शिव :
       हमें पुरतात्विक     एवं ऐतिहासिक स्रोतों से यह भली     भाँति ज्ञात हो चुका है कि समूचे भारत     में शिवलिंगोपासना बहुत पुरातन     है।  शिव सृष्टि कर्ता आदि देव     हैं।  इसीलिए इन्हें महादेव कहा     गया है।  वे ही परमेश्वर हैं, वे     ही रुद्र हैं तथा वे निर्विकार भी     हैं।  वे ही चराचर जगत की सृष्टि     जगत करते हैं, अन्त में कुत्सित मनोवृतियों     के बढ़ने पर उसका संहार कर डालते     हैं तथा उन्हें के द्वारा पुन: सृष्टि का     सृजन होता है।
       शिव के इस सरल     रुप को, उनके सृष्टि कर्ता स्वरुप को शक्ति     प्रदान करती हैं-महादेवी।  शिव-शक्ति     के तात्विक मिलन को ही लिंग पुजन     के माध्यम से ही व्यक्त किया गया     है।  लिंग वेदी महादेवी हैं, लिंग     साक्षात महेश्वर हैं।  सृष्टि को अपने     में समाहित कर लेने से ही उनका     नाम लिंग है।  प्रलयकाल में सम्पूर्ण     विश्व में लय हो जाएगा-लयं गच्छन्ति भूतानी     संहारे निखिल यत:।
       यहाँ दो प्रकार के     लिंग प्राप्त हैं - पहला सादे लिंग     जिन्हें निष्कल लिंग कहा जाता है और     दूसरे वे जिन पर मुख सदृश आकृतियाँ     बनी हों वे सकल लिंग कहे जाते     हैं।  सादे लिंगों को निष्कल स्थाणु     भी कहा जाता है।  कुमाऊँ मंडल     के सभी शैव मंदिरों में निष्कल लिंगों     की अभिकता है।  नारायाण - काली,     जोगेश्वर आदि स्थानों पर तो निष्कल     लिंगों के समूह के समहू ही हैं।      लिंग पुराम के मतानिसार सादे लिंगों     की पूजा ही श्रेष्ठ है।  यही पूजन     शिव का वास्तविक पूजन है।  इसी     से शिव की कृपा प्राप्त होती है।      इसलिए समूचे भारत में मुखलिंग     की अपेक्षा निष्कल लिंग ही सर्वाधिक संख्या     में पाये जाते हैं।  विद्वान मुखलिंग     को मिश्र लिंग की श्रेणी में भी रखते     हैं क्योंकि यह दोनों प्रकार के लिंग     में निष्कल और सकल (प्रतिमा) का सम्मिश्रण     है।
        
       कृति :
       मुख की आकृति लिंगों     कुमाऊँ मंडली में कम पाये जाते     लिंगों में शिव लिंग - विग्रह और     पुरुष - विग्रह का प्रतीक है।  मध्य     कुषाम काल में लिंग स्तम्भकार से     कुछ छोटे आकार के बनाये गये तथा     इन पर मुख अंकित किये गये।  एक मुखी     शिवलिंग को मूर्ति फलकों पर, प्राय:     पीपल वृक्ष के नीचे बने चबूतरे पर,     लिंग मुख सामने की ओर तथा पृष्ठ भाग     वृक्ष के#े तने की ओर स्थापित किया     गया है।
       गुप्त काल से ही मुखलिंग     का प्रचलन उत्तर भारत में मिलता     है।  इस काल में प्रतिमाओं के साथ     ही लिंग पूजन हेतु मुखलिंगों का भी     अर्चन व्यापक रुप से हुआ।  उत्तर     गुप्तकाल आते आते लिंग पर बनी प्रतिमा     सर्पों से वेष्ठित करने की प्रक्रिया में     सपंकुन्डल से अलंकृत तथा सर्पों से सज्जित     करने का शिल्प में विधान किया गया।      अभी तक मुख लिंगों की जो प्राचीनता सामने     आयी है उससे प्रतीत होता है कि ई.     पू. प्रथम शती का मुखलिंग गुउडिमल्लम     आन्ध्र प्रदेश में है जबकि भीटा का पंचमुखी     शिवलिंग प्राचीनतम है।
