बुधवार, 29 जुलाई 2009

सृष्टि और संहार के अधिपति भगवान शिव

सृष्टि और संहार के अधिपति भगवान शिव भगवान शिव सौम्य आकृति एवं रौद्ररूप दोनों के लिए विख्यात हैं। अन्य देवों से शिव को भिन्न माना गया है। सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति एवं संहार के अधिपति शिव हैं। त्रिदेवों में भगवान शिव संहार के देवता माने गए हैं। शिव अनादि तथा सृष्टि प्रक्रिया के आदिस्रोत हैं और यह काल महाकाल ही ज्योतिषशास्त्र के आधार हैं। शिव का अर्थ यद्यपि कल्याणकारी माना गया है, लेकिन वे हमेशा लय एवं प्रलय दोनों को अपने अधीन किए हुए हैं।

प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी शिवरात्रि कहलाती है, लेकिन फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी महाशिवरात्रि कही गई है। इस दिन शिवोपासना भुक्ति एवं मुक्ति दोनों देने वाली मानी गई है, क्योंकि इसी दिन अर्धरात्रि के समय भगवान शिव लिंगरूप में प्रकट हुए थे।

माघकृष्ण चतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि ।
शिवलिंगतयोद्रूत: कोटिसूर्यसमप्रभ: ।।

भगवान शिव अर्धरात्रि में शिवलिंग रूप में प्रकट हुए थे, इसलिए शिवरात्रि व्रत में अर्धरात्रि में रहने वाली चतुर्दशी ग्रहण करनी चाहिए। कुछ विद्वान प्रदोष व्यापिनी त्रयोदशी विद्धा चतुर्दशी शिवरात्रि व्रत में ग्रहण करते हैं। नारद संहिता में आया है कि जिस तिथि को अर्धरात्रि में फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी हो, उस दिन शिवरात्रि करने से अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है। जिस दिन प्रदोष व अर्धरात्रि में चतुर्दशी हो, वह अति पुण्यदायिनी कही गई है। इस बार 6 मार्च को शिवरात्रि प्रदोष व अर्धरात्रि दोनों में विद्यमान रहेगी।

ईशान संहिता के अनुसार इस दिन ज्योतिर्लिग का प्रादुर्भाव हुआ, जिससे शक्तिस्वरूपा पार्वती ने मानवी सृष्टि का मार्ग प्रशस्त किया। फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को ही महाशिवरात्रि मनाने के पीछे कारण है कि इस दिन क्षीण चंद्रमा के माध्यम से पृथ्वी पर अलौकिक लयात्मक शक्तियां आती हैं, जो जीवनीशक्ति में वृद्धि करती हैं। यद्यपि चतुर्दशी का चंद्रमा क्षीण रहता है, लेकिन शिवस्वरूप महामृत्युंजय दिव्यपुंज महाकाल आसुरी शक्तियों का नाश कर देते हैं। मारक या अनिष्ट की आशंका में महामृत्युंजय शिव की आराधना ग्रहयोगों के आधार पर बताई जाती है। बारह राशियां, बारह ज्योतिर्लिगोंे की आराधना या दर्शन मात्र से सकारात्मक फलदायिनी हो जाती है।

यह काल वसंत ऋतु के वैभव के प्रकाशन का काल है। ऋतु परिवर्तन के साथ मन भी उल्लास व उमंगों से भरा होता है। यही काल कामदेव के विकास का है और कामजनित भावनाओं पर अंकुश भगवद् आराधना से ही संभव हो सकता है। भगवान शिव तो स्वयं काम निहंता हैं, अत: इस समय उनकी आराधना ही सर्वश्रेष्ठ है।

शिव में परस्पर विरोधी भावों का सामंजस्य देखने को मिलता है। शिव के मस्तक पर एक ओर चंद्र है, तो दूसरी ओर महाविषधर सर्प भी उनके गले का हार है। वे अर्धनारीश्वर होते हुए भी कामजित हैं। गृहस्थ होते हुए भी श्मशानवासी, वीतरागी हैं। सौम्य, आशुतोष होते हुए भी भयंकर रुद्र हैं। शिव परिवार भी इससे अछूता नहीं हैं। उनके परिवार में भूत-प्रेत, नंदी, सिंह, सर्प, मयूर व मूषक सभी का समभाव देखने को मिलता है। वे स्वयं द्वंद्वों से रहित सह-अस्तित्व के महान विचार का परिचायक हैं। ऐसे महाकाल शिव की आराधना का महापर्व है शिवरात्रि।

शिवरात्रि व्रत की पारणा चतुर्दशी में ही करनी चाहिए। जो चतुर्दशी में पारणा करता है, वह समस्त तीर्थो के स्नान का फल प्राप्त करता है। जो मनुष्य शिवरात्रि का उपवास नहीं करता, वह जन्म-मरण के चक्र में घूमता रहता है। शिवरात्रि का व्रत करने वाले इस लोक के समस्त भोगों को भोगकर अंत में शिवलोक में जाते हैं।

शिवरात्रि की पूजा रात्रि के चारों प्रहर में करनी चाहिए। शिव को बिल्वपत्र, धतूरे के पुष्प अति प्रिय हैं। अत: पूजन में इनका उपयोग करें। जो इस व्रत को हमेशा करने में असमर्थ है, उन्हें इसे बारह या चौबीस वर्ष करना चाहिए। शिव का त्रिशूल और डमरू की ध्वनि मंगल, गुरु से संबद्ध हैं। चंद्रमा उनके मस्तक पर विराजमान होकर अपनी कांति से अनंताकाश में जटाधारी महामृत्युंजय को प्रसन्न रखता है तो बुधादि ग्रह समभाव में सहायक बनते हैं। सप्तम भाव का कारक शुक्र शिव शक्ति के सम्मिलित प्रयास से प्रजा एवं जीव सृष्टि का कारण बनता है। महामृत्युंजय मंत्र शिव आराधना का महामंत्र है।

