रिसासी कस्बा स्थित प्राचीन महादेव शिव मंदिर के प्रति यहां के लोगों के दिलों में विशेष आस्था व अटूट विश्वास है। यहां के प्राकृतिक शिवलिंग में पड़े हुए दरार व यहां लगने वाले बैसाखी मेले की दिलचस्प कहानी है।
यहां के लोगों की मान्यता है कि इस प्राकृतिक शिवलिंग में साक्षात भगवान शंकर विराजमान हैं। शिवलिंग कितना पुराना है? इसके बारे में स्पष्ट रूप से तो कुछ नहीं कहा जा सकता है, लेकिन इस बारे में यहां एक दंत कथा प्रचलित है। कहा जाता है कि इस शिवलिंग को क्षेत्र के ही गांव अगार वलिया के एक जमींदार ने सबसे पहले तब देखा था, जब इस इलाके में कोई आबादी न थी। उस समय इस इलाके में घना जंगल हुआ करता था। जमींदार ने अपने मवेशियों को चराने के लिए एक ग्वाला रखा था। जमींदार की एक गाय दूध नहीं दे रही थी, इसलिए जमींदार को ग्वाले पर शक हुआ। इसकी जांच के लिए एक दिन जमींदार ने छुपते-छुपाते ग्वाले का उस समय पीछा किया जब वह मवेशियों को चराने जा रहा था। वहां जमींदार ने देखा कि उक्त गाय अन्य मवेशियों से अलग होकर एक तरफ बढ़ गई। गाय का पीछा करने पर जमींदार ने देखा कि गाय जमीन पर उभरे एक शिवलिंग के पास खड़ी हो गई और अपने-आप उसके थन से दूध की धारा निकलकर शिवलिंग पर गिरने लगी। सारा दूध शिवलिंग पर चढ़ाने के बाद गाय वहां से वापस लौट आई। उस शाम को गाय ने जमींदार के घर इतना दूध दिया कि मानों कई दिनों का दूध एक ही समय में उतर आया। इसके बाद जमींदार रोजाना गाय का दूध ले जाकर उस शिवलिंग पर चढ़ाने लगा। शिवरात्रि के दिन वहां नीवं पत्थर रखकर जमींदार ने मंदिर का निर्माण शुरू कराया। चूना व माश की दाल के मिश्रण से दीवारें तैयार की गई। तभी एक अदभुत घटना घटी। मंदिर की दीवारें दरवाजे तक पहुंचते ही गिर जाती थी। एक रात भगवान शंकर ने उसे स्वप्न में मंदिर का मुख उत्तर दिशा की तरफ रखने को कहा। जमींदार ने ऐसा ही किया और उसके बाद काम पूरा करने में कोई अड़चन नहीं आई और पहली बैसाखी को मंदिर का निर्माण पूरा हुआ। तब से प्रत्येक वर्ष वहा पहली बैसाखी को प्रसाद बांटा जाने लगा। आहिस्ता-आहिस्ता वह मेले में रूप में बदल गया। आज भी वहां प्रत्येक वर्ष पहली बैसाखी को मेला लगता है।
बताते चले कि वजीर जोरावर सिंह के मन में विचार आया कि महादेव मंदिर की बजाय बैसाखी मेला रियासी के विजयपुर स्थित उनके किले के नजदीक लगना चाहिए। इसलिए उन्होंने बैसाखी मेला विजयपुर में लगाने के लिए इलाके में ढिंढ़ोरा पिटवा दिया। उस वर्ष मेला विजयपुर में लगा। बैसाखी की सुबह जब महादेव मंदिर में लोग पूजा-अर्चना करने पहुंचे तो यह देख हैरान रह गए कि शिवलिंग में दरार आ गई है और उसमें से खून बह रहा था। मेले की कोई रौनक यहां न दिखने पर जब उन्होंने यहां के पुजारियों से बात कि तो पुजारियों ने शिवलिंग की दरार पर मक्खन का लेप किया और आशंका जताई कि शायद यहां से मेला उठा लिए जाने के कारण भगवान शंकर को अच्छा नहीं लगा और शिवलिंग में दरार आ गई। उसी दिन वजीर के साथ कुछ अनहोनी घटनाएं होने लगी। उन्हे जब शिवलिंग में दरार आने व वहां से खून बहने की जानकारी मिली तो उन्होंने तुरंत विजयपुर से मेला उठवा कर ढोल-नगाढ़ों के साथ वापस महादेव मंदिर में मेला लगवाया। उन्होंने नंगे पांव मंदिर में जाकर क्षमा याचना की। वजीर ने चिनाब से