       कुमाऊँ मंडल में     भी अनेक एकमुखी, चतुर्मुखी तथा पंचायतन     लिंग प्रकाश में आये हैं।  इनमें     जागेश्वर, नारायकाली, बाणेश्वर आदि     ग्रामों से शिल्प की दृष्टि से     महत्वपूर्ण लिंग प्रकाश में आये     हैं।  जागेश्वर के कादार मंदिर में     स्थापित एकमुकी लिंग प्रतिमा विज्ञान     की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
       नारयणकाली मंदिर     समूह में एक लघु मंदिर में भी एक     एकमुखी शिवलिंग स्थापित किया गया     है।  इसमें शिव मुख जटामिक     कर्णकुंडल एवं एकावलि से साधारण     किन्तु आकर्षक ढ़ंग से सजाया जाता     है।  इसके मस्तक पर तीसरा नेत्र     विराजमान है।
       महाभारत के आदिपर्व     के अनुसार देवमंडली को देखने और     उनकी प्रदक्षिणा करने वाली तिलोत्तमा     का दर्शन करने के लिए शिव ने चारों     दिशाओं में चार मुख प्रकट किये।      शिव के ये रुप तत्पुरुष, सद्योजात वामदेव     और अघोरुप हैं।  पाँवा मुख ऊशान     कहलाता है।  नागों का मानना है     कि ये चार मुख ब्रह्मा, विष्णु सीर्य और     रुद्र के हैं।  ईशाल मुख ब्रह्मांड का प्रतीक     है।
       प्राणी मात्र के अर्विभाव     के लिए पृथ्वी, जल-अग्नि, वायु एवं आकाश     का मुख्य योगदान माना जाता है।      इन्हीं पंचभूतों को सद्योजात-पृथ्वी, वामदेव-जल,     अघोर-अग्नि, तत्पुरुष-वायु तथा ईशान     का आकाश के रुप में निरुपण किया     गया है।  इसी क्रम में नारायणकाली     में पशुपतिनाथ मंदिर के सामने एक     चतुर्मुखी शिवलिंग विराजमान     है।  यह शिवलिंग अत्यंत सुन्दर     एवं कलात्मक है।  अन्य परम्परागत शिवलिंगों      के अनुरुप इस मुखलिंग में भी पूर्व, पश्चिम,     उत्तर एवं दक्षिण दिशाओं में क्रमश: शिव     के चार रुप दर्शनीय है।      त्रिनेत्रधारी अघोरमुख, जटाजूट, सपंकुंडल,     एकावलि से अलंकृत है।  जटाजूट के     मध्य मानवमुँड दर्शनीय है।  अन्यमुख     किरीट मुकुट, चक्रकुंडल एवं एकावली     से युक्त है।  लघु मंदिर के शिवलिंग     पर निरुपित शिवमुख, जटा मुख,     कर्णकुंडल एवं एकावली साधारण परन्तु     आकर्षक ढ़ंग से सजाया गया है।  मस्तक     पर तीसरा नेत्र भी विराजमान है।
       यहाँ से एक अन्य विलक्षण     शिवलिंग की जानकारी प्राप्त होती     है।  यह लिंग दो भागों में     विभाजित है।  ऊपरी भाग तो सामान्य     लिंग के अनुरुप है किन्तु निचले     चौकोर भाग में चतुर्भुजी आसनस्थ     गणेक का अंकन है।  उनका दायाँ हाथ     अभयमुद्रा में दर्शित है।  अन्य हाथों     में क्रमश: परशु, अंकुश: एवं मोदक     मात्र सुशोभित है।  लम्बोदर,     एकदंत, सूपंकर्ण गणेश की सूँड वामावर्त     है।  लिंग के आदार पर गणेश को     निर्मित किये जाने का उदाहरण अन्य     जगहों से नहीं पाये जाते हैं।
       गोमती नदी के तट     पर बैजनाथ - बागेश्वर मार्ग पर बाणेश्वर     ग्राम में कभी प्राचीन देवालयों का एक     पूरा समूह अवस्थित रहा होगा     जिसकी मूर्तियाँ पास के खेत से उठाकर     एक नये देवालय में रख दी गयी     है।
       इस देवालय में     एक विलक्षण पंचायतन शिवलिंग रखा     हुआ है इसके पूजा भाग में द्विमुखी     देवी, कार्तिकेय लकुलिश तथा शिव     के घोर रुप को दर्शाया गया है।