मंगलवार, 28 जुलाई 2009

पार्वती तुकेश्वर महादेव मंदिर

Parvati Mahadev temple
देवाधिदेव महादेव को सबसे ज्यादा प्रिय पार्वतीजी के मंदिरों की संख्या देशभर में नहीं के बराबर है, मगर इंदौर में केशरबाग रोड पर एक अत्यंत प्राचीन मंदिर है। इसका नाम केशरबाग शिव मंदिर उत्कीर्ण है, परंतु इस स्थान का वास्तविक नाम पार्वती तुकेश्वर महादेव मंदिर है। इस मंदिर के बारे में शहर में बहुत कम लोगों को जानकारी है।

इसकी सबसे बड़ी खासियत है माँ पार्वती की बेहद सुंदर प्रतिमा, जिसके एक हाथ में कलश है और गोद में स्तनपान कर रहे बाल गणेशजी हैं जबकि ठीक सामने शिवजी लिंगस्वरूप में विद्यमान है। इस मंदिर की स्थापना कब हुई, इसका कोई प्रामाणिक इतिहास उपलब्ध नहीं है, लेकिन वहाँ पर लगे पट्ट की मानें तो करीब 400 वर्ष पहले इसका निर्माण हुआ था। बाद में लोकमाता देवी अहिल्याबाई ने इसका जीर्णोद्धार भी करवाया।

ऐतिहासिक साक्ष्य के मुताबिक 1810 से 1840 के बीच होलकर वंश की केशरबाई ने इसका निर्माण करवाया। यह मंदिर पूर्वमुखी है। पहले इसका बाहरी प्रवेशद्वार भी पूर्वमुखी ही था, जो अब सड़क निर्माण की वजह से पश्चिम मुखी हो गया है। मंदिर की ऊँचाई 75 फुट और चौड़ाई करीब 30 फुट है। पूरा मंदिर मराठा, राजपूत और आंशिक रूप से मुगल शैली में बनकर तैयार हुआ है। इसकी एक और सबसे बड़ी खासियत माँ पार्वती की अत्यंत सुंदर प्रतिमा है, जो करीब दो फुट ऊँची है। प्रतिमा वास्तव में इतनी सुंदर है, जैसे लगता है कि अभी बोल पड़ेगी।

श्वेत संगमरमर से बनी इस प्रतिमा का भाव यह है कि इसमें पुत्र व पति की सेवा का एक साथ ध्यान रखा जा रहा है। मंदिर के ही ठीक सामने कमलाकार प्राचीन फव्वारा भी है। वर्तमान में मंदिर का कुल क्षेत्रफल 150 गुणा 100 वर्गफुट ही रह गया है। हर वर्ष श्रावण मास में विद्वान पंडितों के सान्निध्य में अभिषेक, श्रृंगार, पूजा-अर्चना आदि अनुष्ठान कराए जाते हैं।

मंदिर का गर्भगृह काफी अंदर होने के बावजूद सूर्यनारायण की पहली किरण माँ पार्वती की प्रतिमा पर ही पड़ती है। मंदिर की सुंदरता में चार चाँद लगाता है यहाँ का पीपल वृक्ष। समीप ही प्राचीन बावड़ी भी है जिसे सूखते हुए आज तक किसी ने नहीं देखा। भीषण गर्मी के मौसम में भी यह लबालब रहती है।

पार्वती मंदिर से ही लगे हुए दो और मंदिर भी हैं। एक है राम मंदिर और दूसरा है हनुमान मंदिर। प्राचीन राम मंदिर से ही एक सुरंग भूगर्भ से ही दोनों मंदिरों को जोड़ती है। यह बावड़ी के अंदर भी खुलती है। बताते हैं कि किसी समय यह सुरंग लालबाग मंदिर तक जाती थी। राम मंदिर के ठीक नीचे एक तहखाना भी है। मौजूदा समय में यह स्थल देवी अहिल्याबाई होलकर खासगी ट्रस्ट में शामिल है।

होलकर शासकों द्वारा प्रसिद्ध मराठी संत नाना महाराज तराणेकर को यहाँ का परंपरागत पुजारी नियुक्ति पत्र दिया गया था। इस आशय की सनद भी उन्हें प्रदान की गई थी, तभी से उनका परिवार यहाँ सेवारत है। मंदिर के पुजारी बाड़ा महाराज (विजय कामले) हैं।

विश्व के कल्याण की कामना है कांवड़ यात्रा में


हिंदू कैलिंडर का पांचवां महीना सावन मुख्य रूप से तप और ध्यान पर केंद्रित है। सूर्य के उत्तरायण में होने पर यज्ञ, अनुष्ठान और देवपूजा करने का विधान है, तो दक्षियाणन में तप एवं साधना पर जोर दिया गया है। सावन में शिवभक्त हलाहल पान करने वाले शिव का ताप मिटाने के लिए कांवड़ से गंगा जल लाकर अपने अभीष्ट शिवधाम में जलाभिषेक करते हैं।

