हमारे हिंदू धर्म में त्रिदेवों अर्थात भगवान ब्रह्मा, विष्णु व शंकर का अपना एक विशिष्ट स्थान है और इसमें भी भगवान शंकर का चरित्र जहाँ अत्यधिक रोचक हैं वहीं यह पौराणिक कथाओं में अत्यधिक गूढ रहस्यों से भी भरा हुआ है ।
पौराणिक कथाओं में भगवान शिव को विश्वास का प्रतीक माना गया है क्योंकि उनका अपना चरित्र अनेक विरोधाभासों से भरा हुआ है जैसे शिव का अर्थ है जो शुभकर व कल्याणकारी हो, जबकि शिवजी का अपना व्यक्तित्व इससे जरा भी मेल नहीं खाता, क्योंकि वे अपने शरीर में इत्र के स्थान पर चिता की राख मलते हैं तथा गले में फूल-मालाओं के स्थान पर विषैले सर्पों को धारण करते हैं । यही नहीं भगवान शिव को कुबेर का स्वामी माना जाता है जबकि वे स्वयं कैलाश पर्वत पर बिना किसी ठौर-ठिकानों के यूँ ही खुले आकाश के नीचे निवास करते हैं । कहने का तात्पर्य है कि भगवान शिव का स्वभाव शास्त्रों में वर्णित उनके गुणों से जरा भी मेल नहीं खाता और इतने अधिक विरोधाभासों में, किसी भी व्यक्ति की शिव के प्रति आस्था, उसके अपने विश्वास के आधार पर ही टिकी हुई है, इसलिए, सभी कथाओं में भगवान शिव को विश्वास का प्रतीक माना गया है ।
पौराणिक कथाओं के अनुसार माता पार्वती को भगवान शिव को प्राप्त करने के लिए तपस्या के कठिन दौर से गुज़रना पडा था और चूँकि तपस्या के कठिन दौर की सफलता व्यक्ति की अपनी श्रद्धा पर निर्भर करती है और ऐसे समय भगवान शिव के प्रति माता पार्वती की श्रद्धा (चूँकि वे हिमालय पर्वत की बेटी हैं इसलिए) पर्वत की तरह अडिग व मज़बूत रहती है, इसलिए हमारी पौराणिक कथाओं में माता पार्वती को श्रद्धा का प्रतीक माना गया है ।
भगवान शिव के अपने दो पुत्र है, श्री कार्तिकेय व श्री गणेश । जहाँ कार्तिकेय का सीधा सा अर्थ यह है कि जो ‘तर्कय‘ हो अर्थात जो सभी प्रकार के तर्कों से मुक्त हो गया हो वहीं गणेश भगवान को माता पार्वती अपने मैल से उत्पन्न करती हैं किन्तु एक शिव भक्त के हाथों से उनका सिर, धड से अलग हो जाता हैं । संक्षेप में इसके द्वारा हमें यह बताने का प्रयास किया है कि अगर श्रद्धा अपने कुछ मैल रूपी अवगुणों को भी निकालती है तो उससे भी जगत में कुछ श्रेष्ठतम ही घटता है किन्तु इसके लिए श्रद्धा को विश्वास का सहयोग लेकर चलना चाहिए । इसके विपरीत आचरण करने पर इसके अमंगलमय होने की पूरी संभावना रहती है । कथा आगे कहती है कि इसके पश्चात भगवान शिव हाथी का सिर लगाकर श्री गणेशजी का उद्धार करते हैं अर्थात ऐसी अमंगलकारी स्थितियों में भी, हम विश्वास के सहयोग से इसे पुनर्व्यवस्थित कर, इसकी श्रेष्ठता को प्रमाणित कर सकते हैं और इसे शुभ सिद्ध कर सकते हैं ।
इस तरह पुराणों में वर्णित इस शिव-चरित्र के माध्यम से हमें यह समझाने का प्रयास किया गया है कि जिन व्यक्तियों के जीवन में मन अत्यधिक प्रबल हो उन्हें भगवान शिव की उपासना के द्वारा ही अपनी आध्यात्मिक सत्य की यात्रा आरम्भ करनी चाहिए क्योंकि इससे उनके मन में जहाँ विश्वास का भाव गहरे तौर पर अंकुरित होगा वहीं यह मज़बूत व अडिग श्रद्धा रूपी विशाल वट वृक्ष बनकर चहुं ओर अपनी शाखाएँ फैलाने लगेगा ।
