकांड भी नहीं है। इनके राज गहरे हैं। केवल कर्मकाण्ड मानकर पूजा-पाठ करने से बात नहीं बनेगी।

शिव पूरक हैं। शिवत्व पूर्णता है। इनके व्यावहारिक और आध्यात्मिक दोनों तरह के जीवन में खास महत्व हैं। शिव के प्रचलित स्वरूप को ही देखें तो उनके हर अंग, आभूषण और मुद्रा का महत्व है। जैसे - जैसे आप इसे समझते हैं आप शिवमय होते जाते हैं। शिवत्व आपमें उतरता जाता है और आप सरस हो जाते हैं। केवल शिव ही हैं जिनकी आराधना के साथ अमर होने का वरदान जुड़ा हुआ है। वैसे तो शिव इतने व्यापक हैं कि उनके लेशमात्र का वर्णन करने की योग्यता मुझमें नहीं है, लेकिन उन्हीं की इच्छा से कोशिश करते हैं।


शिव की वेश-भूषा को देखिए। सर पर गंगा और चंद्रमा, माथे पर तीसरी खुली हुई आंख, कंठ और हाथों में सर्प, कंधे पर जनेउ, कमर में वाघम्बर, बाघम्बर का आसन, पद्मासन में भैरवी मुद्रा, त्रिशूल और डमरू। साथ में माता पार्वती और उनका वाहन नंदी। यह शिव की वाह्य छवि है जिसे हम देखते हैं। अगर हमें शिव को निरूपित करना हो तो हम कुछ ऐसी ही छवि बनाएंगे। सर के जिस स्थान पर गंगा को दर्शाया जाता है भारतीय शरीर शास्त्र (तंत्र) में उसे सहस्रार चक्र के रूप में परिभाषित किया गया है। जब बच्चा पैदा होता है तो सिर के मध्य भाग में एक स्थान बहुत कोमल होता है। बहुत दिनों तक उस स्थान पर होने वाले स्पंदन को प्रकट रूप में देखा जा सकता है। जैसे जैसे हमारी कोमलता नष्ट होने लगती है धीरे-धीरे वह स्थान भी कठोर हो जाता है। वह स्थान तंत्र में सहस्रार के रूप में परिभाषित है। सहस्रार का सामान्य अर्थ समझना हो तो उसे सहस्रदल कमल कह लें। वह अमरता का स्रोत है। सिर के उस हिस्से की बनावट ऐसी है जैसी कमल की पंखुड़ियां। कमल कहां पैदा होता है? पानी में। जल का पवित्रतम रूप हैं गंगा। और गंगा का उद्गम क्षेत्र है शिव की जटा। इसका मतलब यह हुआ कि गंगा को वहां स्थापित करने के पीछे कारण हैं। हम प्रतीक रूप में गंगा को देखकर यह समझ लें कि वह स्थान अमरता का केन्द्र है। उस केन्द्र तक पहुंचना ही हमारा लक्ष्य होना चाहिए। इसके लिए शिव ही साधना की अनेक विधियां बताते हैं जो विभिन्न शास्त्रों में वर्णित हैं। सामान्य जीवन में गंगा का क्या महत्व है यह बताने की आवश्यकता नहीं है।


उससे थोड़ा नीचे चंद्रमा स्थापित हैं। शिव के शरीर में जिस स्थान पर चंद्रमा का दर्शन होता है तंत्र में उस स्थान को बिन्दु विसर्ग कहते हैं। भौतिक शरीर में यह स्थान बुद्धि का केन्द्र है। चंद्रमा का स्वभाव शीतल है। बुद्धि शीतल हो। शांत हो। चंद्रमा इसी बात का संकेत हैं।