विषपान की घटना सावन महीने में हुई थी, तभी से यह क्रम अनवरत चलता आ रहा है। कांवड़ यात्रा को आप पदयात्रा को बढ़ावा देने के प्रतीक रूप में मान सकते हैं। पैदल यात्रा से शरीर के वायु तत्व का शमन होता है। कांवड़ यात्रा के माध्यम से व्यक्ति अपने संकल्प बल में प्रखरता लाता है। वैसे साल के सभी सोमवार शिव उपासना के माने गए हैं, लेकिन सावन में चार सोमवार, श्रावण नक्षत्र और शिव विवाह की तिथि पड़ने के कारण शिव उपासना का माहात्म्य बढ़ जाता है।

'शिव' परमात्मा के कल्याणकारी स्वरूप का नाम है। जो मार्ग नियम, व्यवहार, आचरण और विचार हमें तुच्छता से शीर्ष की ओर ले जाए, वही कल्याणकारी है। शिव लिंग को अंतर्ज्योति का प्रतीक माना गया है। यह ध्यान की अंतिम अवस्था का प्रतीक है, क्योंकि सृष्टि के संहारक शिव भय, अज्ञान, काम, क्रोध, मद और लोभ जैसी बुराइयों का भी अंत करते हैं।

शिव कर्पूर गौर अर्थात सत्वगुण के प्रतीक हैं। वे दिगंबर अर्थात माया के आवरण से पूरी तरह मुक्त हैं। उनकी जटाएं वेदों की ऋचाएं हैं। शिव त्रिनेत्रधारी हैं अर्थात भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों के ज्ञाता हैं। बाघंबर उनका आसन है और वे गज चर्म का उत्तरीय धारण करते हैं। हमारी संस्कृति में बाघ क्रूरता और संकटों का प्रतीक है, जबकि हाथी मंगलकारी माना गया है। शिव के इस स्वरूप का अर्थ यह है कि वे दूषित विचारों को दबाकर अपने भक्तों को मंगल प्रदान करते हैं।

शिव का त्रिशूल उनके भक्तों को त्रिताप से मुक्ति दिलाता है। उनके सांपों की माला धारण करने का अर्थ है कि यह संपूर्ण कालचक्र कुंडली मार कर उन्हीं के आश्रित रहता है। चिता की राख के लेपन का आशय दुनिया से वैराग्य का संदेश देना है। भगवान शिव के विष पान का अर्थ है कि वे अपनी शरण में आए हुए जनों के संपूर्ण दुखों को पी जाते हैं। शिव की सवारी नंदी यानी बैल है। यहां बैल धर्म और पुरुषार्थ का प्रतीक है।

भगवान शिव कल्याण के देव हैं और कल्याण की संस्कृति ही वास्तव में शिव की संस्कृति है। सावन का महीना, पार्वती जी का भी महीना है। शिव परमपिता परमेश्वर हैं तो मां पार्वती जगदंबा और शक्ति। सदाशिव और मां पार्वती प्रकृति के आधार हैं। चतुर्मास में जब भगवान विष्णु शयन के लिए चले जाते हैं, तब शिव रुद नहीं, वरन भोले बाबा बनकर आते हैं।

सावन में धरती पर पाताल लोक के प्राणियों का विचरण होने लगता है। वर्षायोग से राहत भी मिलती है और परेशानी भी। चतुर्मास की शुरुआत में वर्षा के कारण रास्ते आने-जाने लायक नहीं रह जाते। सावन आते-आते वर्षा की गति मंथर हो जाती है। इस काल में पैदल यात्राओं का दौर धीरे-धीरे शुरू हो जाता है।

कांवडि़यों के रूप में यह प्रार्थना सामूहिक उत्सव के रूप में देखने को मिलती है। कांवड़ यात्रा धर्म और अर्पण का प्रतीक है। सावन में काम का आवेग बढ़ता है। शंकर जी इस आवेग का शमन करते हैं। कामदेव को भस्म करने का प्रसंग भी सावन का ही है। और शिव का विवाह भी श्रावण मास की शिवरात्रि को ही संपन्न हुआ। शिव चरित में उल्लेख है कि सृष्टि चक्र की मर्यादा, परंपरा और नियमोपनियम बने रहें, इसलिए तारकासुर को मारने के लिए शिव ने विवाह किया। तभी से सावन में विवाह परंपरा का भी जन्म हुआ था। इस नाते सावन लोकोत्पत्ति का उत्सव है।

कांवडि़यों के रूप में समाज के हर वर्ग के लोग उमंग और आस्था के साथ शिव जी के इस विवाह में शामिल होने जाते हैं। कुछ वर्षों से कांवड़ यात्रा के दौरान अप्रिय घटनाएं हुई हैं और मार्ग में असामाजिक तत्व उत्पात और हंगामे की स्थिति पैदा कर देते हैं। अगर साधक भगवान शिव के समान कल्याण की कामना ले कर चलें तभी कांवड़ यात्रा का उद्देश्य सार्थक होगा।