लाए एक पत्थर को शिवलिंग से स्पर्श करा कर उसे अपने किले में शिवलिंग के रूप में स्थापित किया और उसकी पूजा-अर्चना करते रहे। इसके बाद वजीर का यश चारों ओर फैलने लगा और उन्होंने कई इलाकों पर विजय पाई। वजीर जोरावर सिंह प्रत्येक वर्ष बैसाखी के दिन महादेव मंदिर में शिवलिंग पर मक्खन का लेप कर पूजा-अर्चना में शामिल हुआ करते थे। महादेव मंदिर के शिवलिंग में आई दरार को आज भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
जुड़ी है कई चमत्कारी घटनाएं-स्थानीय महादेव मंदिर से जुड़ी कई चमत्कारी बातें सुनने को मिलती हैं। बताते है कि इस मंदिर के साथ स्थित पीपल के एक वृक्ष ने मंदिर को अपनी शाखाओं से लपेट रखा था। वृक्ष के गिरने से मंदिर को नुकसान पहुंचने की आशंका थी। अचरज की बात यह है कि एक सुबह लोग यह देख हैरान रह गए कि पीपल का वृक्ष मंदिर के समीप वाले सरोवर में ऐसे पड़ा था की मानों किसी ने बड़ी सावधानी से उठाकर उसे सरोवर में रख दिया हो।
लगभग तीन दशक पहले पुंछ के एक शिवभक्त ने मंदिर में कुछ मरम्मत कार्य कराया। उसके मन में विचार आया कि इस पवित्र शिवलिंग को उसकी सतह सहित उठा कर शिवलिंग को जमीन की सतह से कुछ ऊंचा किया जाए। इस विचार से उसने शिवलिंग के ईद-गिर्द खुदाई करानी शुरू कराई। लेकिन शिवलिंग की सतह का शायद कोई अंत नहीं था, इसलिए उसने अपना विचार छोड़कर खोदे गए स्थान को दोबारा भरवा दिया। करीब चार वर्ष पहले ग्राउंड वाटर विभाग द्वारा हैडपंप लगाने के लिए मंदिर के समीप मशीन से गहरी ड्रिलिंग की गई। इसके बाद भी पानी न मिलने से हताश कर्मियों ने जब लोगों की सलाह पर मंदिर में पूजा-अर्चना की तो थोड़े से प्रयास के बाद ही जमीन पानी निकल पड़ा। स्थानीय लोगों ने उस हैडपंप से निकलने वाले पानी को शिवगंगा नाम दिया। मंदिर के समीप स्थित कई बट वृक्ष भी लोगों के लिए पूज्यनीय है। स्थानीय लोगों का मानना है कि किसी भी कारणवश जब किसी बट वृक्ष की कोई टहनी टूटती है तो चंद रोज में ही इलाके में कोई न कोई स्वर्ग सिधार जाता है। लोगाें का यह भी कयास है कि यह स्थान योगी महात्माओं की तपोस्थली रही होगी। मंदिर के ईद-गिर्द कई योगी महात्माओं ने समाधियां ले रखी है। इसका अदभुत दृश्य कुछ वर्ष पहले तब देखने को मिला जब मंदिर को इसकी ख्याति के अनुसार बनाए जाने के लिए इसे श्राइन बोर्ड के अधीन कर दिया गया। बोर्ड द्वारा मंदिर का डीजानइन तैयार कर पीडब्ल्यूडी विभाग को इसके निर्माण का जिम्मा सौंपा गया। नए मंदिर का निर्माण शुरू हुआ तो मंदिर के इर्द-गिर्द हुई खुदाई में जमीन के भीतर बैठे हुए मुद्रा में योगी महात्माओं की कई समाधियां नजर आई। इसे वहां कई मुलाजिमों के अलावा अन्य लोगों ने भी देखा। उन्होंने कानों में बड़े-बड़े बावली कुंडल पहन रखे थे। उन समाधियों से बिना कोई छेड़छाड़ किए मंदिर के नींव व पिलर बनाने का काम पूरा कर लिया गया। लेकिन मंदिर के मुख्य द्वार के दाएं और बाएं के दो पिलर इसलिए नहीं बन पाए, क्योंकि वहां दो योगियों की समाधियां थी। इसलिए मंदिर के डिजाइन में हल्का फेरबदल कर वहां पिलर नहीं बनाए गए। उन दो समाधियों में एक की ऊपरी जमीन को कच्चा छोड़ दिया गया। वहां आज भी पूजा की जाती है ।
शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009
रुद्राक्ष क्या है ?