कंठ और भुजाओं पर सर्प की माला। संभवत: शिव की भारतीय मानस में स्थापना का ही परिणाम है कि सांप का सामान्य जीवन में बड़ा आदर है। सांपों का इतना आदर दुनिया के शायद ही किसी देश में हो। सांप पर्यावास के दृष्टिकोण से बहुत महत्वपूर्ण जीव होता है। संभवत: सांप ही एकमात्र ऐसा जीव होता है जो अपनी पूरा कायाकल्प कर लेता है। कंठ में जो चक्र स्थापित है उसका नाम है विशुद्धि। विशुद्धि चक्र शरीर में कई तरह के रसों का उत्पादन करता है जो पाचक रसों के रूप में जाने जाते हैं। अगर इन पाचक रसों में व्यवधान आ जाए तो व्यक्ति में कई तरह के रोग घर कर जाते हैं। तंत्र के साधक ऐसा कहते हैं कि विशुद्धि चक्र जागृत हो जाता है तो व्यक्ति में विष को पचा लेने की क्षमता अपने-आप आ जाती है। वह रसों का स्वामी हो जाता है। सांप को प्रतीक रूप में चुनने का एक और अर्थ है। शरीर के सबसे निचले हिस्से में कुंडलिनी शक्ति का स्थान होता है। उस स्थान को मूलाधार चक्र कहते हैं। मूलाधार चक्र जागृत होने पर वह शक्ति उर्ध्वगामी होती है और शरीर के सारे चक्रों का भेदन करती हुई सहस्रार में जाकर विस्फोट करती है। इस सुसुप्त शक्ति का जो आकार है वह कुंडली मारकर बैठे हुए सर्प जैसी है। इड़ा और पिंगड़ा नाड़ियां सुषुम्ना को लपेटे हुए उपर की तरफ चलती हैं। इसलिए सांप को शिव के गले में प्रतीक रूप में रखने के पीछे यह महत्वपूर्ण कारण है।

इसी तरह शिव के माथे पर एक अधखुली आंख के दर्शन होते हैं। उसे त्रिनेत्र कहते हैं। शिव का यह त्रिनेत्र तंत्र में आज्ञा चक्र के रूप में परिभाषित है। आज्ञा चक्र सभी चक्रों का नियंत्रण करता है। उच्चतर साधनाओं के लिए त्रिनेत्र का खुलना जरूरी है। क्योंकि साधना के दौरान यह शरीर एक अनंत उर्जा का स्रोत बनता चला जाता है। इस उर्जा का समायोजन त्रिनेत्र के खुलने पर ही हो सकता है। अन्यथा कई बार ऐसा देखने को मिलता है कि कोई व्यक्ति साधना के दौरान अपना मानसिक संतुलन खो बैठता है। त्रिनेत्र अथवा आज्ञा चक्र के खुलने पर हम एक नये ब्रह्माण्ड में पहुंच जाते हैं। इन दो आंखों से हम जो जगत देख पाते हैं त्रिनेत्र उसके परे के जगत से हमारा साक्षात्कार करवाता है। शिव के भाल पर त्रिनेत्र दर्शाने का संभवत: यही अर्थ है। क्योंकि जिन्हें तंत्र में चक्रों के रूप में परिभाषित किया गया है उनका कोई आकार तो है नहीं। वह उर्जा केन्द्र है। शिव में उन उर्जा केन्द्रों को उनके व्यवहार के अनुकूल दर्शाया गया है। आज्ञा चक्र का जो व्यवहार है उसको त्रिनेत्र के रूप इसीलिए दिखाया गया है।

साभार : संजय तिवारी

shivbhakt.blogspot.com


बुधवार, 24 दिसंबर 2008

गौरी तपोव्रत कथा विधि

गौरी तपोव्रत महात्मय (Gauri Tapovrat Mahatmya)

मार्गशीर्ष अमावस्या तिथि को महिलाएं अति उत्तम मानती हैं. यह तिथि गौरी तपोव्रत के नाम से जानी जाती है. इस दिन महिलाएं अन्न जल का त्याग कर व्रत करती हैं. कुमारी कन्याएं योग्य वर पाने की इच्छा से यह व्रत रखती हैं और विवाहित स्त्रियां अपने पति और सुहाग की मंगल कामना से यह व्रत रखती हैं. शास्त्रों कें अनुसार इस व्रत का आधार माता गौरी द्वारा पति रूप में शिव को पाने के लिए किया जाने वाला व्रत है.

गौरी अत्यंत दयालु और कृपालु हैं. उनकी कृपा से सुहागिन स्त्रियो का सुहाग चिन्ह दमकता रहता है. कुंवारी कन्याओं को सुन्दर और सुयोग्य वर मिलता है व गृहस्थ जीवन ध्रर्मानुकूल एवं सुख शांतिमय रहता है. माता गौरी सदा अपने भक्तों पर ममता लुटाती हैं व उनकी हर मनोकामना पूरा करती है.