       द्विभुज देवी पद्मपीठ     पर, प्रलम्ब मुद्रा में आसनस्थ है।  इनके     दोनों घुटनों पर योगप बंधा     है।  पारम्परिक आभूषणों कंठमाला,     एक लड़ी का हार - एकावली तता पैरों में     पायजेब से वे अलंकृत है।  मणिमाला     से उनका प्रभा मंडल आलोकित है। जबकि     कार्तिकेय सुखासन में बैठे हुए हैं,     जिनके वामहस्त में शक्ति तता दक्षिम     हाथ में सनाल कमल शोभित है।      वे जटामुख, वृत कुँडल, कंठहार,     कंकण तता नुपूर आदि आभूषणों सं अलंकृत     हैं।  उनके बायें स्कन्ध पर कुंडल झूल     रहा है।  कुमार के दायें घुटने पर     तीन धारियों से युक्त योगप बंधा     हुआ है।  लकुलीश योगासन में बैठे     हैं।  उनका उर्ध्वलिंग तथा बायें कंधे     के सहारे दंड स्पष्ट दृष्टिगोचर     है।  ऊपर उठे वाम हस्त में अस्पष्ट     वस्तु हैं।  दायाँ हाथ खण्डित है।      शीर्ष पर कुंचित केश तथा गले में मणियों     की माला शोभायमान है।  शिव     के घोर रुप में ललितासन में बैठे     देव के दायें घुटने पर अर्धयोगपट्ट     है, इनके मुख के बाहर निकले     दांत लम्बे हैं।  विस्फारित नेत्र, मोटे     होंठ के कारण उनकी मुखाकृति उग्र हो     गची है।  उठे घुटने पर अवस्थित     दायें हाथ में खपंर तथा बायें हाथ में     सम्भवत: दंड त्रिशूल रुपी आयुध     धारण किये हैं।
        
       कुमाऊँ क्षेत्र     में पूजा  
       अर्चना का प्रचलन प्रारम्भ से ही हो     रहा है।  सादे लिंगों का पूजा आनादि     काल से अर्वाचीन समय तक निरन्तर चला     आ रहा है।  एकमुखी, चतुरमुखी     तता पंचायतन शिवलिंग के निर्माण में     प्राचीन परम्परा का निर्वाह किया     गया है।  सादा जटामुकुट, त्रिनेत्र     तथा त्रिवलय युक्त ग्रीवा सहित शिवमुख     लगभग १० वीं शती तक बनते रहे।      यहाँ यह भी उल्लेख करना उचित     होगा कि शिव देवालयों में     चतुर्मुख शिवलिंग अधिक संख्या में प्राप्त     होते हैं।  गुप्त काल में यद्यपि प्रतिमा     पूजना का बाहुल्य था तो भी मुखलिंगों     की लोकप्रियता कम नहीं हुई।  अन्तर     केवल इतना आया कि इनका लम्बाई     कम और मोटाई अधिक हो गयी।      कुषाणकाल वाला शिवत्रिनेत्र क्षैतिज     के स्थान पर उर्ध्व हो गया।  शिव के     केश सज्जायें भी इसी समय बनायी     गयीं।  उत्तर गुप्त काल में सपं से     सम्बन्धित कर जाने के कारण सपं कुँडल,     सर्पाहार तथा लिंग पर सपं बनाये     जाने लगे।
       यहाँ शिव की अनेक     प्रतिमायें प्राप्त होती हैं।  यह प्राय:     मंदिरों की शुकनास के अग्रभाग में,     स्वतन्त्र, परिकर खंडों में अथवा समूचे     परिवार के साथ दृष्टिगोचर होती     है।  विशाल शिव प्रतिमाओं की संख्या     कम है। पाँचवी शती के पश्चात शिव प्रतिमाओं     का व्यापक निर्देशन हुआ है।
       सभी शैव केन्द्रों में     शिवत्रिमुख का प्रचलन प्रमुखता से मिलता     है।  मंदिर की शुकनास पर शिव     के इस रुप को सर्वाधिक स्थान मिला।      इसके पश्चात वे मंदिर के शिखर पर     स्थापित किये गये।  जोगेश्वर के मृत्युंजय     मंदिर की शुकनास पर शिव त्रिमुख     का आकर्षण अंकन किया गया है।      इन्हें शिव के रुद्र रुप से पहचान की     गयी है।
