शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

सावन क्यों है भक्ति और अध्ययन का महीना

सावन माह में शिवभक्तों द्वारा की जाने वाली भगवान शिव की आराधना, पूजा, जयकारे और धार्मिक आयोजन ऐसा शिवमय वातावरण बना देते हैं कि उसके प्रभाव से ईश भक्ति से दूर रहने वाले लोगों के मन भी शिवभक्ति और श्रद्धा की लहर पैदा हो जाती है। इससे यही प्रश्र हर धर्मजन के मन में पैदा होता है कि आखिर श्रावण मास और शिव भक्ति का क्या संबंध है और इस मास में शिव उपासना का इतना अधिक महत्व क्यों है। इस बात का उत्तर हिन्दू धर्म ग्रंथ ऋग्वेद में बताया गया है।
वेदों में प्रकृति और मानव का गहरा संबंध बताया गया है। वेदों में लिखें कुछ मंत्रों का संदेश कुछ इस प्रकार है - बारिश में ब्राह्मण वेद पाठ और धर्म ग्रंथों का अध्ययन करते हैं और इस दौरान वह ऐसे मंत्रों को पढ़ते हैं, जो सुख और शांति देने वाले होते हैं। बारिश के मौसम में अनेक तरह के जीव-जंतु बाहर निकल आते है और तरह-तरह की आवाजें सुनाई देती है। ऐसा लगता है कि जैसे लंबे समय तक व्रत रखकर सभी ने अपनी चुप्पी तोड़ी हो। इस बात के द्वारा संदेश दिया गया है कि जिस तरह जीव-जंतु बारिश के मौसम में बोलने लगते हैं, उसी तरह से हर व्यक्ति को श्रावण से शुरु होने वाले चार मासों में धर्म और ईश्वर की भक्ति के लिए धर्म ग्रंथों का पाठ करना या सुनना चाहिए। इसी प्रकार बारिश या सावन मास में अनेक प्रकार के पौधे पैदा होते हैं, जो औषधीय गुणों के होते हैं।
यह हमारी आयु और शरीर सुखों को बढ़ाते हैं। धार्मिक दृष्टि से पूरी प्रकृति ही शिव का रुप है। इसलिए प्रकृति की पूजा के रुप में सावन मास में शिव की पूजा की जाती है। खास तौर पर वर्षा के मौसम जल तत्व की अधिकता होती है। इसलिए शिव का जल से अभिषेक सुख, समृद्धि, संतान, धन, ज्ञान और लंबी उम्र देने वाला होता है।

सोमवार, 9 अगस्त 2010

क्यों रखें सोमवार व्रत?

सावन में सोमवार व्रत रखने का महत्व बताया गया है। सामान्यत: यह शिव उपासना के लिए प्रसिद्ध है। किंतु ज्योतिष विज्ञान की दृष्टि से यह दिन कुण्डली में चंद्र ग्रह के बुरे योग से जीवन में आ रही बाधाओं को दूर करने के लिए भी महत्वपूर्ण है। जानते हैं कैसे चंद्र मानव जीवन और प्रकृति पर असर डालता है और चंद्र के बुरे प्रभाव को कम करने के लिए सोमवार को चंद्र पूजा और व्रत का महत्व।
हम जानते हैं कि हमारी पृथ्वी सहित अन्य सभी ग्रह सूर्य के चक्कर लगाते हैं। पर चन्द्रमा तो हमारी पृथ्वी की परिक्रमा करते हैं, क्योंकि वह ग्रह न होकर एक उपग्रह है। यह विज्ञान की बात है। किंतु व्यावहारिक जीवन में भी हम देखते हैं कि चन्द्रमा मानव जीवन के साथ-साथ साथ-साथ पूरे जगत पर ही प्रभाव डालता है। इसका प्रमाण है पूर्णिमा लगती है।
इसलिए ज्योतिष विज्ञान कहता है कि चन्द्रमा हमारी पृथ्वी के सबसे अधिक समीप है और अपनी निकटता के कारण ही हमारे जीवन के हर कार्य व्यवहार पर सबसे अधिक असर डालता है। यही कारण है कि जिन लोगों में जल तत्व की प्रधानता होती है। वह पूर्णिमा के आस-पास अधिक क्रोधित और उद्दण्ड बने रहते हैं। जबकि अमावस्या के आस-पास एकदम शांत और गंभीर देखे जाते हैं। यही कारण है कि खासतौर पर जलतत्व राशि जैसे मीन, कर्क, वृश्चिक वाले स्त्री-पुरुषों को सोमवार का व्रत और चन्द्रदेव का पूजन तो जरुर करना ही चाहिए।
मानसिक शांति, मन की चंचलता को रोकने और दिमाग को संतुलित रखने के लिए तो चन्द्रदेव के निमित्त किए जाने वाला सोमवार का व्रत ही श्रेष्ठ उपाय है। चंद्रदोष शांत के लिए स्फटिक की माला पहनना तथा मोती का धारण करना शुभ होता है।

शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

शिवभक्ति को समर्पित है सावन माह


सावन माह में कांवड़ मेला शुरू होने जा रहा है, यानी आशुतोष की ससुराल में शिव की भक्ति की धुन रमने जा रही है। सावन माह में कई और भी व्रत-त्योहार आते हैं, जिनका अपना अलग-अलग महत्व है। कृष्ण पक्ष में ही दस व्रत-त्योहारों का योग बन रहा है।
साल का सावन माह शिव भक्ति व पूजा के नाम होता है। शिवालयों में शिवभक्तों की आस्था का सैलाब उमड़ता है और शिवलिंग का जलाभिषेक कर मनौतियां मांगी जाती हैं। दूध, घृत, पंचामृत भी शिवालयों में चढ़ाया जाता है। शिवभक्त धतूरा व बेलपत्र चढ़ाकर भी मनौतियां मांगते हैं। शिवभक्त ओम नम: शिवाय पंक्षाक्षर का जाप कर शिव की पूजा करते हैं। ज्योतिष गणना के अनुसार 27 जुलाई मंगलवार को प्रात: 9 बजकर आठ मिनट से सावन माह शुरू हो जाएगा। खास बात यह कि इस सावन माह में पांच सोमवार आ रहे हैं। शिव पुराण के अनुसार सावन माह के सोमवार को शिवालय में बेलपत्र चढ़ाने से एक करोड़ कन्यादान के बराबर फल मिलता है। सावन माह शुरू होते ही 29 जुलाई गुरुवार को श्री गणेश चतुर्थी व्रत आ रहा है। इसमें सुहागन पुत्र प्राप्ति के लिए गणेश भगवान का व्रत रखती हैं, जबकि 3 अगस्त सोमवार को कालाष्टमी व्रत है। इसमें मां दुर्गा का व्रत लिया जाता है। 4 अगस्त को कौमारी नवमी पूजा का योग है। इस दिन कन्याओं का पूजन किया जाता है। इसके बाद 7 अगस्त को प्रदोष व्रत है। इसमें शिव-पार्वती का व्रत किया जाता है। 8 अगस्त को मास शिवरात्रि व्रत है। यह व्रत हर माह आता है, लेकिन सावन माह में इसका महत्व और भी बढ़ जाता है। हर महीने का यह दिन शिव पूजा के नाम रहता है। 9 अगस्त को पितृकार्य अमावस्या आ रही है, जबकि 10 अगस्त को देवकार्य अमावस्या भी है। इसके अलावा शुक्ल पक्ष की शुरुआत में ही 14 अगस्त को नाग पंचमी है। धार्मिक मान्यता है कि इस दिन विष्णु भगवान ने कल्कि अवतार लिया था, जिसे सत्यनारायण जयंती के रूप में भी मनाया जाता है। इसी दिन अमरनाथ यात्रा का शुभारंभ होगा।