गौरी तपोव्रत विधि (Gauri Tapovrat Vidhi)

मां गौरी ने जिस प्रकार भगवान भोलेनाथ को पाने के लिए कठोर तपोव्रत किया और उनकी मनोकामना पूर्ण हुई उसी प्रकार गौरी तपोव्रत करने वाले की सभी मानोकामना मां गौरी और भगवान शंकर पूर्ण करते हैं. यह तपोव्रत मार्गशीर्ष की कृष्ण पक्ष में अमावस्या तिथि (Margshirsha Amavasya Gauri Tapovrat) के दिन किया जाता है.

इस व्रत को महिलाएं करती हैं, क्योंकि यह उनके लिए विशेष मंगलकारी है . इस व्रत को रखने कि विधि यह है कि व्रती को सुबह ब्रह्म मुर्हूत में उठकर स्नान करना चाहिए और शिव पार्वत की पूजा करनी चाहिए. दिन के वक्त देवी पार्वती और भगवान भोले नाथ का भजन कीर्तन करना चाहिए और उन्हीं में मन को लगाना चाहिए. संध्या काल में गौरी मैथ्या और शिव जी के नाम से दीप दान करना चाहिए.

इस व्रत का विशेष विधान यह है कि व्रती को मध्य रात्रि में मन्दिर में जाकर शिव पार्वती की पूजा करनी चाहिए. शास्त्रानुसार अगर आप यह व्रत करती हैं तो आपको व्रत का पूर्ण फल तभी प्राप्त होता है जब आप निरन्तर सोलह वर्ष तक इस व्रत का पालन करती हैं. जब सोलह वर्ष पूर्ण हो जाए तब मार्गशीर्ष पूर्णिमा तिथि को व्रत का उद्यापन यानी समापन करें.

कालाष्टमी या भैरवाष्टमी कथा एवं महात्मय

मार्गशीर्ष कृष्ष्ण पक्ष अष्टमी तिथि को भगवान भोले नाथ भैरव रूप में प्रकट हुए थे. कालाष्टमी का व्रत इसी उपलक्ष्य में इस तिथि को किया जाता है. आदि देव महादेव ने यह रूप किस कारण से धारण किया इस सम्बन्ध में एक पारौणिक कथा है। आइये यह क्था सुनें।

भैरवाष्टमी कथा (Bhairav Ashtmi Katha)
कथा के अनुसार एक बार श्री हरि विष्णु और ब्रह्मा जी में इस बात को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया कि उनमें श्रेष्ठ कौन है. विवाद इस हद तक बढ़ गया कि शिव शंकर की अध्यक्षता में एक सभा बुलायी गयी. इस सभा में ऋषि-मुनि, सिद्ध संत, उपस्थित हुए. सभा का निर्णय श्री विष्णु ने तो स्वीकार कर लिया परंतु ब्रह्मा जी निर्णय से संतुष्ट नहीं हुए और उन्होंने महादेव का अपमान कर दिया.

यह तो सर्वविदित है कि भोले नाथ जब शांत रहते हैं तो उस गहरी नदी की तरह प्रतीत होते हैं जिसकी धारा तीव्र होती है परंतु देखने में उसका जल ठहरा हुआ नज़र आता है और जब क्रोधित होते हैं तो प्रलयकाल में गरजती और उफनती नदी के सामन दिखाई देते हैं. ब्रह्मा जी द्वारा अपमान किये जाने पर महादेव प्रलय के रूप में नज़र आने लगे और उनका रौद्र रूप देखकर तीनो लोक भयभीत होने लगा. भगवान आशुतोष के इसी रौद्र रूप से भगवान भैरव प्रकट हुए . भगवान भैरव (God Bhairav) कुत्ते पर सवार थे और इनके हाथ में दंड था. हाथ में दण्ड होने से ये दण्डाधिपति भी कहे जाते हैं. इनका रूप अत्यंत भयंकर था. भैरव जी के इस रूप को देखकर ब्रह्मा जी को अपनी ग़लती का एहसास हुआ और वे भगवान भोले नाथ एवं भैरव की वंदना करने लगे. भगवान वैरव ब्रह्मा जी एवं अन्य देव और साधुओं द्वारा वंदना करने पर शांत हुए इस तरह भैरव बाबा का जन्म हुआ।