शुक्रवार, 24 जुलाई 2009

गंगावतरण श्रावण मास भगवान भोले शंकर का प्रिय महीना

युधिष्ठिर ने लोमश ऋषि से पूछा, "हे मुनिवर! राजा भगीरथ गंगा को किस प्रकार पृथ्वी पर ले आये? कृपया इस प्रसंग को भी सुनायें।" लोमश ऋषि ने कहा, "धर्मराज! इक्ष्वाकु वंश में सगर नामक एक बहुत ही प्रतापी राजा हुये। उनके वैदर्भी और शैव्या नामक दो रानियाँ थीं। राजा सगर ने कैलाश पर्वत पर दोनों रानियों के साथ जाकर शंकर भगवान की घोर आराधना की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उनसे कहा कि हे राजन्! तुमने पुत्र प्राप्ति की कामना से मेरी आराधना की है। अतएव मैं वरदान देता हूँ कि तुम्हारी एक रानी के साठ हजार पुत्र होंगे किन्तु दूसरी रानी से तुम्हारा वंश चलाने वाला एक ही सन्तान होगा। इतना कहकर शंकर भगवान अन्तर्ध्यान हो गये।
"समय बीतने पर शैव्या ने असमंज नामक एक अत्यन्त रूपवान पुत्र को जन्म दिया और वैदर्भी के गर्भ से एक तुम्बी उत्पन्न हुई जिसे फोड़ने पर साठ हजार पुत्र निकले। कालचक्र बीतता गया और असमंज का अंशुमान नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। असमंज अत्यन्त दुष्ट प्रकृति का था इसलिये राजा सगर ने उसे अपने देश से निष्कासित कर दिया। फिर एक बार राजा सगर ने अश्वमेघ यज्ञ करने की दीक्षा ली। अश्वमेघ यज्ञ का श्यामकर्ण घोड़ा छोड़ दिया गया और उसके पीछे-पीछे राजा सगर के साठ हजार पुत्र अपनी विशाल सेना के साथ चलने लगे। सगर के इस अश्वमेघ यज्ञ से भयभीत होकर देवराज इन्द्र ने अवसर पाकर उस घोड़े को चुरा लिया और उसे ले जाकर कपिल मुनि के आश्रम में बाँध दिया। उस समय कपिल मुनि ध्यान में लीन थे अतः उन्हें इस बात का पता ही न चला। इधर सगर के साठ हजार पुत्रों ने घोड़े को पृथ्वी के हरेक स्थान पर ढूँढा किन्तु उसका पता न लग सका। वे घोड़े को खोजते हुये पृथ्वी को खोद कर पाताल लोक तक पहुँच गये जहाँ अपने आश्रम में कपिल मुनि तपस्या कर रहे थे और वहीं पर वह घोड़ा बँधा हुआ था। सगर के पुत्रों ने यह समझ कर कि घोड़े को कपिल मुनि ही चुरा लाये हैं, कपिल मुनि को कटुवचन सुनाना आरम्भ कर दिया।
अपने निरादर से कुपित होकर कपिल मुनि ने राजा सगर के साठ हजार पुत्रों को अपने क्रोधाग्नि से भस्म कर दिया।
"जब सगर को नारद मुनि के द्वारा अपने साठ हजार पुत्रों के भस्म हो जाने का समाचार मिला तो वे अपने पौत्र अंशुमान को बुलाकर बोले कि बेटा! तुम्हारे साठ हजार दादाओं को मेरे कारण कपिल मुनि की क्रोधाग्नि में भस्म हो जाना पड़ा। अब तुम कपिल मुनि के आश्रम में जाकर उनसे क्षमाप्रार्थना करके उस घोड़े को ले आओ। अंशुमान अपने दादाओं के बनाये हुये रास्ते से चलकर कपिल मुनि के आश्रम में जा पहुँचे। वहाँ पहुँच कर उन्होंने अपनी प्रार्थना एवं मृदु व्यवहार से कपिल मुनि को प्रसन्न कर लिया। कपिल मुनि ने प्रसन्न होकर उन्हें वर माँगने के लिये कहा। अंशुमान बोले कि मुने! कृपा करके हमारा अश्व लौटा दें और हमारे दादाओं के उद्धार का कोई उपाय बतायें। कपिल मुनि ने घोड़ा लौटाते हुये कहा कि वत्स! जब तुम्हारे दादाओं का उद्धार केवल गंगा के जल से तर्पण करने पर ही हो सकता है।
"अंशुमान ने यज्ञ का अश्व लाकर सगर का अश्वमेघ यज्ञ पूर्ण करा दिया। यज्ञ पूर्ण होने पर राजा सगर अंशुमान को राज्य सौंप कर गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने के उद्देश्य से तपस्या करने के लिये उत्तराखंड चले गये इस प्रकार तपस्या करते-करते उनका स्वर्गवास हो गया। अंशुमान के पुत्र का नाम दिलीप था। दिलीप के बड़े होने पर अंशुमान भी दिलीप को राज्य सौंप कर गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने के उद्देश्य से तपस्या करने के लिये उत्तराखंड चले गये किन्तु वे भी गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने में सफल न हो सके। दिलीप के पुत्र का नाम भगीरथ था। भगीरथ के बड़े होने पर दिलीप ने भी अपने पूर्वजों का अनुगमन किया किन्तु गंगा को लाने में उन्हें भी असफलता ही हाथ आई।
"अन्ततः भगीरथ की तपस्या से गंगा प्रसन्न हुईं और उनसे वरदान माँगने के लिया कहा। भगीरथ ने हाथ जोड़कर कहा कि माता! मेरे साठ हजार पुरखों के उद्धार हेतु आप पृथ्वी पर अवतरित होने की कृपा करें। इस पर गंगा ने कहा वत्स! मैं तुम्हारी बात मानकर पृथ्वी पर अवश्य आउँगी, किन्तु मेरे वेग को शंकर भगवान के अतिरिक्त और कोई सहन नहीं कर सकता। इसलिये तुम पहले शंकर भगवान को प्रसन्न करो। यह सुन कर भगीरथ ने शंकर भगवान की घोर तपस्या की और उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर शिव जी हिमालय के शिखर पर गंगा के वेग को रोकने के लिये खड़े हो गये। गंगा जी स्वर्ग से सीधे शिव जी की जटाओं पर जा गिरीं। इसके बाद भगीरथ गंगा जी को अपने पीछे-पीछे अपने पूर्वजों के अस्थियों तक ले आये जिससे उनका उद्धार हो गया। भगीरथ के पूर्वजों का उद्धार करके गंगा जी सागर में जा गिरीं और अगस्त्य मुनि द्वारा सोखे हुये समुद्र में फिर से जल भर गया।"

