रविवार, 5 अक्तूबर 2008

कुछ शिव जी के बारे में

अनादि, अनंत, देवाधिदेव, महादेव शिव परंब्रह्म हैं| सहस्र नामों से जाने जाने वाले त्र्यम्बकम् शिव साकार, निराकार, ॐकार और लिंगाकार रूप में देवताओं, दानवों तथा मानवों द्वारा पुजित हैं| महादेव रहस्यों के भंडार हैं| बड़े-बड़े ॠषि-महर्षि, ज्ञानी, साधक, भक्त और यहाँ तक कि भगवान भी उनके रहस्य नहीं जान पाए| आशुतोष भगवान अपने व्यक्त रूप में त्रिलोकी के तीन देवताओं में ब्रह्मा एवं विष्णु के साथ रुद्र रूप में विराजमान हैं| ये त्रिदेव, हिन्दु धर्म के आधार और सर्वोच्च शिखर हैं| पर वास्तव में महादेव त्रिदेवों के भी रचयिता हैं| महादेव का चरित्र इतना व्यापक है कि कइ बार उनके व्याख्यान में विरोधाभाष तक हो जाता है|

एक ओर शिव संहारक कहे जाते हैं तो दूसरी ओर वे परंब्रह्म हैं जिस लिंगाकार रूप में वे सबसे ज्यादा पूज्य हैं| जहां वे संसार के मूल हैं वहीं वे अकर्ता हैं| जहां उनका चित्रण श्याम वर्ण में होता है वहीं वे कर्पूर की तरह गोरे, कर्पूर गौरं, माने जाते हैं| जिन भगवान रूद्र के क्रोध एवं तीसरे नेत्र के खुलने के भय से संसार अक्रांत होता है और जो अनाचार करने पर अपने कागभुष्डीं जैसे भक्तों तथा ब्रह्मा जैसे त्रिदेवों को भी दण्डित करने से नहीं चुकते, वही आसुतोष भगवान अपने सरलता के कारण भोलेनाथ हैं तथा थोडी भक्ति से ही किसी से भी प्रसन्न हो जाते हैं|

एक ओर रूद्र मृत्यु के देवता माने जाते हैं तो महामृत्यंजय भी उनके अलावा कोई दुसरा नहीं … पर उस विरोधाभाष में भी एका स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है| आइए जानने की कोशिश करतें हैं आसुतोष भगवान के उन मनमोहन रूपों को जिसकी व्याख्यान प्राचीन आचार्यों तथा देवगणों ने कलमबद्ध किया है|

शिव परंब्रह्म हैं
शिव अनादि हैं, अनन्त हैं, विश्वविधाता हैं| सारे संसार में एक मात्र शिव ही हैं जो जन्म, मृत्यू एवं काल के बंधनो से अलिप्त स्वयं महाclip_image002काल हैं| शिव सृष्टी के मूल कारण हैं, फिर भी स्वयं अकर्ता हैं, तटस्थ हैं| सृष्टी से पहले कुछ नहीं था – न धरती न अम्बर, न अग्नी न वायू, न सूर्य न ही प्रकाश, न जीव न ही देव। था तो केवल सर्वव्यपी अंधकार और महादेव शिव। तब शिव ने सृष्टी की परिकल्पना की ।

सृष्टी की दो आवश्यकतायँ थीं – संचालन हेतु शक्ति एवं व्यवस्थापक । शिव ने स्वंय से अपनी शक्ति को पृथक किया तथा शिव एवं शक्ति ने व्यवस्था हेतु एक कर्ता पुरूष का सृजन किया जो विष्णु कहलाय। भगवान विष्णु के नाभि से ब्रह्मा की उतपत्ति हुई। विष्णु भगवान ने ब्रह्मदेव को निर्माण कार्य सौंप कर स्वयं सुपालन का कार्य वहन किया। फिर स्वयं शिव जी के अंशावतार रूद्र ने सृष्टी के विलय के कार्य का वहन किया। इस प्रकार सृजन, सुपालन तथा विलय के चक्र के संपादन हेतु त्रिदेवों की उतपत्ति हुई।