भैरवाष्टमी व्रत पूजा विधि (Bhairavastmi Vrat Pooja Vidhi)
शिव के इस भैरव रूप की उपासना करने वाले भक्तों के सभी प्रकार के पाप, ताप एवं कष्ट दूर हो जाते हैं. इनकी भक्ति मनोवांछित फल देने वाली कही गयी है. भैरव जी की उपासना करने वाले को भैरवाष्टमी के दिन व्रत रख कर प्रत्येक प्रहर में भैरव नाथ (BHairo Nath) जी की षोड्षोपचार सहित पूजा करनी चाहिए व उन्हें आर्घ्य देना चाहिए. रात के समय जागरण करके माता पार्वती और भोले शंकर की कथा एवं भजन कीर्तन करना चाहिए व भैरव जी (Bhairo Nath) उत्पत्ति की कथा कहनी व सुननी चाहिए. रात का आधा पहर यानी मध्य रात्रि होने पर शंख, नगाड़ा, घंटा आदि बजाकर भैरव जी की आरती करनी चाहिए.

भगवान भैरव नाथ (Bhairo Nath) का वाहन कुत्ता है. भैरव जी की प्रसन्नता के लिए इस दिन कुत्ते को उत्तम भोजन दें. मान्यता के अनुसार इस दिन प्रात: काल पवित्र नदी या सरोवर में स्नान करके पितरों का श्राद्ध व तर्पण करें फिर भैरव जी की पूजा व व्रत करें तो विघ्न बाधाएं समाप्त हो जाती हैं व आयु में वृद्धि होती है. भैरव जी के विषय में यह भी कहा गया है कि इनकी पूजा व भक्ति करने वाले से भूत, पिशाच एवं काल भी दूर दूर रहते हैं. इन्हें रोग दोष स्पर्श नहीं करते हैं. शुद्ध मन एवं आचरण से ये जो भी कार्य करते हैं उनमें इन्हें सफलता मिलती है.

काल भैरव (Kal Bhairav) के साथ ही इस दिन देवी कालिका (Devi Kali Pooja Vrat) की उपासना एवं व्रत का विधान भी है. इस रात देवी काली की उपासना करने वालों को अर्ध रात्रि के बाद मां की उसी प्रकार से पूजा करनी चाहिए जिस प्रकार दुर्गा पूजा में सप्तमी तिथि को देवी कालरात्रि (Devi Kalratri) की पूजा का विधान है.