श्रावण मास भगवान भोले शंकर का प्रिय महीना

श्रावण मास भगवान शंकर को विशेष प्रिय है। अत: इस मास में आशुतोष भगवान शंकर की पूजा का विशेष महत्व है। सोमवार शंकर का प्रिय दिन है। इसलिए श्रावण सोमवार का और भी विशेष महत्व है।

गौरतलब हो कि भगवान शंकर का यह व्रत सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला है। इस मास में लघुरूद्र महारूद्ध अथवा अतिरूद्र पाठ करके प्रत्येक सोमवार को शिवजी का व्रत किया जाता है। प्रात: काल गंगा या किसी पवित्र नदी सरोवर या घर पर ही विधि पूर्वक स्नान करने का विधान है। इसके बाद शिव मंदिर जाकर या घर में पार्थिव मूर्ति बना कर यथा विधि से रूद्राभिषेक करना अत्यंत ही फलदायी है। इस व्रत में श्रावण महात्म्य और विष्णु पुराण कथा सुनने का विशेष महत्व है।

विदित हो कि कैलाश के उत्तर में निषध पर्वत के शिखर पर स्वयं प्रभा नामक एक विशाल पुरी थी जिसमें धन वाहन नामक एक गनविराज रहते थे। समयानुसार उन्हे आठ पुत्र और अंत में एक कन्या उत्पन्न हुई जिसका नाम गंधर्व सेना था। वह अत्यन्त रूपवती थी और उसे अपने रूप का बहुत अभिमान था। वह कहा करती थी कि संसार में कोई गंधर्व या देवती मेरे रूप के करोड़वे अंश के समान भी नहीं है। एक दिन एक आकाशचरीगण नायक ने उसकी बात सुनी तो उसे शाप दे दिया 'तुम रूप के अभिमान' में गंधर्वो और देवताओं का अपमान करती हो अत: तुम्हारे शरीर में केाढ़ हो जायेगा। शाप सुन कर कन्या भयभीत हो गयी और दया की भीख मांगने लगी। उसकी बिनती सुन कर गणनायक को दया आ गयी और उन्होंने कहा हिमालय के वन में गोश्रृंग नाम के श्रेष्ठ मुनी रहते है। वे तुम्हारा उपकार करेगे। ऐसा कह कर गणनायक चला गया। गंधर्व सेना व छोड़ कर अपने पिता के पास आई और अपने कुष्ट होने के कारण तथा उससे मुक्ति का उपाय बतायी। माता पिता उसे तत्क्षण लेकर हिमालय पर्वत पर गए और गोश्रृंग का दर्शन करके स्तुति करने लगे। मुनि के पूछने पर उन्होंने कहा कि मेरे बेटी को कोढ़ हो गया है कृपया इसकी शांति का उपाय बताएं।

मुनि ने कहा कि समुद्र के समीप भगवान सोमनाथ विराजमान है। वहां जाकर सोमवार व्रत द्वारा भगवान शंकर की आराधना करो। ऐसा करने से पुत्री का रोग दूर हो जायेगा। मुनि के वचन सुन कर धनवाहन अपनी पुत्री के साथ प्रभास क्षेत्र में जाकर सोमनाथ के दर्शन किए और पूरे विधि विधान के साथ सोमवार व्रज करते हुए भगवान शंकर की आराधना किए उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर शंकर भगवान ने उस कन्या के रोगों को दूर किया और उन्हे अपनी भक्ति भी दान में दिया। आज भी लोग शिव जी को प्रसन्न करने के लिए इस व्रत को पूरी निष्ठा एवं भक्ति के साथ करते है और शिव को प्राप्त करते है।

शनिवार, 18 जुलाई 2009

भगवान शिव की पूजा और पूजा विधि

भगवान शिव ने भगवती के आग्रह पर अपने लिए सोने की लंका का निर्माण किया था गृहप्रवेश से पूर्व पूजन के लिए उन्होने अपने असुर शिष्य प्रकाण्ड विद्वान रावण को आमंत्रित किया था दक्षिणा के समय रावण ने वह लंका ही दक्षिणा में मांग ली और भगवान शिव ने सहजता से लंका रावण को दान में दे दी तथा वापस कैलाश लौट आए ऐसी सहजता के कारण ही वे ÷भोलेनाथ' कहलाते हैं ऐसे भोले भंडारी की कृपा प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील होने के लिए शिवरात्रि सबसे महत्वपूर्ण पर्व है।

भगवान शिव का स्वरुप अन्य देवी देवताओं से बिल्कुल अलग है।जहां अन्य देवी-देवताओं को वस्त्रालंकारों से सुसज्जित और सिंहासन पर विराजमान माना जाता है,वहां ठीक इसके विपरीत शिव पूर्ण दिगंबर हैं,अलंकारों के रुप में सर्प धारण करते हैं और श्मशान भूमि पर सहज भाव से अवस्थित हैं। उनकी मुद्रा में चिंतन है, तो निर्विकार भाव भी है!आनंद भी है और लास्य भी। भगवान शिव को सभी विद्याओं का जनक भी माना जाता है। वे तंत्र से लेकर मंत्र तक और योग से लेकर समाधि तक प्रत्येक क्षेत्र के आदि हैं और अंत भी। यही नही वे संगीत के आदिसृजनकर्ता भी हैं, और नटराज के रुप में कलाकारों के आराध्य भी हैं। वास्तव में भगवान शिव देवताओं में सबसे अद्भुत देवता हैं वे देवों के भी देव होने के कारण ÷महादेव' हैं तो, काल अर्थात समय से परे होने के कारण ÷महाकाल' भी हैं वे देवताओं के गुरू हैं तो, दानवों के भी गुरू हैं देवताओं में प्रथमाराध्य, विनों के कारक निवारणकर्ता, भगवान गणपति के पिता हैं तो, जगद्जननी मां जगदम्बा के पति भी हैं वे कामदेव को भस्म करने वाले हैं तो, ÷कामेश्वर' भी हैं तंत्र साधनाओं के जनक हैं तो संगीत के आदिगुरू भी हैं उनका स्वरुप इतना विस्तृत है कि उसके वर्णन का सामर्थ्य शब्दों में भी नही है।सिर्फ इतना कहकर ऋषि भी मौन हो जाते हैं किः-