इसके उपरांत शिव जी ने संसार की आयू निरधारित की जिसे एक कल्प कहा गया। कल्प समय का सबसे बड़ा माप है। एक कल्प के उपरातं महादेव शिव संपूर्ण सृष्टी का विलय कर देते हैं तथा पुन: नवनिर्माण आरंभ करते हैं जिसकी शुरुआत त्रिदेवों के गठन से होती है| इस प्रकार शिव को छोड शेष सभी काल के बंधन में बंधे होते हैं|

इन परमात्मा शिव का अपना कोई स्वरूप नहीं है, तथा हर स्वरूप इन्हीं का स्वरूप है। शिवलिंग इन्ही निराकार परमात्मा का परीचायक है तथा परम शब्द ॐ इन्हीं की वाणी।

अर्धनरनारीश्वर…
सृष्टी के निर्माण के हेतु शिव ने अपनी शक्ति को स्वयं से पृथक किया| शिव स्वयं पुरूष लिंग के द्योतक हैं तथा उनकी शक्ति स्त्री लिंग की द्योतक| पुरुष (शिव) एवं स्त्री (शक्ति) का एका होने के कारण शिव नर भी हैं और नारी भी, अतः वे अर्धनरनारीश्वर हैं| जब ब्रह्मा ने सृजन का कार्य आरंभ किया तब उन्होंने पाया कि उनकी रचनायं अपने जीवनोपरांत नष्ट हो जायंगी तथा हर बार उन्हें नए सिरे से सृजन करना होगा। गहन विचार के उपरांत भी वो किसी भी निर्णय पर नहीं पहुँच पाय। तब अपने समस्या के सामाधान के हेतु वो शिव की शरण में पहुँचे। उन्होंने शिव को प्रसन्न करने हेतु कठोर तप किया। ब्रह्मा की कठोर तप से शिव प्रसन्न हुए। ब्रह्मा के समस्या के सामाधान हेतु शिव अर्धनारीश्वर स्वरूप में प्रगट हुए। अर्ध भाग में वे शिव थे तथा अर्ध में शिवा। अपने इस स्वरूप से शिव ने ब्रह्मा को प्रजन्नशिल प्राणी के सृजन की प्रेरणा प्रदा की। साथ ही साथ उन्होंने पुरूष एवं स्त्री के सामान महत्व का भी उपदेश दिया। इसके बाद अर्धनारीश्वर भगवान अंतर्धयान हो गए।

शक्ति शिव की अभिभाज्य अंग हैं। शिव नर के द्योतक हैं तो शक्ति नारी की। वे एक दुसरे के पुरक हैं। शिव के बिना शक्ति का अथवा शक्ति के बिना शिव का कोई अस्तित्व ही नहीं है। शिव अकर्ता हैं। वो संकल्प मात्र करते हैं; शक्ति संकल्प सिद्धी करती हैं। तो फिर क्या हैं शिव और शक्ति?

शिव कारण हैं; शक्ति कारक।
शिव संकल्प करते हैं; शक्ति संकल्प सिद्धी।
शक्ति जागृत अवस्था हैं; शिव सुशुप्तावस्था।
शक्ति मस्तिष्क हैं; शिव हृदय।
शिव ब्रह्मा हैं; शक्ति सरस्वती।
शिव विष्णु हैं; शक्त्ति लक्ष्मी।
शिव महादेव हैं; शक्ति पार्वती।
शिव रुद्र हैं; शक्ति महाकाली।
शिव सागर के जल सामन हैं। शक्ति सागर की लहर हैं।

शिव सागर के जल के सामान हैं तथा शक्ति लहरे के सामान हैं। लहर क्या है? जल का वेग। जल के बिना लहर का क्या अस्तित्व है? और वेग बिना सागर अथवा उसके जल का? यही है शिव एवं उनकी शक्ति का संबंध। आएं तथा प्रार्थना करें शिव-शक्ति के इस अर्धनारीश्वर स्वरूप का इस अर्धनारीश्वर स्तोत्र द्वारा ।