इसी तरह और आगे की आध्यात्मिक यात्रा करने पर गणेश भगवान के आशीर्वाद से जहाँ उनकी सारी विघ्न बाधाएँ दूर होंगी वहीं इसके द्वारा उन्हें शुभ फलों की प्राप्ति भी होने लगेगी । जब भक्त इन सब बातों से उत्साहित होकर पूरी तन्मयता के साथ इसी रास्ते में थोडा और आगे निकलेगा तो वह स्वयं को सभी प्रकार के विधि-विधानों व तर्कों से मुक्त पाएगा तथा वह आध्यात्मिक सत्य व ईश्वर का साक्षात्कार करने में सफल होगा । यही शिव के अपने सम्पूर्ण जीवन का मर्म है जिसे कि शिव-चरित्र के माध्यम से हमें समझाने का प्रयास किया गया है ।
महा शिवरात्रि के बारे में यह कथा प्रचलित है कि एक पापी शिकारी अनजाने में ही बेलपत्रों के द्वारा भगवान शिव की उपासना करता है तथा हाथ में आए हुए शिकार को अभयदान देकर छोड देता है जिससे भगवान शिव प्रसन्न होकर उसे दर्शन देते हैं तथा उसका उद्धार करते हैं । इस कथा के द्वारा हमें यह समझाने का प्रयास किया गया है कि अगर कोई अनजाने में ही अपने पूर्ण विश्वास के साथ ईश्वर की स्तुति करें तो भी उसके जीवन का उद्धार संभव है । यही वजह है कि कई वर्षों तक पाप व अपराध का जीवन ढोते वाल्मीकि ऋषि, मगध सम्राट अशोक आदि का जीवन भी अनजाने में ही उनके द्वारा किए गए ईश्वरीय स्तुति के परिणामस्वरुप, मात्र एक छोटी सी घटना को आधार बनाकर रूपान्तिरित हो उठा और भगवान के द्वारा इनका उद्धार हुआ ।
इसी प्रकार एक अन्य कथा में भगवान शिव अपना ध्यान भंग करने के जुर्म में कामदेव को पूर्णतः समाप्त करने के स्थान पर, उसकी देह को ही भस्म कर देते हैं क्योंकि ‘काम‘ का सम्बन्ध व्यक्ति की देह के साथ ही जुडा हुआ है । यही नहीं इस कथा के माध्यम से हमें यह समझाने का प्रयास किया गया है कि यदि व्यक्ति के अन्दर ईश्वर के प्रति विश्वास घनीभूत रूप में हो तो वह अपनी एक ही नज़र में ‘काम‘ जैसे विकारों को नष्ट कर सकता है । इसी तरह कथा आगे यह कहती है कि शिव के हाथों भस्म होने के पश्चात कामदेव का दोबारा जन्म कृष्ण-पुत्र श्री प्रद्युम्न के रूप में होता है । भगवान श्रीकृष्ण स्वयं विष्णु के अवतार है जो कि हृदय के प्रतीक हैं और श्रीकृष्ण भगवान इसी हृदय से निकले साक्षात प्रेम के ही रूप है । यहाँ यह समझने योग्य बात है कि प्रद्युम्न का जन्म ब्रज की गोपियों अथवा राधा के गर्भ से न होकर, कृष्ण की सामाजिक पत्नी के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त रूक्मणि देवी के गर्भ से होता है अर्थात इस सम्पूर्ण कथा के माध्यम से हमें यह समझाने का प्रयास किया गया है कि यदि व्यक्ति के मन में काम का भाव यूँ ही उठे तब तो यह ग़लत है किन्तु यदि यह काम-भाव व्यक्ति के हृदय से निकले प्रेम रूप में हो तथा यह विवाह बंधन में बँधा हो, तब ही यह जगत के कल्याणकारी हित में पूर्णतः स्वीकार्य है ।