गुरुवार, 5 अगस्त 2010

सावन माह में सोमवार का महत्व

श्रावण माह में भी सोमवार का विशेष महत्व है। वार प्रवृत्ति के अनुसार सोमवार भी हिमांषु अर्थात चन्द्रमा का ही दिन है। स्थूल रूप में अभिलक्षणा विधि से भी यदि देखा जाए तो चन्द्रमा की पूजा भी स्वयं भगवान शिव को स्वतः ही प्राप्त हो जाती है क्योंकि चन्द्रमा का निवास भी भुजंग भूषण भगवान शिव का सिर ही है।

रौद्र रूप धारी देवाधिदेव महादेव भस्माच्छादित देह वाले भूतभावन भगवान शिव जो तप-जप तथा पूजा आदि से प्रसन्न होकर भस्मासुर को ऐसा वरदान दे सकते हैं कि वह उन्हीं के लिए प्राणघातक बन गया, वह प्रसन्न होकर किसको क्या नहीं दे सकते हैं?

असुर कुलोत्पन्न कुछ यवनाचारी कहते हुए नजर आते हैं कि जो स्वयं भिखमंगा है वह दूसरों को क्या दे सकता है? किन्तु संभवतः उसे या उन्हें यह नहीं मालूम कि किसी भी देहधारी का जीवन यदि है तो वह उन्हीं दयालु शिव की दया के कारण है। अन्यथा समुद्र से निकला हलाहल पता नहीं कब का शरीरधारियों को जलाकर भस्म कर देता किन्तु दया निधान शिव ने उस अति उग्र विष को अपने कण्ठ में धारण कर समस्त जीव समुदाय की रक्षा की। उग्र आतप वाले अत्यंत भयंकर विष को अपने कण्ठ में धारण करके समस्त जगत की रक्षा के लिए उस विष को लेकर हिमाच्छादित हिमालय की पर्वत श्रृंखला में अपने निवास स्थान कैलाश को चले गए।

हलाहल विष से संयुक्त साक्षात मृत्यु स्वरूप भगवान शिव यदि समस्त जगत को जीवन प्रदान कर सकते हैं। यहाँ तक कि अपने जीवन तक को दाँव पर लगा सकते हैं तो उनके लिए और क्या अदेय ही रह जाता है? सांसारिक प्राणियों को इस विष का जरा भी आतप न पहुँचे इसको ध्यान में रखते हुए वे स्वयं बर्फीली चोटियों पर निवास करते हैं। विष की उग्रता को कम करने के लिए साथ में अन्य उपकारार्थ अपने सिर पर शीतल अमृतमयी जल किन्तु उग्रधारा वाली नदी गंगा को धारण कर रखा है।

उस विष की उग्रता को कम करने के लिए अत्यंत ठंडी तासीर वाले हिमांशु अर्थात चन्द्रमा को धारण कर रखा है। और श्रावण मास आते-आते प्रचण्ड रश्मि-पुंज युक्त सूर्य ( वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़ में किरणें उग्र आतपयुक्त होती हैं।) को भी अपने आगोश में शीतलता प्रदान करने लगते हैं। भगवान सूर्य और शिव की एकात्मकता का बहुत ही अच्छा निरूपण शिव पुराण की वायवीय संहिता में किया गया है। यथा-

'दिवाकरो महेशस्यमूर्तिर्दीप्त सुमण्डलः।
निर्गुणो गुणसंकीर्णस्तथैव गुणकेवलः।
अविकारात्मकष्चाद्य एकः सामान्यविक्रियः।
असाधारणकर्मा च सृष्टिस्थितिलयक्रमात्‌। एवं त्रिधा चतुर्द्धा च विभक्तः पंचधा पुनः।
चतुर्थावरणे षम्भोः पूजिताष्चनुगैः सह। शिवप्रियः शिवासक्तः शिवपादार्चने रतः।
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां स मे दिषतु मंगलम्‌।'