असित गिरिसमम स्याद कज्जलम सिंधु पात्रे, सुरतरुवर शाखा लेखनी पत्रमुर्वी

लिखति यदि गृहीत्वा शारदासर्वकालम, तदपि तव गुणानाम ईश पारम याति॥

अर्थात यदि समस्त पर्वतों को, समस्त समुद्रों के जल में पीसकर उसकी स्याही बनाइ जाये, और संपूर्ण वनों के वृक्षों को काटकर उसको कलम या पेन बनाया जाये और स्वयं साक्षात, विद्या की अधिष्ठात्री, देवी सरस्वती उनके गुणों को लिखने के लिये अनंतकाल तक बैठी रहें तो भी उनके गुणों का वर्णन कर पाना संभव नही होगा। वह समस्त लेखनी घिस जायेगी! पूरी स्याही सूख जायेगी मगर उनका गुण वर्णन समाप्त नही होगा। ऐसे भगवान शिव का पूजन अर्चन करना मानव जीवन का सौभाग्य है

भगवान शिव के पूजन की अनेकानेक विधियां हैं।इनमें से प्रत्येक अपने आप में पूर्ण है और आप अपनी इच्छानुसार किसी भी विधि से पूजन या साधना कर सकते हैं।भगवान शिव क्षिप्रप्रसादी देवता हैं,अर्थात सहजता से वे प्रसन्न हो जाते हैं और अभीप्सित कामना की पूर्ति कर देते हैं। भगवान शिव के पूजन की कुछ सहज विधियां प्रस्तुत कर रहा हूं।इन विधियों से प्रत्येक आयु, लिंग, धर्म या जाति का व्यक्ति पूजन कर सकता है और भगवान शिव की यथा सामर्थ्य कृपा भी प्राप्त कर सकता है।


भगवान शिव पंचाक्षरी मंत्रः-

ऊं नमः शिवाय

यह भगवान शिव का पंचाक्षरी मंत्र है। इस मंत्र का जाप आप चलते फिरते भी कर सकते हैं। अनुष्ठान के रूप में इसका जाप ग्यारह लाख मंत्रों का किया जाता है विविध कामनाओं के लिये इस मंत्र का जाप किया जाता है।


बीजमंत्र संपुटित महामृत्युंजय शिव मंत्रः-

ऊं हौं ऊं जूं ऊं सः ऊं भूर्भुवः ऊं स्वः ऊं त्रयंबकं यजामहे सुगंधिम पुष्टि वर्धनम, उर्वारुकमिव बंधनात मृत्युर्मुक्षीय मामृतात ऊं स्वः ऊं भूर्भुवः ऊं सः ऊं जूं ऊं हौं ऊं

भगवान शिव का एक अन्य नाम महामृत्युंजय भी है।जिसका अर्थ है, ऐसा देवता जो मृत्यु पर विजय प्राप्त कर चुका हो। यह मंत्र रोग और अकाल मृत्यु के निवारण के लिये सर्वश्रेष्ठ माना गया है। इसका जाप यदि रोगी स्वयं करे तो सर्वश्रेष्ठ होता है। यदि रोगी जप करने की सामर्थ्य से हीन हो तो, परिवार का कोई सदस्य या फिर कोई ब्राह्‌मण रोगी के नाम से मंत्र जाप कर सकता है। इसके लिये संकल्प इस प्रकार लें, ÷÷मैं(अपना नाम) महामृत्युंजय मंत्र का जाप, (रोगी का नाम) के रोग निवारण के निमित्त कर रहा हॅूं, भगवान महामृत्युंजय उसे पूर्ण स्वास्थ्य लाभ प्रदान करें'' इस मंत्र के जाप के लिये सफेद वस्त्र तथा आसन का प्रयोग ज्यादा श्रेष्ठ माना गया है।रुद्राक्ष की माला से मंत्र जाप करें।

शिवलिंग की महिमा

भगवान शिव के पूजन मे शिवलिंग का प्रयोग होता है। शिवलिंग के निर्माण के लिये स्वर्णादि विविध धातुओं, मणियों, रत्नों, तथा पत्थरों से लेकर मिटृी तक का उपयोग होता है।इसके अलावा रस अर्थात पारे को विविध क्रियाओं से ठोस बनाकर भी लिंग निर्माण किया जाता है, इसके बारे में कहा गया है कि,

मृदः कोटि गुणं स्वर्णम, स्वर्णात्कोटि गुणं मणिः, मणेः कोटि गुणं बाणो,

बाणात्कोटि गुणं रसः रसात्परतरं लिंगं भूतो भविष्यति

अर्थात मिटृी से बने शिवलिंग से करोड गुणा ज्यादा फल सोने से बने शिवलिंग के पूजन से, स्वर्ण से करोड गुणा ज्यादा फल मणि से बने शिवलिंग के पूजन से, मणि से करोड गुणा ज्यादा फल बाणलिंग से तथा बाणलिंग से करोड गुणा ज्यादा फल रस अर्थात पारे से बने शिवलिंग के पूजन से प्राप्त होता है। आज तक पारे से बने शिवलिंग से श्रेष्ठ शिवलिंग तो बना है और ही बन सकता है।

