बुधवार, 22 अप्रैल 2009

साक्षात् ब्रह्म का प्रतीक है शिवलिङ्ग

शिवलिंगकी अर्चना अनादिकालसे जगद्व्यापकहै। संसार के सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद में लिंगोपासना की चर्चा मिलती है। शुक्लयजुर्वेदकी रुद्राष्टाध्यायीके द्वारा शिवार्चन एवं रुद्राभिषेक करने से समस्त कामनाएं पूर्ण होती हैं तथा अन्त में सद्गति भी प्राप्त होती है। रुद्रहृदयोपनिषद्का स्पष्ट कथन है-

सर्वदेवात्मको रुद्र: सर्वे देवा: शिवात्मका:।

अर्थात् शिव और रुद्र सर्वदेवमयहोने से ब्रह्म के ही पर्यायवाची शब्द हैं। प्राय: सभी पुराणों में शिवलिंगके पूजन का उल्लेख और माहात्म्य मिलता है। हिन्दू साहित्य में जहाँ कहीं भी शिवोपासनाका वर्णन है, वहाँ शिवलिंगकी महिमा का गुण-गान अवश्य हुआ है।

लिंग शब्द का साधारण अर्थ चिह्न अथवा लक्षण है। सांख्य दर्शन में प्रकृति को, प्रकृति से विकृति को भी लिंग कहते हैं। देव-चिह्न के अर्थ में लिंग शब्द भगवान सदाशिवके निर्गुण- निराकार रूप शिवलिंग के संदर्भ में ही प्रयुक्त होता है। स्कन्दपुराणमें लिंग की ब्रह्मपरकव्याख्या इस प्रकार की गई है-

आकाशं लिङ्गमित्याहु:पृथ्वी तस्यपीठिका।

आलय: सर्वदेवानांलयनाल्लिङ्गमुच्यते॥

आकाश लिंग है और पृथ्वी उसकी पीठिका है। इस लिंग में समस्त देवताओं का वास है। सम्पूर्ण सृष्टि का इसमें लय होता है, इसीलिए इसे लिंग कहते हैं।

शिवपुराणमें लिंग शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए कहा गया है-

लिङ्गमर्थ हि पुरुषंशिवंगमयतीत्यद:।

शिव-शक्त्योश्च चिह्नस्यमेलनंलिङ्गमुच्यते॥

अर्थात् शिव-शक्ति के चिह्नोंका सम्मिलित स्वरूप ही शिवलिंगहै। इस प्रकार लिंग में सृष्टि के जनक की अर्चना होती है। लिंग परमपुरुष सदाशिवका बोधक है। इस प्रकार यह विदित होता है कि लिंग का प्रथम अर्थ ज्ञापकअर्थात् प्रकट करने वाला हुआ, क्योंकि इसी के व्यक्त होने से सृष्टि की उत्पत्ति हुई। दूसरा अर्थ आलय है अर्थात् यह प्राणियों का परम कारण है और निवास-स्थान है। तीसरा अर्थ यह है कि प्रलय के समय सब कुछ जिसमें लय हो जाए वह लिंग है। समस्त देवताओं का वास होने से यह लिंग सर्वदेवमयहै। लिंग के आधार रूप में जो तीन मेखलायुक्तवेदिका है, वह भग रूप में कही जाने वाली जगद्धात्री महाशक्ति है। अत:आधार सहित लिंग जगत् का कारण है, उमा-महेश स्वरूप लिंग और वेदी के समायोग में भगवान शंकर के अर्धनारीश्वररूप के ही दर्शन होते हैं। सृष्टि के समय परमपुरुष सदाशिवअपने ही अर्धागसे प्रकृति (शक्ति) को पृथक कर उसके माध्यम से समस्त सृष्टि की उत्पत्ति करते हैं। इस प्रकार शिव- शक्ति का लिंग-योनिभाव और अ‌र्द्धनारीश्वर भाव मूलत:एक ही है। सृष्टि के बीज को देने वाले परमलिंगरूपश्रीशिवजब अपनी प्रकृतिरूपाशक्ति (योनि) से आधार-आधेय की भाँति संयुक्त होते हैं, तभी सृष्टि की उत्पत्ति होती है, अन्यथा नहीं। श्रीमद्भगवद्गीताके 14वें अध्याय के तीसरे श्लोक से इस तथ्य की पुष्टि होती है-