अर्थात् भगवान सूर्य महेश्वर की मूर्ति हैं, उनका सुन्दर मण्डल दीप्तिमान है, वे निर्गुण होते हुए भी कल्याण मय गुणों से युक्त हैं, केवल सुणरूप हैं, निर्विकार, सबके आदि कारण और एकमात्र (अद्वितीय) हैं।

यह सामान्य जगत उन्हीं की सृष्टि है, सृष्टि, पालन और संहार के क्रम से उनके कर्म असाधारण हैं, इस तरह वे तीन, चार और पाँच रूपों में विभक्त हैं, भगवान शिव के चौथे आवरण में अनुचरों सहित उनकी पूजा हुई है, वे शिव के प्रिय, शिव में ही आशक्त तथा शिव के चरणारविन्दों की अर्चना में तत्पर हैं, ऐसे सूर्यदेव शिवा और शिव की आज्ञा का सत्कार करके मुझे मंगल प्रदान करें। तो ऐसे महान पावन सूर्य-शिव समागम वाले श्रावण माह में भगवान शिव की अल्प पूजा भी अमोघ पुण्य प्रदान करने वाली है तो इसमें आश्चर्य कैसा?

जैसा कि स्पष्ट है कि भगवान शिव पत्र-पुष्पादि से ही प्रसन्न हो जाते हैं। तो यदि थोड़ी सी विशेष पूजा का सहारा लिया जाए तो अवश्य ही भोलेनाथ की अमोघ कृपा प्राप्त की जा सकती है। शनि की दशान्तर्दशा अथवा साढ़ेसाती से छुटकारा प्राप्त करने के लिए श्रावण मास में शिव पूजन से बढ़कर और कोई श्रेष्ठ उपाय हो ही नहीं सकता है।