शिवलिंगों में नर्मदा नदी से प्राप्त होने वाले नर्मदेश्वर शिवलिंग भी अत्यंत लाभप्रद तथा शिवकृपा प्रदान करने वाले माने गये हैं। यदि आपके पास शिवलिंग हो तो अपने बांये हाथ के अंगूठे को शिवलिंग मानकर भी पूजन कर सकते हैं शिवलिंग कोई भी हो जब तक भक्त की भावना का संयोजन नही होता तब तक शिवकृपा नही मिल सकती।

शिवलिंग पर अभिषेक या धारा

भगवान शिव अत्यंत ही सहजता से अपने भक्तों की मनोकामना की पूर्ति करने के लिए तत्पर रहते है। भक्तों के कष्टों का निवारण करने में वे अद्वितीय हैं। समुद्र मंथन के समय सारे के सारे देवता अमृत के आकांक्षी थे लेकिन भगवान शिव के हिस्से में भयंकर हलाहल विष आया। उन्होने बडी सहजता से सारे संसार को समाप्त करने में सक्षम उस विष को अपने कण्ठ में धारण किया तथा ÷नीलकण्ठ' कहलाए। भगवान शिव को सबसे ज्यादा प्रिय मानी जाने वाली क्रिया है ÷अभिषेक' अभिषेक का शाब्दिक तात्पर्य होता है श्रृंगार करना तथा शिवपूजन के संदर्भ में इसका तात्पर्य होता है किसी पदार्थ से शिवलिंग को पूर्णतः आच्ठादित कर देना। समुद्र मंथन के समय निकला विष ग्रहण करने के कारण भगवान शिव के शरीर का दाह बढ गया। उस दाह के शमन के लिए शिवलिंग पर जल चढाने की परंपरा प्रारंभ हुयी। जो आज भी चली रही है इससे प्रसन्न होकर वे अपने भक्तों का हित करते हैं इसलिए शिवलिंग पर विविध पदार्थों का अभिषेक किया जाता है।

शिव पूजन में सामान्यतः प्रत्येक व्यक्ति शिवलिंग पर जल या दूध चढाता है शिवलिंग पर इस प्रकार द्रवों का अभिषेक ÷धारा' कहलाता है जल तथा दूध की धारा भगवान शिव को अत्यंत प्रिय है

पंचामृतेन वा गंगोदकेन वा अभावे गोक्षीर युक्त कूपोदकेन कारयेत

अर्थात पंचामृत से या फिर गंगा जल से भगवान शिव को धारा का अर्पण किया जाना चाहिये इन दोनों के अभाव में गाय के दूध को कूंए के जल के साथ मिश्रित कर के लिंग का अभिषेक करना चाहिये

हमारे शास्त्रों तथा पौराणिक ग्रंथों में प्रत्येक पूजन क्रिया को एक विशिष्ठ मंत्र के साथ करने की व्यवस्था है, इससे पूजन का महत्व कई गुना बढ जाता है शिवलिंग पर अभिषेक या धारा के लिए जिस मंत्र का प्रयोग किया जा सकता है वह हैः-

1 ऊं हृौं हृीं जूं सः पशुपतये नमः

ऊं नमः शंभवाय मयोभवाय नमः शंकराय, मयस्कराय नमः शिवाय शिवतराय च।

इन मंत्रों का सौ बार जाप करके जल चढाना शतधारा तथा एक हजार बार जल चढाना सहस्रधारा कहलाता है जलधारा चढाने के लिए विविध मंत्रों का प्रयोग किया जा सकता है इसके अलावा आप चाहें तो भगवान शिव के पंचाक्षरी मंत्र का प्रयोग भी कर सकते हैं पंचाक्षरी मंत्र का तात्पर्य है ÷ ऊं नमः शिवाय ' मंत्र

विविध कार्यों के लिए विविध सामग्रियों या द्रव्यों की धाराओं का शिवलिंग पर अर्पण किया जाता है तंत्र में सकाम अर्थात किसी कामना की पूर्ति की इच्ठा के साथ पूजन के लिए विशेष सामग्रियों का उपयोग करने का प्रावधान रखा गया है इनमें से कुछ का वर्णन आगे प्रस्तुत हैः-

सहस्रधाराः-

जल की सहस्रधारा सर्वसुख प्रदायक होती है
घी
की सहस्रधारा से वंश का विस्तार होता है
दूध
की सहस्रधारा गृहकलह की शांति के लिए देना चाहिए
दूध
में शक्कर मिलाकर सहस्रधारा देने से बुद्धि का विकास होता है
गंगाजल
की सहस्रधारा को पुत्रप्रदायक माना गया है
सरसों
के तेल की सहस्रधारा से शत्रु का विनाश होता है
सुगंधित
द्रव्यों यथा इत्र
, सुगंधित तेल की सहस्रधारा से विविध भोगों की प्राप्ति होती है

इसके अलावा कइ अन्य पदार्थ भी शिवलिंग पर चढाये जाते हैं, जिनमें से कुछ के विषय में निम्नानुसार मान्यतायें हैं:-