       नटराज शिव का अंकन     यहाँ बहुत कम देखने को मिलता     है।  जोगेश्वर तथा कपिलेश्वर मंदिरों     की शुकनास पर नटराज शिव का अंकन     हुआ है।  अकेले कपिलेश्वर     महादेव मंदिर समूह से ही     नटराज शिव की तीन प्रतिमायें प्रकाश     में आ चुकी हैं।  चम्पावत से भी     नटराज शिव प्राप्त हुए हैं।  वैसे भी     शिव ही नृत्य के प्रवर्तक हैं।  शिव     की नटराज मुद्राओं में भारतीय काल     को आद्योपांत प्रभावित किया है।
       लकुलीश की प्रतिमायें     यहाँ प्रचुर मात्रा में देखने को मिलता     है।  कत्यूरी शासक आचार्य लकुलीश     के माहेश्वर सम्प्रदाय में ही दीक्षित     थे।  इसलिए कत्यूरी शासकों के समय     लकुलीश सम्प्रदाय अत्याधिक फला-फूला।      लकुलीश को शिव का अट्ठाइसवां अवतार     माना जाता है।  उर्ध्व लिंग, एक हाथ में     लकुट (डंडा) लिये देवता का अंकन मंदिरों     की शुकनास पर, रथिकाओं में अथवा स्वतंत्र     रुप से किया जाता रहा।  पाताल भुवनेश्वर,     जोगेश्वर कपिलेश्वर से लकुलीश की     प्रतिमायें मिलती हैं।
       कुमाऊँ मंडल से     व्याख्यान दक्षिणामूर्ति, त्रिपुरान्तक      मूर्ति, भैरव आदि भी पर्याप्त संख्या में     मिले हैं।  लेकिन उमा-महेश की प्रतिमा     सर्वाधिक संख्या में मिलती है।  इन     प्रतिमाओं में शिव अपना वामांगी पार्वती     के साथ प्रदर्शित किये जाते हैं; शिव     का बायाँ हाथ देवी के स्कन्ध या कार्ट     परखा रहता है।  देवा का दाहिना     हाथ भी शिव के स्कन्ध पर होता     है।  पद्म प्रभा मंडल शोभित     रहता है। 
       यहाँ शिव की     जंघा पर आसनस्य उमा को आलिंगनबद्ध     दर्शाया गया है।  शिव परम्परागत     अलंकरण जटाजूट से सज्जित, ग्रैवेयक     (गले का चपटा कंठा), कंठ में पड़े     हार, बाजू-बंध तथा कुण्डलों से सुशोभित     होते हैं।  नारायण काली, पावनेश्वर,     नकुलेश्वर आदि अनेक स्थानों से उमा     महेश की प्रतिमायें मिलती हैं।
       शिव परिवार में     गणेश के बाद लोकप्रियता की दृष्टि से     कुमार कार्तिकेय का निर्देसन हुआ     है।  शिव पुत्र कुमार स्कन्द ही     कार्तिकेय नाम से जाने गये।      भविष्य पुराण के अनुसार देवासुर     संग्राम में सूर्य की रक्षार्थ उन्हें सूर्य     के निचले पा में स्थापित किया     गया।  वरद अथवा अभय मुद्राओं वाले     कुमार को शक्ति, खड्ग, शूल, तीर, ढाल     सहित दो अथवा अधिक हाथों सहित     निर्देशित किया जाने की परम्परा है।
       कुमाऊँ क्षेत्र में मयूरारुढ़़,     शूलधारी कुमार की स्वतन्त्र प्रतिमायें     प्रकाश में आ चुकी है।  उनके नाम से     स्वतंत्र मंदिर भी अस्तित्व में है।      स्वतन्त्र प्रतिमायें नौदेवल (अल्मोड़ा),     नारायणकाली आदि से प्रकाश में आयी     है।  जबकि उमा-महेश के साथ भी उनकी     प्रतिमायें अधिक संख्या में प्राप्त होती     है।  बैजनाथ से उनकी चतुर्मुखी प्रतिमा     मिलती है।
       कुमाऊँ मंडल से     रावणानुग्रह प्रतिमायें भी प्राप्त     होती हैं।  गरुड़ के एक मंदिर के शुकनास     पर यह दृश्य उकेरा गया है।  कथा     है कि एक बार मदान्ध रावण अपने     बाहुबल से समूचा कैलाश ही उठाकर     ले चलने को तत्पर हुआ।  परन्तु कैलाश     पर विराजमान शिव ने अपने पैर     के अंगूठे से कैलाश को तनिक सा दबाया     तो व नीचे से निकल न सका।  लाचार     रावण ने हजारों वर्ष तक शिव कि स्तुति     कर मुक्ती पायी।  शिल्प में इस कथा     को बहुत लोकप्रियता मिली।  परवर्ती     काल में मंदिरों की शुकनास पर     इस कथा का अंकन बहुत विचित्र ढ़ंग से     दर्शाया गया है।