मम योनिर्महद्ब्रह्मतस्मिन्गर्भदधाम्यहम्।

ंभवत:सर्वभूतानांततोभवतिभारत॥

भगवान कहते हैं- महद्ब्रह्म(महान प्रकृति) मेरी योनि है, जिसमें मैं बीज देकर गर्भ का संचार करता हूँ और इसी से सम्पूर्ण सृष्टि (सब भूतों) की उत्पत्ति होती है। वस्तुत:अनादि सदाशिव-लिंगऔर अनादि प्रकृति-योनि के संयोग से ही सारी सृष्टि उत्पन्न होती है। इस दोनों के बिना सृष्टि की संरचना संभव नहीं है। शिवलिंग (परमपुरुष) जगदम्बारूपीजलहरीसे वेष्टित होने से प्रकृतिसंस्पृष्टपुरुषोत्तम है-

पीठमम्बामयं सर्वशिवलिङ्गंचचिन्मयम्।

अत: इसे जड समझना उचित न होगा। लिंगपुराणमें लिंगोद्भवकी कथा है। सृष्टि के प्रारंभ में ब्रह्मा और विष्णु के मध्य एक बार यह विवाद हो गया कि उन दोनों में कौन श्रेष्ठ है? इतने में उन्हें एक वृहत् ज्योतिर्लिगदिखाई दिया। उसके मूल और परिमाण का पता लगाने के लिए ब्रह्मा ऊपर गए और विष्णु नीचे, किंतु दोनों को उस लिंग के आदि-अन्त का पता न चला। तभी वेद ने प्रकट होकर उन्हें समझाया कि प्रणव (ॐ) में अ कार ब्रह्मा है, उ कार विष्णु है और म कार महेश है। म कार ही बीज है और वही बीज लिंगरूपसे सबका परम कारण है। लिंगपुराणशिवलिंगको त्रिदेवमयऔर शिव-शक्ति का संयुक्त स्वरूप घोषित करता है-

मूले ब्रह्मा तथा मध्येविष्णुस्त्रिभुवनेश्वर:।

रुद्रोपरिमहादेव: प्रणवाख्य:सदाशिव:॥

लिङ्गवेदीमहादेवी लिङ्गसाक्षान्महेश्वर:।

तयो:सम्पूजनान्नित्यंदेवी देवश्चपूजितो॥

शिवलिंगके मूल में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु तथा शीर्ष में शंकर हैं। प्रणव (ॐ) स्वरूप होने से सदाशिवमहादेव कहलाते हैं। शिवलिंगप्रणव का रूप होने से साक्षात् ब्रह्म ही है। लिंग महेश्वर और उसकी वेदी महादेवी होने से लिगांचर्नके द्वारा शिव-शिक्त दोनों की पूजा स्वत:सम्पन्न हो जाती है। भगवान सदाशिवस्वयं लिंगार्चन की प्रशंसा करते हैं-

लोकं लिङ्गात्मकंज्ञात्वालिङ्गेयोऽर्चयतेहि माम्।

न मेतस्मात्प्रियतर:प्रियोवाविद्यतेक्वचित्॥

जो भक्त संसार के मूल कारण महाचैतन्यलिंग की अर्चना करता है तथा लोक को लिंगात्मकजानकर लिंग-पूजा में तत्पर रहता है, मुझे उससे अधिक प्रिय अन्य कोई नर नहीं है।

वस्तुत:शिवलिंगसाक्षात् ब्रह्म का ही प्रतिरूप है। इस तथ्य को जान लेने पर साधक को शिवलिंगमें ब्रह्म का साक्षात्कार अवश्य होता है।

1 टिप्पणी:

PARAM ARYA ने कहा…

शिवजी एकदम नंग धड़ंग रूप में ही भिक्षा मांगने के लिए ऋषियों के आश्रम में चले गये , वहां उनके इस देवेश्वर रूप को देखकर ऋषि पत्नियां उन पर मोहित हो गईं और उनकी जंघाओं से लिपट गईं ।यह दृश्य देख ऋषियों ने शिवजी के लिंग पर काष्ठ और पत्थरों से प्रहार किया , लिंग के पतित हो जाने पर शिवजी कैलाश पर्वत पर चले गये ।
- वामनपुराण खण्ड 1 श्लोक 58,68,70,72,पृष्ठ 412 से 413 तक

http://vedictoap.blogspot.com/2010/07/blog-post_27.html