रविवार, 21 जून 2009

शिवस्तोत्राणि शिवमानसपूजा

रत्‍‌नै: कल्पितमानसं हिमजलै: स्न्नानं च दिव्याम्बरं

नानारत्‍‌नविभूषितं मृगमदामोदाङ्कितं चन्दनम्।

जातीचम्पकबिल्वपत्ररचितं पुष्पं च धूपं तथा

दीपं देव दयानिधे पशुपते हृत्कल्पितं गृह्यताम्॥1॥

सौवर्णे नवरत्‍‌नखण्डरचिते पात्रे घृतं पायसं

भक्ष्यं पञ्चविधं पयोदधियुतं रम्भाफलं पानकम्।

शाकानामयुतं जलं रुचिकरं कर्पूरखण्डोज्ज्वलं

ताम्बूलं मनसा मया विरचितं भक्त्या प्रभो स्वीकुरु॥2॥

छत्रं चामरयोर्युगं व्यजनकं चादर्शकं निर्मलं

वीणाभेरिमृदङ्गकाहलकला गीतं च नृत्यं तथा।

साष्टाङ्गं प्रणति: स्तुतिर्बहुविधा ह्येतत्समस्तं मया

सङ्कल्पेन समर्पितं तव विभो पूजां गृहाण प्रभो॥3॥

आत्मा त्वं गिरिजा मति: सहचरा: प्राणा: शरीरं गृहं

पूजा ते विषयोपभोगरचना निद्रा समाधिस्थिति:।

सञ्चार: पदयो: प्रदक्षिणविधि: स्तोत्रािण् सर्वा गिरो

यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम्॥4॥

करचरणकृतं वाक्क ायजं कर्मजं वा

श्रवणनयनजं वा मानसं वापराधम्।

विहितमविहितं वा सर्वमेतत्क्षमस्व

जय जय करुणाब्धे श्रीमहादेव शम्भो॥5॥

अर्थ :- हे दयानिधे! हे पशुपते! हे देव! यह रत्‍‌ननिर्मित सिंहासन, शीतल जल से स्नान , नाना रत्‍‌नावलिविभूषित दिव्य वस्त्र, कस्तूरिकागन्धसमन्वित चन्दन, जुही, चम्पा और बिल्वपत्र से रचित पुष्पाञ्जलि तथा धूप और दीप यह सब मानसिक [पूजोपहार] ग्रहण कीजिये॥1॥

मैंने नवीन रत्‍‌नखण्डों से खचित सुवर्ण पात्र में घृतयुक्त खीर, दूध और दधि सहित पाँच प्रकार का व्यञ्जन, कदली फल, शर्बत, अनेकों शाक, कपूर से सुवासित और स्वच्छ किया हुआ मीठा जल और ताम्बूल - ये सब मनके द्वारा ही बनाकर प्रस्तुत किये हैं; प्रभो! कृपया इन्हें स्वीकार कीजिये॥2॥

छत्र, दो चँवर, पंखा, निर्मल दर्पण, वीणा, भेरी, मृदङ्ग, दुन्दुभी के वाद्य, गान और नृत्य, साष्टाङ्ग प्रणाम, नानाविधि स्तुति- ये सब मैं संकल्प से ही आपको समर्पण करता हूँ; प्रभो! मेरी यह पूजा ग्रहण कीजिये॥3॥

हे शम्भो! मेरी आत्मा तुम हो, बुद्धि पार्वती जी हैं, प्राण आपके गण हैं, शरीर आपका मन्दिर है, सम्पूर्ण विषय-भोग की रचना आपकी पूजा है, निद्रा समाधि है, मेरा चलना-फिरना आपकी परिक्रमा है तथा सम्पूर्ण शब्द आपके स्तोत्र हैं; इस प्रकार मैं जो-जो भी कर्म करता हूँ, वह सब आपकी आराधना ही है॥4॥

प्रभो! मैंने हाथ, पैर, वाणी, शरीर, कर्म, कर्ण, नेत्र अथवा मन से जो भी अपराध किये हों; वे विहित हो अथवा अविहित, उन सबको आप क्षमा कीजिये। हे करुणा सागर श्री महादेव शङ्कर! आपकी जय हो॥5॥

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