रुद्राक्ष एक फल की गुठली है। इसका उपयोग आध्यात्मिक क्षेत्र में किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि रुद्राक्ष की उत्पत्ति भगवान शंकर की आँखों के जलबिंदु से हुई है। इसे धारण करने से सकारात्मक ऊर्जा मिलती है। रुद्राक्ष शिव का वरदान है, जो संसार के भौतिक दु:खों को दूर करने के लिए प्रभु शंकर ने प्रकट किया है।रुद्राक्ष के नाम और उनका स्वरूप
एकमुखी रुद्राक्ष भगवान शिव, द्विमुखी श्री गौरी-शंकर, त्रिमुखी तेजोमय अग्नि, चतुर्थमुखी श्री पंचदेव, षष्ठमुखी भगवान कार्तिकेय, सप्तमुखी प्रभु अनंत, अष्टमुखी भगवान श्री गेणश, नवममुखी भगवती देवी दुर्गा, दसमुखी श्री हरि विष्णु, तेरहमुखी श्री इंद्र तथा चौदहमुखी स्वयं हनुमानजी का रूप माना जाता है। इसके अलावा श्री गणेश व गौरी-शंकर नाम के रुद्राक्ष भी होते हैं।
एकमुखी रुद्राक्ष- ऐसा रुद्राक्ष जिसमें एक ही आँख अथवा बिंदी हो। स्वयं शिव का स्वरूप है जो सभी प्रकार के सुख, मोक्ष और उन्नति प्रदान करता है।
द्विमुखी रुद्राक्ष- सभी प्रकार की कामनाओं को पूरा करने वाला तथा दांपत्य जीवन में सुख, शांति व तेज प्रदान करता है।
त्रिमुखी रुद्राक्ष- ऐश्वर्य प्रदान करने वाला होता है।
चतुर्थमुखी रुद्राक्ष- धर्म, अर्थ काम एवं मोक्ष प्रदान करने वाला होता है।
पंचमुखी रुद्राक्ष- सुख प्रदान करने वाला।
षष्ठमुखी रुद्राक्ष- पापों से मुक्ति एवं संतान देने वाला होता होता है।
सप्तमुखी रुद्राक्ष- दरिद्रता को दूर करने वाला होता है।
अष्टमुखी रुद्राक्ष- आयु एवं सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करने वाला होता है।
नवममुखी रुद्राक्ष- मृत्यु के डर से मुक्त करने वाला होता है।
दसमुखी रुद्राक्ष- शांति एवं सौंदर्य प्रदान करने वाला होता है।
ग्यारह मुखी रुद्राक्ष- विजय दिलाने वाला, ज्ञान एवं भक्ति प्रदान करने वाला होता है।
बारह मुखी रुद्राक्ष- धन प्राप्ति कराता है।
तेरह मुखी रुद्राक्ष- शुभ व लाभ प्रदान कराने वाला होता है।
चौदह मुखी रुद्राक्ष- संपूर्ण पापों को नष्ट करने वाला होता है।
एकमुखी रुद्राक्ष भगवान शिव, द्विमुखी श्री गौरी-शंकर, त्रिमुखी तेजोमय अग्नि, चतुर्थमुखी श्री पंचदेव, षष्ठमुखी भगवान कार्तिकेय, सप्तमुखी प्रभु अनंत, अष्टमुखी भगवान श्री गेणश, नवममुखी भगवती देवी दुर्गा, दसमुखी श्री हरि विष्णु, तेरहमुखी श्री इंद्र तथा चौदहमुखी स्वयं हनुमानजी का रूप माना जाता है। इसके अलावा श्री गणेश व गौरी-शंकर नाम के रुद्राक्ष भी होते हैं।
एकमुखी रुद्राक्ष- ऐसा रुद्राक्ष जिसमें एक ही आँख अथवा बिंदी हो। स्वयं शिव का स्वरूप है जो सभी प्रकार के सुख, मोक्ष और उन्नति प्रदान करता है।