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काशी

काशी संसार की सबसे पुरानी नगरी है। विश्व के सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में काशी का उल्लेख मिलता है-काशिरित्ते.. आप इवकाशिनासंगृभीता:।पुराणों के अनुसार यह आद्य वैष्णव स्थान है। पहले यह भगवान विष्णु (माधव) की पुरी थी। जहां श्रीहरिके आनंदाश्रु गिरे थे, वहां बिंदुसरोवरबन गया और प्रभु यहां बिंधुमाधवके नाम से प्रतिष्ठित हुए। ऐसी एक कथा है कि जब भगवान शंकर ने कु्रद्ध होकर ब्रह्माजीका पांचवां सिर काट दिया, तो वह उनके करतल से चिपक गया। बारह वर्षो तक अनेक तीर्थो में भ्रमण करने पर भी वह सिर उनसे अलग नहीं हुआ। किंतु जैसे ही उन्होंने काशी की सीमा में प्रवेश किया, ब्रह्महत्या ने उनका पीछा छोड दिया और वह कपाल भी अलग हो गया। जहां यह घटना घटी, वह स्थान कपालमोचन-तीर्थकहलाया। महादेव को काशी इतनी अच्छी लगी कि उन्होंने इस पावन पुरी को विष्णुजीसे अपने नित्य आवास के लिए मांग लिया। तब से काशी उनका निवास-स्थान बन गई।
एक अन्य कथा के अनुसार महाराज सुदेव के पुत्र राजा दिवोदासने गंगातटपर वाराणसी नगर बसाया था। एक बार भगवान शंकर ने देखा कि पार्वती जी को अपने मायके (हिमालय-क्षेत्र) में रहने में संकोच होता है, तो उन्होंने किसी दूसरे सिद्धक्षेत्रमें रहने का विचार बनाया। उन्हें काशी अतिप्रियलगी। वे यहां आ गए। भगवान शिव के सान्निध्य में रहने की इच्छा से देवता भी काशी में आकर रहने लगे। राजा दिवोदासअपनी राजधानी काशी का आधिपत्य खो जाने से बडे दु:खी हुए। उन्होंने कठोर तपस्या करके ब्रह्माजीसे वरदान मांगा- देवता देवलोक में रहें, भूलोक (पृथ्वी) मनुष्यों के लिए रहे। सृष्टिकर्ता ने एवमस्तु कह दिया। इसके फलस्वरूप भगवान शंकर और देवगणोंको काशी छोडने के लिए विवश होना पडा। शिवजी मन्दराचलपर्वत पर चले तो गए परंतु काशी से उनका मोह भंग नहीं हुआ। महादेव को उनकी प्रिय काशी में पुन:बसाने के उद्देश्य से चौसठ योगनियों,सूर्यदेव, ब्रह्माजीऔर नारायण ने बडा प्रयास किया। गणेशजीके सहयोग से अन्ततोगत्वा यह अभियान सफल हुआ। ज्ञानोपदेश पाकर राजा दिवोदासविरक्त हो गए। उन्होंने स्वयं एक शिवलिङ्गकी स्थापना करके उसकी अर्चना की और बाद में वे दिव्य विमान पर बैठकर शिवलोक चले गए। महादेव काशी वापस आ गए।

काशी का इतना माहात्म्य है कि सबसे बडे पुराण स्कन्दमहापुराण में काशीखण्ड के नाम से एक विस्तृत पृथक विभाग ही है। इस पुरी के बारह प्रसिद्ध नाम- काशी, वाराणसी, अविमुक्त क्षेत्र, आनंदकानन, महाश्मशान, रुद्रावास, काशिका, तप:स्थली, मुक्तिभूमि, शिवपुरी, त्रिपुरारिराजनगरीऔर विश्वनाथनगरीहैं।

स्कन्दपुराणकाशी की महिमा का गुण-गान करते हुए कहता है-

भूमिष्ठापिन यात्र भूस्त्रिदिवतोऽप्युच्चैरध:स्थापिया

या बद्धाभुविमुक्तिदास्युरमृतंयस्यांमृताजन्तव:।
या नित्यंत्रिजगत्पवित्रतटिनीतीरेसुरै:सेव्यते
सा काशी त्रिपुरारिराजनगरीपायादपायाज्जगत्॥

जो भूतल पर होने पर भी पृथ्वी से संबद्ध नहीं है, जो जगत की सीमाओं से बंधी होने पर भी सभी का बन्धन काटनेवाली(मोक्षदायिनी) है, जो महात्रिलोकपावनीगङ्गाके तट पर सुशोभित तथा देवताओं से सुसेवितहै, त्रिपुरारि भगवान विश्वनाथ की राजधानी वह काशी संपूर्ण जगत् की रक्षा करे।

सनातन धर्म के ग्रंथों के अध्ययन से काशी का लोकोत्तर स्वरूप विदित होता है। कहा जाता है कि यह पुरी भगवान शंकर के त्रिशूल पर बसी है। अत:प्रलय होने पर भी इसका नाश नहीं होता है। वरुणा और असि नामक नदियों के बीच पांच कोस में बसी होने के कारण इसे वाराणसी भी कहते हैं। काशी नाम का अर्थ भी यही है-जहां ब्रह्म प्रकाशित हो। भगवान शिव काशी को कभी नहीं छोडते। जहां देह त्यागने मात्र से प्राणी मुक्त हो जाय, वह अविमुक्त क्षेत्र यही है। सनातन धर्मावलंबियों का दृढ विश्वास है कि काशी में देहावसान के समय भगवान शंकर मरणोन्मुख प्राणी को तारकमन्त्रसुनाते हैं। इससे जीव को तत्वज्ञान हो जाता है और उसके सामने अपना ब्रह्मस्वरूपप्रकाशित हो जाता है। शास्त्रों का उद्घोष है-