बुधवार, 17 फ़रवरी 2010

रामेश्वरम में शिवलिंग स्थापना

यह कथा उस समय की है जब लंका जाने के लिए भगवान श्रीराम ने सेतु निर्माण के पूर्व समुद्र तट पर शिवलिंग स्थापित किया था। वहाँ हनुमानजी को स्वयं पर अभिमान हो गया तब भगवान राम ने उनके अहंकार का नाश किया। यह कहानी इस प्रकार है-
जब समुद्र पर पुल-निर्माण का कार्य हो रहा था तब भगवान राम ने वहाँ गणेशजी और नौ ग्रहों की स्थापना के पश्चात शिवलिंग स्थापित करने का विचार किया। उन्होंने शुभ मुहूर्त में शिवलिंग लाने के लिए हनुमानजी को काशी भेजा।
हनुमानजी पवन की रफ्तार से काशी जा पहुँचे। उन्हें देख भोलेनाथ बोले- ''पवनपुत्र!" दक्षिण में शिवलिंग की स्थापना करके भगवान राम मेरी ही इच्छा पूर्ण कर रहे हैं क्योंकि महर्षि अगस्त्य विन्ध्याचल पर्वत को झुकाकर वहाँ प्रस्थान तो कर गए लेकिन वे मेरी प्रतीक्षा में हैं। इसलिए मुझे भी वहाँ जाना था। तुम शीघ्र ही मेरे प्रतीक को वहाँ ले जाओ।
यह बात सुनकर हनुमान गर्व से फूल गए और सोचने लगे कि केवल वे ही यह कार्य शीघ्र-अतिशीघ्र कर सकते हैं। यहाँ हनुमानजी को अभिमान हुआ और वहाँ भगवान राम ने उनके मन के भाव को जान लिया। भक्त के कल्याण के लिए भगवान सदैव तत्पर रहते हैं।
हनुमान भी अहंकार के बंधन में बंध गए थे। अत: भगवान राम ने उन पर कृपा करने का निश्चय कर उसी समय वानर राज सुग्रीव को बुलवाया और कहा-हे कपिश्रेष्ठ! शुभ मुहूर्त समाप्त होने वाला है और अभी तक हनुमान नहीं पहुँचे। इसलिए मैं बालू का शिवलिंग बनाकर उसे यहाँ स्थापित कर देता हूँ।
तत्पश्चात उन्होंने सभी ऋषि-मुनियों से आज्ञा प्राप्त करके पूजा-अर्चना आदि की और बालू का शिवलिंग स्थापित कर दिया। ऋषि-मुनियों को दक्षिणा देने के लिए श्रीराम ने कौस्तुम मणि का स्मरण किया तो वह मणि उनके समक्ष उपस्थित हो गई।
भगवान श्रीराम ने उसे गले में धारण किया। मणि के प्रभाव से देखते-ही-देखते वहाँ दान-दक्षिणा के लिए धन, अन्न, वस्त्र आदि एकत्रित हो गए। उन्होंने ऋषि-मुनियों को भेंट दीं। फिर ऋषि-मुनि वहाँ से चले गए।
मार्ग में हनुमानजी से उनकी भेंट हुई। हनुमानजी ने पूछा कि वे कहाँ से आ रहे हैं? उन्होंने सारी घटना बता दी। यह सुनकर हनुमानजी को क्रोध आ गया। वे पलक झपकते ही श्रीराम के समक्ष उपस्थिति हुए और रुष्ट स्वर में बोले-भगवन! यदि आपको बालू का ही शिवलिंग स्थापित करना था तो मुझे काशी किसलिए भेजा था? आपने मेरा और मेरे भक्तिभाव का उपहास किया है।
श्रीराम मुस्कराते हुए बोले-पवनपुत्र! शुभ मुहूर्त समाप्त हो रहा था, इसलिए मैंने बालू का शिवलिंग स्थापित कर दिया। मैं तुम्हारा परिश्रम व्यर्थ नहीं जाने दूँगा। मैंने जो शिवलिंग स्थापित किया है तुम उसे उखाड़ दो, मैं तुम्हारे लाए हुए शिवलिंग को यहाँ स्थापित कर देता हूँ। हनुमान प्रसन्न होकर बोले-ठीक है भगवन! मैं अभी इस शिविलंग को उखाड़ फेंकता हूँ।
उन्होंने शिवलिंग को उखाडऩे का प्रयास किया, लेकिन पूरी शक्ति लगाकर भी वे उसे हिला तक न सके। तब उन्होंने उसे अपनी पूंछ से लपेटा और उखाडऩे का प्रयास किया। किंतु वह नहीं उखड़ा। अब हनुमान को स्वयं पर पश्चात्ताप होने लगा। उनका अहंकार चूर हो गया था और वे श्रीराम के चरणों में गिरकर क्षमा माँगने लगे।
इस प्रकार हनुमान ने अहंकार का नाश हुआ। श्रीराम ने जहाँ बालू का शिवलिंग स्थापित किया था उसके उत्तर दिशा की ओर हनुमान द्वारा लाए शिवलिंग को स्थापित करते हुए कहा कि 'इस शिवलिंग की पूजा-अर्चना करने के बाद मेरे द्वारा स्थापित शिवलिंग की पूजा करने पर ही भक्तजन पुण्य प्राप्त करेंगे।Ó यह शिवलिंग आज भी रामेश्वरम में स्थापित है और भारत का एक प्रसिद्ध तीर्थ है।

शुक्रवार, 22 जनवरी 2010

पार्वती तुकेश्वर महादेव मंदिर

देवाधिदेव महादेव को सबसे ज्यादा प्रिय पार्वतीजी के मंदिरों की संख्या देशभर में नहीं के बराबर है, मगर इंदौर में केशरबाग रोड पर एक अत्यंत प्राचीन मंदिर है। इसका नाम केशरबाग शिव मंदिर उत्कीर्ण है, परंतु इस स्थान का वास्तविक नाम पार्वती तुकेश्वर महादेव मंदिर है। इस मंदिर के बारे में शहर में बहुत कम लोगों को जानकारी है।