       पूर्व मध्यकाल में     वीणाधारी शिव का पर्याप्त प्रचलन     हुआ।  किन्तु इसकाल में भी सर्वाधिक     प्रतिमायें उमा-महेश की प्राप्त होती     है।  इससे ऐसा प्रतीत होता है     कि सत्यम-शिवम-सुन्दरम का सम्पूर्ण     सार कलाकार द्वारा इन्हीं प्रतिमाओं में     संजोकर रख दिया गया।  द्विभुजी     एवं अलंकरणों से युक्त शिव एवं उमा     की प्रतिमा, नदी की नंगी पीठ पर आलिंगनबद्ध     मुद्रा में आसनस्थ प्रतिमायें, अपनी     विकास की गति को स्वयं अभिव्यक्त     करती हैं।  मध्यकाल में प्रतिमा कला     के ह्रास के साथ चेहरे पर भावों के     अंकन में कमी तथा कामोत्तेजना के भावों     में वृद्धि अधिक प्रतीत होती है।  पूर्व     में शिव का पार्वती के कन्धों पर रखा     हाथ इस काल में उनके वक्ष पर पहुँच     गया।  गढ़ने में भी बारीकी के स्थान     पर स्थूलता आती चली गयी।  इस काल     में आभूषणों की संख्या में पर्याप्त वृद्धि     देखने को मिलती है।
 पार्वती     :
 पार्वती की प्रतिमायें     देवी प्रतिमाओं मे सबसे अधिक प्राप्त     होती हैं।  बाल्यवस्था में इनका     नाम गौरी था।  जब ये विवाह योग्य     हुई तो इन्होंने शिव को पति के रुप     में पाने के लिए घोर तपस्या की।     तपस्यारत देवी पार्वती कहलाने लगी।      प्रतिमाओं के तीनों रुपों में उक्त देवी     का अँकन प्राप्त होता है। मार्कण्डेय पुराण     में देवी महात्म्य के अनुसार गौरी     की प्रतिमा  द्विभुजी अथवा चतुर्भुजी     होनी चाहिए।  द्विहस्ता देवी का     दायाँ हाथ अभय मुद्रा में तथा दायें     हाथ में जलपात्र (कमण्डल) बनाने का     विधान है।  चतुर्भुजी गौरी के     हाथों में अक्षमाला, पद्म तथा कमण्डल     के साथ दक्षिण अधोहस्त अभय मुद्रा में     होनी चाहिए।  पार्वती के बायें     हाथों में अक्षमाला, कमण्डलू एवं दायें      हाथ अभय तता वरद मुद्रा में होने     चाहिए।  सुन्दर केश विन्यास, वस्र,     सर्वालमकारों से भूषित शिव के साथ     द्विभुजी तथा सेवतन्त्र रुप में     चतुर्भुजी उमा की प्रतिमायें प्राप्त     होती हैं।  उनके हाथों में प्राय: अक्षमाला,     दपंण, पद्म तथा जलपत्र होता है।
 बांसुलीसेरा     से देवी पार्वती की मूर्ति मिली     है।  प्रतिमा विज्ञान के मानदण्डों के     अनुसार यह गौरी की प्रतिमा है।      द्विभुजी देवी की मूर्ति हरे रंग के प्रस्तर     में बनाई गयी है।  पुष्पकुण्डल,     कण्ठहार, स्तनसूत्र, केयूर, कंकम, आपादवृत     साड़ी, नुपूर आदि आभूषणों से अलंकृत     देवी के अभय मुद्रा में उठे दायें हस्त     में अक्षमाला शोभित है।  बायें     हाथ में जलपत्र (कमण्डलू) धारण किये     हुए हैं।  शीर्ष पर जटामुकुट से     निकली अलकावलि दोनों कन्धों को     स्पर्श कर रही हैं।  साड़ी पर अतिसुन्दर     बेलबूटे, बने हुये हैं जो देवी     के कमर में कटिसूत्र से आवेष्ठित     हैं।  बेलबूटेदार उत्रीय कन्धों को     आवृत करता हुआ दोनों बाहों पर     लहरा रहा है।  गौरी के दोनों पाश्वों     में एक-एक कदली वृक्ष निरुपित किया     गया है।