सहस्राभिषेक

एक हजार कनेर के पुष्प चढाने से रोगमुक्ति होती है
एक
हजार धतूरे के पुष्प चढाने से पुत्रप्रदायक माना गया है
एक
हजार आक या मदार के पुष्प चढाने से प्रताप या प्रसिद्धि बढती है
एक
हजार चमेली के पुष्प चढाने से वाहन सुख प्राप्त होता है
एक
हजार अलसी के पुष्प चढाने से विष्णुभक्ति विष्णुकृपा प्राप्त होती है
एक
हजार जूही के पुष्प चढाने से समृद्धि प्राप्त होती है
एक
हजार सरसों के फूल चढाने से शत्रु की पराजय होती है

लक्षाभिषेक

एक लाख बेलपत्र चढाने से कुबेरवत संपत्ति मिलती है
एक
लाख कमलपुष्प चढाने से लक्ष्मी प्राप्ति होती है
एक
लाख आक या मदार के पत्ते चढाने से भोग मोक्ष दोनों की प्राप्ति होती है
एक
लाख अक्षत या बिना टूटे चावल चढाने से लक्ष्मी प्राप्ति होती है
एक
लाख उडद के दाने चढाने से स्वास्थ्य लाभ होता है
एक
लाख दूब चढाने से आयुवृद्धि होती है
एक
लाख तुलसीदल चढाने से भोग मोक्ष दोनों की प्राप्ति होती है
एक
लाख पीले सरसों के दाने चढाने से शत्रु का विनाश होता है

बेलपत्र

शिवलिंग पर अभिषेक या धारा के साथ साथ बेलपत्र चढाने का भी विशेष महत्व है। बेलपत्र तीन-तीन के समूह में लगते हैं। इन्हे एक साथ ही चढाया जाता है।अच्छे पत्तों के अभाव में टूटे फूटे पत्र भी ग्रहण योग्य माने गये हैं।इन्हे उलटकर अर्थात चिकने भाग को लिंग की ओर रखकर चढाया जाता है।इसके लिये जिस श्लोक का प्रयोग किया जाता है वह है,

त्रिदलं त्रिगुणाकारम त्रिनेत्रम त्रिधायुधम।
त्रिजन्म
पाप संहारकम एक बिल्वपत्रं शिवार्पणम॥

उपरोक्त मंत्र का उच्चारण करते हुए शिवलिंग पर बेलपत्र को समर्पित करना चाहिए

शिवपूजन में निम्न बातों का विशेष ध्यान रखना चाहियेः-

पूजन स्नान करके स्वच्छ वस्त्र पहनकर करें।
माता
पार्वती का पूजन अनिवार्य रुप से करना चाहिये अन्यथा पूजन अधूरा रह जायेगा।
रुद्राक्ष
की माला हो तो धारण करें।
भस्म
से तीन आडी लकीरों वाला तिलक लगाकर बैठें।
शिवलिंग
पर चढाया हुआ प्रसाद ग्रहण नही किया जाता
, सामने रखा गया प्रसाद अवश्य ले सकते हैं।
शिवमंदिर
की आधी परिक्रमा ही की जाती है।
केवडा
तथा चम्पा के फूल चढायें।
पूजन
काल में सात्विक आहार विचार तथा व्यवहार रखें।

महादेव महेश्वरः, कलानाट कपिलेश्वरः

महादेव महेश्वरः, कलानाट कपिलेश्वरः
नीलकंठ भूतेश्वरः, अंश ब्रह्म परमेश्वरः

देह लिपटे व्याघ्र चर्म, ग्रीवा-बंधन है भुजंग
त्रिशूल, डमरू धारे संग, विराजे बैल मेरूदण्ड
कैलाशपति सिद्धेश्वरः ............................

माथ शोभे चंद्रमा, जटा निवासे गंगा माँ
सेवा में नंदी रमा, संग-संग हैं अम्बे माँ
शम्भू अर्द्धनारीश्वरः ..........................

एकदा तुम ध्यानमग्न, कामदेव ने किया भग्न
तिस्त्र चक्षु पड़े अनंग, भया तत्क्षण वहीं भस्म
तंत्र सिद्धि योगेश्वरः ................................

बुधवार, 15 जुलाई 2009

शिव स्तुति- 3


जय शिव ओंकारा, ॐ जय शिव ओंकारा ।
ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव, अर्द्धांगी धारा ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

एकानन चतुरानन पंचानन राजे
हंसासन गरूड़ासन वृषवाहन साजे
जय शिव ओंकारा

दो भुज चार चतुर्भुज दसभुज अति सोहे ।
त्रिगुण रूप निरखते त्रिभुवन जन मोहे ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

अक्षमाला वनमाला मुण्डमाला धारी
त्रिपुरारी कंसारी कर माला धारी
जय शिव ओंकारा

श्वेतांबर पीतांबर बाघंबर अंगे ।
सनकादिक गरुणादिक भूतादिक संगे ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

कर के मध्य कमंडलु चक्र त्रिशूलधारी
सुखकारी दुखहारी जगपालन कारी
जय शिव ओंकारा

ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका ।
प्रणवाक्षर में शोभित ये तीनों एका ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

लक्ष्मी सावित्री पार्वती संगा
पार्वती अर्द्धांगी, शिवलहरी गंगा
जय शिव ओंकारा

पर्वत सोहैं पार्वती, शंकर कैलासा ।
भांग धतूर का भोजन, भस्मी में वासा ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

जटा में गंग बहत है, गल मुण्डन माला
शेष नाग लिपटावत, ओढ़त मृगछाला
जय शिव ओंकारा

काशी में विराजे विश्वनाथ, नंदी ब्रह्मचारी ।
नित उठ दर्शन पावत, महिमा अति भारी ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

त्रिगुणस्वामी जी की आरति जो कोइ नर गावे
कहत शिवानंद स्वामी सुख संपति पावे
जय शिव ओंकारा