विलयकर्ता रूद्र
शिव के सभी स्वरूपों में विलयकर्ता स्वरूप सर्वाधिक चर्चित, विस्मयकारी तथा भ्रामक है। सृष्टी का संतुलन बनाए रखने के लिए सृजन एवं सुपालन के साथ विलय भी अतिआवश्यक है| अतः ब्रह्मा एवं विष्णु के पुरक के रूप में शिव ने रूद्र रूप में विलयकर्ता अथवा संहारक की भुमिका का चयन किया| पर यह समझना अतिआवश्यक है कि शिव का यह स्वरूप भी काफी व्यापक है| शिव विलयकर्ता हैं पर मृत्यूदेव नहीं | मृत्यू के देवता तो यम हैं| शिव के विलयकर्ता रूप के दो अर्थ हैं|

विनाशक के रूmahakalshiv में शिव वास्तव में भय,अज्ञान, काम, क्रोध, लोभ, हिंसा तथा अनाचार जैसे बुराईयों का विनाश करते हैं। नकारात्मक गुणों का विनाश सच्चे अर्थों में सकारात्मक गुणों का सुपालन ही होता है। इस प्रकार शिव सुपालक हो विष्णु के पुरक हो जाते हैं। शिव का तीसरा नेत्र जो कि प्रलय का पर्याय माना जाता है वास्त्व में ज्ञान का प्रतीक है जो की प्रत्यक्ष के पार देख सकता है। शिव का नटराज स्वरूप इन तर्कों की पुष्टी करता है।

दूसरे अर्थों में सृजन, सुपालन एवं संहार एक चक्र है और किसी चक्र का आरंभ या अंत नहीं होता| अतः संहार एक दृष्टी से सृजन का प्रथम चरण है| लोहे को पिघलाने से उसका आकार नष्ट हो जाता है पर नष्ट होने के बाद ही उससे नय सृजन हो सकते हैं| तो लोहे के मुल स्वरूप का नष्ट होना नव निर्माण का प्रथम चरण है| उसी प्रकार संहार सृजन का प्रथम चरण है| इस दृष्टी से शिव ब्रह्मा के पुरक होते हैं|

नटराज शिव
नटराज शिव का स्वरूप न सिर्फ उनके संपुर्ण काल एवं स्थान को ही दर्शाता है; अपितु यह भी बिना किसी संशय स्थापित करता है कि ब्रह्माण मे स्थित सारा जिवन, उनकी गति कंपन तथा ब्रह्माण्ड से परे शुन्य की नि:शब्दता सभी कुछ एक शिव में ही निहत है।

नटराज दो शब्दों के समावेश से बना है – नट (अर्थात कला) और राज। इस स्वरूप में शिव कालाओं के आधार हैं| शिव का तांडव नृत्य प्रसिद्ध है| शिव के तांडव के दो स्वरूप हैं| पहला उनके क्रोध का परिचायक, प्रलंयकारी रौद्र तांडव तथा दुसरा आनंद प्रदान करने वाला आनंद तांडव| पर ज्यदातर लोग तांडव शब्द को शिव के क्रोध का पर्याय मानते हैं| रौद्र तांडव करने वाले शिव रुद्र कहे जाते हैं, आनंद तांडव करने वाले शिव नटराज| प्राचीन आचार्यों के मतानुसार शिव के आनन्द तांडव से ही सृष्टी अस्तित्व में आती है तथा उनके रौद्र तांडव में सृष्टी का विलय हो जाता है| शिव का नटराज स्वरूप भी उनके अन्य स्वरूपों की ही भातिं मनमोहक तथा उसकी अनेक व्याख्यायँ हैं।