इसकी सबसे बड़ी खासियत है माँ पार्वती की बेहद सुंदर प्रतिमा, जिसके एक हाथ में कलश है और गोद में स्तनपान कर रहे बाल गणेशजी हैं जबकि ठीक सामने शिवजी लिंगस्वरूप में विद्यमान है। इस मंदिर की स्थापना कब हुई, इसका कोई प्रामाणिक इतिहास उपलब्ध नहीं है, लेकिन वहाँ पर लगे पट्ट की मानें तो करीब 400 वर्ष पहले इसका निर्माण हुआ था। बाद में लोकमाता देवी अहिल्याबाई ने इसका जीर्णोद्धार भी करवाया।

ऐतिहासिक साक्ष्य के मुताबिक 1810 से 1840 के बीच होलकर वंश की केशरबाई ने इसका निर्माण करवाया। यह मंदिर पूर्वमुखी है। पहले इसका बाहरी प्रवेशद्वार भी पूर्वमुखी ही था, जो अब सड़क निर्माण की वजह से पश्चिम मुखी हो गया है। मंदिर की ऊँचाई 75 फुट और चौड़ाई करीब 30 फुट है। पूरा मंदिर मराठा, राजपूत और आंशिक रूप से मुगल शैली में बनकर तैयार हुआ है। इसकी एक और सबसे बड़ी खासियत माँ पार्वती की अत्यंत सुंदर प्रतिमा है, जो करीब दो फुट ऊँची है। प्रतिमा वास्तव में इतनी सुंदर है, जैसे लगता है कि अभी बोल पड़ेगी।

श्वेत संगमरमर से बनी इस प्रतिमा का भाव यह है कि इसमें पुत्र व पति की सेवा का एक साथ ध्यान रखा जा रहा है। मंदिर के ही ठीक सामने कमलाकार प्राचीन फव्वारा भी है। वर्तमान में मंदिर का कुल क्षेत्रफल 150 गुणा 100 वर्गफुट ही रह गया है। हर वर्ष श्रावण मास में विद्वान पंडितों के सान्निध्य में अभिषेक, श्रृंगार, पूजा-अर्चना आदि अनुष्ठान कराए जाते हैं।

मंदिर का गर्भगृह काफी अंदर होने के बावजूद सूर्यनारायण की पहली किरण माँ पार्वती की प्रतिमा पर ही पड़ती है। मंदिर की सुंदरता में चार चाँद लगाता है यहाँ का पीपल वृक्ष। समीप ही प्राचीन बावड़ी भी है जिसे सूखते हुए आज तक किसी ने नहीं देखा। भीषण गर्मी के मौसम में भी यह लबालब रहती है।

पार्वती मंदिर से ही लगे हुए दो और मंदिर भी हैं। एक है राम मंदिर और दूसरा है हनुमान मंदिर। प्राचीन राम मंदिर से ही एक सुरंग भूगर्भ से ही दोनों मंदिरों को जोड़ती है। यह बावड़ी के अंदर भी खुलती है। बताते हैं कि किसी समय यह सुरंग लालबाग मंदिर तक जाती थी। राम मंदिर के ठीक नीचे एक तहखाना भी है। मौजूदा समय में यह स्थल देवी अहिल्याबाई होलकर खासगी ट्रस्ट में शामिल है।

होलकर शासकों द्वारा प्रसिद्ध मराठी संत नाना महाराज तराणेकर को यहाँ का परंपरागत पुजारी नियुक्ति पत्र दिया गया था। इस आशय की सनद भी उन्हें प्रदान की गई थी, तभी से उनका परिवार यहाँ सेवारत है। मंदिर के पुजारी बाड़ा महाराज (विजय कामले) हैं।