 मध्यकाल     में पार्वती की अनेक स्वतन्त्रप्रतिमायें     मिली हैं।  जिनमें जटामुकुट, सर्वालंकारों     से अलंकृत देवी की पीठीका पर     गोधिका अंकित है।  पार्वती की उक्त प्रतिमायें     लगभग ८वीं शती ई. तक प्रचुर मात्रा में     निर्मित हुई हैं।  इनमें अल्मोड़ा     जिलान्तर्गत बैजनाथ, चमोली जिलान्तर्गत     लाखामण्डल में रखी पार्वती की प्रतिमायें     कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण उदाहरण     हैं।  गढ़वाल एवं कुमाऊँ में बजिंगा,     देवाल, तुंगनाथ, पलेठी, नारायणकाली     तथा नैनीताल जिलान्तर्गत ग्राम त्यूड़ा     दियारी में रखी लगभग ९वीं शती ई.     की द्विभुजी पार्वती विशे, उल्लेखनीय     है।
 सदाशिव मंदिर     ग्राम रौलमेल में देवी पार्वती की अत्यन्त     सुन्दर प्रतिमा मिली है। ग्राम रौलमेल     लोहाघाट - देवीधुरा मार्ग पर बसा     है।  चतुर्भुजी पार्वती को समपाद     मुद्रा में स्थानक खड़ा दर्शाया गया     है।  देवी के वाम अधोहस्त में अग्निपात्र     तथा दक्षिण अधोहस्त वरद मुद्रा में दर्शाया     गया है।  उनके दक्षिण उर्ध्व हस्त मे     दपंण है।  पाश्वों में दो-दो परिचरिकाओं     सहित व्याल भी अंकित किया गया     है।  ऊपरी भाग में मालाधार अंकित     हैं।  पैरों तक धोती से आवृत     देवी जटा मुकुट, सर्वालंकारों से     भूषित हैं।  देवी वाहन रुप में     गोधिका अंकित है।
 चैकुनी     गाँव में शिव मंदिर के नाम से स्थापित     देवालय में पार्वती की एक सुन्दर प्रतिमा     है।  देवी दायाँ हाथ वरद मुद्रा में     उनके दायें घुटने पर आधारित है।      ललितानस्थ देवी के अधो वाम हस्त में     कमण्डलु, अधो दक्षिण हस्त वरद मुद्रा     तथा दोनों ऊपरी हाथों में अग्निपात्र     है।  शीर्ष जटामुकुट से अलंकृत     है।  कानों में पुष्प कुण्डल, गले में     मोतियों का हार, कंठहार, वक्ष पर     दो लड़ियों का हार, कमर में मेखला,     घुटनों से ऊपर मोतियों की मालाओं     से अलंकृत है।  उनकी दायीं पैर की ओर     उनका वाहन सिंह तथा बायीं ओर मृग     स्थापित किया गया है।
 कत्यूर     घाटी के ग्राम शाली - छतिया से भी पार्वती     की पूर्व मध्य कालीन एक प्रतिमा प्रकाश     में आया है जिसके बायें ओर मृग     तथा दायीं ओर सिंह बैठा है।
 बैजनाथ     से प्राप्त मध्यकालीन पार्वती प्रतिमा सर्वाधिक     सुन्दर है।  इस प्रतिमा में     चतुर्भुजी देवी को स्थानक समपाद मुद्रा     में दिखाया गया है।  उनका दायाँ अधो     हाथ वरद मुद्रा, बायाँ अधो हस्त जलपात्र,     दाहिना उर्ध्व हस्त शिव व अक्षमाला से     सुशोभित है। वाम उर्ध्व हस्त में     गणेश हैं।  जटामुकुट से देवी सुशोभित     हैं।  स्तनसूत्र, हार, एकावली, मेखला,     बाजूबन्ध से मंडित देवी पद्म पीठ     पर खड़ी है।  उनके पैर धोती से आवप्त     तथा घुटनों तक आभूषण दर्शाये गये     हैं।  अधो पाश्वों में दो-दो उपासिकायें     हैं प्रतिमा का परिकर भी अलंकृत     है।  ऊपरी पार्श्व में गणेश का भी अंकन     हुआ है।
 पार्वती     प्रतिमा निर्माण की परम्परा प्राचीन काल     से लगभग १५वी. शती तक अत्यधिक वल्लवित     हुई।  पूर्व काल में नाभी छन्दक उनका     प्रिय एवं प्रमुख आभूषण रहा जबकि उत्तर     मध्य काल की प्रतिमाओं से युक्त     आभूषण अधिक प्रचलित हुए।