नटराज शिव की प्रसिद्ध प्राचीन मुर्ति के चार भुजाएं हैं, उनके चारो ओर अग्नि के घेरें हैं। उनका एक पावं से उन्होंने एक बौने को दबा रखा है, एवं दुसरा पावं नृत मुद्रा में उपर की ओर उठा हुआ है। उन्होंने अपने पहले दाहिने हांथ में (जो कि उपर की ओर उठा हुआ है) डमरु पकड़ा हुआ है। डमरू की आवाज सृजन का प्रतीक है। इस प्रकार यहाँ शिव की सृजनात्मक शक्ति का द्योतक है। उपर की ओर उठे हुए उनके दुसरे हांथ में अग्नि है। यहाँ अग्नी विनाश की प्रतीक है। इसका अर्थ यह है कि शिव ही एक हाँथ से सृजन करतें हैं तथा दुसरे हाँथ से विलय।

उनका दुसरा दाहिना हाँथ अभय (या आशिस) मुद्रा में उठा हुआ है जो कि हमें बुराईयों से रक्षा करता है। उठा हुआ पांव मोक्ष का द्योतक है। उनका दुसरा बांया हांथ उनके उठे हुए पांव की ओर इंगित करता है। इसका अर्थ यह है कि शिव मोक्ष के मार्ग का सुझाव करते हैं। इसका अर्थ यह भी है कि शिव के चरणों में ही मोक्ष है। उनके पांव के नीचे कुचला हुआ बौना दानव अज्ञान का प्रतीक है जो कि शिव द्वारा नष्ट किया जाता है। शिव अज्ञान का विनाश करते हैं।

चारों ओर उठ रही आग की लपटें इस ब्रह्माण्ड की प्रतीक हैं। उनके शरीर पर से लहराते सर्प कुण्डलिनि शक्ति के द्योतक हैं। उनकी संपुर्ण आकृति ॐ कार स्वरूप जैसी दीखती है। यह इस बाद को इंगित करता है कि ॐ शिव में ही निहित है। स्मरण करते हैं उन्ही नाटराज शिव को इस नटराज स्तुति में|

योगेश्वर महादेव
शिव योग के जन्मदाता तथा श्रोत हैं। योग विज्ञान का उल्लेख प्राचीनतम हिन्दु ग्रंथों में मिलता है| सभी विज्ञानों से परे, यह विज्ञान एवं आत्मा दोने का ही अध्यन करता है| स्वसन प्रणाली का प्राचीनतम एवं आधिकारिक वर्णन भी सिर्फ योग के पास ही है| योग शारीरिक एवं मानसिक दोनो ही के स्वास्थ के लिए एक सरल मार्ग है| हमारा शरीर तथा मस्तिष्क जिसमें अपार क्षमताएं हैं पर हम उनका सदोपयोग साधारणत: नहीं कर पातें हैं। योग हमें अपने अधिकतम क्षमता पर पहूँने में सहायक होता है।

शिव अपने व्यक्त स्वरूप में योगी सदृश्य हैं तथा नित योग साधना में निरत रहते हैं। उनकी योग साधना से जिस उर्जा का प्रजनन होता है उसी से यह ब्रह्माण्ड चलायमान है। तो शिव इस संसार में व्याप्त संपुर्ण उर्जा के श्रोत हैं।

महाकाल कालभैरव
तांत्रिक कलाओं के साधक एवं जानकार शिव को कालभैरव अथवा महाकाल के रूप में पूजते हैं| उन अघोरी साधकों का साधनास्थल ज्यादातर श्मशान, वन अथवा ऐसे ही विरान स्थल होते हैं जो भय उत्तपन्न करतें हैं| शिव का यह रूप भी उनके साधकों के अनुरूप ही भय उत्तपन्न करने वाला है|

पशुपतिनाथ
शिव सृष्टि के स्रोत हैं| सभी प्राणीयों के अराध्य हैं| मानवों और देवों के अलावा दानवों एवं पशुओं के भी द्वारा पूज्य हैं, अतः पशुपतिनाथ हैं| प्राचीनतम हरप्पा एवं मोहनजोदारो संकृति के अवशेषों में शिव के पशुपति रूप की कई मुर्तियाँ एवं चिन्ह उपलब्ध हैं|