द्विमुखी रुद्राक्ष- सभी प्रकार की कामनाओं को पूरा करने वाला तथा दांपत्य जीवन में सुख, शांति व तेज प्रदान करता है।
त्रिमुखी रुद्राक्ष- ऐश्वर्य प्रदान करने वाला होता है।
चतुर्थमुखी रुद्राक्ष- धर्म, अर्थ काम एवं मोक्ष प्रदान करने वाला होता है।
पंचमुखी रुद्राक्ष- सुख प्रदान करने वाला।
षष्ठमुखी रुद्राक्ष- पापों से मुक्ति एवं संतान देने वाला होता होता है।
सप्तमुखी रुद्राक्ष- दरिद्रता को दूर करने वाला होता है।
अष्टमुखी रुद्राक्ष- आयु एवं सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करने वाला होता है।
नवममुखी रुद्राक्ष- मृत्यु के डर से मुक्त करने वाला होता है।
दसमुखी रुद्राक्ष- शांति एवं सौंदर्य प्रदान करने वाला होता है।
ग्यारह मुखी रुद्राक्ष- विजय दिलाने वाला, ज्ञान एवं भक्ति प्रदान करने वाला होता है।
बारह मुखी रुद्राक्ष- धन प्राप्ति कराता है।
तेरह मुखी रुद्राक्ष- शुभ व लाभ प्रदान कराने वाला होता है।
चौदह मुखी रुद्राक्ष- संपूर्ण पापों को नष्ट करने वाला होता है।
रविवार, 15 फ़रवरी 2009
नम: शिवाय
महाशिवरात्रि पर विशेषशिव का बीज अक्षर है ‘न’। यह अक्षर शिव की शक्ति ने उन्हें दिया। शिव से शक्ति को निकाल दो, वह शव हो जाएंगे। न चल पाएंगे, न बोल पाएंगे। उसी शक्ति ने संसार को ‘नम: शिवाय’ का मंत्र दिया, जिसका अर्थ है-जो कल्याणकारी है, उसको नमस्कार..
शिव की अर्धनारीश्वर लीला की कथा बड़ी दिलचस्प है। संक्षेप में कथा पढ़ें- ब्रrा सृष्टि की उत्पत्ति के तमाम प्रयास कर रहे हैं, लेकिन सृष्टि बढ़ नहीं रही। वह अपने मानसपुत्रों के ज़रिए सृष्टि बढ़ाना चाहते हैं। निष्फल होकर वह शिव की आराधना करते हैं। शिव उन्हें सृष्टि का प्रसार पुरुष और प्रकृति दो तत्वों से करने को कहते हैं। तब तक स्त्री बनी ही नहीं थी। ब्रrा को परेशान देखकर शिव स्वयं को ऐसे शरीर में बदल देते हैं, जो आधा पुरुष और आधा स्त्री का है। वह स्त्री अपने तीसरे नेत्र से सृष्टि की पहली स्त्री को प्रकट करती है। ब्रrा अपने मानस से मनु-शतरूपा को पैदा करते हैं। इस तरह सृष्टि चल पड़ती है।
शिव के साथ जो स्त्री देह है, वह शक्ति की है। शिव की शक्ति। आदिशक्ति शिवा उस समय शिव के पास ही बैठी थीं, लेकिन शिव ने अपनी एक और अव्यक्त शक्ति को अपने शरीर से प्रकट किया। वह अव्यक्त शक्ति ही प्रकट रूप में स्त्री बनी। वही सती है, पार्वती है, चंडी है। शिव के पास अनगिनत शक्तियां हैं। अव्यक्त स्वरूप में सब अलग-अलग लगती हैं, लेकिन व्यक्त स्वरूप में सब पार्वती ही हैं।