यत्र कुत्रापिवाकाश्यांमरणेसमहेश्वर:।
जन्तोर्दक्षिणकर्णेतुमत्तारंसमुपादिशेत्॥

काशी में कहीं पर भी मृत्यु के समय भगवान विश्वेश्वर (विश्वनाथजी) प्राणियों के दाहिने कान में तारक मन्त्र का उपदेश देते हैं। तारकमन्त्रसुनकर जीव भव-बन्धन से मुक्त हो जाता है।
यह मान्यता है कि केवल काशी ही सीधे मुक्ति देती है, जबकि अन्य तीर्थस्थान काशी की प्राप्ति कराके मोक्ष प्रदान करते हैं। इस संदर्भ में काशीखण्ड में लिखा भी है-

अन्यानिमुक्तिक्षेत्राणिकाशीप्राप्तिकराणिच।
काशींप्राप्य विमुच्येतनान्यथातीर्थकोटिभि:।।

ऐसा इसलिए है कि पांच कोस की संपूर्ण काशी ही विश्व के अधिपति भगवान विश्वनाथ का आधिभौतिक स्वरूप है। काशीखण्ड पूरी काशी को ही ज्योतिíलंगका स्वरूप मानता है-

अविमुक्तंमहत्क्षेत्रं<न् द्धह्मद्गद्घ="द्वड्डद्बद्यह्लश्र:पञ्चक्रोशपरीमितम्।">पञ्चक्रोशपरीमितम्।
ज्योतिíलङ्गम्तदेकंहि ज्ञेयंविश्वेश्वराभिधम्॥

पांच कोस परिमाण के अविमुक्त (काशी) नामक क्षेत्र को विश्वेश्वर (विश्वनाथ) संज्ञक ज्योतिíलंग-स्वरूपमानना चाहिए।

अनेक प्रकाण्ड विद्वानों ने काशी मरणान्मुक्ति:के सिद्धांत का समर्थन करते हुए बहुत कुछ लिखा और कहा है। रामकृष्ण मिशन के स्वामी शारदानंदजीद्वारा लिखित श्रीरामकृष्ण-लीलाप्रसंग नामक पुस्तक में श्रीरामकृष्णपरमहंसदेवका इस विषय में प्रत्यक्ष अनुभव वíणत है। वह दृष्टांत बाबा विश्वनाथ द्वारा काशी में मृतक को तारकमन्त्रप्रदान करने की सत्यता उजागर करता है। लेकिन यहां यह भी बात ध्यान रहे कि काशी में पाप करने वाले को मरणोपरांत मुक्ति मिलने से पहले अतिभयंकरभैरवी यातना भी भोगनी पडती है। सहस्रोंवर्षो तक रुद्रपिशाचबनकर कुकर्मो का प्रायश्चित करने के उपरांत ही उसे मुक्ति मिलती है। किंतु काशी में प्राण त्यागने वाले का पुनर्जन्म नहीं होता।

फाल्गुन शुक्ल-एकादशी को काशी में रंगभरी एकादशी कहा जाता है। इस दिन बाबा विश्वनाथ का विशेष श्रृंगार होता है और काशी में होली का पर्वकाल प्रारंभ हो जाता है। मुक्तिदायिनीकाशी की यात्रा, यहां निवास और मरण तथा दाह-संस्कार का सौभाग्य पूर्वजन्मों के पुण्यों के प्रताप तथा बाबा विश्वनाथ की कृपा से ही प्राप्त होता है। तभी तो काशी की स्तुति में कहा गया है-

यत्र देहपतनेऽपिदेहिनांमुक्तिरेवभवतीतिनिश्चितम्।
पूर्वपुण्यनिचयेनलभ्यतेविश्वनाथनगरीगरीयसी॥

विश्वनाथजी की अतिश्रेष्ठनगरी काशी पूर्वजन्मों के पुण्यों के प्रताप से ही प्राप्त होती है। यहां शरीर छोडने पर प्राणियों को मुक्ति अवश्य मिलती है।