संस्कृत-हिन्दी का बेहद आम शब्द है पशु जिसके मायने हैं जानवर, चार पैर और पूंछ वाला जन्तु, चौपाया ,बलि योग्य जीव । मूर्ख व बुद्धिहीन मनुश्य को भी पशु कहा जाता है। पशु शब्द की उत्पत्ति भी दिलचस्प है। आदिमकाल से ही मनुश्य पशुओं पर काबू करने की जुगत करता रहा। अपनी बुद्धि से उसने डोरी-जाल आदि बनाए और हिंसक जीवों को भी काबू कर लिया। संस्कृत में एक शब्द है पाश: जिसका अर्थ है फंदा ,डोरी , श्रृंखला, बेड़ी वगैरह। जाहिर है जिन पर पाश से काबू पाया जा सकता था वे ही पशु कहलाए। पाश: शब्द से ही हिन्दी का पाश शब्द बना जिससे बाहूपाश, मोहपाश जैसे लफ्ज बने। प्राचीनकाल में पाश एक अस्त्र को भी कहा जाता था। पाश: शब्द के जाल और फंदे जैसे अर्थों को और विस्तार तब मिला जब बोलचाल की भाषा में इससे फांस या फांसी , फंसा,फंसना-फंसाना जैसे शब्द भी बने। पशुपति। भारतीय संस्कृति में पाश से बने पशु शब्द के दार्शनिक अर्थ भी हैं इसीलिए शिव का एक नाम है काठमांडू के जगप्रसिद्ध पशुपतिनाथ का मंदिर में शिव के इसी रूप की आराधना होती है । यहां पशु का अर्थ है समूची पृथ्वी और उसके प्राणि जिन्हें स्वयं उत्पन्न किया है इसीलिए पशुपति। इसी तरह पाशुपत दर्शन भी है। पुराणों के मुताबिक इस दर्शन के संस्थापक नकुलीश यानी स्वयं शिव थे। यहां पाशु का अर्थ वे सांसारिक बंधन हैं जिनसे जीव (पशु) जकड़ा हुआ है।

दिगंबर शिव
दिगंबर शब्द का अर्थ है अंबर (आकाश) को वस्त्र सामान धारण करने वाला। दुसरे किसी वस्त्र के आभाव में इसका अर्थ ( या शायद अनर्थ ) यह भी निकलता है कि जो वस्त्र हिन हो (अथवा नग्न हो)। सही अर्थों में दिगंबर शिव के
सर्वव्यापत चरीत्र की ओर इंगित करता है। शिव ही संपूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त हैं। यह अनंत अम्बर शिव के वस्त्र सामान हैं।

शिव का एक नाम व्योमकेश भी है जिसका अर्थ है जिनके बाल आकाश को छूतें हों। इनका यह नाम एक बार फिर से उनके सर्वव्यापक चरीत्र की ओर ही इशारा करती है।

शिव सर्वेश्वर हैं। सर्वशक्तिमान तथा विधाता होने के बाद भी वे अत्यंत ही सरल हैं – भोलेनाथ हैं। वे शिघ्र प्रसन्न हो जाते हैं। उन्हें प्रसनन करने के लिए किसी जटील विधान अथवा आडंबर की आवश्यकता नहीं पड़ती। वे तो भक्ति मात्र देखतें हैं। कोई भी किसी मार्ग द्वारा शिव को प्राप्त कर सकता है।

शिव देवाधिदेव हैं, पर उनमें कोई आडंबर नहीं है, वे सरल हैं, वस्त्र के स्थान पे बाघंबर, आभुषण के नाम पर सर्प और मुण्ड माल, श्रृंगार के नाम भस्म यही उनकी पहचान है| गिरीश योगी मुद्रा में कैलाश पर्वत पर योग में नित निरत रहते हैं| भक्तों के हर प्रकार के प्रसाद को ग्रहण करने वाले महादेव बिना किसी बनावट और दिखावा के होने के कारण दिगंबर कहे जाते हैं|

1 टिप्पणी:

मदन मणि ने कहा…

यदी पशुपति को बारेमे लिख रहे हें तो केवल काठमाण्डू नहीं नेपाल के काठमाण्डू लेखें तो अच्छा रहेगा ।