हर शक्ति जब प्रकट होगी, तो वह पार्वती का ही रूप लेगी। अर्धनारीश्वर लीला के अनुसार शिव ने सृष्टि को पहली स्त्री दी। इस प्रकार संसार की जितनी भी स्त्रियां हैं, वे एक तरह से शिव की शक्ति पार्वती का ही रूप हैं। उन्हीं का अंश हैं। यदि मातृका वंश चलता होता, तो सारी स्त्रियों को पार्वती कुल का कहा जाएगा।
सांख्य शास्त्र के अनुसार शिव निष्क्रिय तत्व हैं। प्रकृति यानी शक्ति सक्रिय है। शिव से उनकी शक्ति को निकाल दिया जाए, तो शिव, शव के समान हो जाएंगे। चूंकि उनका मूल भाव निष्क्रियता का है, अत: शक्ति के बिना वह हिल भी नहीं सकते। जब हम बहुत साधारण रूप में यह कहते हैं कि आज तो हिलने की भी शक्ति नहीं बची हममें, तो दरअसल हम शिव और शक्ति के मेल से बने मुहावरे का प्रयोग करते हैं।
शिव की एक-एक क्रिया शक्ति से संचालित है। उठना, बैठना, सोचना, चलना और लड़ना आदि। अगर शक्ति न हो, तो शिव इनमें से कुछ नहीं कर सकेंगे। यानी पार्वती का उनके साथ रहना बहुत ज़रूरी है।
आपको शिव कभी अकेले नहीं दिखेंगे, किसी तस्वीर में भी नहीं। लिंग-रूप में भी उनके साथ पार्वती यानी शक्ति मौजूद हैं। लिंग के आधार के रूप में। जिन तस्वीरों में शिव अकेले खड़े हैं, उनमें उनके वस्त्र, अस्त्र व जटा से निकलती गंगा की धार दिखती है। यह भी उनकी शक्ति ही है। शिव की व्यक्त यानी प्रकट शक्ति है पार्वती और अव्यक्त शक्तियां हैं ये सब। तो सवाल यह उठता है कि जिस समय सती के टुकड़े-टुकड़े हो गए थे और पार्वती अभी अपने पिता के यहां जन्मी ही थीं, तब से लेकर पार्वती से शिव के विवाह के समय क्या शिव निष्क्रिय हो गए थे?
शिव की शक्ति को अधूरा समझें, तो हां कहेंगे, पर ऐसा है नहीं। सती या पार्वती शिव की व्यक्त शक्ति थीं। जब वे दोनों उनके साथ नहीं थीं, तब भी आदिशक्ति शिवा के रूप में वे शिव के शरीर में ही समाई हुई थीं। उतना पूरा समय शिव ने श्रीराम, जिनका आगे चलकर अवतार होना था, की तपस्या में बिताया। वह योगनिद्रा में चले गए। योगनिद्रा भी शिव की शक्ति ही है। योग या योग की विद्या भी शिव ने ही रची है। शिव से शक्ति को अलग कर पाना उतना ही असंभव है, जितना पानी के भीतर से हवा को निकाल देना।
हवा, पानी के भीतर भी रहती है, प्राणवायु के रूप में, तभी तो मछलियां ज़िंदा रहती हैं। जैसे सूर्य से उसकी किरणों भिन्न नहीं है, जैसे बीज से अंकुर भिन्न नहीं होता, वैसे ही शक्तिमान शिव से शक्ति भिन्न नहीं। यह तो साधक की आस्था होती है कि किसकी ओर •यादा झुके। कुछ बच्चे मां से •यादा निकटता रखते हैं, तो कुछ पिता से। जबकि दोनों के प्रेम और महत्व में कोई भिन्नता नहीं।
शिव अपनी शक्ति की आराधना करते हैं और शक्ति शिव की। ये परस्पर पूरक हैं। एक को हटाकर दूसरे को नहीं देखा जा सकता। शिव ‘न’ कार है। यानी ‘न’ अक्षर उनका बीज है। यह बीजाक्षर उनकी शक्ति ने ही हुंकारा था। उसी से पंचाक्षर मंत्र ‘नम: शिवाय’ की उत्पत्ति हुई थी। पार्वती शिव की प्रेरणा शक्ति हैं।
शिव ने सृष्टि के कई रहस्यों पर से परदा पार्वती के कहने पर ही उठाया। उन्हीं के अनुरोध पर शिव ने अनेक मंत्रों, तंत्रों, पुराणों को लिखवाया, सुनाया। अमरकथा, जिसके सुनने से मोक्ष की प्राप्ति कहा जाता है, पहली बार शिव ने पार्वती को ही सुनाई थी। आम शब्दों में कहें, तो शिव की जान पार्वती में बसती है और पार्वती की शिव में।
पार्वती के प्रेम की एक कथा है। जब पार्वती भगवान शिव को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तप कर रही थीं, तो एक संन्यासी वहां आया। उसने शिव की वेशभूषा, जीवनशैली की निंदा की और पार्वती से विष्णु को पति रूप में धारण करने का आग्रह किया। पार्वती क्रोधित हो गई और उन्होंने संन्यासी को बहुत फटकारा। कहा, जिससे प्रेम हो जाए, जिसमें मन रम जाए, उसके अवगुण नहीं देखा करते। प्रेम उन्हीं अवगुणों को गुण बना देता है। गोस्वामी तुलसीदास ने इसे यूं लिखा है-
महादेव अवगुन भवन बिष्नु सकल गुन धाम।जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम।
पार्वती ने यहां तक कह दिया-
जनम कोटि लगि रगर हमारी। बरउं संभु न त रहउं कुंआरी।
यानी भले करोडों जन्म लेने पड़ जाएं, शादी तो शिव से ही करूं गी, नहीं तो कुंआरी ही रहूंगी। यह सुनकर संन्यासी अपने असली रूप में आ गए। वे सप्तर्षि थे। शिव-पार्वती की जोड़ी को आदर्श पति-पत्नी के रूप में देखा जाता है। समर्पण का ऐसा उदाहरण और कहीं नहीं मिलता। पार्वती के पति परमेश्वर हैं, इसलिए ‘पति परमेश्वर’ शब्द बना। विदाई के समय पार्वती की मां मैना ने उनसे कहा।
करेहु सदा संकर पद पूजा। नारि धरमु पति देउ न दूजा।
तुलसी ने रामचरितमानस में इस प्रकरण को लिखा है। पार्वती से कहा गया-हमेशा शंकर के पद की पूजा करना। नारीधर्म के अनुसार पति से बड़ा देव कोई दूसरा नहीं है।
शिवपुराण के अनुसार, नारीधर्म की स्थापना पार्वती ने ही की। पत्नी के क्या धर्म होते हैं, क्या कत्र्तव्य, क्या आकांक्षा और क्या देय - यह पार्वती ने ही बताया है। दरअसल, शंकर पार्वती की सेवा से बहुत विचलित हो गए थे। उनकी जीवन शैली को पार्वती ने व्यवस्थित कर दिया था, लेकिन ख़ुद हमेशा खटती रहती थीं।
व्यथित होकर शंकर ने उनसे प्रश्न किया कि आख़िर पत्नीधर्म क्या है? क्यों तुम मेरी इतनी सेवा करती हो? तब पवित्र नदी गंगा के सामने पार्वती ने यह पत्नीधर्म बताया। साथ ही यह भी कहा कि संकट के समय यदि कोई भी नम: शिवाय का स्मरण करे, तो शिव के साथ स्वयं पार्वती भी उसकी रक्षा के लिए आती हैं।
शिव की अर्धनारीश्वर लीला की कथा बड़ी दिलचस्प है। संक्षेप में कथा पढ़ें- ब्रrा सृष्टि की उत्पत्ति के तमाम प्रयास कर रहे हैं, लेकिन सृष्टि बढ़ नहीं रही। वह अपने मानसपुत्रों के ज़रिए सृष्टि बढ़ाना चाहते हैं। निष्फल होकर वह शिव की आराधना करते हैं। शिव उन्हें सृष्टि का प्रसार पुरुष और प्रकृति दो तत्वों से करने को कहते हैं। तब तक स्त्री बनी ही नहीं थी। ब्रrा को परेशान देखकर शिव स्वयं को ऐसे शरीर में बदल देते हैं, जो आधा पुरुष और आधा स्त्री का है। वह स्त्री अपने तीसरे नेत्र से सृष्टि की पहली स्त्री को प्रकट करती है। ब्रrा अपने मानस से मनु-शतरूपा को पैदा करते हैं। इस तरह सृष्टि चल पड़ती है।
शिव के साथ जो स्त्री देह है, वह शक्ति की है। शिव की शक्ति। आदिशक्ति शिवा उस समय शिव के पास ही बैठी थीं, लेकिन शिव ने अपनी एक और अव्यक्त शक्ति को अपने शरीर से प्रकट किया। वह अव्यक्त शक्ति ही प्रकट रूप में स्त्री बनी। वही सती है, पार्वती है, चंडी है। शिव के पास अनगिनत शक्तियां हैं। अव्यक्त स्वरूप में सब अलग-अलग लगती हैं, लेकिन व्यक्त स्वरूप में सब पार्वती ही हैं।
हर शक्ति जब प्रकट होगी, तो वह पार्वती का ही रूप लेगी। अर्धनारीश्वर लीला के अनुसार शिव ने सृष्टि को पहली स्त्री दी। इस प्रकार संसार की जितनी भी स्त्रियां हैं, वे एक तरह से शिव की शक्ति पार्वती का ही रूप हैं। उन्हीं का अंश हैं। यदि मातृका वंश चलता होता, तो सारी स्त्रियों को पार्वती कुल का कहा जाएगा।
सांख्य शास्त्र के अनुसार शिव निष्क्रिय तत्व हैं। प्रकृति यानी शक्ति सक्रिय है। शिव से उनकी शक्ति को निकाल दिया जाए, तो शिव, शव के समान हो जाएंगे। चूंकि उनका मूल भाव निष्क्रियता का है, अत: शक्ति के बिना वह हिल भी नहीं सकते। जब हम बहुत साधारण रूप में यह कहते हैं कि आज तो हिलने की भी शक्ति नहीं बची हममें, तो दरअसल हम शिव और शक्ति के मेल से बने मुहावरे का प्रयोग करते हैं।
शिव की एक-एक क्रिया शक्ति से संचालित है। उठना, बैठना, सोचना, चलना और लड़ना आदि। अगर शक्ति न हो, तो शिव इनमें से कुछ नहीं कर सकेंगे। यानी पार्वती का उनके साथ रहना बहुत ज़रूरी है।
आपको शिव कभी अकेले नहीं दिखेंगे, किसी तस्वीर में भी नहीं। लिंग-रूप में भी उनके साथ पार्वती यानी शक्ति मौजूद हैं। लिंग के आधार के रूप में। जिन तस्वीरों में शिव अकेले खड़े हैं, उनमें उनके वस्त्र, अस्त्र व जटा से निकलती गंगा की धार दिखती है। यह भी उनकी शक्ति ही है। शिव की व्यक्त यानी प्रकट शक्ति है पार्वती और अव्यक्त शक्तियां हैं ये सब। तो सवाल यह उठता है कि जिस समय सती के टुकड़े-टुकड़े हो गए थे और पार्वती अभी अपने पिता के यहां जन्मी ही थीं, तब से लेकर पार्वती से शिव के विवाह के समय क्या शिव निष्क्रिय हो गए थे?
शिव की शक्ति को अधूरा समझें, तो हां कहेंगे, पर ऐसा है नहीं। सती या पार्वती शिव की व्यक्त शक्ति थीं। जब वे दोनों उनके साथ नहीं थीं, तब भी आदिशक्ति शिवा के रूप में वे शिव के शरीर में ही समाई हुई थीं। उतना पूरा समय शिव ने श्रीराम, जिनका आगे चलकर अवतार होना था, की तपस्या में बिताया। वह योगनिद्रा में चले गए। योगनिद्रा भी शिव की शक्ति ही है। योग या योग की विद्या भी शिव ने ही रची है। शिव से शक्ति को अलग कर पाना उतना ही असंभव है, जितना पानी के भीतर से हवा को निकाल देना।
हवा, पानी के भीतर भी रहती है, प्राणवायु के रूप में, तभी तो मछलियां ज़िंदा रहती हैं। जैसे सूर्य से उसकी किरणों भिन्न नहीं है, जैसे बीज से अंकुर भिन्न नहीं होता, वैसे ही शक्तिमान शिव से शक्ति भिन्न नहीं। यह तो साधक की आस्था होती है कि किसकी ओर •यादा झुके। कुछ बच्चे मां से •यादा निकटता रखते हैं, तो कुछ पिता से। जबकि दोनों के प्रेम और महत्व में कोई भिन्नता नहीं।
शिव अपनी शक्ति की आराधना करते हैं और शक्ति शिव की। ये परस्पर पूरक हैं। एक को हटाकर दूसरे को नहीं देखा जा सकता। शिव ‘न’ कार है। यानी ‘न’ अक्षर उनका बीज है। यह बीजाक्षर उनकी शक्ति ने ही हुंकारा था। उसी से पंचाक्षर मंत्र ‘नम: शिवाय’ की उत्पत्ति हुई थी। पार्वती शिव की प्रेरणा शक्ति हैं।
शिव ने सृष्टि के कई रहस्यों पर से परदा पार्वती के कहने पर ही उठाया। उन्हीं के अनुरोध पर शिव ने अनेक मंत्रों, तंत्रों, पुराणों को लिखवाया, सुनाया। अमरकथा, जिसके सुनने से मोक्ष की प्राप्ति कहा जाता है, पहली बार शिव ने पार्वती को ही सुनाई थी। आम शब्दों में कहें, तो शिव की जान पार्वती में बसती है और पार्वती की शिव में।
पार्वती के प्रेम की एक कथा है। जब पार्वती भगवान शिव को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तप कर रही थीं, तो एक संन्यासी वहां आया। उसने शिव की वेशभूषा, जीवनशैली की निंदा की और पार्वती से विष्णु को पति रूप में धारण करने का आग्रह किया। पार्वती क्रोधित हो गई और उन्होंने संन्यासी को बहुत फटकारा। कहा, जिससे प्रेम हो जाए, जिसमें मन रम जाए, उसके अवगुण नहीं देखा करते। प्रेम उन्हीं अवगुणों को गुण बना देता है। गोस्वामी तुलसीदास ने इसे यूं लिखा है-
महादेव अवगुन भवन बिष्नु सकल गुन धाम।जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम।
पार्वती ने यहां तक कह दिया-
जनम कोटि लगि रगर हमारी। बरउं संभु न त रहउं कुंआरी।
यानी भले करोडों जन्म लेने पड़ जाएं, शादी तो शिव से ही करूं गी, नहीं तो कुंआरी ही रहूंगी। यह सुनकर संन्यासी अपने असली रूप में आ गए। वे सप्तर्षि थे। शिव-पार्वती की जोड़ी को आदर्श पति-पत्नी के रूप में देखा जाता है। समर्पण का ऐसा उदाहरण और कहीं नहीं मिलता। पार्वती के पति परमेश्वर हैं, इसलिए ‘पति परमेश्वर’ शब्द बना। विदाई के समय पार्वती की मां मैना ने उनसे कहा।
करेहु सदा संकर पद पूजा। नारि धरमु पति देउ न दूजा।
तुलसी ने रामचरितमानस में इस प्रकरण को लिखा है। पार्वती से कहा गया-हमेशा शंकर के पद की पूजा करना। नारीधर्म के अनुसार पति से बड़ा देव कोई दूसरा नहीं है।
शिवपुराण के अनुसार, नारीधर्म की स्थापना पार्वती ने ही की। पत्नी के क्या धर्म होते हैं, क्या कत्र्तव्य, क्या आकांक्षा और क्या देय - यह पार्वती ने ही बताया है। दरअसल, शंकर पार्वती की सेवा से बहुत विचलित हो गए थे। उनकी जीवन शैली को पार्वती ने व्यवस्थित कर दिया था, लेकिन ख़ुद हमेशा खटती रहती थीं।
व्यथित होकर शंकर ने उनसे प्रश्न किया कि आख़िर पत्नीधर्म क्या है? क्यों तुम मेरी इतनी सेवा करती हो? तब पवित्र नदी गंगा के सामने पार्वती ने यह पत्नीधर्म बताया। साथ ही यह भी कहा कि संकट के समय यदि कोई भी नम: शिवाय का स्मरण करे, तो शिव के साथ स्वयं पार्वती भी उसकी रक्षा के लिए आती हैं।
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